04 सितंबर 2008

नार्कॊ टेस्ट पर उठते सवाल:-

नक्सल आंदोलन के कथित कार्यकर्ता अरूण फ़रेरा का नार्को टेस्ट के दौरान आये बयान और उस पर शिवसेना की टिप्पणी ने कई प्रमुख सवाल खड़े कर दिये हैं.जिसमे अरुण फ़रेरा को ए.बी.बी.पी.व बालठाकरे से मदद मिलना और शिवसेना का उसे सिरे से खारिज करना इस बात को इंगित करता है कि दोनों में से एक गलत है.वैचारिक रूप से शिवसेना और वामपंथी नक्सल आंदोलन दो ध्रुव हैं जिस बात को शिव्सेना ने स्वीकार करते हुए किसी तरह कि मदद से इनकार किया है.ऎसे में फरेरा का बयान यह साबित करता है कि या तो फरेरा के संबन्ध नक्सल आंदोलन से नही है जिसके तहत उन्हें बाल्ठाकरे और ए.बी.बी.पी. से मदद मिलती रही है या फिर नार्को परीक्षण सच उगलवाने का सही तरीका नहीं है.हाल में पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट (एक मानवाधिकार संगठन) ने अरुण फरेरा के नार्को प्रीक्षण को लेते हुए एक रिपोर्ट जारी की है जिसमे उसने कहा है कि यह एक प्रताणना के अलावा और कुछ नही है क्योंकि इस तरकीब से सच उगलवाना संभव नहीं है.हाल के वर्षों में देश में बढ़ते नार्को परीक्षण की सच्चाई यह है कि बंग्लूरू में स्थापित टेस्ट सेंटर मे अब तक ३०० से अधिक नार्को परीक्षण हो चुके हैं जिसके कोई खास नतीजे सामने नहीं आये हैं और पुलिस उन सबूतों के बल पर कुछ भी करने में अक्षम रही है. इसके पीछे ठोस कारण ये है कि नार्को परीक्षण के जरिये पुख्ता सबूत निकालने में ५% मदद ही मिल पाती है और वह भी कई बातों पर निर्भर करता है.नार्को परीक्षण के दौरान जिन नशीले पदार्थों का प्रयोग किया जाता है उसमें सोडियम पेंटोथाल,सेकोनाल,सोडियम एमिटोल,स्कीपोलामाइन है.विशेषग्यों का मानना है कि इसके प्रयोग से आरोपी अपने विचारों को बदलने में असमर्थ हो जाता है और वह सब कुछ उगलता है जो कि उसके मस्तिस्क में होता है परन्तु यदि उसने टेस्ट के पहले ही जिद बना ली है कि वह झूठ बोलेगा या कुछ और बोलेगा तो दवा का प्रवाह उसकी इस जिद को बलवती बनाता है.इस टेस्ट का तरीका इतना अमानवीय होता है कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा निर्धारित शारीरिक शोसण के अन्तर्गत आने वाले लगभग सभी तरकीबों का प्रयोग अभियुक्त पर किया जाता है. और प्र्योग किये गये सीरम से व्यक्ति का शारीरिक संतुलन भी गड़बड़ हो जाता है.जिसका सीधा प्रभाव उसकी यादास्त और स्वसन क्रिया पर पड़ता है.इस बात को ध्यान में रखते हुए दुनियाँ के कई राष्ट्रोम ने इस अमानवीय तरीके को अपनाना बंद कर दिया है.१९२२ में जब टेक्सास में पहली बार राबर्ट अर्नेस्ट द्वारा वहाँ के दो बंदियों पर यह तरीका अपनाते हुए कोर्ट में उन्हें पेश कर बयान दिलाया गया तो अभियुक्तों के अपराध स्वीकारने के बावजूद भी न्यायाधीस ने यह कहते हुए उन्हें बरी कर दिया कि नशे की हालत में दिया गया यह बयान अवैधानिक है १९३० तक ही दुनियाँ के कई देश की न्यायालयों ने नार्को टेस्ट से जुटाये गये सबूतों को अमान्य कर दिया और १९५० तक कई देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया.भारतीय कानून में धारा १६४ के अनुसार बिना किसी दबाव के न्यायाधीस के सामने दिये गये ही बयान न्यायालय को मान्य होंगे.इस आधार पर भारतीय न्यायालय परीक्षण के आधार पर जुटाये गये सबूत को मानती भी नही. परन्तु दुनियाँ के सबसे बडे़ लोकतंत्र केहे जाने वाले देश में इस प्रक्रिया का जारी रखना और ड्रग का इश्तेमाल कर शारीरिक यातना देना कितना उचित है?नार्को टेस्ट से संबंधित विशेषग्यों का यह भी मानना है कि सीरम के प्रयोग के बाद अभियुक्त से प्रश्न पूछने की शैली के ऊपर भी उसका जबाब निर्भर करता है. यानि इसके मुताबिक जाँच कर्ता वह सब उगलवा सकता है जो वह उगलवाना चाहे.अरुण फरेरा के मामले में इन सभी पक्षों को समझने की जरूरत है.पर सवाल नार्को टेस्ट की अमानवीयता और मानवाधिकार हनन का है.कुछ मामले ऎसे है जिनमे अभियुक्त को छः-छः बार परीक्षण करवाना पडा़ है. आरुसी हत्या मामले में कम्पाउंडर क्रिष्णा की दि बार नार्को टेस्ट हुई जिसका कोई खास नतीजा सामने नही आया पर यह इस बात का सबूत है कि नार्को परीक्षण सच उगलवाने की सही विधि नही है.परन्तु भारतीय न्यायालय जाँच में इसकी भूमिका को सही ठहराती है क्योंकि इससे पुलिस को कुछ पुख्ता सबूत मिलते हैं. अब तक हुए ३०० से अधिक परीक्षण व इससे भी कहीं अधिक की गयी मांगों में न्यायालय व पुलिस का रवैया साफ तौर पर देखा जा सकता है. तेलगी प्रकरण में किये गये नार्को परीक्षण के दौरान कई बडे़-बडे़ नेता और आला अधिकारियों के नाम लिये गये थे पर अब तक उन सुरागों का पुलिस ने कही इस्तेमाल नही किया है.यहाँ तक कि इन नेताओं और अधिकारियों से पुलिस ने सवाल-जबाब तक नहीं किये.दूसरे मामले में यदि न्यायालय का रुख देखें जिसमें शेख्शोहराबुद्दीन के फर्जी मुठभेड़ और कौसर बी की हत्या पर गुजरात की अदालत ने आई.पी.एस. अधिकारियों जिसमे डी.जी.पी. बजारा समेत अन्य छः पुलिस कर्मी भी सम्मलित थे,के नार्को टेस्ट की याचिका खारिज कर दी थी ये घटनाये यह स्पष्ट करती हैं कि नार्को टेस्ट किसका होता है और सबूत किनके लिये जुटाये जाते हैं ऎसे में इस तरह का परीक्षण मानवाधिकारों का हनन है और एक लोकतांत्रिक देश में इस तरह की कार्य्वाही एक अभियुक्त के लिये जिसका कि अपराध भी सिद्ध न हुआ हो यातना के एक विकल्प के शिवा कुछ नहीं है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक देशभक्त वामपंथी ही शिव सैनिक है । एक असामंती शिव सैनिक ही एक वामपंथी है । वामपंथी और कट्टर हिन्दुओ मे सहयोग की बात को मै स्वभाविक रुप से लेता हुं ।

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  2. narco taste ko lekar apne jo alekh samne laya hai, jo batata hai ki sahi or galat ko pachana muskil hai. phir bi vampanth ya shivsena se ise na jodte yuh samaj hit se joda jaya.

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  3. नक्सली तो दूध के धुले हैं...

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