06 मई 2008
बुश साहब, आपकी नीतियों पर चलने के बाद खाने को बचा कहां?
पेट काट कर जी रहे हैं भारतीय
मदन जैड़ा की आंकडों के साथ जुटाई गयी यह रिपोर्ट हम प्रकाशित कर रहे है साथ में ढेर सारे फोटो बुश साहब और उनके नुमाइंदों के लिये जो मानते हैं कि भारत के लोग पेटू हैं.....
अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डब्लू. बुश भले ही भारतीयों को पेटू कहें और तर्क देते रहे हैं कि आय में इजाफे के कारण भारतीय ज्यादा खा रहे हैं लेकिन यह हकीकत नहीं है। वास्तव में भारतीय कम खा रहे हैं। कारण यह है कि गरीब तबके को तो भरपेट भोजन नसीब नहीं है और मध्य वर्ग का खर्च चिकित्सा, ईंधन और शिक्षा पर बढ़ रहा है। संभवत: इसके चलते ही देश में खानपान संबंधी व्यय में कमी हुई है। राष्ट्रीय नमूना सवेüक्षण संगठन (एनएसएसओ) के अनुसार वर्ष 2005-06 के दौरान देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत और प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय में खाने-पीने पर किए जाने वाले खर्च में कमी आई है। दरअसल, 90 के दशक में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद वैश्वीकरण की जो आंधी चली है, उसमें लोगों की आय का ज्यादातर हिस्सा खाने के बजाय अन्य मदों में खर्च होने लगा है।
कमी का यह दौर आगे भी जारी रहा
एनएसएसओ के 1993, 2004 तथा 2006 के सवेüक्षणों पर नजर डालें तो देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत में कमी आई है। 1993-94 में गांवों में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह अनाज की खपत 13.4 किलोग्राम थी और शहर में 12.1 किलोग्राम। लेकिन 2004-05 में यह घटकर क्रमश: 12.1 किलोग्राम तथा 9.9 किलोग्राम रह गई। कमी का यह दौर आगे भी जारी रहा। ताजा सवेüक्षण 2006 में किया गया है जिसके आंकड़े हाल में आए हैं। तब पाया गया कि गांव में अनाज की प्रति व्यक्ति मासिक खपत पुन: घटकर 11.9 तथा शहर में 9.8 किलोग्राम रह गई। यानी पिछले 12-13 सालों में प्रति व्यक्ति अनाज की मासिक खपत में गांवों में 1.5 किलोग्राम और शहरों में 2.3 किलोग्राम की कमी आई है।
आंकड़े इस बात की पुष्टि नहीं करते
यदि भारतीय अनाज कम इस्तेमाल कर रहे हैं तो क्या इसका मतलब यह है कि वह बिस्कुट या अन्य फास्टफूड खाने लगे हैं ? एनएसएसओ के आंकड़े इस बात की पुष्टि नहीं करते। कारण यह है कि नागरिकों के कुल उपभोक्ता व्यय में खान-पान के मद में होने वाले खर्च में भी कमी दर्ज की गई है। इस बात को इन आंकड़ों से समझा जा सकता है। 1972-73 में ग्रामीण नागरिक अपने कुल उपभोक्ता व्यय का 73 फीसदी और शहरी 64 फीसदी खान-पान पर खर्च करता था। लेकिन 1993-94 में यह प्रतिशत घटकर क्रमश: 63 और 54 पर आ गया और अब यह और कम होकर 55 और 42 फीसदी ही रह गया है। ऐसे में यह कहना सरकार अनुचित है कि भारतीय ज्यादा खा रहे हैं।
प्रतिदिन 2047 किलो कैलोरी ही उपलब्ध
यदि कैलोरी के नजरिये से देखें तो 1993-94 में प्रति ग्रामीण रोजाना 2153 किलो कैलोरी भोजन से ग्रहण करता था। लेकिन अब इसमें 106 कैलोरी (4.9 फीसदी) की कमी आई है और उसे प्रतिदिन 2047 किलो कैलोरी ही उपलब्ध है। इसी प्रकार शहरों में इसमें 51 किलो कैलोरी (2.5 फीसदी) की कमी आई है। शहरी 2071 की बजाय 2020 किलो कैलोरी ही ग्रहण कर रहे हैं।
आंकड़े कहते हैं कि बुश साहब गलत फरमा रहे हैं
- 19 फीसदी ग्रामीण आबादी यानी 14 करोड़ लोगों का मासिक उपभोक्ता व्यय 365 रुपये या इससे कम है। इसका मतलब है प्रति व्यक्ति रोजाना 12 रुपये में गुजारा करते हैं।
-22 फीसदी शहरी यानी 17 करोड़ लोग 580 रुपये मासिक यानी 19 रुपये प्रति व्यक्ति रोजाना में गुजारा करता है।
-ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति मासिक उपभोक्ता व्यय 625 और शहरों में 1171 रुपये ही है।
-कम आय के कारण गांवों में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह भोजन पर 251-400 रुपये ही खर्च कर पाता है जबकि शहरों में यह कुछ ज्यादा 451-500 रुपये है।
-ग्रामीण क्षेत्रों में रोजाना प्रोटीन सेवन 60.2 ग्राम से घटकर 57 ग्राम रह गया है जबकि शहरी आबादी में यह प्रतिशत 57 ग्राम पर स्थिर रहा।
-वैज्ञानिक शोध कहते हैं कि प्रति व्यक्ति रोजाना 2700 किलो कैलोरी की जरूरत होती है। लेकिन 66 फीसदी ग्रामीण और 70 फीसदी शहरी लोगों को प्रतिदिन 2700 किलो कैलोरी नहीं मिल पाती है।
किस मद में बढ़ रहा है उपभोक्ता व्यय ?
-इंüधन और प्रकाश पर उपभोक्ता व्यय 6 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत हो गया है।
-कपड़े बिस्तर और जूतों पर व्यय 5 फीसदी।
-चिकित्सा पर गांवों 7 फीसदी और शहरों में 5 फीसदी।
-शिक्षा पर गांवों में 3 फीसदी और शहरों में 5 फीसदी।
-परिवहन पर गांवों में 4 तथा शहरों में 7 फीसदी व्यय।
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