23 अक्टूबर 2008

मनसे की राजनीति वर्तमान संसदवादी गलियारे की एक खिड़की है:-


दिनों दिन विस्फोटों की संख्या बढ़ती जा रही है आतंकवादियों के नाम पर मुस्लिमों को पकडा़ जा रहा है सिमी के कार्यकर्ताओं को पकडा़ जा रहा है जिस पर पिछले छः साल से प्रतिबंध लगा है जब्कि अब तक सिमि पर एक भी जुर्म साबित नहीं हो पाया है उडी़सा में हिन्दूओं द्वारा इसाईयों पर हमले केरल की सबसे पुरानी चर्च में तोड़-फोड़ पिछले दो माह से महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रांतवाद और भाषावाद के आधार पर उत्तर भारतीयों की पिटाई, राज ठाकरे की गिरफ्तारी और उसके फलस्वरूप महाराष्ट्र में उग्र प्रदर्शन ये महज कुछ घटनायें नहीं है जो मनमाने तरीके से पूरे देश में घट रही हैं बल्कि यह चुनाव के नजदीकी के संकेत हैं दरासल यह संसदीय पार्टियों की राजनीति का एक हिस्सा है जिसका चुनाव के पूर्व घटित होना जरूरी है ताकि हाल में आयी आर्थिक मंदी बढ़्ती महंगायी न्युक्लियर डील के पेंच पर से जनता का ध्यान हटाया जा सके इस तरह के मसले में जन भावनाओं को भड़काकर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियां उसे वोट बैंक में बदलने में कामयाब हो सकती है इसके अलावा उनके पास अब वोट लेने का और कोई चारा नहीं बचा है क्योंकि किसानों की कर्ज माफी जैसे दिखावे छठे वेतन आयोग के लागू होने का सच इस कमर तोड़ मंहगाई में खो चुका है और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में किसान आत्महत्यायें और बढी़ हैं
पिछले दो महीने से लगातार उत्तर भारतीयों पर जारी हमले जिसे राज ठाकरे के उग्र भाषणों के जरिरे पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूम कर भड़काने का प्रयास किया गया उसी का यह परिणाम था कि रेलवे विभाग द्वारा आयोजित परीक्षा में मुंबई आये उत्तर भारतीयों पर मनसे के कार्यकर्ताऒं द्वारा उत्तर भारतीयों की पीटा गया और इसके पश्चात राज ठाकरे की नाटकीयता पूर्वक देर रात कुछ मअमूली धाराऒं के तहत गिरफ्तारी हुई जिसके बाद उन्हें जमानत भी मिल गयी और दो महीने तक उनके भाषण और मीडिया से मिलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया सवाल उठता है कि क्या यह मामला उतना ही सरल है जितना दिख रहा है पिछले दो महीने से जब राज ठाकरे इस तरह के भड़काऊ भाषण दे रहे थे और उनके कार्यकर्ता मुंबई में जगह-जगह उपद्रव कर रहे थे तब सरकार ने क्यों नहीं चेता क्या वह किसी बडी़ घटना घटित होने के फिराक में थी राज्ठाकरे की यह बयान बाजी कि सरकार की हिम्मत हो तो पकड़ कर दिखाये इस बात का संकेत करती कि प्रांतवाद और भाषावाद की राजनीति करने वाले राज ठाकरे को राज्य सरकार की कमजोर ताकत का पता था या फिर राज्य सरकार की मिली भगत से सब कुछ चल रहा था चुनाव की नजदीकी के बढ़ते इसके पीछे कुछ और ही पेंच हैं जिसके कारण राज्य सरकार ने झारखण्ड कोर्ट के आदेश के बाद देर रात राज ठाकरे को कुछ मामूली धाराओं के तहत गिरफ्तार ्करने को मजबूर हुई और चंद बयान बाजियाँ देना भी उसकी मजबूरी थी इस आपसी राजनीतिक मसले को समझना जरूरी है कि आगामी चुनाव में शिवसेना का कमजोर होता जनाधार फिर से शिवसेना के रूप में पाया जाना मुश्किल था अतः मनसे शिवसेना के एक नये रूप में आयी जहाँ बाला साहेब ठाकरे का चेहरा बदल कर एक युवा व्यक्ति राज ठाकरे का हो गया है जो कि पहले शिवसेना में ही थे शिव सेना के प्रभाव में आया जन मान्स अब धीरे-धीरे विमुख हो रहा था क्योंकि शिव सेना के पास कोई ठोस आधार नहीं था जिस पर वह खडी़ होकर राजनीति कर सके और अपना जन मत जुटा सके अब जबकि राज ठाकरे ने मनसे के रूप में प्रांतवाद और भाषावाद को आधार बनाकर चुनाव के पहले जल्द से जल्द अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिये जुटे हैं ऎसे में घट रही ये घटनायें अंततः कांग्रेस को ही मजबूत करेगी क्योंकि प्रान्तवाद के जरिये जन मान्स को ज्यादा दिन तक नहीं बांधा जा सकता इसका एक पक्ष और है जिसका फायदा यूपी बिहार की क्षेत्रीय पार्टियाँ हिंसा हुए लोगों के साथ हमदर्दी जताकर उठायेंगी उनके लिये भी यह एक मसाला ही है जो नजदीकी चुनाव में मुद्दों के अकाल मेम मिल जा रहा है साथ में जिस रोजगार के सवाल को लेकर राजठाकरे जनता को गुमराह कर रहे हैं वह सवाल वर्तमान सत्ता व्यवस्था की समस्या है जिसका किसी भी पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं है वह जनसंख्या बढोत्तरी और रोजगार की कमी व रोजगार गारंटी जैसी असफल योजनायें चलाकर सिर्फ गुमराह कर सकती है वर्तमान सत्ता व्यवस्था के सामने सबको रोजगार सबको शिक्षा दे पाना संभव नहीं रह ग्या है पर वह प्रांतवाद भाषावाद क्षेत्रवाद को आधार बनाकर विट की राजनीति कर सकती है महाराष्ट्र मेम ही नहीं वरन पूरे राष्ट्र में एक बडा़ युवा वर्ग जिसे न शिक्षा मिल पा रही है न ही रोजगार ऎसे में उसकी उर्जा को आस्था भावना क्षेत्रवाद भाषावाद प्रान्त्वाद के आधार पर विभाजित करके ही संसदीय पार्टीयां इस शक्ति को काबू में रख सकती हैं या अपने साथ ले सकती हैं वर्ना इन पार्टीयों को सबसे बडा़ भय यह है कि ये युवा वैकल्पिक व्यवस्था की लडा़ई लड़ रहे आंदोलनों के साथ न चले जायें जो कि उन सबके लिये सबसे बडा़ खतरा हैं इन पार्टियों को पता है कि आस्था अमूर्त विकास आतंकवाद जैसे कुछ ऎसे टूल हैं चुनाव के पहले जिनका इश्तेमाल कर जनता को गुमराह किया जा सकता है और संसदीय राजनीति से मोह भंग होने की स्थिति को रोकने का प्रयास किया जा सकता है जिसे आमजन को समझने की जरूरत है और क्षेत्र भाषा व आस्था से हटकर समानता मानवता और वर्ग विहीन समाज के लिये संघर्ष करने की जरूरत है.

23 सितंबर 2008

समाज नहीं जुडेगा तो शिक्षा किसी काम की नहीं

सबके लिए शिक्षा कार्यक्रम के तहत अनुसूचित जाति, जनजाति, जनजाति के बालक, बालिकाओं की शिक्षा के साथ-साथ अन्य उपेक्षित व वंचित तथा अल्पसंख्यक बालक-बालिकाओं की शिक्षा के लिए अनेक किस्म के शैक्षिक कार्यक्रम चल रहे हैं. इसके लाभ कुछ चिह्नित लोगों को मिले भी हैं. इस कारण आम जन में भ्रम पैदा हो गया है. वे शैक्षिक कार्यक्रमों के भुलावे में फंस गये हैं. शिक्षा अब सिर्फ जीविकोपार्जन का माध्यम बनी हुई है और बाजारू मूल्य के अनुरूप शैक्षिक कार्य हो रहे हैं.
इन स्थितियों में शिक्षा व्यवस्था के ऊपर सरकार का पूर्ण अधिकार कायम हो गया है. इसने शिक्षा व्यवस्था का केंद्रीकरण किया है. हालांकि सरकारी, गैर सरकारी, सामाजिक एवं धार्मिक शैक्षिक संस्थाएं एक साथ चल रही हैं. इससे लगता है कि शिक्षा का विकेंद्रीकरण हुआ है, लेकिन वास्तविकता इससे उलट है. इन सबके बावजूद केंद्रीकृत शिक्षा व्यवस्था बनी हुई है.
इधर बिहार के गैर सरकारी स्कूलों में पाठ्य-पुस्तकों एवं पाठ्यचर्या के माध्यम से हिंदू व मुसलिम इतिहास की बातें खुलेआम चल रही हैं. इसलिए लोगों में संप्रदायों के बारे में तुलनात्मक भाव पैदा हो रहे हैं. इससे समाज में एक किस्म का धार्मिक अलगाव भी पैदा हो रहा है. आम जन को विभाजित किया जा रहा है. संप्रदायों के बारे में गलतफहमियां पैदा हो रही हैं.
इन सबके बावजूद राज्य सरकार द्वारा इस संदर्भ में किसी तरह के हस्तक्षेप नहीं हुए हैं, जबकि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने बिहार की स्कूली पुस्तकों के इस प्रसंग को काफी गंभीरता से लिया है. इसकी खबरें राज्य के सभी अखबारों में प्रमुखता से छपी हैं. फिर भी राज्य द्वारा गठित समान स्कूल प्रणाली आयोग एवं बिहार पाठ्यचर्या रूपरेखा, २००८ में इसकी पूर्ण अनदेखी हुई है. इस तरह की शैक्षिक गतिविधियों से सांप्रदायिक मानस के निर्मित होने की आशंका है. फिर भी इस तरह के शिक्षण संस्थानों को राज्य द्वारा विभिन्न तरह से प्रोत्साहन मिल रहा है. दूसरी ओर शैक्षिक प्रक्रिया में विवेचनात्मक पहल बंद हो गयी है.
मनुष्य के अंदर कल्पना के पालन एवं संरक्षण में विचार की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन अवधारणात्मक भटकाव होने से सोचने-समझने की शक्ति का ह्रास हुआ है. इस कारण शैक्षिक कार्यक्रम की वर्तमान प्रकृति से विवेचन की शक्ति लगातार कमजोर हो रही है, क्योंकि इसमें स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने का अवसर नहीं मिलता है.
शैक्षिक कार्यक्रमों की प्रकृति के कारण समाज में नयी संस्कृति एवं परंपरा का जन्म हुआ है. इससे सोच एवं समझ के स्तर में गहराई आने के बजाय इसमें विभ्रम की स्थिति पैदा हुई है. पढे-लिखे लोगों और अनपढ लोगों के बीच स्थायी दीवार खडी हो गयी है. वर्तमान प्रणाली के कारण ज्ञान सृजन में अनुभव का औचित्य खत्म हो गया है. इससे ज्ञान और काम के बीच का रिश्ता टूट गया है. गांव-शहर, शिक्षक-छात्र, शिक्षक-समुदाय, शिक्षक-शिक्षाशास्त्री, प्राथमिक-माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के स्तर पर अलग-अलग स्वतंत्र संकाय कार्य कर रहे हैं. इन वजहों से शिक्षा के लिए पूंजी का महत्व बढ गया है. शैक्षिक कार्यक्रम पूंजीपरस्त हो गये हैं. शिक्षा की योजनाएं भी लाभ-हानि की संभावनाओं के अनुरूप तय हो रही हैं. जाहिर है कि इससे शिक्षा के मूल्य में ह्रास होगा, जो शुरू हो भी चुका है.
मनुष्य में सोचने एवं विचार करने की शक्ति नैसर्गिक रूप से विद्यमान रहती है. इसलिए अनपढ व्यक्ति भी तर्क-वितर्क करते हैं और पढने-लिखने के बाद परीक्षण तथा अनुसंधान करते हैं. लेकिन वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में यह अवसर नहीं है.
शिक्षा के खर्च की आड में अब राज्य अपने दायित्व से मुंह मोडने लगा है. जबकि जन शिक्षा के कारण आमजन की जन्म एवं मृत्यु दर में सकारात्मक बदलाव आये हैं. जीवनस्तर भी समृद्ध हुआ है. राष्ट्रीय आय के उपार्जन एवं वितरण की प्रक्रिया में संतुलन आया है, फिर भी जन शिक्षा द्वारा अर्जित इस लाभ के अंशों को उपार्जन के रूप में नहीं देखा जा रहा है, क्योंकि शिक्षा के सामाजिक सरोकार को खत्म कर दिया गया है. इस कारण मानवीय मूल्य की बातें सामाजिक मूल्य से अलग की जा रही हैं. शैक्षिक कार्यक्रम में सामाजिक मूल्य अप्रसांगिक हो गये हैं.
शैक्षिक प्रक्रिया में व्यक्ति केंद्रित पहल चल रही है. शैक्षिक कार्यक्रम के निर्माण एवं संचालन में सामाजिक दृष्टिकोण की जगह व्यक्तिवाद स्थापित हो रहा है. इस कारण शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक मूल्य का औचित्य खत्म हो गया है. शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक हस्तक्षेप में ठहराव आ गया है.
सामाजिक मूल्यों के अप्रासंगिक होने के कारण शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक प्रक्रिया बंद हो गयी है. पहले से सामुदायिक सहयोग के भाव सीमित हुए हैं. कुल मिला कर शैक्षिक प्रक्रिया कमजोर हुई है. इस कमजोरी को ठीक करने के लिए व्यक्ति केंद्रित अवधारणा (प्रधान शिक्षक, मुखिया, समिति के सचिव, अध्यक्ष) के तहत सघन काम चल रहे हैं, जिसने सामाजिक प्रक्रिया का आधार ध्वस्त हो कर दिया है. सामाजिक हस्तक्षेप भी कम हुआ है. यह कमी स्वतःस्फूर्त नहीं है, बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में जारी सामाजिक प्रक्रिया के सिद्धांतों की अवहेलना होने के कारण आया है. इसलिए सामाजिक हस्तक्षेप में ठहराव एक महत्वपूर्ण शिक्षाशास्त्रीय मसला है. लेकिन इसके पहलुओं की चर्चा पाठ्यचर्या के निर्माण एवं संचालन के स्तर पर नहीं की जाती. परिणामस्वरूप शिक्षा व्यवस्था में यथास्थिति बनाये रखनेवाले शिक्षाशास्त्र का वर्चस्व कायम है.
शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति/संस्था/संगठन के स्तर पर हुए अंकेक्षण से उजागर हुआ है कि शैक्षिक कार्यक्रम नियम विरुद्ध कार्य चल रहे हैं, क्योंकि बेकायदा कार्यपद्धति अपनायी जा रही है. इस संबंध में अधिकारी, मंत्री, मुख्यमंत्री को जानकारी देना भी उपयोगी नहीं रह गया है. उदाहरणस्वरूप एनसीइआरटी, नयी दिल्ली के अखिल भारतीय सातवें शिक्षा सर्वेक्षण के प्रतिवेदन को देखा जा सकता है, जिसमें बिहार के अरवल जिले के करपी प्रखंड के अस्तित्वहीन बदरीगढ गांव के स्कूल को सात शिक्षकों के साथ पक्के भवन के रूप में प्रदर्शित किया गया है. इस तरह की अनियमितता प्रखंड स्तर पर और भी है. इससे जिला और राज्य की शिक्षण संस्थाओं की स्थिति की विश्र्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खडा होता है.
हमलोगों ने इस संबंध में २९ मार्च, २००६ को सचिव, मानव संसाधन विकास विभाग, भारत सरकार को पत्र लिखा. लेकिन इस संबंध में अभी तक युक्तिसंगत जवाब नहीं मिला है, जबकि इस सर्वेक्षण के प्रतिवेदन के आधार पर अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय शैक्षिक कार्यक्रम के मानक बनते हैं और उसके आधार पर शैक्षिक कार्यक्रम चलते हैं. इस संदर्भ में राज्यस्तरीय कार्यों की स्थिति को समझने के लिए अरवल जिला का ही एक उदाहरण लिया जा सकता है. करपी प्रखंड में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा पूर्ण मान्यता प्राप्त उच्च विद्यालय, आनंदपुर के पास अपनी जमीन तथा प्रारंभिक भवन हैं, परंतु राज्य सरकार की अनदेखी के कारण इस विद्यालय की स्थिति काफी दयनीय बनी हुई है. इस कारण यह आनंदपुर गांव का यह विद्यालय खेदरू विगहा में चल रहा है. इस संबंध में ग्राम चौहर, मानपुर, बालागढ, पकरी आदि गांवों के १३४ ग्रामीणों के हस्ताक्षर से राकेश कुमार द्वारा १२ अप्रैल, ०६ को दिया गया आवेदन एक प्रमाण है. इससे यह उजागर होता है कि बिहार में मान्यता प्राप्त चलंत विद्यालय (एक गांव से दूसरे गांव) की भी परंपरा बनी हुई है.
२००७ में महालेखाकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान के प्रस्तुत अंकेक्षण प्रतिवेदन से व्यवस्था के अभाव, नियम रहित कार्यों के संचालन से अवहित कर्म (ङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्ष) उजागर हुए हैं, लेकिन शिक्षा व्यवस्था की अनियमितताओं की चिंता सामाजिक, राजनीतिक, अकादमिक एवं प्रशासनिक स्तर पर नहीं किये जाने के कारण भ्रष्टाचार के आधार का संवर्धन जारी है.
शिक्षा के क्षेत्र में जारी अनियमित पहल से संबद्ध लोगों का आचरण बिगड रहा है. इस कारण कुछ पाने या गलतियों से बचने या बचाने की प्रवृत्ति का विकास हुआ है. उदाहरणस्वरूप बिहार में गठित समान स्कूल प्रणाली आयोग की प्रक्रिया को देखा जा सकता है. इसमें अवधारणात्मक कमियों के कारण आयोग की संरचना में नौकरशाही का प्रभुत्व है. इसलिए अन्य शिक्षाकर्मियों को औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से संपर्क करने के बावजूद विमर्श का अवसर नहीं मिला. १८ नवंबर, २००६ को एक जनपक्षी मसौदा सभी सदस्यों को कार्यालय में पत्र के साथ समर्पित किया गया, लेकिन इसकी अनदेखी की गयी. १८ नवंबर, २००६ को पुनः उसी तरह बिहार की शैक्षिक पारिस्थितिकीय दस्तावेज सभी सदस्यों को प्रस्तुत किया गया था. लेकिन उसकी भी अनदेखी की गयी.
कहा गया कि समान स्कूल प्रणाली की व्यवस्था के लिए काफी धन की जरूरत है. यह बिहार जैसे पिछडे और गरीब राज्य के लिए संभव नहीं है. इसलिए आयोग की अनुशंसा में स्थानीय निकाय के साथ निर्धारित समन्वयन की प्रकृति से जनतांत्रिक प्रक्रिया नहीं उभरती है. इसमें स्कूल के पोषक क्षेत्र के निर्धारण में भी स्थानीय निकाय की भूमिका को महत्वपूर्ण नहीं माना गया है. इस संबंध में सवाल उठाने पर आयोग के एक सदस्य द्वारा कहा गया कि बिहार की पंचायती राज्य प्रणाली बहुत पिछडी हुई है. ऐसे में उसे शिक्षा की व्यवस्था में पूरी तरह शामिल नहीं कर सकते. जब इसमें सुधार होगा, तभी इसे लिया जायेगा.
आयोग की अनुशंसा में कहा गया है कि विद्यालयों के अधिग्रहण से शिक्षकों के चरित्र में रातों-रात बदलाव आये हैं. शिक्षक अब सरकारी नौकर हो गये हैं और उनमें लापरवाही के भाव पैदा हुए हैं. स्कूल व्यवस्था की दुर्दशा के लिए मुख्य रूप से शिक्षक को दोषी बताया गया है, जबकि राज्य की नीति संहिता में शिक्षकों के सृजन एवं नियंत्रण का प्रावधान है. फिर भी शिक्षकों की गरिमापूर्ण श्रृंखला को पंचायत शिक्षक, प्रखंड शिक्षक, नगर शिक्षक, व्यावसायिक शिक्षक आदि के नाम से अलग-अलग श्रेणियों में बांट दिया गया है.
इसी तरह प्राइवेट स्कूल के पक्ष में आयोग के सदस्यों द्वारा कहा गया कि आयोग की रिपोर्ट में निजी स्कूलों को नजरअंदाज नहीं किया गया है और न ही उन्हें बंद करने का निर्णय लिया गया है. सरकार के सिद्धांतों के अनुसार जो निजी स्कूल कार्य करेंगे, उन्हें सरकार की ओर से अनुदान भी दिया जायेगा. इसमें अपने दायित्व से बचने के लिए सदस्यों द्वारा यह गुहार लगायी गयी कि राज्य में प्राइवेट स्कूल की लॉबी बहुत मजबूत है. अंततः इस तरह की बातें शिक्षा को खरीद-फरोख्त की वस्तु बना देती हैं.
१९९९ में विश्र्व बैंक के सहयोग से ज्योमतियन में सबके लिए शिक्षा सम्मेलन हुआ. इसके बाद १९९५ में प्रायरिटीज एंड स्ट्रैटेजीज फॉर एजुकेशन नाम्व से विश्र्व बैंक द्वारा समीक्षा प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ. इसमें शिक्षा के सामाजिक कामों के लाभ को उजागर नहीं किया गया, लेकिन वर्ष १९९८-९९ में विश्र्व बैंक की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में विकास के लिए ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा की संस्तुति को महत्वपूर्ण सवाल बनाया गया है और २००० में विश्र्व बैंक द्वारा डकार में पुनः सबके लिए शिक्षा सम्मेलन हुआ. इससे शिक्षा सेवा एक महत्वपूर्ण धंधे के रूप में उभरी है. उच्च शिक्षा एवं प्रशिक्षण के लिए विदेश में जाकर पढने की प्रक्रिया तेज हो गयी है. २००५-०८ के विश्र्व बैंक के रिपोर्ट के अनुरूप यहां शिक्षा की नियमावली में संशोधन हुए और नये-नये कानून बनाये जा रहे हैं. विश्र्व बैंक के नॉलेज बैंक की अवधारणा के अनुरूप विद्यालय से लेकर विश्र्वविद्यालय तक शैक्षिक कार्यक्रम शुरू हैं. इससे शिक्षा के सामाजिक मूल्य की जगह उपयोग एवं इस्तेमाल का पक्ष महत्वपूर्ण बन गया. इस कारण शिक्षा में बाजारू मूल्य का विस्तार हुआ है. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक खरीद-फरोख्त का काम शुरू हो गयी है. शिक्षा की निजी दुकानों की होड मची हुई है. इसमें डोनेशन की अवधारणा को सेवा शुल्क के तर्ज पर प्रस्तुत किया जा रहा है.
शैक्षिक संस्थाओं के कार्यक्रमों के उपयोग के लिए वसूल किये जानेवाले कर को सेवा शुल्क के रूप में लिया गया है, लेकिन लाभ की दृष्टि से निर्धारित सेवा शुल्क के कारण सामान्य बच्चे छूट जा सकते हैं. इस कारण पूर्व में लाभकारी सेवा शुल्क वसूल करने के लिए शिक्षण संस्थान अधिकृत नहीं थे. इसलिए शिक्षा की नियमावली को इसके अनुकूल बनाया जा रहा है. इससे शिक्षण संस्थानों के डोनेशन की कार्यपद्धति का वैधानिकीकरण हो रहा है. उपभोक्तावादी संस्कृति को संरक्षण मिल रहा है. शिक्षा व्यवस्था में उपभोक्तावादी संस्कृति कायम हो गयी है. इससे शैक्षिक कार्यक्रम जनविरोधी हो गये हैं. इन्हें जनपक्षी बनाने के लिए अब शिक्षा व्यवस्था का सामाजिकीकरण एकमात्र रास्ता है.
उपभोक्तावादी संस्कृति से उबरने के लिए शिक्षा के बाजारू चरित्र में बदलाव जरूरी है. इसलिए शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त अनियमितता एवं भ्रष्टाचार को खत्म करना है. इसके लिए सामाजिक हस्तक्षेप जरूरी है. किंतु यह काम सामाजिक प्रक्रिया के माध्यम से ही संभव है. इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना है. वर्तमान शैक्षिक विमर्श को बदलना है. परंतु यह जटिल कार्य है. इसलिए शैक्षिक कार्यक्रमों में अवधारणात्मक बदलाव के लिए आलोचनात्मक चेतना का विकास करना है. इसलिए सभी स्तर पर आमजन की सृजनात्मक भागीदारी के अवसर पर सृजन करना जरूरी है. इससे पूंजीपरस्त सरकारीकरण की कार्यपद्धति में सामाजिक शक्ति को पुनर्स्थापित किया जा सकता है. इसलिए शिक्षा की रूपरेखा को जनपक्षी बनाने का यह एकमात्र रास्ता है.
लेखक जानेमाने शिक्षाविद हैं और ग्रामीण स्तर पर शिक्षा व्यवस्था के लंबे अध्ययन के दौरान उन्होंने यह लेख लिखा है.

17 सितंबर 2008

समाज नहीं जुडेगा तो शिक्षा किसी काम की नहीं

शिक्षा की वर्तमान दशा दिशा व खासतौर से विदर्भ में पुलिस प्रशासन द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में की जा रही दख़लंदाजी को ध्यान में रखते हुए दखल भित्ति पत्रिका का अंक शिक्षा पर केन्द्रित था जिसकी सामाग्री को विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व इंटरनेट से चुना गया था. पत्रिका के इस अंक को सुविधा के लिये हम एक-एक आलेख के रूप में प्रकाशित कर रहे है.
शिक्षा सेवा एक महत्वपूर्ण धंधे के रूप में उभरी है. उच्च शिक्षा एवं प्रशिक्षण के लिए विदेश में जाकर पढने की प्रक्रिया तेज हो गयी है. २००५-०८ के विश्र्व बैंक के रिपोर्ट के अनुरूप यहां शिक्षा की नियमावली में संशोधन हुए और नये-नये कानून बनाये जा रहे हैं. विश्र्व बैंक के नॉलेज बैंक की अवधारणा के अनुरूप विद्यालय से लेकर विश्र्वविद्यालय तक शैक्षिक कार्यक्रम शुरू हैं. इससे शिक्षा के सामाजिक मूल्य की जगह उपयोग एवं इस्तेमाल का पक्ष महत्वपूर्ण बन गया. इस कारण शिक्षा में बाजारू मूल्य का विस्तार हुआ है. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक खरीद-फरोख्त का काम शुरू हो गयी है. शिक्षा की निजी दुकानों की होड मची हुई है. इसमें डोनेशन की अवधारणा को सेवा शुल्क के तर्ज पर प्रस्तुत किया जा रहा है. अक्षय कुमारशिक्षा महज अक्षर एवं अंक ज्ञान या तकनीकी शिक्षण, प्रशिक्षण या सूचनाओं का हस्तांतरण नहीं, बल्कि मानव का निर्माण करनेवाली एक सामाजिक प्रक्रिया है. इसलिए शिक्षा व्यवस्था की बंदोबस्त के लिए सामाजिक सरोकार अनिवार्य हैं, परंतु स्कूली पाठ्य पुस्तकों एवं शिक्षण व्यवस्था को जन सरोकार से अलग भुलावे में रखने की कोशिश हो रही है. व्यवस्थित शैक्षिक कार्यक्रम के माध्यम से शिक्षा के बुनियादी मूल्यों को हर स्तर पर बदलने का काम एकतरफा चल रहा है. इससे शिक्षा के लिए समान अवसर का परिप्रेक्ष्य धूमिल हो गया है. इसलिए समान शिक्षा प्रणाली के कामों को अलग-अलग कर लागू किया जा रहा है, जबकि समान शिक्षा प्रणाली का काम टुकडों में नहीं किया जा सकता है. सबके लिए शिक्षा अभियान के जारी कार्यक्रमों से हर क्षेत्र में द्वंद्व पैदा हुए हैं, क्योंकि इसमें शैक्षिक कार्यक्रमों और समान शिक्षा की व्यवस्था के बीच अन्योन्याश्रय संबंध के छद्म का बोध हो रहा है, लेकिन इसकी रूपरेखा रहस्यपूर्ण बनी हुई है. इसलिए शिक्षा व्यवस्था के गोपनीय विषय को हम नहीं समझ पा रहे हैं. इस कारण शैक्षिक कार्यक्रम के प्रयोजन और परिणाम के संदर्भ में व्यवधान पैदा हो गया है.शिक्षा के लिए समान अवसर का प्रयोजन समानता, सद्भाव एवं सामाजिक न्याय के संवैधानिक संकल्प की स्थापना करना है. इसलिए समाज में मानवीय मूल्य का विकास करना इस अवधारणा का मूलभूत परिणाम है. लेकिन शिक्षा की बात करनेवाले अर्थवादी हो गये हैं. इस कारण निर्धारित प्रयोजन को वे नजरअंदाज कर रहे हैं. इससे सोचने एवं काम करने की कार्यपद्धति यांत्रिक हो गयी है और प्रयोजन के अनुरूप परिणाम नहीं निकल रहे हैं. सबके लिए शिक्षा कार्यक्रम का प्रयोजन सबको साक्षर बनाना है और जीविकोपार्जन के लिए अक्षर एवं अंक की पहचान करना है. इसलिए सबके लिए शिक्षा के कार्यक्रमों में सामाजिक-आर्थिक अवस्था एवं हैसियत के अनुरूप शिक्षा से जुडने का प्रयोजन तय है. इसलिए साक्षरता के औसत में वृद्धि इसका परिणाम है. व्यावसायिक प्रशिक्षण के आधार पर व्यक्तिगत जीवन को संवारना है. सबके लिए शिक्षा का प्रयोजन अब बाजार के लिए मानव संसाधन तैयार करना है. इसके परिणामस्वरूप तर्कहीन, आज्ञाकारी, अनुशासित सेवक बनाने की शैक्षिक कार्रवाई अनेक रूपों में निरंतर चल रही है. इसमें रोजगार के अवसर की बातें आदर्शवादी ढंग से की जाती हैं. शिक्षा व्यवस्था के ये अलग-अलग रास्ते हैं. दोनों के प्रयोजन और परिणाम के पहलू भिन्न-भिन्न हैं. फिर भी इन दोनों के बीच घालमेल की स्थिति बन गयी है. इसलिए नामांकन आदि के मिथ्या वर्णन द्वारा व्यवस्था के पक्ष में तार्किक आधार गढा जा रहा है. इससे अवधारणात्मक भटकाव की स्थिति पैदा हो गयी है. जारी...........



15 सितंबर 2008

हिन्दी दिवसः

संग्रहालय में गांधी प्रतिमा के नीचे दीमक लगी हुई लकडी़ की एक प्लेट टंगी हुई है.जिस पर ११ माह २९ दिन की गर्द जमी हुई है.पिछले १४ सितम्बर को साफ हुई थी आज फिर से साफ हो रही है. सफेद पेंट से लिखे हुए हर्फ़ मिट चुके हैं पर चश्मा लगाकर पढा़ जा सकता है कि हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है-महात्मा गांधी. हिन्दी दिवस हिन्दी के लिये रोने का दिवस है,हिन्दी का गुणगान करने का दिवस है और दिवस है ढेर सारे सवाल खडे़ करने का,हिन्दी के अशुद्धता का सवाल, हिन्दी और तकनीक का सवाल,हिन्दी प्रचार का सवाल आदि-आदि. पर इन सबके बीच एक और महत्वपूर्ण सवाल है १० राज्यों की राज्य भाषा का,या वहाँ के आधिकांश जन की भाषा का, और एक अरब से अधिक लोगों की राजभाषा का सवाल.हिन्दी को आज इस रूप में ज्यादा समझने की जरूरत है कि हिन्दी का भाषा से ही नहीं बल्कि मानवीय उत्पीड़न के भाषा की उस शैली में निहित है जिसके भीतर हम और दूसरे लोग भाषायी रूप से परिभाषित करते हैं. इस रूप में यह भाषा का वर्ग विभाजन है जहाँ भाषायी आधार पर समाज का स्तरीकरण हुआ है और वह एक स्तर पर नहीं बल्कि कई स्तर पर विखण्डित हो चुका है.अंग्रेजी के बढ़्ते प्रभाव के कारण हिन्दी के लिये खतरे देखने की जरूरत नहीं है जबकि इसका आधार भाषा की वर्गीय सवर्णता जिसे भारत जैसे बहुभाषी देश में अन्य भाषाओं व बोलियों में भी देखा जा सकता है और वे अपनी अस्मिता के लिये जूझ रही हैं. दरअसल हिन्दी के बहाने भाषा की उस प्रक्रिया को समझने की जरूरत है जो नवौदारवादी नीति लागू होने के बाद और तेजी से शुरू हुई. नव उदारवादी नीति लागू होने के बाद समाज के सभी तत्वों का केन्द्रीकरण शुरू हुआ और यहाँ से एकाधिकार की प्रक्रिया और तेज हुई जिससे भाषा को अछूता नहीं रखा जा सकता था बल्कि भाषा का संप्रेषणियता से सीधा संबन्ध है इसलिये राष्ट्रीय स्तर पर किसी एक भाषा का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी अन्य भाषा का एकाधिकार होना लाजमी था.अतः हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा तो नहीं बन सकी बल्कि राजभाषा के रूप में भी इसे लागू किया जाना कठिन काम बन गयाक्योंकि अब राष्ट्र के द्वारा किये गये काम काज को सिर्फ राष्ट्र के अंदर तक सीमित नहीं रखा जा सकता था, इसका लेखा जोखा वर्ल्ड बैंक को देना है,डब्लू.टी.ओ. को देना है, व दुनिया के उन आकाओं को जो हमारे खाने तक पर नजर रखते हैं, आर्थिक व अपरिक्ष रूप से जो देश दुनिया पर शासन कर रहे हैं उनको आप हिन्दी में लेखा जोखा नहीम दे सकते, अतः अंतर्राष्ट्रीय रूप से भाषा का भी साम्राज्यीकरण हुआ है. भारत के प्रतिनिधि व वर्चस्वशाली वर्ग को अपने अस्तित्व को बचाने व पूजी की व्यवस्था को मजबूत करने के लिये अंग्रेजी सीखना जानना जरूरी है.पिछले वर्ष हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर न्युयार्क के हिन्दी सम्मेलन में जोरदार आवाज उठी यह मांग १९७५ नागपुर में हुए प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन से उठ रही है.देर सबेर यह मांग पूरी भी कर दी जायेगी क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में वर्चस्व शाली देशों को भारतीय व अन्य हिन्दी भाषी देशों में बाजार की संभावना पता है.जिसकोलेकर अमेरिका व अन्य कई देश अपने यहाँ हिन्दी के पठन-पाठन की तरफ तत्पर हैं. ताकि वे बेहतर ढंग से न सिर्फ भारत बल्कि मारिसस,शूरीनाम, फ़िजी,गयाना आदि में प्रवेश कर सकें. आज यदि कुछ वर्चस्व शाली देश अपने विश्वविद्यालय में हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की संस्कृति को विकसित कर रहे हैं तो उनका मकसद दो सभ्यताओं के बीच संवाद स्थापित करना नहीं है बल्कि इस दूसरे या तीसरे स्थान पर सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा के जरिये उन लोगों तक पहुंचना है जहाँ हिन्दी बोलकर वे सहजता से अपना माल बेंच सकें. हिन्दी भाषा एक बडे़ समाज,संस्कृति, इतिहास, राष्ट्र, की अस्मिता और उसके भाषायी लक्ष्यों की अभिव्यक्ति का माध्यम भी है. किसी भाषा का विकास दिवस मनाने, प्रचार समिति गठित करने,विश्वविद्यालय खोलने व शिक्षण संस्थान चलाने से नहीं होती है. उसके लिये जरूरत है मौलिक शोध की और यह शोध समाज, विज्ञान, तकनीक व उन सभी क्षेत्रों में होनी चाहिये जो वर्तमान दौर में समाज में कायम हैं या होते जा रहे हैं.इस रूप में हिन्दी में मौलिक शोध व चिंतन की प्रक्रिया उतनी नहीं हुई जितनी की यह लोगों के बीच में बोली जाती है.यदि यह तीसरी या दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है तो यह दुनिया का एक बडा़ समुदाय होगा,होना यह चाहिये था कि तकनीक,चिकित्सा, विज्ञान के क्षेत्रों में इसी अनुपात में या कमोबेस मौलिक शोध व अनुसंधान होते पर इस बडे़ वर्ग ने कोई खास मौलिक शोध नहीं किया यदि किया भी तो वह हिन्दी के माध्यम से न होकर अंग्रेजी के माध्यम में हुआ. एक और मामला हिन्दी के साथ जुडा़ हुआ लगता है कि वह क्षेत्र जहाँ हिन्दी पढी़, बोली समझी जाती रही है उस क्षेत्र में चिंतन का आधार भौतिकवादी नहीं था और आज भी नहीं है.वह समाज आध्यात्मवादी चिंतन का समाज है जहाँ समस्याओं की खोज आध्यात्म में की जाती रही है.इसलिये यहाँ मौलिक शोध का विकास नहीं हि सका. पर भाषायी आधार पर जब अन्य भाषायी समाज की निर्मित चीजों का अनुवाद तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा किया गया तो उसे जनस्वीकृति उस तरह से नहीं मिल सकी भले ही वे कम्प्यूटर को संगणक व माउस को चूहा कहते रहें पर वह अपने प्रचलित शब्दावली में ही सहज ग्राह्य हो चुका था.इस रूप में यह आवश्यकता है कि हिन्दी में वैज्ञानिक चिंतन के जरिये मौलिक शोध व विमर्श को स्थापित किया जाय. १९७५ में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में जो कि नागपुर में हुआ था इस बात को लेकर एक अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की अवधारणा रखी गयी थी जहाँ पर नये मानवकी विषय व तकनीक के जरिये हिन्दी में शोध व विकास की बात सोची गयी थी. १९९७ में जो वर्धा में स्थापित हुआ और २००२ से अध्ययन-अद्यापन का कार्य भी चालू किया गया, पर वर्तमान में स्थिति ये है कि वह ५ सालों में ही मौलिक शोध और विमर्श को छोड़ चुका है भाषा प्रौद्योगिकी व मीडिया जैसे विभाग शोध व विमर्श के बजाय यहाँ के छात्रों को चैनल व अन्य संबन्धित संस्थानों का नौकर बना रहें है.

11 सितंबर 2008

मणिपुर में ५० वर्षों का अघोषित आपातकाल:

मणिपुर में ११ सितम्बर २००८ को एक गैर लोकतांत्रिक कानून (आर्मड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट) आफ़्सपा को लगे हुए ५० साल पूरे हो रहे हैं. आजादी के ११ वर्ष बाद १९५८ में यह कानून कुछ क्षेत्रों में नागा बिद्रोह से निपटने के लिये लगाया गया था. धीरे-धीरे इसका विस्तार होता गया और १९८० में पूरे मणिपुर को अशांत घोषित कर दिया गया. आफ्सपा को आर्मड फोर्स स्पेसल पावर आर्डिनेंस के तौर पर बनाया गया जिसे अंग्रेजों द्वारा १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन से निपटने के लिये भारतीय आंदोलन कारियों के दमन के लिये बनाया गया था. तब से पूरे राज्य में आपातकाल की स्थिति बनी हुई है. यह गैर लोकतांत्रिक कानून राज्य के गवर्नर/या केन्द्र को यह अधिकार देता है कि वे किसी भी क्षेत्र को अशांत घोषित कर सकते हैं. किसी भी आयुक्त अधिकारी या एन.सी.ओ. तक को यह अधिकार देता है कि यदि उसे लगता है कि कोई व्यक्ति कानून व्यवस्था तोड़ सकता है व यदि कोई व्यक्ति हथियार या कोई भी चीज जिसका इश्तेमाल हथियार के रूप में किया जा सकता है के साथ पाया जाय तो शक के आधार पर वह किसी भी व्यक्ति को गोली मार सकता है या इतने बल का प्रयोग कर सकता है जिससे उसकी मौत हो जाय. इस रूप में यदि इसकी व्याख्या करें तो वह किसान भी आता है जो अपने औजार के साथ खेत जा रहा हो.कानून लागू होने के बाद दिनों-दिन अमानवीयता बढ़ती गयी और रोज बरोज सेना के बढ़ते दमन को देख मानवाधिकार संगठन ने आफ्सपा के खिलाफ ८०-८२ में याचिकायें दर्ज की जिसमे जीवन, आजादी, बराबरी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताको चुनौती दी गयी, परन्तु १५ वर्षों बाद १९९७ में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सही ठहराते हुए कुछ निर्देश दिये उन निर्देशों के तहत आर्मी को बताया गया कि वह क्या करे और क्या न करे, जिसमें यह कहा गया कि गोली चलाने के पहले व्यक्ति को चेतावनी दी जानी चाहिये, और किसी भी कार्यवाही के समय नागरिक प्रशासन को शामिल किया जाना चाहिये इन बातों का सैन्य बल द्वारा कडा़इ से पालन किया जाय. परन्तु उसके बाद भी किसी निर्देश का पालन नहीं होता अलबत्ता डी.जी.पी. का यह बयान आया कि निर्देशों की भावना का पालन होता है इसके शब्दों का नहीं. इस रूप में स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है कि आर्मी किस तरह के भावना का पालन करती होगी.सेना को यह भी निर्देश दिया गया था कि कि किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के बाद वह जल्द से जल्द व्यक्ति को नजदीकी पुलिस थाने को सौंप दे और आर्मी को पूछताछ का कोई अधिकार नही बनता इसके बावजूद आर्मी थर्ड डिग्री का इश्तेमाल कर अभियुक्तों से पूछ-ताछ करती है और अक्सर पूछ ताछ के बाद गोली मार देती है. इस रूप में सेना वहाँ नागरिक प्रसासन की मदद करने के बजाय एक स्वतंत्र इकाई के रूप में कार्य कर रही है. इस कानून को लागू होने के बाद से अब तक मणिपुर के अनगिनत लोग मारे जा चुके हैं और गायब हैं. लोगों को यह नहीं पता कि किस दिन उनके घर में आर्मी आयेगी और उनके किसी भी सदस्य को उठा ले जायेगी. दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र में ऎसी अमानवीय स्थिति बनी हुई है जहाँ पूरी तरह से सेना का शासन चल रहा है. परन्तु भारत के अधिकांश हिस्सों के लोगों को इन स्थितियों की भनक तक नहीं है. और कुछ मुद्दॊं को छोड़ कर भारतीय मीडिया ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया है. ११ जुलाई २००४ को इम्फाल के पूर्व जिला बामोन की एक ३२ वर्षीय महिला थंगजम मनोरमा को असम राइफल्स द्वारा रात को उनके घर से उठा लिया गया और तमाम तरह की यातनाओं के बाद उनकी लाश को घर से ५-६ कि.मी. की दूर स्थित राजमार्ग पर फ़ेक दिया गया था, जिसको लेकर मणिपुर में एक बढा़ विरोध प्रदर्स्गन हुआ था और महिलाओं ने निरवस्त्र होकर यह नारा दिया था कि "इडियन आर्मी रेप अस" जिसे राष्ट्रीय मीडिया ने पहली बार गम्भीरता से लिया था पर उसके बाद रोज दिनों दिन घटनायें घटती जा रही हैं पर राष्ट्रीय मीडिया में उसकी खबरें कहीं नहीं दिखती. २००२ में जब भारत के प्रधानमंत्री १५ अगस्त देश के लोकतंत्र को और मजबूत बनाने की बात करते हुए तिरंगा फ़हरा रहे थे. उसी समय मणिपुर का एक छात्र नेता पेबम चितरंजन बिसनपुर चौराहे पर खुद को यह कहते हुए जला लिया कि इस अप्रजातांत्रिक कानून में में मरने के बजाय मै मशाल की तरह जलकर मरना पंसंद करूंगा. राज्य में हर वर्ष इसी तरह से सैकड़ों लोग आर्मी की गोलियों से मारे जा रहें हैं तिस पर गृह मंत्री मणिपुर में जाकर यह बयान देते हैं कि मरनें वालों की संख्या इतनी नहीं है कि इस पर परेशान हुआ जाय.क्या किसी लोकतंत्र में मनोरमा जैसी एक भी महिला का आर्मी द्वारा बलात्कार, और महिलाओं का निरवस्त्र प्रदर्शन उन्हें कम लगता है? देश के स्वतंत्रता दिवस पर किसी व्यक्ति का देश के किसी कानून से क्षुब्ध होकर मरना कम है.जबकि वास्तविक स्थितियाँ इतनी ही नहीं है राज्य मानवाधिकार की रिपोर्ट के मुताबिक ३०-५० मानवाधिकार हनन की घटनाएं सामने आती है या दर्ज होती हैं. परन्तु इतनी घटनाएं दर्ज होने के बावजूद भी राष्ट्रीय मानवाधिकार ने इस राज्य को अनदेखा करने का प्रयास किया है और अभी तक कोई भी बैठक इस राज्य में नहीं की. राज्य मानवाधिकार को एक सीमित धन ही उपलब्ध कराया जाता है.जबकि वहीं दूसरी तरफ सेना के खर्चे में हर वर्ष बढो़त्तरी की जा रही है. इस अमानवीय कानून को लेकर अब तक न जाने कितने विरोध प्रदर्सन हो चुके हैं, मणिपुर के लोग कितनी बार सड़कों पर उतर चुके हैं. इरोम शर्मीला द्वारा २ न. २००४ से लगातार ४ वर्षों की भूख हड़ताल जारी है. पर सरकार ने अभी तक चन्द जाच कमेटियाँ बनाने के सिवा कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. मनोरमा मामले को लेकर गठित की गयी सी. उपेन्द्र आयोग की १०२ पृष्ठ की रिपोर्ट २२ दिसम्बर २००४ को आयी पर अभी तक उसको गुप्त रखा गया है उसका प्रकाशन तक नही किया गया. यद्यपि आफ्सपा को इंफाल के ७ मुनिस्पल क्षेत्रों यानि ३२ वर्ग कि.मी. से हटाया गया है परन्तु हत्या का शिलसिला यहाँ भी कम नहीं हुआ है आर्मी यहाँ से लोगों को पकड़ती है और उस क्षेत्र से बाहर लेजाकर उनको गोली मार्ती है. इन स्थितियों के बीच वहाँ के स्कूलों की स्थिति ये है कि ३६५ दिन में औसतन १०० दिन या उससे कम भी चल पाते हैं कारण वश वहाँ के छात्रों का लगातार पलायन जारी है और २०,००० से अधिक छात्र राज्य से बाहर जाकर पढ़ रहे हैं. स्कूली बच्चों ने राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली किताबों को राज्यपाल को वापस कर दिया है. इन स्थितियों के बीच सरकार को चाहिये कि वह कोइ उचित कदम उठाये और गैर लोकतांत्रिक कानून को वापस ले.

10 सितंबर 2008

समझदारॊं के लिये गीत


हवा का रुख कैसा है
हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों देते हैं
हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है
हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आज़ादी का मतलब समझते हैं
टटपुजिया नौकरीयों के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोजगारी अन्याय के तेज दर से बढ़ रही हो
हम आज़ादी और बेरोजगारी
दोनों के खतरे समझते हैं
हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं
यह भी हम समझते हैं
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं
अगर वो सिर्फ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़िया धसान होती है
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं
यह भी हम समझते हैं
विरोध ही वाजिब कदम है
हम समझते हैं
हम कदम-कदम पर समझौता करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क को गोलमटोल भाषा में पेश करते हैं
हम समझते हैं
हम इस गोलमटोल भाषा का
तर्क भी समझते हैं
वैसे हम अपने को किसी से कम नहीं समझते
हम स्याह को सफेद
सफेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफान खडा़ कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमजोर
और जनता समझदार हो
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नही कर सकते हैं
हम कुछ क्यों नहीं कर सकते हैं
ये भी हम समझते हैं. गोरख पाण्डेय

09 सितंबर 2008

पुलिस के हाथ में शिक्षा:-

पुलिस के द्वारा महाविद्यालयों के प्राचार्य को दिया गया पत्र:-
गोपनीय प्रति,

माननीय आचार्य,

विषय:-छात्रॊं संबधी जानकारी पहुचाने हेतु

देखने में आया है कि नक्सल वादी संगठन(cpi माओवादी)युवा छात्र तथा बीच में पढा़ई छोड़ने वाले और आर्थिक द्रिष्टिकोण से कमजोर अपने भावी जीवन में बडी़ अपेक्षा रखने वाले युवाओं को ढूढ़्कर अपना हस्तक बनाते हैं उनके परिवार की थोडी़ सी आर्थिक जरूरत को पूर्री करके उनको दूसरों की झूठी और दूसरों कि लिविंग सर्टिफ़िकेट देकर तथा उनको आर्थिक मदद करके महाविद्यालयों में गैप सर्टिफ़िकेट के आधार पर प्रवेश लेने के लिये कहते हैं ऎसे छात्रॊ द्वारा महविद्यालयों में छात्र संगठनात्मक बनकर नक्सलवादी ध्यय धोरण उद्देश्य तथा इसके लिये पुरक विचार का छात्रों में प्रचार प्रसार करते हैं.यह छात्र जनजागरण ,नुक्कण नाटक,व बौमादद्धिक चर्चाओं के जरिये माध्यम से नक्सल वादी ध्यय तथा उनके उद्देश्यों का प्रसार एवं प्रचार करते हैं.छात्रों के अंदर सुप्त गुणों को जाग्रित कर देशविघात करने के लिये उन्हें मानसिक द्रिश्टि से तैयार करके माओवादी आंदोलन में प्रवेश करने हेहु उन्हें बाध्य करके हैं,आपके विद्यालय में अभी जून २००८ से नये सत्र की प्रवेश प्रक्रिया शुरू हो रही है इस दौरान सभी प्रकार के छात्र प्रवेश लेंगे.आपके अधीनस्थ सभी प्रवेश प्रक्रिया संबंधी प्रोफ़ेसर तथा अन्य कर्म चारी वर्ग को उपर दिये गये मुद्दों से परिचित करवाकर तथा गैप सर्टिफ़िकेट के आधार पर प्रवेश लेने वाले छात्रों की एक लिस्ट बनाकर इस कार्यालय को हर सोमवार को देने की क्रिपा करें.गैप सर्टिफ़िकेट के आधार पर प्रवेश करने वाले छात्रो के नाम गाँव पतातथा उसकी लिविंग सर्टिफ़िकेट की पूरी जाँच करने के बाद तथा उसकी पूर्व सूचना हमारे कार्यालय को देने के बाद ही उसका प्रवेश शुनिश्चित किया जाय तब तक उनको अस्थायी प्रवेश ही दिये जायें.प्रवेश के लिये आने वाले छात्रों को उनके अध्यावत फ़ोटो मांगे जायें तथा दो ऎसे प्रतिष्ठित व्यक्तिओं के नाम भी मांगे जाय जो उनको पहचानते हों.नक्सल वादी आंदोलन को रोकने के लिये और उनका प्रसार व प्रचार तथा नये नक्सलवादी समर्थक तैयार न होंइसके लिये आपका सहयोग अपेक्षित है.
पोलिस उपायुकत-विषेश शाखा नागपुर शहर

आज पाश जैसा कोई कवि नहीं जो यह लिखे कि हम नहीं चाहते पुलिस की लाठियों पर टंगी किताबों को पढ़ना.सत्ता हस्तांतरण के बाद देश ने शिक्षा को लेकर अपने प्रोफ़ाइल को जरूर सुधारा है. पर इस सुधार का जो स्वरूप रहा है वह बेहद चिंतनीय है.साझी विरासत के रूप में शिक्षा को देखने के बजाय, जो कदम उठाये गये हैं उनका संबंध वर्तमान समाज से काटकर एक ऎसी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करना रहा है जिसने मानवीय मूल्यों को ताक पर रखते हुए वर्तमान शोषण युकत समाज को पुख्ता बनाये रखने का प्रयास किया है.मूल्य आधारित शिक्षा पर दिनों दिन सिकंजे कसे गये हैं और व्यवसायिक शिक्षा को बढा़वा दिया गया है. इस कडी़ में उच्च शिक्षण संस्थानों में गैर राजनीतिकरण करके शिक्षा को समाज से काटने व साझी विरासत के रूप में देखने के बजाय एक खास समुदाय तक ही शिक्षा को सीमित करने का प्रयास भी जारी रहा है.जिसका परिणाम यह हुआ है कि शिक्षा प्राप्ति का एकमात्र उद्देश्य टटपुजिया नौकरीयों को प्राप्त करना ही रह गया है जिसके सहरे अगली पीढी़ को भी नौकर बनाया जा सके.यह एक प्रवृत्ति है जो कि शिक्षण संस्थानों में पनप चुकी है.
इसके बावजूद युवावों में देश समाज के लिये कुछ करने के जज्बे को देखते हुए देश के बडे़-बडे़ संस्थानों में एन.जी.ओ. का प्रवेश कराया गया जहाँ से अंततः वे इस व्यवस्था को पोशित कर सकें.बी.एच.यू. जैसे एशिया के सबसे बडे़ आवासीय परिसर के रूप में जाने-जाने वाले विश्वविद्यालय में वर्तमान में ३० से अधिक एन.जी.ओ. कार्य कर रहे हैं.इस रूप में देश के कई महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों में एन.जी.ओ. ने अपनी पकड़ मजबूत की है.और शिक्षण संस्थानों से देश की दशा दिशा तय करने वाला वर्ग खत्म होता जा रहा है.कई महत्वपूर्ण संस्थानों से छात्रसंघ के चुनाव की प्रक्रिया को खत्म करना व किसी भी तरह की राजनीति से छात्रों को दूर करना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि शिक्षित युवा वर्ग को देश समाज की समस्याओं पर सोचने विचारने से दूर करने का प्रयास है. शिक्षण संस्थानों में बार-बार एक राजनीति के तहत इस बात को भरा गया कि शिक्षा का राजनीति से कोई संबंध नहीं है और एक बेहतर शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र के लिये जरूरी है कि वह राजनीति से दूर रहे.दिनों दिन बदलते इस स्वरूप में आज स्थिति यह है कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये पुलिस के अनुमति की जरूरत पड़ रही है. यह सत्ताहस्तांतरण के बाद सिकंजे जाने का एक क्रम है जो यहाँ तक आ चुका है कि इस बात का निर्धारण अब पुलिस करेगी कि किसको शिक्षा दी जाय.
२००८ सत्र की शुरूआत में ही विदर्भ क्षेत्र की पुलिस ने सभी विद्यालयों कालेजों में एक गोपनीय पत्र भेजा जिसके तहत यह कहा गया कि वे क्षात्र जो किसी विषय में दुबारा प्रवेश ले रहे हैं उनकी सूचना पुलिस को दे और उनका एक फोटो भी पुलिस को उपलब्ध कराया जाय.पुलिस द्वारा यह भी सुझाव दिया गया कि प्रवेश लेते समय शहर के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति का नाम भी मांगा जाय जो उन्हें पहचानते हों. इन सारी प्रक्रियाओं को पूरा करने के बाद ही उनका प्रवेश सुनिश्चित किया जाय. ऎसा इसलिये क्योंकि इस रूप में प्रवेश लेकर नक्सलवादी राजनीति से प्रेरित युवा विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेकर छात्रों के अंदर अपनी राजनीति का प्रचार प्रसार करते हैं.जिनके द्वारा चर्चा, नाटक, गोष्ठी आदि की जाती है.मौखिक रूप से हिदायत दी गयी कि वे छात्र जो भंडारा, गड़विरौली, चन्द्रपुर से आते हैं उन पर विशेष ध्यान दिया जाय. इस रूप में शिक्षा के क्षेत्र में पुलिस की यह दखल कई सवाल उठाती है कि नक्सलवाद के नाम पर शिक्षण संस्थानों में पुलिस का यह दख़ल कितना वाजिब है. एक तो इस बहाने वे सभी तरह की चर्चा गोष्ठियों को बंद कर शिक्षण संस्थानों में सोचने समझने की परंपरा को खत्म कर रहे हैं.साथ में यह कि वे छात्र जो किसी कारण से (जिनमें आर्थिक मजबूरी अधिकांसतः होती है) पिछले वर्षों में प्रवेश से वंचित रहे हैं उन्हें शिक्षा से वंचित करने का प्रयास है या उनकी शिक्षा पर यह सीधा प्रतिबंध है.जिन जिलों को लेकर हिदायत दी गयी है वे जिले आदिवासी बहुल्य जिले हैं साथ में यहाँ पर शिक्षण संस्थानों की भी कमी है. ऎसे में इस तरह के प्रतिबंध शिक्षा व्यवस्था को पुलिस के हवाले ही करना कहा जा सकता है. जहाँ आदिवासी, अनुसूचितजाति के लोगों को शिक्षा से वंचित करने का प्रयास किया जा रहा है.एक तरफ़ सरकार आरक्षण के जरिये व विषेश सुविधायें मुहैया करा कर शिक्षा के इस गैरबराबरी को दूर करनें का प्रयास कर रही है, तो दूसरी तरफ़ सरकार के पुलिसिया अंग की यह कार्यवाही उन्हें शिक्षा से वंचित करने के प्रयास के अलावा और कुछ नहीं है भारतीय लोकतंत्र में समाज को मानवाधिकार, शिक्षा, व अन्य मूलभूत अधिकारों को प्रतिबंधित करने का यह प्रयास इसलिये किया जा रहा है ताकि नक्सलवादी समर्थकों को तैयार होने से रोका जा सके. तो क्या सरकार के पास दिनों दिन बढ़ रहे नक्सलवादी आंदोलन को रोकने के लिये मानवाधिकारों से वंचना ही बची है?

04 सितंबर 2008

नार्कॊ टेस्ट पर उठते सवाल:-

नक्सल आंदोलन के कथित कार्यकर्ता अरूण फ़रेरा का नार्को टेस्ट के दौरान आये बयान और उस पर शिवसेना की टिप्पणी ने कई प्रमुख सवाल खड़े कर दिये हैं.जिसमे अरुण फ़रेरा को ए.बी.बी.पी.व बालठाकरे से मदद मिलना और शिवसेना का उसे सिरे से खारिज करना इस बात को इंगित करता है कि दोनों में से एक गलत है.वैचारिक रूप से शिवसेना और वामपंथी नक्सल आंदोलन दो ध्रुव हैं जिस बात को शिव्सेना ने स्वीकार करते हुए किसी तरह कि मदद से इनकार किया है.ऎसे में फरेरा का बयान यह साबित करता है कि या तो फरेरा के संबन्ध नक्सल आंदोलन से नही है जिसके तहत उन्हें बाल्ठाकरे और ए.बी.बी.पी. से मदद मिलती रही है या फिर नार्को परीक्षण सच उगलवाने का सही तरीका नहीं है.हाल में पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट (एक मानवाधिकार संगठन) ने अरुण फरेरा के नार्को प्रीक्षण को लेते हुए एक रिपोर्ट जारी की है जिसमे उसने कहा है कि यह एक प्रताणना के अलावा और कुछ नही है क्योंकि इस तरकीब से सच उगलवाना संभव नहीं है.हाल के वर्षों में देश में बढ़ते नार्को परीक्षण की सच्चाई यह है कि बंग्लूरू में स्थापित टेस्ट सेंटर मे अब तक ३०० से अधिक नार्को परीक्षण हो चुके हैं जिसके कोई खास नतीजे सामने नहीं आये हैं और पुलिस उन सबूतों के बल पर कुछ भी करने में अक्षम रही है. इसके पीछे ठोस कारण ये है कि नार्को परीक्षण के जरिये पुख्ता सबूत निकालने में ५% मदद ही मिल पाती है और वह भी कई बातों पर निर्भर करता है.नार्को परीक्षण के दौरान जिन नशीले पदार्थों का प्रयोग किया जाता है उसमें सोडियम पेंटोथाल,सेकोनाल,सोडियम एमिटोल,स्कीपोलामाइन है.विशेषग्यों का मानना है कि इसके प्रयोग से आरोपी अपने विचारों को बदलने में असमर्थ हो जाता है और वह सब कुछ उगलता है जो कि उसके मस्तिस्क में होता है परन्तु यदि उसने टेस्ट के पहले ही जिद बना ली है कि वह झूठ बोलेगा या कुछ और बोलेगा तो दवा का प्रवाह उसकी इस जिद को बलवती बनाता है.इस टेस्ट का तरीका इतना अमानवीय होता है कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा निर्धारित शारीरिक शोसण के अन्तर्गत आने वाले लगभग सभी तरकीबों का प्रयोग अभियुक्त पर किया जाता है. और प्र्योग किये गये सीरम से व्यक्ति का शारीरिक संतुलन भी गड़बड़ हो जाता है.जिसका सीधा प्रभाव उसकी यादास्त और स्वसन क्रिया पर पड़ता है.इस बात को ध्यान में रखते हुए दुनियाँ के कई राष्ट्रोम ने इस अमानवीय तरीके को अपनाना बंद कर दिया है.१९२२ में जब टेक्सास में पहली बार राबर्ट अर्नेस्ट द्वारा वहाँ के दो बंदियों पर यह तरीका अपनाते हुए कोर्ट में उन्हें पेश कर बयान दिलाया गया तो अभियुक्तों के अपराध स्वीकारने के बावजूद भी न्यायाधीस ने यह कहते हुए उन्हें बरी कर दिया कि नशे की हालत में दिया गया यह बयान अवैधानिक है १९३० तक ही दुनियाँ के कई देश की न्यायालयों ने नार्को टेस्ट से जुटाये गये सबूतों को अमान्य कर दिया और १९५० तक कई देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया.भारतीय कानून में धारा १६४ के अनुसार बिना किसी दबाव के न्यायाधीस के सामने दिये गये ही बयान न्यायालय को मान्य होंगे.इस आधार पर भारतीय न्यायालय परीक्षण के आधार पर जुटाये गये सबूत को मानती भी नही. परन्तु दुनियाँ के सबसे बडे़ लोकतंत्र केहे जाने वाले देश में इस प्रक्रिया का जारी रखना और ड्रग का इश्तेमाल कर शारीरिक यातना देना कितना उचित है?नार्को टेस्ट से संबंधित विशेषग्यों का यह भी मानना है कि सीरम के प्रयोग के बाद अभियुक्त से प्रश्न पूछने की शैली के ऊपर भी उसका जबाब निर्भर करता है. यानि इसके मुताबिक जाँच कर्ता वह सब उगलवा सकता है जो वह उगलवाना चाहे.अरुण फरेरा के मामले में इन सभी पक्षों को समझने की जरूरत है.पर सवाल नार्को टेस्ट की अमानवीयता और मानवाधिकार हनन का है.कुछ मामले ऎसे है जिनमे अभियुक्त को छः-छः बार परीक्षण करवाना पडा़ है. आरुसी हत्या मामले में कम्पाउंडर क्रिष्णा की दि बार नार्को टेस्ट हुई जिसका कोई खास नतीजा सामने नही आया पर यह इस बात का सबूत है कि नार्को परीक्षण सच उगलवाने की सही विधि नही है.परन्तु भारतीय न्यायालय जाँच में इसकी भूमिका को सही ठहराती है क्योंकि इससे पुलिस को कुछ पुख्ता सबूत मिलते हैं. अब तक हुए ३०० से अधिक परीक्षण व इससे भी कहीं अधिक की गयी मांगों में न्यायालय व पुलिस का रवैया साफ तौर पर देखा जा सकता है. तेलगी प्रकरण में किये गये नार्को परीक्षण के दौरान कई बडे़-बडे़ नेता और आला अधिकारियों के नाम लिये गये थे पर अब तक उन सुरागों का पुलिस ने कही इस्तेमाल नही किया है.यहाँ तक कि इन नेताओं और अधिकारियों से पुलिस ने सवाल-जबाब तक नहीं किये.दूसरे मामले में यदि न्यायालय का रुख देखें जिसमें शेख्शोहराबुद्दीन के फर्जी मुठभेड़ और कौसर बी की हत्या पर गुजरात की अदालत ने आई.पी.एस. अधिकारियों जिसमे डी.जी.पी. बजारा समेत अन्य छः पुलिस कर्मी भी सम्मलित थे,के नार्को टेस्ट की याचिका खारिज कर दी थी ये घटनाये यह स्पष्ट करती हैं कि नार्को टेस्ट किसका होता है और सबूत किनके लिये जुटाये जाते हैं ऎसे में इस तरह का परीक्षण मानवाधिकारों का हनन है और एक लोकतांत्रिक देश में इस तरह की कार्य्वाही एक अभियुक्त के लिये जिसका कि अपराध भी सिद्ध न हुआ हो यातना के एक विकल्प के शिवा कुछ नहीं है.

01 सितंबर 2008

बिहार में बाढ़ पर रेयाज-उल-हक की रिपोर्ट

मधेपुरा से सिंहेश्र्वर की ओर जानेवाली सडक पर पथराहा गांव में मिलते हैं जोगेंदर यादव। सडक किनारे एक पान की दुकान के सामने मचान पर बैठे वे पानी को अपनी 'खर छपरी' में घुसते हुए देखते हैं। पानी ने सुबह ही पथराहा में प्रवेश किया है। कोसी का लाल पानी. कल दोपहर में गांववालों ने उसकी रेख देखी थी, गांव के पूरब. आज वह उनके घरों से, आंगन से, बांस-फूस की दीवारों से होता हुआ बह रहा है. कौवे उसकी फेन में जाने क्या ढूंढ रहे हैं. कुत्ते उसे सूंघते हैं और भडक कर भागते हैं. गोरू उसमें खुर रोपने से डरते हैं. एक-एक सीढी डुबोते हुए, एक-एक घर पार करते हुए, एक-एक गली से राह बनाते हुए सडक पर आकर वह अपनी थूथन पटकता है. कहीं-कहीं कमर भर पानी है गांव में. ७० साल के बूढे जोगेंदर ने सामान तो मचान पर चढा दिया है, लेकिन गेहूं-मकई नहीं चढा पाये. अकेले हैं. दोनों बेटे बहुओं-बच्चों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाने गये हैं. खैनी ठोंकते हुए वे हंसते हैं- उदास हंसी-यही तेजी रही तो कल तक सडक पार कर जायेगा पानी. ६५-७० साल की जिदंगी में पहली बार देखा है अपने घर में पानी भरते हुए. घर गया. अनाज गया. उनके खेत उन्हें खाने लायक अनाज दे देते हैं- गेहूं, धान, मकई. इस बार सब खत्म. खेत में खडी धान की फसल को बाढ लील गयी, घर में रखा अनाज पानी में डूब गया.
... लोग जुट आये हैं. वे सुनाते हैं- सौ साल पहले यहां कोसी बहती थी. अब लगता है, वह फिर लौट आयी है. बेचन यादव, कारी, तेजनारायण, रामदेव, संजय व शैलेंद्र ... दर्जनों लोग, सबके पास कई-कई कहानियां. किसी के आंगन में पोरसा भर पानी है, तो किसी के घर में सांप घुस आया है. अभी लेकिन सब शांत हैं-चिंता की एक रेख तक नहीं है. कहते हैं अभी सडक तो है ही सोने के लिए. ज्यादा डूबने लगेगा तो प्लान करेंगे निकलने का.
...लेकिन बूढे जोगेंदर को यह भी चिंता नहीं. वे अपनी खैनी होठों के नीचे दाब चुके हैं-'हम अकेले आदमी, मर जायेंगे तो क्या होगा ङ्क्ष सांप भी कांट लेगा, तो क्या होगा ङ्क्ष
१० साल के कुंदन का घर सडक की दूसरी ओर है- सूखे में. वह आधे गांव को डूबते हुए देखता है-अपलक. डर ङ्क्ष 'डरेंगे क्यों ङ्क्ष सब मरेगा कि हमीं मरेंगे ङ्क्ष... सब न मरतय.
लेकिन उससे दो साल छोटा मन्नू जिदंगी को उससे ज्यादा संजीदगी से लेता है-' डरना क्या है ङ्क्ष पानी बढेगा तो जहां सब जायेंगे, वहीं हम भी जायेंगे.'
पानी बढ रहा है. अपने गांव, घर, चूल्हे, खिडकी-दरवाजों को इंच-इंच डूबते हुए देखना-एक त्रासदी है. पानी अपने एक नये रूप में मिल रहा है - इनमें से अनेक पीढियों को. वे अपने तरीकों से इसकी तैयारी में जुटे हैं.
जोगेंदर की निर्लिप्तता, कुंदन की सहजता और मन्नू की जीवटता-सुनने लायक चीजें हैं, लेकिन उन्हें सुनने को कोई तैयार नहीं... लगभग एक सदी बाढ लौटी कोसी भी नहीं.
... पानी बढ रहा है.

***
सिंहेश्र्वर मंदिर धर्मशाला से निकलती दलित औरतों के मुंह से कुछ अस्फुट से बोल फूटते हैं-सगरे समैया हे कोसी माई, सावन-भादो दहेला... पूजा गीत. औरतों के चेहरों पर उदासी मिश्रित भय है... हर मंगल को दीप जलाने-संझा दिखाने के बाद भी नहीं मानीं कोसी माई.
...परसा, हरिराहा, कवियाही, रामपुर लाही... शंकरपुर व कुमारखंड प्रखंडों के दर्जनों जलमग्न गांवों से उजडे हजारों लोग पिछले चार दिनों से धर्मशाला में डेरा डाले हुए हैं. यहां रहने के लिए पक्के कमरे हैं. मूढी, चूडा, चीनी, खिचडी व बिस्कुट सबका इंतजाम है. बच्चे चूडा-गुुड पाकर खुश हैं...बेवजह शोर मचा रहे हैं. बूढे-बुजुर्ग माथे पर जोर देकर याद करने की कोशिश करते हैं कोई पुरानी बात... बाप-दादों की स्मृतियों को भी खंगाल रहे हैं-'उंहू . ऐसी बाढ मेरे देखे में तो कभी नहीं आयी. बाप-दादे भी कुछ नहीं बता गये. ३० साल पहले पानी भरा था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि पाट की पूरी फसल डूब जाये फुनगी तक.'
...ऐसा नहीं हुआ कभी. ६० साल के परमेसरी साह हतप्रभ हैं. जिले में बाढ ने सबसे अधिक कुमारखंड और शंकरपुर प्रखंडों में नुकसान पहुंचाया है. यदुनंदन मेहता कुमारखंड की हरिराहा पंचायत के हैं. २० अगस्त की शाम को वे अपने गांव में चौक पर घूम रहे थे कि एकाएक साइफन में देखा कि पानी बढ गया है. गांववालों को पहले से अंदेशा नहीं था. जैसे-तैसे भागे सब. २३ तारीख तक यदुनंदन लोगों को अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा कर सिंहेश्र्वर लाते रहे. फिर रास्ता बंद हो गया. गांव के तीन हजार से ज्यादा लोग या तो वहीं फंसे हुए हैं या अन्य जगहों पर चले गये हैं. शंकरपुर प्रखंड के परसा गांववालों के लिए भी बाढ अचानक आयी.
२१ अगस्त की सुबह तीन बजे पानी गांव में घुस आया. गांव की पांच हजार आबादी में से अधिक वहीं फंसी हुई है. करीब सौ लोग निकल पाये हैं. गांव में चार फुट से ज्यादा पानी है अभी. रामचंद्र दास उदास हैं. वे अपनी दो बीघे में लगी धान की फसल, एक बीघे पाट और पांच मवेशियों को याद करते हैं-'सब बह गये. धान इस बार अच्छा लगा था. पांच किलो खाद हर कट्ठे में दिया था. सब खत्म.
जयकुमार साह के लिए भी यह कम नुकसानदेह नहीं रही. उनके १०० सदस्योंवाले परिवार की ५० भैंसें पानी में बह गयीं. अभी भी उनके मां-पिताजी गांव (परसा) में फंसे हुए हैं. उनकी चार बीघे में लगी धान की फसल भी डूब गयी.
...गांव में से इक्के-दुक्के लोग किसी तरह सुरक्षित जगहों पर अब भी पहुंच रहे हैं. नये आनेवाले ये लोग गांव की नयी खबरें भी साथ लाते हैं-प्रायः दुखद खबरें. ... हुकुम राम की मां मर गयीं-डूब कर. मचान पर थी, उसी पर से गिर गयीं. पानी का 'अदक' (आतंक) नहीं सह पायी ७० साल की बूढी. उसके घरवाले अभी मचान पर हैं. परसा में कल पानी घटने लगा था... आज फिर बढ गया.
...लोग चुप हो जाते हैं कुछ क्षण. उधर कोने में कोई सिसक उठता है... कारी कोसी जाने क्या लेकर मानेगी.
१८ किलोमीटर है सिंहेश्र्वर से परसा. कल तक सडक चालू थी, आज जिरवा पुल टूट गया-सो रास्ता बंद. लालपुर रोड पर भी भर घुटना भर पानी है. मतलब कि नाव के बिना अब गांववाले निकल नहीं सकते.
सबके घर का कोई -न -कोई गांव में फंसा हुआ है. सब उदास हैं. १२ साल का एक लडका धीरे से आकर बैठ जाता है-मिथुन कुमार दास. कहता है 'लिख लीजिए, मैं अकेले हूं यहां. मम्मी-पापा सहित सारे घरवाले गांव में हैं.' वह दो-तीन दिन पहले किसी काम से कवियाही आया था. इस बीच बाढ आ गयी और वह यहां रह गया. सभी अपना नाम लिखाना चाहते हैैंं. दीनबंधु साह आठ आदमी. रवींद्र कुमार दास-तीन आदमी. सत्यनारायण साह-पांच आदमी. परमेसरी साह-पांच आदमी. संतोष शर्मा-पांच आदमी. बेचन, शिबू, कमलेश्र्वरी ...नामों की अंतहीन सूची है. जो निकल आये हैं, वे चाहते हैं कि फंसे हुए लोग भी निकल आयें. देर हो रही है, तो वे धैर्य खोते जा रहे हैं. चूडा-गुुड मिल रहा है तो क्या, जब परिवार ही साथ नहीं तो...
परिवारों को फिर से साथ आने में समय लगेगा. उजडे घरों को फिर से बसने में भी और पानी को उतरने में भी.
...वह तो अभी बढ ही रहा है.

कटैया बाजार पर पंडा नगर से भैंसे हांक कर ला रहे किसानों ने बताया-वीरपुर बाजार में कमर भर पानी है. भीमनगर बाजार में सरकारी राहत शिविर के सामने आधे घंटे से रोटियों के लिए खडे विकास कुमार राम ने आग्रह करते हुए लिखाया-'वीरपुर के कुमार चौक में ५० आदमी फंसे हुए हैं.' विकास आज ही वीरपुर से निकला है किसी तरह.
कोसी ने लगभग पूरी तरह लील लिया है वीरपुर को. क्या बचा है वहां अब. जो दशा है वहां की ... एक-एक कर नयी सूचनाएं मिल रही हैं वीरपुर से-मानो एक अंधकार से परदा उठ रहा हो.
वीरपुर से कुसहा की दूरी महज छह किलोमीटर है और सोमवार को बांध टूटने के बाद भारत में पहला बडा आघात वीरपुर को झेलना पडा.
सोमवार की सुबह से ही वीरपुर बाजार में अफवाहें थीं कि बांध को खतरा है, लेकिन अधिकारिक तौर पर कोई सूचना नहीं थी. इससे लोगों ने निकलने की तैयारी भी नहीं की. बूढ-पुरनियों ने इन अफवाहों को चुटकी में उडा दिया-पानी तो आता ही रहता है. इस बार भी आया है, तो पहले की तरह ही निकल जायेगा. ...खतरे की गंभीरता का अंदेशा किसी को नहीं था.
लेकिन शाम साढे छह बजे पानी शहर में घुसा और घंटे भर में पूरा शहर तीन से चार फुट पानी से भर गया. किसी को निकलने का मौका नहीं मिला. पूरा हफ्ता निकल जाने पर भी वीरपुर में आधा से अधिक लोग फंसे हुए हैं. राहत अब कुछ जाने भी लगी है, तो वह सिर्फ वीरपुर तक सीमित है. आसपास के गांव अब भी अछूते हैं. भीमनगर में मिले परमानंदपुर के एक निवासी ने बताया कि उधर अब तक कोई पहुंचा ही नहीं. रानीपट्टी से आ रहे रंजीत पासवान ने सूचना दी-सारे आदमी फंसे हुए हैं गांव में. बसमतिया रोड पर ३०-४० फुट जगह बची है. उसी पर डेढ-दो हजार आदमी रह रहे हैं. खाने-पीने का कोई सामान नहीं. दो-तीन आदमी मर भी गये हैं. कटैया से वीरपुर आठ किलोमीटर है और भीमनगर से पांच. अब नावें वीरपुर तक पहुंचने लगी हैं, लेकिन वे बहुत महंगी हैं. एक नाव एक बार वीरपुर जाने के लिए पांच से छह हजार रुपये लेती है. उसमें भी पानी की धार देखते हुए इन छोटी नांवों से वहां जाना जोखिम भरा है.
कटैया में एक चाय दुकान पर मिलते हैं, दिलीप कुमार गुप्ता. उनके पास वीरपुर से आज सुबह तक की सूचनाएं हैं-अब भी हरेक कॉलोनी में सात फुट पानी है. वीरपुर कोसी पुल के हॉस्टल की छत पर तीन सौ आदमी हैं. फतेहपुर स्कूल पर ५०-६० आदमी हैं. कहीं कोई मदद नहीं मिल पायी है .
वे सुनाते हैं-पूरा गांव भंस गया है फतेपुर का. वीरपुर बाजार में अरबों की संपत्ति का नुकसान है. क्वार्टरों में चोरियां बढ गयी हैं. जो नाववाला दिन में वीरपुर से कटैया पहुंचाता है, वही रात में जा कर खाली घरों पर हाथ साफ करता है. तीन महला मकान गिर रहे हैं. दिलीप कटैया में वीरपुरवालों को सूचना देते हैं चिल्ला कर : चानो मिस्त्री, रमेश कुमार, अख्तर बैंड, दुक्खी बैंड, मनोज पाठक के मकान टूट गये हैं.
कुछ दूसरी सूचनाएं भी मिली हैं- वीरपुर जेल में ८७ कैदी थे. असुरक्षित. चार दिनों से उनका खाना बंद था. जेल के कर्मचारी भाग चुके थे. अंत में कैदियों ने धोतियां-चादरें जोडीं और भाग गये. उनमें से कितने बचे-कितने डूब गये, अभी कौन बता सकता हैङ्क्ष सिविल कोर्ट, अनुमंडल ऑफिस के हजारों रेकॉर्ड पानी में खत्म. धान और पाट की खेती डूब गयी. बीसियों हजार लोग बरबाद हो गये.
भीमनगर से कटैया आनेवाली सडक राहगीरों से भरी है. उजडे-बरबाद हुए परिवार छोटे ठेलों पर, कंधे पर सामान लिये जानवर हांकते आ रहे हैं. थके-हारे चेहरे-उदास आंखें. लोग हंसना भूल गये हैं. गलती से कोई बाहरी आदमी हंस दे, तो लोग चौंक उठते हैं. जानवर तक डकरना भूल गये हैं. बूढी, कमर झुकी औरतें भी, बच्चे भी गठरियां उठाये तेजी से चल रहे हैं. कहां पहुुंचना है, पता नहीं. कोसी ने उन्हें कहीं का नहीं छोडा.
... सडक के किनारे बाढ का पानी तेजी से थांप मारता है. कभी-कभी कोई गाडी भीड के बीच से गुजर जाती है सीटी बजाती हुई... एक औरत रास्ते की दूसरी ओर अपने किसी परिचित से कह रही है-वीरपुर तो अब सपना हो गया.
... कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता.

***
हफ्ते भर से वीरपुर में फंसे लोग अब निकलने लगे हैंं-लेकिन उनमें से भी वही लोग निकल पा रहे हैं, जो नाव के लिए दो से छह हजार रुपये खर्च कर पाने में सक्षम हैं.
स्वीटी फ्रांसिस उनमें से एक हैं, जो अपनी मां, दादी और बहनों के साथ मंगलवार को वीरपुर को पीछे छोड आयीं. बाहर निकल आने की आश्वस्ति उनके चेहरे पर है, लेकिन अब भी वीरपुर में उनके दो भाइयों समेत पांच परिजन फंसे हुए हैं. ये सात दिन स्वीटी के लिए किसी यातना से कम नहीं रहे. वह याद करती है-नमक तक कोई नहीं दे रहा है. एयरड्रॉपिंग का कोई खास फायदा नहीं है. पैकेट पानी में गिर जाते हैं.
वीरपुर में राशन और दवाइयों की कुछ दुकानें खुली हुई हैं, लेकिन राशन दोगुने-तिगुने दाम पर मिल रहा है. इसके अलावा उसे बनाने का संकट भी है. स्वीटी बताती है कि उसके वार्ड नंबर चार के वार्ड मेंबर की गोल चौक पर सरकारी राशन की दुकान है. उन्होंने कुछ भी देने से मना कर दिया. चावल ३० से ४० रुपये किलो तक बिक रहा है. चूडा सौ रुपये तक.
स्वीटी को याद है, सोमवार की सुबह से ही ऐसी अपुष्ट खबरें आने के बाद कि बांध टूटनेवाला है, बाजार में चीजों के दाम बढ गये थे. सोमवार के दिन मूढी ४० रुपये किलो तक बिकी. दिन में दो बजे के करीब कुछ युवकों ने खबर दी कि बांध टूट गया. लेकिन तब भी लोगों को यकीन था कि सरकारी तौर पर कोई सूचना जरूर मिलेगी. उन्होंने अफवाहों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया. उधर मधुबन जंगल में पानी भरने लगा था. शाम को राजमार्ग तोड दिया गया और इसके बाद वीरपुर में पानी भर गया.
फ्रांसिस परिवार ने जैसे-तैसे खाने का कुछ सामान बचाया और छत की शरण ली. लेकिन शहर की सारी आबादी को छतें उपलब्ध नहीं थीं, जहां वह शरण ले सकती. गरीबों के बांस-फूस के झोंपडे थे. वे डूबे भी-बहे भी. कइयों ने दूसरों की छतों पर शरण ली.
पहले तो वीरपुर के निवासियों ने सोचा कि पानी दो-तीन दिनों में निकल जायेगा, जैसा कि पहले भी हो चुका था. लेकिन उनकी उम्मीदें सही साबित नहीं हुईं. वीरपुर और टूटे हुए कुसहा बांध के बीच में पडते हैं नेपाल के गांव-लाही, हरिपुर, शिवगंज और दूधगंज. उन गांवों में तो अब घर भी नहीं दिखते. सिर्फ पेड खडे दिख रहे हैं. वीरपुर के अलावा भवानीपुर, सीतापुर, हृदयनगर और प्रखंड मुख्यालय बसंतपुर भी पूरी तरह तबाह हो चुके हैं.
बाढ से घिरे इलाकों में भूख से मौतें शुरू हो चुकी हैं. फ्रांसिस परिवार ही नहीं, वीरपुर से निकले कई अन्य लोगों ने भी सूचना दी-परमानंदपुर मदरसा में फंसे १२ लडके भूख से मर गये २३ अगस्त को. २५ को बसमतिया में २० लोग डूब गये हैं....आठ साल का एक बच्चा एयरड्रॉपिंग का पैकेट लपकने में छत से गिर कर मर गया. वीरपुर अस्पताल के प्रभारी डॉक्टर वीरेंद्र प्रसाद की इलाज के अभाव में शनिवार को मौत हो गयी.
...नक्शा फैला कर देखिए-पश्चिम में भीमनगर से पूरब बसमतिया तक का पूरा इलाका कोसी में समा चुका है. लोग जिंदा तो हैं, लेकिन हर पल जीवन उनसे दूर होता जा रहा है.
...मुसलिम टोले में २०० लोग फंसे हुए हैं. सेंट्रल बैंक कॉलोनी (वार्ड चार) में सौ से अधिक लोग फंसे हुए हैं. वीरपुर से दो किमी पूरब पटेरवा में दो हजार लोग फंसे हुए हैं. उनमें बच्चे हैं, महिलाएं हैं, बूढे हैं.
...और ऐसे में वीरपुर लहरी टोल की ज्योति पराया ने २० तारीख को एक बच्चे को जन्म दिया. चारों ओर से पानी से घिरे एक काठ के घर की छत पर शरण ली हुईं चार बहनों को भाई मिला...लेकिन वह बचेगा कैसेङ्क्ष मकान धंसा तो क्या होगाङ्क्ष कौन जानता है कि मकान धंस नहीं गया होगाङ्क्ष रोज ही शहर (!) में घर गिर रहे हैं. छतें टूट रही हैं. दीवारें धंस रही हैं.
स्वीटी को इन सात दिनों में अपने पापा की बहुत याद आयी. सिंचाई विभाग में इंजीनियर रहे और कुसहा बांध के इंच-इंच से परिचित स्वीटी के पापा कहते थे-कुसहा बांध टूटे तो कभी वीरपुर में मत रहना. कोसी इसे बरबाद कर देगी.
पापा के निधन के कई वर्षों बाद स्वीटी पाती है कि उसके पापा कितने सही थे.
***
कटैया जैसे छोटे बाजार के लिए इतनी भीड बहुत अनहोनी बात है. साल में सिर्फ विश्वकर्मा पूजा के मेले में ऐसी भीड जमा होती है. लेकिन वह तो मेला होता है. बिहार स्टेट हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कारपोरेशन में कार्यरत राकेश कुमार इसके लिए एक दूसरा नाम सुझाते हैं : आफत मेला.
वास्तव में यह आफत मेला है. कटैया हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट से दक्षिण से लेकर भंटाबाडी (नेपाल) तक चले जाइए-अस्थायी तंबुओं (इन्हें अगर आप तंबू कह सकते हों) में रह रही हजारों की आबादी आफत में फंसी हुई है. कटैया की हर इंच पर उजडे परिवार बसे हुए हैं. हर तरफ, बांस-फूस से बनी दुकानों से बची खाली जगह से लेकर मंदिर परिसर, धर्मशाला और दूसरी सभी जगहों पर विस्थापितों के तंबू गिरे हुए हैं-छोटे से घेरे में घर का बचा-खुचा सामान और बहने से बच गये लोग. वीरपुर, बैजनाथपुर, लालपुर खंटाहा, भवानीपुर, बलुआ, भारदह से आये हुए लोग अपने जानवरों के साथ बोरे और चादरें आदि टांग कर रह रहे हैं. हर समय कुछ नये परिवार आ रहे हैं और खाली जगहों पर कुछ नये तंबूनुमा डेरे खडे हो जाते हैं. राज्य के आपदा प्रबंधन मंत्री नीतीश मिश्रा बलुआ के निवासी हैं. बलुआ से आये लोग बताते हैं कि वहां न कोई नाव है, न राहत. बलुआ हाइ स्कूल पर २०० लोगों ने शरण ली थी. शुक्रवार २२ अगस्त को छत गिर गयी. उनमें से कम ही होंगे, जो बच पाये होंगे.
लेकिन जो जीवित हैं, वे भी हताश हो रहे हैं. एक टेंट में सूखा चूडा फांक रहे उपेंद्र प्रसाद कहते हैं-'और दो चार दिन कुछ नहीं मिला तो लोग भूखे मर जायेंगे. अभी तो जिंदा देख रहे हैं न, चार दिन बाद लाश देखियेगा लोगों की.'
भीमनगर के पुराना बाजार चौराहे पर बाढ राहत शिविर में कुछ लोग जमा हो गये हैं-दवा काउंटर के पास. शिविर में बैठा एक नेतानुमा व्यक्ति स्थानीय लोगों और अधिकारियों को बता रहा है-'मेरा तो एक बयान ऐसा आया है कि उसे हिंदुस्तान टाइम्स तक को छापना पडा है.'...ऐसी आफत में भी इतना हृदयहीन हो सकता है कोईङ्क्ष
हाथ में नोटबुक देख कर पास ही में बैठे पुलिस के एक अधिकारी ने अखबारों पर टिप्पणी की-'कुछ छाप नहीं रहे हो तुमलोग जी. जनता मर रही है यहां.' लेकिन वहीं बैठे बाढ राहत के एक प्रभारी अधिकारी कोई रिस्क लेना नहीं चाहते. उतने बोल्ड नहीं हैं. राहत कार्यों के बारे में पूछने भर से वे खडे हो जाते हैं-'जो पूछना है, डीएम से पूछिए जाकर. हमारी नौकरी मत लीजिए भाई.'
सडक की दूसरी ओर एक चाय दुकान पर चाय 'सर्व' करनेवाला बच्चा पानी का गिलास रखते हुए लगभग इशारे में बताता है-'यहां लोग पांच दिन बिना खाये रहा है. तीन दिन से पूडी बन रहा है, तब जिंदा देख रहे हैं इनको.' वह अपने दोनों हाथों की अंगुलियां फैलाता है-दस हजार लोग मरा है.
शिविर के सामने पंक्तियों में बैठे कुछ बच्चे और महिलाएं भोजन का पौन घंटे तक इंतजार करने के बाद उठने लगे हैं. हालांकि इस पूरी अवधि में तेजी से पूडियां तली जाती रही हैं. वे बंटेंगी, लेकिन कब, पता नहीं.
उन्हीं के बीच से गुजरती हुई, अपने मल्लाह पति को खाना ले जाती हुई और बाढ के प्रकोप से बची हुई एक नेपाली महिला कोसी को गोहारती है, अपनी भाषा में :
कौने नइया डूबेइगो कोसी माई
कौने नइया उगइबो कोसी माई,
मईया गो उतरइबी पार...
पापे नइया डूबेइगो कोसी माई,
धरमे नइया उगइबो कोसी माई,
मईया गो उतरइबी पार...

26 अगस्त 2008

समाजवाद का भविष्य अन्तिम

वास्तविक आस्तित्वमान समाजवाद- जो मार्क्स का समाजवाद नहीं था और जिसकी संभावनायें अभी खुली हुई हैं- शायद असफल हो गगा है. लेकिन वास्तविक आस्तित्वमान पूंजीवाद- जो पूंजीवाद का मात्र एक ही संभावित प्रकार है- निश्‍चित तौर पर जिस तरह से बना था उसी तरह से नहीं सफल हो सका है. किसी भी व्यवहारिक निर्णय में पूंजीवाद हमारे समय में सबसे अधिक पतित है. एक और बात कि, पूंजीवाद उपलब्धियों के आकलन के सर्वाधिक वैधानिक कसौटी की सामाजिक व्यवस्था के रूप में; समाज में उपलब्ध वास्तविक तथा क्षमतावान संसाधनों द्वारा 'रोजगार की संपूर्णता' तथा 'रोजगार की अच्छाई' के संदर्भ में एक संभावना के बतौर पूरी तरह असफल हो चुका है. मानव इतिहास में इसके पहले समाज की उत्पादन संभावना तथा समाज की प्रगति/उपलब्धियों के बीच इतना विशाल अंतर कभी नहीं रहा जितना कि आज के पूंजीवाद के विकास की वर्तमान अवस्था में है. इस बात के साक्ष्य हैं कि तीन सफल औद्योगिक क्रांतियों की असाधारण उत्पादन क्षमता ने मनुष्यता का परित्याग कर दिया है तथा गरीबी और अशिक्षा, मैली कुचली झोपड़पट्टियों तथा पूंजीवादी विश्व के सबसे धनी देशों के लाखों से ज्यादा परिवारों तथा तीसरी दुनिया के गरीब देशों की परिधि तथा अर्धपरिधि में सिकुडी़ झोपड़ियों में भूख तथा दुर्दशा नें हज़ारों लाखों लोगों के जीवन को व्यर्थ बनाकर छोड़ दिया है. आज हमारे समय में तीसरी दुनिया निश्‍चित तौर पर पूंजीवाद के पतन का प्रतीक है........
जैसा कि पहले ही इशारा किया गया है कि इस दो असफलताओं के बीच एक अंतर है जिसे विशेष तौर पर ध्यान देना चहिए. समाजवाद कुछ समय के लिए असफल हुआ है लेकिन फिर भी मानवता को बचाए रखने तथा एक सुरक्षित दुनिया की आशा में तथा मानव जाति के जीवन मूल्य के लिए एक विकल्प के रूप में यह बचा हुआ है. इसे दोहराने की जरूरत है कि पूंजीवाद के अस्वीकार्य आर्थिक, नैतिक तथा पर्यावरणीय परिणाम, अपने यहां तथा विदेशों मे भी बर्बरता की ओर ले जाने वाली बेरोजगारी, गरीबी, असमानता को रोकने में असफलता, व्यवस्था का भटकाव या विशेष परिस्थितियों अथवा 'गलत' नीतियों द्वारा उत्पन्न 'नकारात्मक' प्रभाव नहीं है. यह सब पूंजीवाद के न सुधरने वाले तथा अनियंत्रित तंत्रजनित अथवा ढांचागत तर्क खुद व्यवस्था में निहीत शोषण तथा ध्रुवीकरण के तर्क के उत्पाद हैं. अतः ये प्रभाव, यद्यपि एक निश्‍चित दौर में कम होने तथा अन्य में बढ़ने के बावजूद, स्थायी हैं. इसलिए ये जरूरी रूप से ही असाध्य हैं. दुसरे शब्दों में हमारे समय में पूंजीवाद का पतन अपने लिए एक व्यवस्थित या संरचनागत जरूरत अथवा अपरिहार्यता लिए हुए है. बदले में, सोवियत संघ में समाजवाद की असफलता कोई व्यवस्थाजनित य संरचनागत मजबूरी नहीं लिए हुए थी. राजनीति निर्देशित अर्थव्यवस्था के कारण समाजवाद में, साधारणतया बाजार आधारित पूंजीवाद जैसे कोई ढांचागत तर्क अथवा 'कानून' नहीं होते. समाजवाद प्राथमिक रूप से सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच त्रुटियों, सत्ता में रहते हुए कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा गलत चुनाव कॆ कारण असफल हुआ. कम्युनिस्ट सत्ताओं (तथा यूरोप में सामजिक जनवादियों) की असफलता के प्रसंग में गैब्रियल कोल्को ने लिखा है कि "ऐसी स्थितियों में होते हुए भी समाज को मुक्‍त करने तथा उसके महत्वपूर्ण (साथ ही साथ स्थायी) ढंग से रूपांतरण करने में असफलता, उनकी विश्लेषणात्मक अक्षमता तथा ठहराव; उनके नेताओं तथा संगठन की सतत कमजोरी का प्रमाण है. यह वह यथार्थ है जिसने १९१४ के बाद अनगिनत देशों में सामाजिक जनवादी तथा साम्यावाद दोनों का सीमांतीकरण कर दिया जिसने पूंजीपति वर्ग तथा उसके सहयोगियों को, जो समाजवादी सत्ता द्वारा अपने कार्यक्रमों में सुधारों के छोटे हिस्सों के क्रियान्वयन के बगैर कभी भी जीवित नहीं रह सकते थे, सदियों की समस्या से मोहलत प्रदान कर दिया. जबकि इसने दूसरी तरह से लाठी को बहुत दूर झुका दिया लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि समाजवाद की असफलता निश्‍चित तौर पर एक मानवीय असफलता थी जो कि इसके बारे में कुछ भी अपरिहार्य नहीं था. अगली बार जब कहीं और जब कभी कोई प्रयास किया जायेगा इस असफलता द्वारा सीखे गए सबक मदद करेंगे. इसलिए समाजवाद पूंजीवाद का न सिर्फ एक मात्र विकल्प है बल्कि मानवता के लिए यह एक वास्तविक पसंद हैं......
सोवियत संघ में जैसा समाजवाद निर्मित किया गया था वह असफल हो गया. अन्य जगहों पर पूंजीवाद भी पतित हो गया है. समाजवाद, जिसको कि हम जानते हैं तथा पूंजीवाद ,जिस तरह आस्तित्वमान है दोनों कि हमारे समय में असफलता स्पष्‍ट करती है कि पूंजीवाद से समाजवाद/साम्यवाद में संक्रमण के मामले में महायुगीन संक्रमण की समस्या और समाजवाद के भविष्‍य के सवाल को हम अच्छी तरह समझ सकते हैं. दूसरे शब्दों में, हम ऐसी स्थिति में हैं जहां पुराना अपनी सकारात्मक संभावनाओं को समेटे है तह्ता नए में जन्म से ही कुछ समस्याएं होगीं. एक दूसरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ग्राम्शी ने लिखा है कि 'पुराना अपनी मौत मर रहा है और नवीन जन्म नहीं ले रहा है; इस अराजक काल में बडे़ विकृत किस्म के लक्षण दिखाई दे रहे हैं'. यह विकृत लक्षण हैं, आज के सभी उन्नत तथा कम उन्नत पूंजीवादी देशों में, पूंजीवादी सभ्यता के किसी गहरे संकट से ज्यादा, आज हमारे समय में पूंजीवाद के अनिवार्य पतन के, कम या आधिक मात्रा में, लक्षण दिखाई दे रहे हैं.......
आज हम जो कुछ देख रहे हैं वह एक युग का अंत है, पूंजीवाद से संक्रमण का युग. एक असमान दुनिया के गठन और पुनर्गठन के केंद्र के रूप में पूंजीवाद के विस्तार के इन पांच सौ विषम वर्षों में, आर्थिक मजबूती और लाभ कि परिधि तथा अर्धपरिधि के संदर्भ में पूंजीवाद अपने स्थायी अंतर्विरोधों को दबाने में सक्षम था लेकिन यह सब भविष्य में अपनी जीत के लिए स्थितियों को बदतर बनाए बिना नहीं हो सकता था. अब आगे की विस्तार की संभावना के धीरे धीरे खतम होने के साथ ही इस अंतर्विरोधों को पहले जैसे दबाना कठिन है. लोगों के लिए वास्तविक विध्वंसक परिणामों के साथ अधिक आक्रामक हो कर वे जो घोषणाएं कर रहे हैं वह खुद पूंजीवाद के वर्चस्व के युग को दर्शाती हैं. अपने सबसे अच्छे दिनों में भी पूंजीवाद, शुम्पीटर के प्रसिद्ध मुहावरे का प्रयोग करें तो 'रचनात्मक विध्वंस' की एक प्रक्रिया है.जैए ही पूंजी में बढो़त्तरी होती है, प्रतियोगी शक्‍तियों को जीवित रहने के लिए प्रतियोगी होना पड़ता है तथा जो रचनात्मक नहीं हो पाते विध्वंस को अंजाम देते हैं. बाजार तथा प्रतियोगिता की दुकान में विजेता, पराजितों से प्रतिद्वंदिता करते हैं तथा रचना तथा विध्वंस एक तथा एक समान हो जाते हैं. पराजित, यद्यपि वैयक्‍तिक इकाई या निरपेक्षतः अकुशल नहीं होते. वास्तविक दुनिया में पराजित जनता होती है और कई बार पूंजीपति भी हो सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत और सामुदायिक तौर पर अक्सर श्रमिक लोग ही होते हैं. 'रचनात्मक विध्वंस' का मतलब है- वास्तविक श्रमिकों की बेरोजगारी,समुदायों की निराश्रयता, पर्यावरण का विनाश तथा जनता की शक्‍तिहीनता. पूंजीवाद के रचनात्मक विध्वंस का का विनाशकारी पहलू अब ऐसे बिंदु पर पहुंच गया है ऐतिहासिक 'रेजन दि एत्रे' तथा बतौर उत्पादन प्रणाली के पूंजीवाद की न्यायसंगतता एकबारगी खत्म हो गई है तथा अब हम वैधानिक तौर पर यह कह सकते हैं कि पूंजीवाद अपने समय से ज्यादा, अपनी ऐतिहासिक वैधानिकता के काल से ज्यादा समय तक जीवित है.
पूंजीवाद की उपलब्धियां अब पूरी तरह से अतीत की हो चुकी हैं और इसका भविष्य सिर्फ मानवता के विध्वंस का ही वादा करता है. कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा है कि वर्ग संघर्ष 'या तो व्यापक तौर पर सामाजिक क्रांतिकारी पुनर्स्थापना में या फिर संघर्षरत वर्गों की आपसी बर्बादी से समाप्त होता है. बीसवीं सदी के महान वर्ग संघर्ष का परिणाम निश्‍चित तौर पर 'समाज की क्रांतिकारी पुनर्स्थापना' नहीं है. मार्क्स और एंगेल्स ने जिसे 'संघर्षरत वर्गों की सामान्य बर्बादी' कहा है वह पहले से ही समाज में हो रही है. अर्थव्यवस्थाएं हर जगह कसाईखाना बन गई हैं; लाचारी, गरीबी, धन की कमीं तथा संसाधनों की विलासितापूर्ण बर्बादी; कानून तथा व्यवस्था के व्यापक विध्वंस, मूर्खतापूर्ण क्षेत्रीयता तथा नस्लीय विवाद, देशों के बीच अथवा देशों के भीतर रोजमर्रा के नए युद्ध, जनसंहारक हथियारों के प्रसार तथा वैश्विक पैमाने पर आतंकवाद का खतरा, सब कुछ निगल जाने वाले पर्यावरणीय संकट, निकट भविष्य में ऐतिहासिक तौर पर बहुत वास्तविक संदर्भों में यह सब संघर्षरत वर्गों से ज्यादा 'समान बर्बादी के बिंदु हैं. पूंजीवाद का युग शायद अच्छी तरह से 'मानवता के संपूर्ण उन्मूलन' में ही खत्म हो जैसा कि मार्क्स द्वारा १८४५ में ही संभावना व्यक्‍त की गई थी. जिस परिप्रेक्ष्य को बाद मे रोजा लुक्जमबर्ग ने 'समाजवाद या बर्बरता' नामक उक्‍ति में व्यक्‍त किया. जिस खतरे को हम महसूस कर रहे हैं उसके संदर्भ में रोजा लुक्‍जमबर्ग के कथन को सुधारकर मेस्ज़रोज़ ने कुछ जोड़ते हुए कहा कि 'समाजवाद या बर्बरता', "अगर हम भाग्यवान हैं तो बर्बरता"--पूंजी के विनाशकारी विकास का अंतिम समायोजन मानवता का उन्मूलन है. ऐसी नियति 'मानवता का उन्मूलन' पूंजीवाद के अनियंत्रित धन बटोरने के तर्क में ही अंर्तनिहीत है. यह बिल्कुल ठीक कहा गया है कि पूंजीवाद के बारे में यह सच नही है कि 'इतिहास का अंत' हो गया है, जैसा कि बुर्जुवा विचारक हमें मानने के लिए कहते हैं, बल्कि इसका निरंतर आस्तित्व 'मनुष्‍य के इतिहास का' वास्तव में अंत कर देगा.....
पहले जैसा बताया गया है कि, चीजों के विस्तृत दृष्टि को लेकर, वर्तमान समय की पराजय तथा समाजवाद की वापसी उस उतार चढा़व की उपयुक्‍त दृष्टि है जो पूंजीवाद से समाजवाद में महायुगीन संक्रमण से अपरिहार्य तौर पर जुडी़ है......बीसवीं शताब्दी वैश्विक पूंजीवाद द्वारा दुनिया भर में संपूर्ण वर्चस्व के साथ शुरु हुई थी. तब मार्क्सवादी विश्‍लेषण के, और खुद मार्क्स के पूर्वानुमान के मुताबिक बीसवीं सदी में - प्रथम विश्‍वयुद्ध के उपरांत यूरोपीय क्रांति (जिसमें सिर्फ रूस की क्रांति ही कायम रह पाई), द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप में और फिर चीन, कोरिया, क्यूबा, वियतनाम, और हर जगह पूंजीवादी व्यवस्था के लगभग एक तिहाई आबादी और परिक्षेत्र में समाजवादी क्रांतियां संपन्न हुईं. पूंजीवाद की परिसीमा में समाजवाद जड़ें नहीं जमा सकता था जैसा कि पूंजीवाद ने सामंतवाद के भीतर किया. पूंजीवाद द्वारा प्रदत्‍त भौतिक आधारों पर बेहतर ढंग से निर्मित यह समाज की एकदम एक नई शुरुआत है, लेकिन जिन गरीब तथा पिछडे़ देशों में समाजवाद के निर्माण की ये कोशिशें हुई वहां ये आधार मुश्किल से ही मौजूद थे.. जो सबसे कमजोर तैयारी मे थे यह उनका कार्यभार था फिर भी इन देशों ने इस निर्माण के लिए संघर्ष किया तथा अफ्रीका व अन्य जगहों पर भी मार्क्सवाद व समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध आंदोलनों तथा क्रांतिकारी सत्ताओं का उदय हुआ. तथा पूंजीवाद तथा क्रांति के बाद समाजवाद की स्थापना के बीच लंबे समय तक जो प्रतिद्वंदिता रही वह अब बंद हो गई तथा उसका अचानक अंत हो गया. पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं के बाद, आने वाला भविष्य पूंजीवाद से संबंधित लगने लगा था लेकिन ऐसे परिप्रेक्ष्य सापेक्षतया नए हैं. कई सदियों से यह धारणा बहुत दूर थी कि पूंजीवाद तीसरी सहस्त्राब्दी तक बना रहेगा. लेकिन क्रांति पश्‍चात की प्रतिस्थापनाएं दिखाती हैं कि समाजवाड दूसरी सहस्त्राब्दी मे अंतिम दिनों में ही असफल हो गया. यद्यपि यह पहले दृष्‍टिकोण की समाप्ति नहीं है. समाजवाद का सोवियत प्रयोग असफल हो गया क्यूंकि वस्तुगत तथा आत्मगत दोनों तरह की स्थितियां इसके प्रतिकूल थीं. प्रारंभ में आर्थिक पिछडा़पन, फिर आंतरिक वर्गयुद्ध तथा सशस्‍त्र और निरस्त्र विदेशी हस्तक्षेप तथा वैश्विक पूंजीवाद के निरंतर प्रयासों ने समाजवाद के निर्माण में हर सफलता को बाधा पहुंचाया. इस राह के निर्धारक तत्व, अपर्याप्त तथा अक्सर ही गलत सिद्धांत थे जिन्होंने इस प्रयोग तथा कमजोर राजनीतिक नेतृत्व को दिशा निर्देश अथवा गलत दिशा निर्देश दिया. लेकिन जो जानना सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि जिस के लिए भी प्रयास हुए और जो भी कुछ असफल हुआ वह समाजवाद नहीं था बल्कि समाजवाद निर्माण के लिए पहला गंभीर प्रयास था. समाजवाद तथा साथ ही साथ क्रांति की उपलब्धियों के उद्‍देश्यों का जिन कारणों से जन्म हुआ वह अभी भी पहले से ज्यादा मौजूद हैं. इसे मानने का कोई कारण नही है कि प्रभुत्वशाली पूंजीवाद को हमेशा की ही तरह आश्चर्यचकित कर देने वाली नई क्रांतियां लंबे दिनों तक नहीं होंगी तथा समाजवाद के निर्मान के नए प्रयास नहीं किए जायेंगे. और इस बात को मानने के कई कारण हैं कि अनूकूल परिस्थितियों, ज्यादा समृद्ध सिद्धांत तथा बेहतर राजनीतिक नेतृत्व में भी ऐसे प्रयास सफल नही होगें......
यहां पूंजीवाद के उद्‍भव और विकास पर एक निगाह डालना काफी शिक्षाप्रद होगा. विद्वानों का मत है कि मध्यकाल के दिनों में पूंजीवाद अपनी गलत शुरुआत के बावजूद एक नहीं बल्कि कई घोषणाओं/उम्मीदों को समेटे हुए था. लेकिन विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रहने की ताकत की कमीं के कारण तथा उस दौरान मुख्यतः सामंती वातावरण के कारण कमजोर तथा विभाजित था. सामंती वातावरण से घिरा, आकार लेता पूंजीवाद आगे बढ़ने में असफल रहा. यह तब तक नहीं था जब तक कि बाद की सदियों में एक नया संयोग नहीं आया कि फुटकता पूंजीवाद, जिसने अपने पहले के विफल प्रयासों से लाभान्वित होकर जडे़ जमाया तथा अपने शत्रुओं को धराशायी करने के लिए पर्याप्त शक्‍तिशाली बनकर उभरे तथा आगे बढ़ सके, और अंततः यह प्रकट हुआ जैसे कि इग्लैंड तथा अन्य अटालांटिक समाजों में हुआ. एक बार उदीयमान होने के बाद सामंतवाद से संघर्ष लगातार जारी था, एक ऐसा संघर्ष जो प्रभुत्व के लिए दो वास्तविक आस्तित्वमान सामाजिक संरचनाओं के बीच था. यह संघर्ष राज्य सत्‍ता (उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार) तथा अपने हितों तथा विचारों के अनुसार समाज को संगठित करने के अधिकार के लिए था. इससे भी ज्यादा यह एक ऐसी प्रक्रिया का विस्तार था जिसमें एक नए सामाजिक ढांचे ने वैचारिक तथा आर्थिक दोनों तरह के अविवादित प्रभुत्व के लिए खुद को तैयार करने में पर्याप्त समय लिया. इसीलिए पूंजीवा हमारे समय में वैश्विक वर्चस्व के तंत्र के रूप में उपज सका तथा विकसित हुआ. जब तक कि इसमें छेद करने के लिए समाजवाद ने अपना पहला प्रयत्‍न नहीं किया, एक ऐसा प्रयत्‍न जो अभी असफल हो गया.....

09 अगस्त 2008

समाजवाद का भविष्य-५वीं पोस्टिंग

क्रांति अभी पूरी नहीं हुई है. वर्गों के बीच, शोषित और शोषकों के बीच, नये और पुराने सामाजिक ढाँचे के बीच मूलभूत तनाव इसलिए नहीं ख़त्म हो जायेंगे कि सोवियत संघ खतम हो गया और फ़ूकोयामा ने उद्‍घोषणा किया है कि 'इतिहास का अंत' हो गया. बीसवीं सदी की क्रंतियों में गतिशीलता तथा ताकत पैदा करने वाली ताकतें, जिस तरह पहले थीं आज भी हैं. 'ऐतिहासिक कम्युनिज़्म' के अंत से गरीबी अथवा न्याय के लिए लोगों की तड़प का अंत नहीं हुआ है. तीसरी दुनिया के गरीब तथा वंचित लोग अभी भी बेहतर जीवन की उम्मीद रखते हैं. अतीत या भविष्‍य में क्रांतियों के बारे में किसी अतिउत्साह के बगैर फ़्रेड हालिडे ने अपने हाल ही के अध्ययन में बताया है कि 'सत्ताधारी और धनी लोगों द्वारा अपने खिलाफ नफ़रत तथा इतिहास की क्षमता को पूरी तरह से समझने की लगातार अक्षमता बेहद आश्‍चर्यजनक है'. उन्होंने लिखा है कि "आधुनिक इतिहास में क्रांति का एजेंडा अभी भी हमारे साथ है क्योंकि जो उद्देश्य रखे गये थे वह अभी भी पहुँच से बहुत दूर हैं, यह अभी भी क्रांति को इतिहास के एजेंडे में रखे हुए है. क्रांति अभी भी ध्रुव सत्य है, हमारे समय की अधूरी कहानी-यह कहानी चाहे जिस आकार अथवा रूप मे हो और चाहे जितना भी लंबा समय लगे, यह कहानी पूरी कही जायेगी......
यह कहानी पहले भी दुनिया की क्रांतिकारी प्रक्रियाओं में कही गयी है और सोवियत संघ में असफल प्रयोग के फलस्वरूप प्रारंभिक धक्कों के बाद, समाजवाद मनुष्यता की जरूरत तथा संभावित भविष्य के रूप में दुबारा स्थापित हो रहा है. जैसे कि बोलिवियाई अपनी क्रांति की रक्षा के लिए अमरीकन साम्राज्यवादियों तथा इसके स्थानीय सहयोगियों द्वार संसदेतर प्रतिबंधों के षड्‍यंत्र के खिलाफ संघर्ष में मजबूती से डंटे हैं, वेनेजुलियाई '२१वी सदी में समाजवाद' के निर्माण की बात कर रहे हैं तथा क्युबा से प्रेरित होकर पूरे लैटिन अमरीका में 'गुलाबी' की जगह 'लाल' के आ जाने का खतरा महसूस हो रहा है. नेपाल में जनयुद्ध के लिए लड़ रहे तथा अब लोकतंत्र के युद्ध को जीतने के लिए संघर्षरत माओवादी 'समाजवाद की ओर ले जाने वाले' आत्मनिर्भर विकास की बात कर रहे हैं. पश्चिम में वैश्वीकरण के विरुद्ध संघर्ष और गहरा रहा है जैसा कि 'न्यू यार्कर' ने 'इसे कार्ल मार्क्स की वापसी' लिखा है तथा यूरोप में समाजवाद के नए प्रयोग की बात सुनी जा रही है. कभी भी संकीर्ण वर्गीय प्रोजेक्‍ट में न रहने वाला समाजवाद आज, जैसा कि पहले कभी नहीं था, कम्युनिस्ट घोषणापत्र में किए गए मार्क्स के दावे के अनुसार 'व्यापक लोगों के हित में व्यापक आंदोलन' के रूप में मजबूती से खडा़ है.
पूर्वी यूरोप तथा सोवियत संघ के विघटन ने कई विद्वानों, पत्रकारों, राजनेताओं, तमाम तरह के विचारकों तथा लेखकों को आसान खेल खेलने का खुला मौका दे दिया है। अगर समाजवाद परास्त हो गया तो इसका प्रतिद्वंदी पूंजीवाद जीत गया। योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्थायें अगर टूट बिखर गईं तो उसका धुर विरोधी, मुक्‍त बाजार आधारित पूंजीवाद जरूर विजयी हुआ है। इस तरह के पूरे अपचयनवादी तथा खतरनाक तथा बिल्कुल ही संदेहपूर्ण तर्क, जो सोवियत संघ में जो कुछ हुआ उसे ही समाजवाद के बराबर मानते हैं तथा इसकी असफलता को पूंजीवाद के विजय से जोड़ते हैं, न सिर्फ़ कमजोर हैं बल्कि व्यवहारिकता के धरातल पर बिल्कुल गलत हैं. किसी वस्तुगत मूल्यांकन से स्पष्ट है कि पांच सदियों के पुराने आस्तित्व के अंत तक वैश्विक पूंजीवाद आज सबसे पतित व्यवस्था है. इस पतन के प्रमाण, समकालीन पूंजीवादी विश्‍व के प्रत्येक भाग तथा प्रत्येक पहलू में बिल्कुल आसानी से देखने को मिल रहे हैं. दुनिया में हर जगह बढ़ रही दरिद्रता और दुर्दशा में यह लक्षण देखे जा सकते हैं, बढ़ती बेरोजगारी दर के आधिकारिक आंकड़ों, गरीबी, बेघरपना तथा भूख में, पश्‍चिमी बुर्जुवा लोकतंत्रों के बडे़ शहरों की नारकीय झोपड़पट्टियों में, भूतपूर्व सोवियत खण्‍डों की फुदकी राजधनियों में शहरी घेट्टों की विशाल बढ़ोत्तरी में तथा दक्षिणी क्षेत्रों में व्यापक तौर पर झोपड़पट्टियों की संकीर्ण गलियों के अचानक ढहाए जाने में; दुनिया की संपूर्ण असमानताओं में, निर्धनों की दरिद्रता में तथा धनी पश्‍चिमी समाजों और गरीब देशों की व्यापक जनता की बदहाली के बीच बढ़ती खाई में; पूंजीवाद द्वारा हर जगह पैदा की गई नैतिक रुप ने असहनीय तथा सामाजिक रूप से गैरजरूरी पीडा़ में, जिसे बोर्दिये ने- ला मिज़रे द मोंद कहा है......... जारी

07 अगस्त 2008

समाजवाद का भविष्य:-४

क्रांति अभी पूरी नहीं हुई है. वर्गों के बीच, शोषित और शोषकों के बीच, नये और पुराने सामाजिक ढाँचे के बीच मूलभूत तनाव इसलिए नहीं ख़त्म हो जायेंगे कि सोवियत संघ खतम हो गया और फ़ूकोयामा ने उद्‍घोषणा किया है कि 'इतिहास का अंत' हो गया. बीसवीं सदी की क्रंतियों में गतिशीलता तथा ताकत पैदा करने वाली ताकतें, जिस तरह पहले थीं आज भी हैं. 'ऐतिहासिक कम्युनिज़्म' के अंत से गरीबी अथवा न्याय के लिए लोगों की तड़प का अंत नहीं हुआ है. तीसरी दुनिया के गरीब तथा वंचित लोग अभी भी बेहतर जीवन की उम्मीद रखते हैं. अतीत या भविष्‍य में क्रांतियों के बारे में किसी अतिउत्साह के बगैर फ़्रेड हालिडे ने अपने हाल ही के अध्ययन में बताया है कि 'सत्ताधारी और धनी लोगों द्वारा अपने खिलाफ नफ़रत तथा इतिहास की क्षमता को पूरी तरह से समझने की लगातार अक्षमता बेहद आश्‍चर्यजनक है'. उन्होंने लिखा है कि "आधुनिक इतिहास में क्रांति का एजेंडा अभी भी हमारे साथ है क्योंकि जो उद्देश्य रखे गये थे वह अभी भी पहुँच से बहुत दूर हैं, यह अभी भी क्रांति को इतिहास के एजेंडे में रखे हुए है. क्रांति अभी भी ध्रुव सत्य है, हमारे समय की अधूरी कहानी-यह कहानी चाहे जिस आकार अथवा रूप मे हो और चाहे जितना भी लंबा समय लगे, यह कहानी पूरी कही जायेगी......
यह कहानी पहले भी दुनिया की क्रांतिकारी प्रक्रियाओं में कही गयी है और सोवियत संघ में असफल प्रयोग के फलस्वरूप प्रारंभिक धक्कों के बाद, समाजवाद मनुष्यता की जरूरत तथा संभावित भविष्य के रूप में दुबारा स्थापित हो रहा है. जैसे कि बोलिवियाई अपनी क्रांति की रक्षा के लिए अमरीकन साम्राज्यवादियों तथा इसके स्थानीय सहयोगियों द्वार संसदेतर प्रतिबंधों के षड्‍यंत्र के खिलाफ संघर्ष में मजबूती से डंटे हैं, वेनेजुलियाई '२१वी सदी में समाजवाद' के निर्माण की बात कर रहे हैं तथा क्युबा से प्रेरित होकर पूरे लैटिन अमरीका में 'गुलाबी' की जगह 'लाल' के आ जाने का खतरा महसूस हो रहा है. नेपाल में जनयुद्ध के लिए लड़ रहे तथा अब लोकतंत्र के युद्ध को जीतने के लिए संघर्षरत माओवादी 'समाजवाद की ओर ले जाने वाले' आत्मनिर्भर विकास की बात कर रहे हैं. पश्चिम में वैश्वीकरण के विरुद्ध संघर्ष और गहरा रहा है जैसा कि 'न्यू यार्कर' ने 'इसे कार्ल मार्क्स की वापसी' लिखा है तथा यूरोप में समाजवाद के नए प्रयोग की बात सुनी जा रही है. कभी भी संकीर्ण वर्गीय प्रोजेक्‍ट में न रहने वाला समाजवाद आज, जैसा कि पहले कभी नहीं था, कम्युनिस्ट घोषणापत्र में किए गए मार्क्स के दावे के अनुसार 'व्यापक लोगों के हित में व्यापक आंदोलन' के रूप में मजबूती से खडा़ है.
पूर्वी यूरोप तथा सोवियत संघ के विघटन ने कई विद्वानों, पत्रकारों, राजनेताओं, तमाम तरह के विचारकों तथा लेखकों को आसान खेल खेलने का खुला मौका दे दिया है. अगर समाजवाद परास्त हो गया तो इसका प्रतिद्वंदी पूंजीवाद जीत गया. योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्थायें अगर टूट बिखर गईं तो उसका धुर विरोधी, मुक्‍त बाजार आधारित पूंजीवाद जरूर विजयी हुआ है. इस तरह के पूरे अपचयनवादी तथा खतरनाक तथा बिल्कुल ही संदेहपूर्ण तर्क, जो सोवियत संघ में जो कुछ हुआ उसे ही समाजवाद के बराबर मानते हैं तथा इसकी असफलता को पूंजीवाद के विजय से जोड़ते हैं, न सिर्फ़ कमजोर हैं बल्कि व्यवहारिकता के धरातल पर बिल्कुल गलत हैं. किसी वस्तुगत मूल्यांकन से स्पष्ट है कि पांच सदियों के पुराने आस्तित्व के अंत तक वैश्विक पूंजीवाद आज सबसे पतित व्यवस्था है. इस पतन के प्रमाण, समकालीन पूंजीवादी विश्‍व के प्रत्येक भाग तथा प्रत्येक पहलू में बिल्कुल आसानी से देखने को मिल रहे हैं. दुनिया में हर जगह बढ़ रही दरिद्रता और दुर्दशा में यह लक्षण देखे जा सकते हैं, बढ़ती बेरोजगारी दर के आधिकारिक आंकड़ों, गरीबी, बेघरपना तथा भूख में, पश्‍चिमी बुर्जुवा लोकतंत्रों के बडे़ शहरों की नारकीय झोपड़पट्टियों में, भूतपूर्व सोवियत खण्‍डों की फुदकी राजधनियों में शहरी घेट्टों की विशाल बढ़ोत्तरी में तथा दक्षिणी क्षेत्रों में व्यापक तौर पर झोपड़पट्टियों की संकीर्ण गलियों के अचानक ढहाए जाने में; दुनिया की संपूर्ण असमानताओं में, निर्धनों की दरिद्रता में तथा धनी पश्‍चिमी समाजों और गरीब देशों की व्यापक जनता की बदहाली के बीच बढ़ती खाई में; पूंजीवाद द्वारा हर जगह पैदा की गई नैतिक रुप ने असहनीय तथा सामाजिक रूप से गैरजरूरी पीडा़ में, जिसे बोर्दिये ने- ला मिज़रे द मोंद कहा है.........

वास्तविक आस्तित्वमान समाजवाद- जो मार्क्स का समाजवाद नहीं था और जिसकी संभावनायें अभी खुली हुई हैं- शायद असफल हो गगा है. लेकिन वास्तविक आस्तित्वमान पूंजीवाद- जो पूंजीवाद का मात्र एक ही संभावित प्रकार है- निश्‍चित तौर पर जिस तरह से बना था उसी तरह से नहीं सफल हो सका है. किसी भी व्यवहारिक निर्णय में पूंजीवाद हमारे समय में सबसे अधिक पतित है. एक और बात कि, पूंजीवाद उपलब्धियों के आकलन के सर्वाधिक वैधानिक कसौटी की सामाजिक व्यवस्था के रूप में; समाज में उपलब्ध वास्तविक तथा क्षमतावान संसाधनों द्वारा 'रोजगार की संपूर्णता' तथा 'रोजगार की अच्छाई' के संदर्भ में एक संभावना के बतौर पूरी तरह असफल हो चुका है. मानव इतिहास में इसके पहले समाज की उत्पादन संभावना तथा समाज की प्रगति/उपलब्धियों के बीच इतना विशाल अंतर कभी नहीं रहा जितना कि आज के पूंजीवाद के विकास की वर्तमान अवस्था में है. इस बात के साक्ष्य हैं कि तीन सफल औद्योगिक क्रांतियों की असाधारण उत्पादन क्षमता ने मनुष्यता का परित्याग कर दिया है तथा गरीबी और अशिक्षा, मैली कुचली झोपड़पट्टियों तथा पूंजीवादी विश्व के सबसे धनी देशों के लाखों से ज्यादा परिवारों तथा तीसरी दुनिया के गरीब देशों की परिधि तथा अर्धपरिधि में सिकुडी़ झोपड़ियों में भूख तथा दुर्दशा नें हज़ारों लाखों लोगों के जीवन को व्यर्थ बनाकर छोड़ दिया है. आज हमारे समय में तीसरी दुनिया निश्‍चित तौर पर पूंजीवाद के पतन का प्रतीक है........

जैसा कि पहले ही इशारा किया गया है कि इस दो असफलताओं के बीच एक अंतर है जिसे विशेष तौर पर ध्यान देना चहिए. समाजवाद कुछ समय के लिए असफल हुआ है लेकिन फिर भी मानवता को बचाए रखने तथा एक सुरक्षित दुनिया की आशा में तथा मानव जाति के जीवन मूल्य के लिए एक विकल्प के रूप में यह बचा हुआ है. इसे दोहराने की जरूरत है कि पूंजीवाद के अस्वीकार्य आर्थिक, नैतिक तथा पर्यावरणीय परिणाम, अपने यहां तथा विदेशों मे भी बर्बरता की ओर ले जाने वाली बेरोजगारी, गरीबी, असमानता को रोकने में असफलता, व्यवस्था का भटकाव या विशेष परिस्थितियों अथवा 'गलत' नीतियों द्वारा उत्पन्न 'नकारात्मक' प्रभाव नहीं है. यह सब पूंजीवाद के न सुधरने वाले तथा अनियंत्रित तंत्रजनित अथवा ढांचागत तर्क खुद व्यवस्था में निहीत शोषण तथा ध्रुवीकरण के तर्क के उत्पाद हैं. अतः ये प्रभाव, यद्यपि एक निश्‍चित दौर में कम होने तथा अन्य में बढ़ने के बावजूद, स्थायी हैं. इसलिए ये जरूरी रूप से ही असाध्य हैं. दुसरे शब्दों में हमारे समय में पूंजीवाद का पतन अपने लिए एक व्यवस्थित या संरचनागत जरूरत अथवा अपरिहार्यता लिए हुए है. बदले में, सोवियत संघ में समाजवाद की असफलता कोई व्यवस्थाजनित य संरचनागत मजबूरी नहीं लिए हुए थी. राजनीति निर्देशित अर्थव्यवस्था के कारण समाजवाद में, साधारणतया बाजार आधारित पूंजीवाद जैसे कोई ढांचागत तर्क अथवा 'कानून' नहीं होते. समाजवाद प्राथमिक रूप से सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच त्रुटियों, सत्ता में रहते हुए कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा गलत चुनाव कॆ कारण असफल हुआ. कम्युनिस्ट सत्ताओं (तथा यूरोप में सामजिक जनवादियों) की असफलता के प्रसंग में गैब्रियल कोल्को ने लिखा है कि "ऐसी स्थितियों में होते हुए भी समाज को मुक्‍त करने तथा उसके महत्वपूर्ण (साथ ही साथ स्थायी) ढंग से रूपांतरण करने में असफलता, उनकी विश्लेषणात्मक अक्षमता तथा ठहराव; उनके नेताओं तथा संगठन की सतत कमजोरी का प्रमाण है. यह वह यथार्थ है जिसने १९१४ के बाद अनगिनत देशों में सामाजिक जनवादी तथा साम्यावाद दोनों का सीमांतीकरण कर दिया जिसने पूंजीपति वर्ग तथा उसके सहयोगियों को, जो समाजवादी सत्ता द्वारा अपने कार्यक्रमों में सुधारों के छोटे हिस्सों के क्रियान्वयन के बगैर कभी भी जीवित नहीं रह सकते थे, सदियों की समस्या से मोहलत प्रदान कर दिया. जबकि इसने दूसरी तरह से लाठी को बहुत दूर झुका दिया लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि समाजवाद की असफलता निश्‍चित तौर पर एक मानवीय असफलता थी जो कि इसके बारे में कुछ भी अपरिहार्य नहीं था. अगली बार जब कहीं और जब कभी कोई प्रयास किया जायेगा इस असफलता द्वारा सीखे गए सबक मदद करेंगे. इसलिए समाजवाद पूंजीवाद का न सिर्फ एक मात्र विकल्प है बल्कि मानवता के लिए यह एक वास्तविक पसंद हैं...... जारी........

06 अगस्त 2008

समाजवाद का भविषष्य-३

यह एक वैधानिक तर्क है कि पाले समाजवाद के लिए आंदोलन बढ़ने के जो कारण थे आज, बल्कि पिछली शताब्दी के प्रारंभ अथवा पहले अन्य किसी समय से ज्यादा, इस सदी के प्रारंभ में और मज़बूत हैं. सामाजिक जीवन के संगठन में पूँजीवाद अभी भी शोषक और पर्यावरणीय विध्वंस का रास्ता है. क्षणिक विजयी पूँजीवाद उन्हीं ढाँचागत दबावों/मजबूरियों के तहत, पहले जैसे ही विध्वंसक परिणामों को उत्पन्न कर संचालित हो रहा है.यह अभी भी संकटों से घिरा हुआ है तथा अपनी अति विशाल/अनोखी उत्पादन क्षमता के बावजूद, मानव समुदाय की ज़रूरतों के लिए, यहाँ तक कि अपने प्रभुत्व की दुनिया में व्यापक आबादी को जीने-खाने तक की सुविधा मुहैया कराने के लिए , अपनी उपलधियों को सौंपने में जन्मजात तौर पर अक्षम है. अपने वर्तमान चरम उत्कर्ष के बावज़ूद, पूँजीवाद शताब्दियों से मौजूद एक भी समस्या का समाधान नहीं कर सका. और उसने समाजवादी इच्छाओं व संघर्षों का आधा-अधूरा ही सही भरण पोषण किया. समाजवाद के विश्‍वव्यापी संक्रमण का तर्क आज भी पहले से कहीं ज़्यादा उपयुक्‍त बना हुआ है.
सोवियत संघ के विघटन ने इस तर्क में किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नही लाया है, सिवाय इसके कि आर्थिक तौर पर शोषक, नैतिक रुप से घृणास्पद तथा पर्यावरण के लिए गैरटिकाऊ चरित्र का पूँजीवाद अब इतिहास के किसी भी समय से ज़्यादा नंगा हुआ है.......
वर्तमान प्रभुत्वशाली पूँजीवाद के विरोध मे समाजवादी विपक्ष के पुनर्निर्माण के लिए आत्मगत स्थितियाँ तथा व्यक्तिगत व जनसंगठन के स्तर पर मौजूद भ्रूणावस्था की वस्तुगत स्थितियाँ आज ज़्यादा आस्तित्वमान हैं. पश्चिम में 'कोई विकल्प नहीं' की खुशफ़हमी अब जा चुकी है. अतीत में इसी तरह की कई घोषणाओं सहित 'इतिहास के अंत' की बचकाना घोषणा मजबूती से अस्वीकृत कर दी गयी है. दीर्घ अवधि में जनता सोचती है कि कल्याणकारी पूँजीवाद प्रतिनिधिक नहीं, बल्कि वह जिस कठोर यथार्थ का अनुभव कर रही है वह प्रतिनिधिक है. लोग पूँजीवाद वास्तव में है क्या इसे कटोरता से सीख रहे हैं. वैश्‍विक पूँजीवाद, वैश्‍वीकरण तथा अमरीका के नये वर्चस्व के विनाशकारी हृदयस्थल में लोग पूँजीवाद, साम्राज्यवाद तथा अपने ही शासकवर्ग की दलाली के बारे में नया पाठ सीख रहे हैं. विकल्प का सवाल फिर एजेंडे में आ गया है तथा यद्यपि दिग्भ्रमित अथवा छितराये तरीके से ही, पूंजीवाद विरोधी संघर्ष दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न तरीकों तथा आकारों में जारी है. ये संघर्ष पिछली शताब्दी का जस का तस दुहराव नहीं चाहते. हमें बताया गया है कि ''इतिहास अपने आप को नहीं दुहराता'' लेकिन मार्क्स ने कहा है कि 'इतिहास हमसे ज़्यादा कल्पनाशील होता है'. इतिहास निश्चित तौर पर आश्चर्य चकित करता है- और शोषितों तथा दमितों द्वारा क्रांतियां उनमें से एक है......
सशस्त्र संघर्ष अथवा व्यापक विद्रोह का उभार ही क्रांतियां नहीं होते, यद्यपि इनकी जरूरत को इंकार नहीं किया जा सकता। यह क्रांति को इतिहास के एक खास क्षण जैसे विंटर पैलेस पर कब्ज़ा या बास्तील के तूफान जैसे एक निश्चित प्रतिबिंब की तरह देखने में कोई मदद नहीं करते। क्रांति, पूंजीवादी लोकतंत्र के शासनकाल में खुद की विशिष्‍ट जटिलताओं के साथ, एक जटिल प्रक्रिया के रूप में बेहतर ढंग से समझी जा सकती है। और जहां तक हम इसे समझते हैं वह यह कि भविष्‍य की क्रांतियों के व्यवहारिक तथा सैद्धांतिक रूपों के बारे में अनुमान नही लगा सकते। और हम यह आश्‍चर्य जानते हैं कि इतिहास का उतार-चढा़व हमें बीसवीं सदी में ले गया है। और इस बारे में संदेह का कोई आधार नहीं है कि यह और ज़्यादा हमें ले जायेगा। विद्रोह में जनता की आविष्कारिता किसी भी संवेदनशील विद्वान या दार्शनिक की कल्पना के परे रही है और यह जारी रहेगी...... जारी........

30 जुलाई 2008

समाजवाद का भविष्य-2

वास्तव में , आज हमें अपने इतिहास का बचाव या उस पर पुनः दावा करना, सोवियत संघ में जो कुछ हुआ उसके मूल्यांकन करना हमारे लिये अपने आप में एक क्रांतिकारी प्रोजेक्ट है.
अपने अतीत से हमें हमेशा ही एक दुःखदायी पाठ सीखना चाहिये. वास्तविकता का सामना करना तथा वाम की जरूरी राजनीति और संस्कृति का पुनर्निर्माण करना अतंत आवश्यक है लेकिन इस बारे में बेहतर संतुलन होना भी बराबर जरूरी है.दूसरे शब्दों में यह जानने की भी जरूरत है यह अतीत पूरी तरह से दुःखभरी विरासत नही है.हमें इस मूल्यांकन या आत्मपरीक्षण में नहाने की कठौती से बच्चे को ही बाहर नहीं फेंक देना चाहिये.
सोवियत संघ के अनुभवों का मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन, इतिहास में समाजवाद तथा इसके साथ जुडे़ हुये संपूर्ण कम्युनिस्ट आंदोलन, भले ही इसके द्वारा नेतृत्व अथवा पथप्रदर्शन किया गया हो, के प्रथम प्रयोग के असफलता की पराकाष्ठा स्वभावतः सभी जगह के समाजवादियों के लिये महत्वपूर्ण है, चाहे वह उत्तर हो या दक्षिण. लेकिन विशेषकर जिन्हें इन अनुभवों के अध्यायों से सीखने की जरूरत है वे हैं नेता तथा इससे भी ज्यादा कम्युनिस्ट पार्टियों के जुझारू कैडर, जिनके लिये सोवियत संघ संदर्भ तथा पहचान का निर्णायक बिंदु था तथा जहाँ बाद के समय में कई विभेद पैदा हो गये थे.पश्चिम में , मार्क्सवाद में ही सोवियत संघ के विघटन तथा इससे जुडी़ समस्याओं के जवाब तलाशने की अनिच्छुक और अक्षम इन अधिकतर पार्टियों ने साधारणतया समाजवादी प्रोजेक्‍ट का परित्याग कर सामजिक जनवादी रास्ता पकड़ लिया है. अन्य जगहों, विशेषकर तीसरे देशों में हलाँकि औपचारिक कम्युनिस्ट बचे रहे लेकिन जो कुछ भी घटित हुआ उससे भ्रमित तथा विमुख होकर रह गये, आधिकारिक मार्क्सवाद की रूढि़यों का उन्मूलन करने में अक्षम रहे. इन सब का आरोप ख्रुश्चेवी संशोधनवाद, गोर्बाचोव के विश्‍वासघात अथवा अमरीकी साम्राज्यवाद तथा सीआईए की गुप्त कार्ययोजनाओं पर मढ़ते रहे. यहां तक कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट संरचनायें, अथवा चीनी प्रतिरूप के पुराने ढर्रों पर चलने वाले लोग भी कमोबेश इसी सरलीकृत तथा छिछली समझ से परे जाने में असफल रहे.
जब तक समाजवाद के विध्वंस तथा इसके संकट को समझा नहीं जाता तथा इस समझ को पूरे सवालों पर पुनर्विचार के लिये नहीं लागू किया जाता, आंदोलन में अतिवामपंथी तथा लंबे समय से मौजूद सुधारवादी ताकतों को वास्तविक रचनात्मक मार्क्सवाद से बदाने का कोई मौका नहीं है. अतीत में मौजूद गतिकी के कारण यह कम्युनिस्ट पार्टियाँ बची रहेंगी लेकिन पुराने नेताओं एवं पहले के संघर्ष व उपलब्धियों से प्राप्त विश्‍वसनीयता के खत्म होते जाने तथा नयी क्रांतिकारी भर्तियों की असफलता से वह सिर्फ़ अवरुद्ध होकर रह जायेंगी अथवा अर्थवादी अभ्यासों के सहारे चलकर चुनावी सुधार तथा यहाँ तक कि वर्तमान पूँजीवादी वैश्‍वीकरण के साथ सामंजस्य करके लगातार नीचे गिरती जायेंगी. मार्क्सवादी लेनिनवादी या माओवादी शक्तियाँ अपनी क्रांतिकारी प्रतिबद्धताओं का निर्वहन करते हुये भी सीमित क्षेत्र में एक दूसरे से लड़ते झगड़ते तथा अलग थलग पड़ते हुये संकुचित आंदोलन के रूप मे रही आयेंगी. कम्युनिस्ट नाम के बावजूद यह पार्टियां तथा संरचनायें पुनः मजबूत होने तथा समाजवाद के लिये एक प्रभावी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने का मौका गँवा रही हैं.
तीसरी दुनिया के समाजवादियों, जो अपने आप को कम्युनिस्ट कहते हैं उन्हें मिलाकर, के लिए सोवियत अनुभव निरपवाद रूप से अतिरिक्‍त महत्व रखता है. क्लासिकल मार्क्सवाद, उन्नत पूँजीवादी देशों तथा अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर समाजवाद के निर्माण के संदर्भ सहित, कुछ सामान्य सिद्धांतों को छोड़कर कम-अधिक रूसी बोल्शेविकों के संपूर्ण बगैर घोषित सीमा क्षेत्रों, अर्थात अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्वशाली पूँजीवाद के सबसे उन्नत देशों के निरंतर शत्रुतापूर्ण रुख के बीच किसी पिछडे़ देश में समाजवाद के लिये संघर्ष, में अप्रत्याशित स्थापना यात्रा जैसा ही है.वहाँ कुछ अग्रणी प्रयास हुये. अतः वस्तुगत परिस्थितियों की ताकतें, इस अभूतपूर्व कार्यभार के के लिये सिद्धांत तथा व्यवहार की अपर्याप्तताओं के साथ इसके पतन के कारणों सहित सोवियत अनुभव, रूस तथा अन्य गरीब और पिछडे़ देशों के क्रांतिकारियों को अमूल्य सबक सिखाते हैं. विशेष तौर पर इस नवीन वैश्विक पूँजीवाद के प्रभुत्व के दौर में एक बेहतर, जरूरी समाजवाद के लिये तथा खुद के निर्माण के लिये भी...........
भूतपूर्व सोवियत संघ में जो कुछ भी हुआ वह, मार्क्स के तर्कों के आधार पर, पूँजीवादी सामाजिक ढाँचे के समाजवादी नकार की संभाव्यता तथा जरूरत के लिए किसी भी रूप में अवैधानिक नही है। और अब समाजवाद लिये संघर्ष सिर्फ़ पहले से कहीं ज्यादा कठिन और जटिल दिशा की ओर मुड़ गया है. समाजवादी शायद इस भ्रम में कभी नहीं रहे कि समाजवाद के लिये होने वाला संघर्ष सरल अथवा तुरंत सफल हो जाने वाले अभियान की तरह है. पहली असफलता के बाद अब यह पहले से कहीं बहुत अधिक कठिन होगा, अगली बार समाजवाद को लंबा चक्करदार रास्ता तय करना होगा. लेकिन इस संदर्भ में निराशा महसूस करने का कोई कारण नही है. पिछले कुछ वर्षों की तुलना मे भौतिक परिस्थितियाँ आज ज्यादा उपयुक्‍त तथा आत्मगत ज़रूरत/दबाव अधिक मजबूत हैं. और समाजवादी उद्देश्यों का प्रभाव क्षेत्र तभी बढ़ सकता है जबकि पूँजीवाद की, खुद से उत्पन्न संकटों का समाधान करने की, असमर्थता बढ़ती जायेगी.......!
जारी.....

समाजवाद का भविष्य:-

रणधीर सिंह
आठ मार्च 2007 को इतिहासबोध पत्रिका इलाहाबाद द्वारा आयोजित संगोष्ठी में दिया गया उद्‍बोधन.


मुझे समाजवाद के भविष्य पर बोलने के लिये कहा गया है. मैं यहाँ जो कुछ भी कहने जा रहा हूँ वह मेरी हालिया ही प्रकाशित पुस्तक ' क्राइसिस आफ सोशलिज्म - नोट्स आन डिफ़ेंस आफ़ ए कमिट्मेंट' पर आधारित होगा और अपने पक्ष में उन्हें विस्तार से स्पष्ट करने के लिये इस पुस्तक में संकलित उद्धरणों को उद्धृत करूँगा. इस प्रश्न को मैं अपने उद्बोधन के चार अलग लेकिन अंतर्संबंधित खंडों में स्पष्ट करने जा रहा हूँ.

छ्ठवें दशक के अंत के मजबूत व विद्रोही दिनों , में पेरिस के छात्रों ने उस हर व्यक्ति जो उन्हे संबोधित करता था, से सवाल किया और कहा कि पहले वह यह बतायें कि " उनके बोलने का प्रस्थान बिंदु क्या है? (अर्थात् आप बोल कहाँ से रहे हैं?) प्रत्येक वक्ता एक विशिष्ट दार्शनिक राजनीतिक जग़ह के केन्द्र से बोलता था तथा इसके लिये उन्होनें सार्वजनिक तौर पर अपने श्रोताओं का आभार माना. यहाँ यह बताना एकदम उपयुक्त होगा कि मैं मार्क्सवाद के पक्ष में खडे़ होकर बोल रहा हूँ, ऐसा मार्क्सवाद जिसे मैं समझता हूँ. जिस मार्क्सवाद में मुझे खुद के पारंगत होने का कोई मिथ्याभिमान नही है. मैने इसे कई तरीकों से सीखा और न सिर्फ़ मैने इसे अपनि राजनीति अथवा अध्यापक के पेशे के रूप में, बल्कि अपने जीवन और जीने के तरीके में उपयोगी पाया. यह अंतिम बात सिर्फ औपचारिक उद्बोधन नहीं है. मार्क्स को जानना, अपने जीवन में आपने क्या मूल्य बनाया, इसे कैसे समझा, जीने और दुनिया में कैसा व्यवहार कियाआदि के बारे में अंतर पैदा करता है. जार्ज बर्नाड शा ने कैसे एक बार कहा था कि " निश्चित तौर पर मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि कार्ल मार्क्स ने मुझे एक इंसान बनाया." अतः मार्क्स मेरे लिये महत्वपूर्ण हैं और मुझे लगता है कि अन्य किसी नहीं बल्कि इस कारण से कि आज पहले से भी कहीं ज्यादा वह हम सभी के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं, कि आज हम जिस दिनिया में रह रहे हैं वह पूँजीवादी है. सोवियत संघ के विघटन के बाद यह दुनिया पहले से कहीं ज्यादा पूँजीवादी है, तथा मार्क्स नें किसी और मनुष्य से ज्यादा, तब और अब भी, अपना सारा जीवन इस दुनिया के वास्तविकता की व्याख्या करने में समर्पित किया है तथा उनकी उपलब्धियाँ अभी भी अद्वितीय हैं. एक अर्थ में, समाजवाद के बारे में मैं यहाँ जो कुछ भी बोलने जा रहा हूँ, अपनी बेहतर समझ के साथ, वह ऐतिहासिक रूप से ज़रूरी तथा पूँजीवाद का संभाव्य नकार है.

आज समाजवाद के बारे में कोई विचार विमर्श, कम से कम इसके सभी भविष्य सहित, भूतपूर्व सोवियत संघ में जो कुछ घटित हुआ उसे छोड़कर नहीं हो सकता. हमने यहाँ जो कुछ भी देखा, जैसा कि मैनें अपनी पुस्तक में विस्तार से उल्लेख किया है, वह एक असफ़ल क्रांतिकारी प्रयोग था; जिसका निर्माण किया गया था वह एक शिकायती विकृत समाजवाद था. और एक अंतिम संकट तथा वर्गीय शोषक तंत्र के विरुद्ध वर्गहीन पीढी़ के विध्वंस से उसका पूरी तरह पतन हो गया जो ऐतिहासिक भौतिकवाद तथा वर्ग विश्‍लेषण की मार्क्सवादी व्याख्या पद्धति के अनुसार पूरी तरह अनुकूल ही है. दूसरे शब्दों में, सोवियत संघ में जो असफल हुआ वह समाजवाद नहीं बल्कि समाजवाद के नाम पर निर्मित एक तंत्र था. इस विशय पर विमर्श करने के लिये मेरे पास यहाँ समय नहीं है. मैं अभी इस बात पर जोर देना चाहुंगा कि समाजवादियों को यह समझने की जरूरत है कि भूतपूर्व सोवियत संघ में ऐसा क्यों और कैसे हुआ? इसके क्रियान्वयन में क्या कुछ घटित हुआ?

निश्चित तौर पर उन समाजवादियों के लिये जो बगैर पूँजीवाद मे भविष्य की इच्छा रखते हैं, यह समझना बेहद जरूरी है कि सोवियत संघ में समाजवाद के रूप में क्या निर्मित हुआ, क्या घटित हुआ तथा क्या असफल हुआ? उन्हें इस असफलता के मूल्य तथा परिणामों के महत्व को समझना चाहिये, वास्तविक आस्तित्वमान समाजवाद, जैसा कि हमने पहले ही बताया है तथा कुछ लोगों के अनुसार, यह सत्तावादी समाजवाद का विध्वंस था. यद्यपि उन्हें वास्तविक आस्तित्वमान पूँजीवाद या तानाशाही/सत्‍तावादी पूँजीवाद के मूल्य तथा परिणामों का भी ध्यान रखना चाहिये जिसने टुकड़ों में पलने के लिए विवश कर दिया. समाजवादी तथा पूँजीवादी दुनिया के बीच दुनिया के बीच की प्रतिद्वंदिता के रूप में हमारे समय में होने वाले 'समाजवाद के लिये संघर्ष को निश्चित तौर पर गलत ढंग से देखा गया है, जैसे कि १९१७ के बाद के काल के आधिकारिक मार्क्सवाद के साथ हुआ. यह हमेशा से ही कुछ कम या अधिक कई अन्य मोर्चों के साथ एक अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष था. वास्तविक समाजवाद के आस्तित्व वाले देश अपने अंत तक इस संघर्ष का केवल एक मोर्चा थे, जिन्होंने इस संघर्ष की स्थितियों को, नकारात्मक साथ ही साथ सकारात्मक तौर पर मजबूत या प्रभावित किया. लेकिन इन्होंने इसके परिणामों के प्रश्न को निर्धारित या प्रभावित नहीं किया. इन देशों के वर्तमान विध्वंस ने अथवा पूँजीवादी खेमों मे इनकी वापासी ने किसी भी रूप में समाजवाद के भविष्य के सवाल को निर्धारित नहीं किया है, यह संघर्ष अभी भी जारी है और पूँजीवाद के खात्मे तक जारी रहेगा. तथापि इस देशों ने जो स्थापित किआ था वह कई में अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष का महत्वपूर्ण मोर्चा था तथा उनके विध्वंस की माग है कि समाजवादी इनकी स्थितियों/दशाओं को समझें. यदि वे एक विकृत तथा पतित समाजवाद के बोझ को ढोने तथा इसकी कुरूपता और निर्दयता की जवाबदारी की जरूरत नहीं समझते तो इसके विध्वंस की वास्तविक मार्क्सवादी व्याख्या का भार उनके द्वारा अभी भी उठाना है ताकि हमारी जनता सच जान सके तथा भविष्य के संघर्ष के लिये सही सबक सीख सके.इस व्याख्या की जरूरत हमें सिर्फ़ यह सीखने के लिये नही है कि जो कुछ हुआ उसमें क्या सही और क्या गलत है बल्कि इसलिये और भी ज्यादा है क्योंकि हमारी व्याख्या की अनुपस्थिति में, उनकी, दुश्मनों की व्याख्या का प्रचलन जारी रहेगा और वह यह कि 'समाजवाद का पतन हो गया'. इससे भी ज्यादा हमें उनको अपना इतिहास छीन लेने से रोकने की आवश्यकता है. पूँजीवादी विचारकों ने यद्यपि 'समाजवाद के खात्मे ' की घोषणा कर दिया है और उत्तर आधुनिकतावादी तो यहाँ तक कि इतिहास से सीखने की क्षमता से ही इंकार करते हैं, अक्टूबर का चित्रण करने में व्यस्त हैं. जनता की उपलब्धियों के एक पूरे युग में जो कुछ हुआ वह इतिहास में और कुछ नहीं बल्कि एक मंहगा विचलन था.
जारी

01 जुलाई 2008

हर बार आसमान में कुछ नया देखने को होता है:-

न रायपुर रायपुर है. न मैं, मैं हूँ. देश में कई रायपुर हैं और कई मैं. मै दूसरा बिनायक सेन है,तीसरा अजय टी.जी.,या कोई और आदमी जो रायपुर की सड़कों पर घूमते हुए भूल जाता है आदमीयत की तमीज.घर से निकल कर वापस न लौटने का खौफ़ लिये देश की सुरक्षा से असुरक्षित, चलते-चलते अक्सर बदल देता है अपने रास्ते.कई बार सड़क के किनारे खडे़ पेड़ उसे देखते हैं हिकारत की नजर से और वह भर उठता है भय और संदेह से.पूरा शहर मै के लिये वर्जित प्रान्त है जहाँ उसका दमित जन के दमन के लिये दिये जा रहे तर्कों से असहमत होना, झूठे शांति अभियानों की खिलाफ़त करना उसे उग्रवादी बना देता है.सड़क पर आदमी की पहुँच से दूर मुख्यमंत्री का चेहरा उसे चिढा़ता है उसे देख मंत्री मुस्कराते हैं,मै होर्डिंग के नीचे से सिर झुकाकर निकल जाता है.चौराहे के दूसरे छोर पर पहुंच वह पीछे मुड़कर देखता है कि मुख्यमंत्री उसे देख रहा है. उसका चेहरा और चौडा़ हो गया है.बगल लगी होर्डिंग में एक आदिवासी महिला अपने कान से सटाकर मोबाइल से बात कर रही है.मोबाइल से बात करती महिला देश के विकास का बिम्ब है जो हर दूसरे चौराहे पर मौजूद है. सामने गांधी पंक्ति के इस आखिरी आदमी को देख खुश हैं या नाराज नहीं पता. उनकी आँखें नीचे झुकी हैं ठीक जमीन पर टिकी लाठी की नोक पर . इंदिरा का चेहरा खिला हुआ है , २००८ के आपातकाल को अनापातकाल समझती जनता को देख.एक पार्क में बैठकर मै लम्बी साँस खींचता आसमान की तरफ़ देखता हूँ और खारिज कर देता हूँ फ़र्नांदो पेसोवा को कि आसमान में एक बार देख चुकने के बाद देखने को कुछ भी नहीं बचता.एक आभासी दुनिया,शून्य में,आसमान में.जहाँ कुछ भी नहीं होता देखने पर हर बार कुछ नया होता है.एक नयी उम्मीद के साथ.