28 मई 2008

डुगडुगी बजा कर बंदर का तमाशा दिखाना नहीं है पत्रकारिता

राजेंद्र यादव
वरिष्ठ साहित्यकार

सच तो यह है कि आज फैक्ट और फिक्शन में कोई फर्क नहीं रह गया है और हम एक आभासी दुनिया में पहुंचा दिये गये हैं... अनायास ही इर्विन वैलेस का उपन्यास 'ऑल माइटी' याद आता है, जहां अपराध और राजनीति धडल्ले से एक-दूसरे की जगह ले रहे हैं. उपन्यास ऐसे मालिक संपादक की कहानी है, जो अपराधी दुनिया के संपर्कों के सहारे किसी भी बडे अपराध की कहानी सबसे पहले छाप कर सनसनी फैला देता है. उसके पत्र का सर्कुलेशन अंधाधुंध आसमान छूने लगता है, मगर पत्रकारिता की यह सत्ता भूख यहीं नहीं रूकती. अपराधों की रिपोर्टिंग उसे उस जगह ले आती है, जहां वह स्वयं अपराध कराता और फिर स्वयं सबसे प्रामाणिक सूचनाओं के आधार पर समाचार तैयार कर देता है. वह इन्वेस्टिगेटिव पत्रकारिता का बादशाह है.
हालिया दिनों के दंगे भडकाने से लेकर लगभग हत्याओं तक बीसियों उदाहरण हैं, जब किसी चैनल ने स्वयं अपराध की योजना बनायी है और उसके रोमांचक दृश्य दिखाये हैं. मानव जीवन के प्रति क्रूरता की अद्भुत प्रयोगशालाएं बना दिया गया है इन चैनलों को...
सीमाओं का उल्लंघन वहां होने लगता है, जब मीडिया अपराध की तफ्तीश ही नहीं करता, स्वयं मुकदमा चला कर सजाएं भी सुनाने लगता है. शायद यह सामाजिक जिम्मेदारियों या न्याय दिलाने के लिए किया जानेवाला अतिरिक्त एक्टिविज्म है. चूंकि हमारा मीडिया अभी अपनी पहचान बनाने की संक्रांति-काल से गुजर रहा है, इसलिए ऐसे सवालों पर बहसें निरंतर जारी है. जैसे किसी की निजी जिंदगी के साथ कितना खिलवाड किया जा सकता है. हरेक को टीआरपी चाहिए ताकि विज्ञापन बटोरने में वह नंबर वन बन सके...
अजीब तर्क है कि जनता यही चाहती है- यह तर्क हम फिल्मों में पिछले अनेक दशकों से सुन रहे हैं. यह सामाजिक जिम्मेदारी से हाथ झाडने का दर्शन है. कब दर्शकों ने शिष्टमंडल बना कर सिनेमाघरों या टीवी केंद्रों के सामने प्रदर्शन किये कि उन्हें ऐसे ही प्रोग्राम चाहिए...मगर फिल्मों और चैनलों में फर्क है... वहां वैकल्पिक फिल्में हैं, यहां चैनलों में अलग नामों के अलावा बहुत विकल्प नहीं है- १९-२० के साथ सभी एक जैसे हैं. जो हैं वे हिस्ट्री, डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफी या बीबीसी जैसे विदेशी चैनल हैं.
टीआरपी की यह मारकाट अंगरेजी चैनलों में शायद इसलिए भी नहीं है कि वहां दर्शक करोडों में नहीं होते, इसलिए वहां अपनी विश्वसनीयता बनाने के लिए गंभीर और प्रामाणिक प्रोग्राम दिये जा सकते हैं.
'जनता जो चाहती है. हम वही दिखाते हैं.' चैनल हेड कहते हैं कि हमारा काम जनता की रूचि को भुनाना है, निर्माण करना नहीं. क्रियेट करना न हमारा लक्ष्य है, न हमें इसकी जरूरत है. उपभोक्ताओं को आप अपनी बिक्री के लिए तैयार करें, और बाकी प्रोग्रामों के लिए 'जनता यही मांगती है का तर्क देंङ्क्ष यह डुगडुगी बजा कर बंदर तमाशा दिखाने के बाद ताकत की गोलियां बेचने का हथकंडा नहीं है.
(साभार :- 'हंस-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विशेषांक' में प्रकाशित आलेख का संपादित अंश)

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