24 मई 2008

शक्ल ठीक मतलब नहीं कि अक्ल बुरी:-

मीडिया बहस की तीसरी कड़ी में शजिया इल्मी के ये विचार प्रकाशित किये जा रहे हैं

जामिया मीलिया के मशहूर मास कम्युनिकेशन सेंटर से डिग्री लेने के बाद जब मैं इस मीडिया में आयी थी, तो पहला इंप्रेशन यही था कि इस मीडिया में बहुत से लोग ऐसे हैं, जो लडकियों से करीब होने के लिए या उन्हें अपने करीब खींचने के लिए तरह-तरह के हथकंडे इस्तेमाल करते हैं. कई लोग तो प्यार जताने से लेकर धौंस देने तक से बाज नहीं आते. उनकी मानसिकता और नजरें हमेशा गंदी होती हैं. ऐसे लोग किसी भी चैनल या अखबार में हो सकते हैं. या कहें, समाज के किसी भी हिस्से में हो सकते हैं.
अब, एक लंबे संघर्ष के बाद एंकर हू. ज्यादातर जगहों पर काम करने के कुछ ही दिनों बाद मेरी सोच मेरी तरक्की की आडे आयी और मेरी खुारी कई बार परेशानी का सबब बनी. एक महिला होने के नाते मुझे अपनी काबिलियत साबित करने के लिए ज्यादा मशक्कत करनी पडी.
मैं नाम नहीं ले सकती, लेकिन मुझे शुरुआती सालों में ही न्यूज इंडस्ट्री में बहुत से लोग ऐसे मिलें, जिनके इरादे ठीक नहीं थे. मैं आज अगर नाम ले लूं तो टीवी पर बडी-बडी बातें करनेवाले लोग भी ओछे और छोटे नजर आयेंगे.
कई बार मैं उन लडकियों को भी कसूरवार मानती हूं जो सफलता की सीढी चढने के लिए कुछ भी करने को तैयार होती हैं. एक बात तो तय है कि अगर कोई लडकी समझौते नहीं करना चाहती तो उसे कोई झुका नहीं सकता. उसकी तरक्की के रास्ते में रोडे जरूर अटका सकता है.
यह काफी हद तक सही है कि एक लडकी होने के नाते आपकी शक्ल ज्यादा मायने रखती है, बनिस्पत आपकी अक्ल के.
'ये ठीक-ठाक है टीवी पर अच्छी दिखेगी...' ट्रेनिज को रखने से पहले इंटरव्यू राउंड में यह ख्याल कई बार सीनियर्स के मन में आता होगा. कई बार मॉडल टाइप की लडकियां सिर्फ अपने लुक्स के आधार पर रख ली जाती होंगी. यह टीवी का सच है. कई बार लडकियां न्यूज रूम की शोभा बढाने के लिए एक शो पीस की तरह सजा दी जाती हैं.
सभी चैनलों में ऐसे कई सीनियर्स होते हैं जो संपादकीय कामों के लिए अपने पुरुष सहयोगियों से बात करेंगे, लेकिन काम-काज के बीच हल्की बातचीत या कहें चकल्लस के लिए, मन बहलाने के लिए इन कमसिन प्यारी लडकियों की तलाश करेंगे. कई लडकियों ने इसे भांप लिया है और इसका भरपूर इस्तेमाल भी करती हैं. करें भी क्यों ना. उनके अपने लटके-झटके, उनका इतराना और उनका तौर-तरीका, उनको आगे बढाने में इतने कारगर साबित होते हैं, जो जर्नलिज्म की अव्वल से अव्वल डिग्री भी नहीं हो सकती. कुछ लडकियों को लगता है कि पढने-लिखने, राजनीति या सामाजिक मुों की समझ बढाने से से कहीं आसान तरीका है, बॉस के इगो को सहलाना. लेकिन मेल इगो को खुश करना सब लडकियों की मंशा नहीं होती. बहुत सी लडकियां, जिनका सोचने का नजरिया स्वतंत्र है, मेल इगो को सहलाना तो दूर उनका चुनौती देना चाहती हैं. एक और बात, शक्ल ठीक-ठाक है, इसका मतलब यह नहीं कि अक्ल की कमी है या फिर खूबसूरत नहीं होने का मतलब नहीं कि अक्ल और समझ ज्यादा है. मैं समझती हूं कई चैनलों में न जाने कितनी ऐसी लडकियां होंगी जो उन चैनल के पुरुषों से कम प्रतिभाशाली नहीं होंगी लेकिन कई बार उन्हें मौका भी नहीं मिलता अपने को साबित करने का. पिं्रट में दर्जनों ऐसी महिला पत्रकार हैं जिनकी खबरों पर हंगामा मचता है. तो बात मौका देने की भी है. मेरी सहानुभूति उन लडकों से है जो सिर्फ इस वजह से बहुत आगे नहीं बढ पाये क्योंकि वे लडकी नहीं है.
(आलेख 'हंस' पत्रिका से साभार)

1 टिप्पणी:

  1. शुक्रिया पिछले दो दिनों मे अलग ब्लोग्स पर ये मुद्दा उठा था ओर आपने उसे सही साबित किया है ...पर कही न कही मीडिया को ही अपना आत्म विश्लेषण करना है क्यूंकि अब हिन्दुतान का मीडिया शैशव अवस्था मे नही रहा है .....पर अगर ओर खुल कर बिंदास होकर अपने मन की बात लिखती तो अच्छा लगता......

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