07 अगस्त 2008

समाजवाद का भविष्य:-४

क्रांति अभी पूरी नहीं हुई है. वर्गों के बीच, शोषित और शोषकों के बीच, नये और पुराने सामाजिक ढाँचे के बीच मूलभूत तनाव इसलिए नहीं ख़त्म हो जायेंगे कि सोवियत संघ खतम हो गया और फ़ूकोयामा ने उद्‍घोषणा किया है कि 'इतिहास का अंत' हो गया. बीसवीं सदी की क्रंतियों में गतिशीलता तथा ताकत पैदा करने वाली ताकतें, जिस तरह पहले थीं आज भी हैं. 'ऐतिहासिक कम्युनिज़्म' के अंत से गरीबी अथवा न्याय के लिए लोगों की तड़प का अंत नहीं हुआ है. तीसरी दुनिया के गरीब तथा वंचित लोग अभी भी बेहतर जीवन की उम्मीद रखते हैं. अतीत या भविष्‍य में क्रांतियों के बारे में किसी अतिउत्साह के बगैर फ़्रेड हालिडे ने अपने हाल ही के अध्ययन में बताया है कि 'सत्ताधारी और धनी लोगों द्वारा अपने खिलाफ नफ़रत तथा इतिहास की क्षमता को पूरी तरह से समझने की लगातार अक्षमता बेहद आश्‍चर्यजनक है'. उन्होंने लिखा है कि "आधुनिक इतिहास में क्रांति का एजेंडा अभी भी हमारे साथ है क्योंकि जो उद्देश्य रखे गये थे वह अभी भी पहुँच से बहुत दूर हैं, यह अभी भी क्रांति को इतिहास के एजेंडे में रखे हुए है. क्रांति अभी भी ध्रुव सत्य है, हमारे समय की अधूरी कहानी-यह कहानी चाहे जिस आकार अथवा रूप मे हो और चाहे जितना भी लंबा समय लगे, यह कहानी पूरी कही जायेगी......
यह कहानी पहले भी दुनिया की क्रांतिकारी प्रक्रियाओं में कही गयी है और सोवियत संघ में असफल प्रयोग के फलस्वरूप प्रारंभिक धक्कों के बाद, समाजवाद मनुष्यता की जरूरत तथा संभावित भविष्य के रूप में दुबारा स्थापित हो रहा है. जैसे कि बोलिवियाई अपनी क्रांति की रक्षा के लिए अमरीकन साम्राज्यवादियों तथा इसके स्थानीय सहयोगियों द्वार संसदेतर प्रतिबंधों के षड्‍यंत्र के खिलाफ संघर्ष में मजबूती से डंटे हैं, वेनेजुलियाई '२१वी सदी में समाजवाद' के निर्माण की बात कर रहे हैं तथा क्युबा से प्रेरित होकर पूरे लैटिन अमरीका में 'गुलाबी' की जगह 'लाल' के आ जाने का खतरा महसूस हो रहा है. नेपाल में जनयुद्ध के लिए लड़ रहे तथा अब लोकतंत्र के युद्ध को जीतने के लिए संघर्षरत माओवादी 'समाजवाद की ओर ले जाने वाले' आत्मनिर्भर विकास की बात कर रहे हैं. पश्चिम में वैश्वीकरण के विरुद्ध संघर्ष और गहरा रहा है जैसा कि 'न्यू यार्कर' ने 'इसे कार्ल मार्क्स की वापसी' लिखा है तथा यूरोप में समाजवाद के नए प्रयोग की बात सुनी जा रही है. कभी भी संकीर्ण वर्गीय प्रोजेक्‍ट में न रहने वाला समाजवाद आज, जैसा कि पहले कभी नहीं था, कम्युनिस्ट घोषणापत्र में किए गए मार्क्स के दावे के अनुसार 'व्यापक लोगों के हित में व्यापक आंदोलन' के रूप में मजबूती से खडा़ है.
पूर्वी यूरोप तथा सोवियत संघ के विघटन ने कई विद्वानों, पत्रकारों, राजनेताओं, तमाम तरह के विचारकों तथा लेखकों को आसान खेल खेलने का खुला मौका दे दिया है. अगर समाजवाद परास्त हो गया तो इसका प्रतिद्वंदी पूंजीवाद जीत गया. योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्थायें अगर टूट बिखर गईं तो उसका धुर विरोधी, मुक्‍त बाजार आधारित पूंजीवाद जरूर विजयी हुआ है. इस तरह के पूरे अपचयनवादी तथा खतरनाक तथा बिल्कुल ही संदेहपूर्ण तर्क, जो सोवियत संघ में जो कुछ हुआ उसे ही समाजवाद के बराबर मानते हैं तथा इसकी असफलता को पूंजीवाद के विजय से जोड़ते हैं, न सिर्फ़ कमजोर हैं बल्कि व्यवहारिकता के धरातल पर बिल्कुल गलत हैं. किसी वस्तुगत मूल्यांकन से स्पष्ट है कि पांच सदियों के पुराने आस्तित्व के अंत तक वैश्विक पूंजीवाद आज सबसे पतित व्यवस्था है. इस पतन के प्रमाण, समकालीन पूंजीवादी विश्‍व के प्रत्येक भाग तथा प्रत्येक पहलू में बिल्कुल आसानी से देखने को मिल रहे हैं. दुनिया में हर जगह बढ़ रही दरिद्रता और दुर्दशा में यह लक्षण देखे जा सकते हैं, बढ़ती बेरोजगारी दर के आधिकारिक आंकड़ों, गरीबी, बेघरपना तथा भूख में, पश्‍चिमी बुर्जुवा लोकतंत्रों के बडे़ शहरों की नारकीय झोपड़पट्टियों में, भूतपूर्व सोवियत खण्‍डों की फुदकी राजधनियों में शहरी घेट्टों की विशाल बढ़ोत्तरी में तथा दक्षिणी क्षेत्रों में व्यापक तौर पर झोपड़पट्टियों की संकीर्ण गलियों के अचानक ढहाए जाने में; दुनिया की संपूर्ण असमानताओं में, निर्धनों की दरिद्रता में तथा धनी पश्‍चिमी समाजों और गरीब देशों की व्यापक जनता की बदहाली के बीच बढ़ती खाई में; पूंजीवाद द्वारा हर जगह पैदा की गई नैतिक रुप ने असहनीय तथा सामाजिक रूप से गैरजरूरी पीडा़ में, जिसे बोर्दिये ने- ला मिज़रे द मोंद कहा है.........

वास्तविक आस्तित्वमान समाजवाद- जो मार्क्स का समाजवाद नहीं था और जिसकी संभावनायें अभी खुली हुई हैं- शायद असफल हो गगा है. लेकिन वास्तविक आस्तित्वमान पूंजीवाद- जो पूंजीवाद का मात्र एक ही संभावित प्रकार है- निश्‍चित तौर पर जिस तरह से बना था उसी तरह से नहीं सफल हो सका है. किसी भी व्यवहारिक निर्णय में पूंजीवाद हमारे समय में सबसे अधिक पतित है. एक और बात कि, पूंजीवाद उपलब्धियों के आकलन के सर्वाधिक वैधानिक कसौटी की सामाजिक व्यवस्था के रूप में; समाज में उपलब्ध वास्तविक तथा क्षमतावान संसाधनों द्वारा 'रोजगार की संपूर्णता' तथा 'रोजगार की अच्छाई' के संदर्भ में एक संभावना के बतौर पूरी तरह असफल हो चुका है. मानव इतिहास में इसके पहले समाज की उत्पादन संभावना तथा समाज की प्रगति/उपलब्धियों के बीच इतना विशाल अंतर कभी नहीं रहा जितना कि आज के पूंजीवाद के विकास की वर्तमान अवस्था में है. इस बात के साक्ष्य हैं कि तीन सफल औद्योगिक क्रांतियों की असाधारण उत्पादन क्षमता ने मनुष्यता का परित्याग कर दिया है तथा गरीबी और अशिक्षा, मैली कुचली झोपड़पट्टियों तथा पूंजीवादी विश्व के सबसे धनी देशों के लाखों से ज्यादा परिवारों तथा तीसरी दुनिया के गरीब देशों की परिधि तथा अर्धपरिधि में सिकुडी़ झोपड़ियों में भूख तथा दुर्दशा नें हज़ारों लाखों लोगों के जीवन को व्यर्थ बनाकर छोड़ दिया है. आज हमारे समय में तीसरी दुनिया निश्‍चित तौर पर पूंजीवाद के पतन का प्रतीक है........

जैसा कि पहले ही इशारा किया गया है कि इस दो असफलताओं के बीच एक अंतर है जिसे विशेष तौर पर ध्यान देना चहिए. समाजवाद कुछ समय के लिए असफल हुआ है लेकिन फिर भी मानवता को बचाए रखने तथा एक सुरक्षित दुनिया की आशा में तथा मानव जाति के जीवन मूल्य के लिए एक विकल्प के रूप में यह बचा हुआ है. इसे दोहराने की जरूरत है कि पूंजीवाद के अस्वीकार्य आर्थिक, नैतिक तथा पर्यावरणीय परिणाम, अपने यहां तथा विदेशों मे भी बर्बरता की ओर ले जाने वाली बेरोजगारी, गरीबी, असमानता को रोकने में असफलता, व्यवस्था का भटकाव या विशेष परिस्थितियों अथवा 'गलत' नीतियों द्वारा उत्पन्न 'नकारात्मक' प्रभाव नहीं है. यह सब पूंजीवाद के न सुधरने वाले तथा अनियंत्रित तंत्रजनित अथवा ढांचागत तर्क खुद व्यवस्था में निहीत शोषण तथा ध्रुवीकरण के तर्क के उत्पाद हैं. अतः ये प्रभाव, यद्यपि एक निश्‍चित दौर में कम होने तथा अन्य में बढ़ने के बावजूद, स्थायी हैं. इसलिए ये जरूरी रूप से ही असाध्य हैं. दुसरे शब्दों में हमारे समय में पूंजीवाद का पतन अपने लिए एक व्यवस्थित या संरचनागत जरूरत अथवा अपरिहार्यता लिए हुए है. बदले में, सोवियत संघ में समाजवाद की असफलता कोई व्यवस्थाजनित य संरचनागत मजबूरी नहीं लिए हुए थी. राजनीति निर्देशित अर्थव्यवस्था के कारण समाजवाद में, साधारणतया बाजार आधारित पूंजीवाद जैसे कोई ढांचागत तर्क अथवा 'कानून' नहीं होते. समाजवाद प्राथमिक रूप से सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच त्रुटियों, सत्ता में रहते हुए कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा गलत चुनाव कॆ कारण असफल हुआ. कम्युनिस्ट सत्ताओं (तथा यूरोप में सामजिक जनवादियों) की असफलता के प्रसंग में गैब्रियल कोल्को ने लिखा है कि "ऐसी स्थितियों में होते हुए भी समाज को मुक्‍त करने तथा उसके महत्वपूर्ण (साथ ही साथ स्थायी) ढंग से रूपांतरण करने में असफलता, उनकी विश्लेषणात्मक अक्षमता तथा ठहराव; उनके नेताओं तथा संगठन की सतत कमजोरी का प्रमाण है. यह वह यथार्थ है जिसने १९१४ के बाद अनगिनत देशों में सामाजिक जनवादी तथा साम्यावाद दोनों का सीमांतीकरण कर दिया जिसने पूंजीपति वर्ग तथा उसके सहयोगियों को, जो समाजवादी सत्ता द्वारा अपने कार्यक्रमों में सुधारों के छोटे हिस्सों के क्रियान्वयन के बगैर कभी भी जीवित नहीं रह सकते थे, सदियों की समस्या से मोहलत प्रदान कर दिया. जबकि इसने दूसरी तरह से लाठी को बहुत दूर झुका दिया लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि समाजवाद की असफलता निश्‍चित तौर पर एक मानवीय असफलता थी जो कि इसके बारे में कुछ भी अपरिहार्य नहीं था. अगली बार जब कहीं और जब कभी कोई प्रयास किया जायेगा इस असफलता द्वारा सीखे गए सबक मदद करेंगे. इसलिए समाजवाद पूंजीवाद का न सिर्फ एक मात्र विकल्प है बल्कि मानवता के लिए यह एक वास्तविक पसंद हैं...... जारी........

1 टिप्पणी:

  1. मुझे नहीं लगता कि तीसरी दुनियाँ के लिए समाजवाद एक विकल्प रूप में रह गया है। साम्राज्यवाद के उदय से पूंजीवाद का विकास ही अवरुद्ध हो चला है। ऐसे में पूंजीवाद के विकास का जिम्मा भी उन्हीं वर्गों पर आ पड़ा है जिन्हें समाजवाद बनाना था। उसी के कारण जनता के जनतन्त्र का सिद्धान्त सामने आया। जनता के जनतंत्र से सीधे साम्यवाद में संक्रमण का सिद्धान्त व्यावहारिक प्रतीत होता है। इसे अनेक देशों ने अपनाया भी है। नेपाल ने तो अभी अपने यहाँ पूंजीवाद का विकास करना है। वह समाजवाद के रास्ते से संभव नहीं है उस के लिए तो जनता का जनतंत्र ही खड़ा करना होगा। आप का क्या विचार है।

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