सबके लिए शिक्षा कार्यक्रम के तहत अनुसूचित जाति, जनजाति, जनजाति के बालक, बालिकाओं की शिक्षा के साथ-साथ अन्य उपेक्षित व वंचित तथा अल्पसंख्यक बालक-बालिकाओं की शिक्षा के लिए अनेक किस्म के शैक्षिक कार्यक्रम चल रहे हैं. इसके लाभ कुछ चिह्नित लोगों को मिले भी हैं. इस कारण आम जन में भ्रम पैदा हो गया है. वे शैक्षिक कार्यक्रमों के भुलावे में फंस गये हैं. शिक्षा अब सिर्फ जीविकोपार्जन का माध्यम बनी हुई है और बाजारू मूल्य के अनुरूप शैक्षिक कार्य हो रहे हैं.
इन स्थितियों में शिक्षा व्यवस्था के ऊपर सरकार का पूर्ण अधिकार कायम हो गया है. इसने शिक्षा व्यवस्था का केंद्रीकरण किया है. हालांकि सरकारी, गैर सरकारी, सामाजिक एवं धार्मिक शैक्षिक संस्थाएं एक साथ चल रही हैं. इससे लगता है कि शिक्षा का विकेंद्रीकरण हुआ है, लेकिन वास्तविकता इससे उलट है. इन सबके बावजूद केंद्रीकृत शिक्षा व्यवस्था बनी हुई है.
इधर बिहार के गैर सरकारी स्कूलों में पाठ्य-पुस्तकों एवं पाठ्यचर्या के माध्यम से हिंदू व मुसलिम इतिहास की बातें खुलेआम चल रही हैं. इसलिए लोगों में संप्रदायों के बारे में तुलनात्मक भाव पैदा हो रहे हैं. इससे समाज में एक किस्म का धार्मिक अलगाव भी पैदा हो रहा है. आम जन को विभाजित किया जा रहा है. संप्रदायों के बारे में गलतफहमियां पैदा हो रही हैं.
इन सबके बावजूद राज्य सरकार द्वारा इस संदर्भ में किसी तरह के हस्तक्षेप नहीं हुए हैं, जबकि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने बिहार की स्कूली पुस्तकों के इस प्रसंग को काफी गंभीरता से लिया है. इसकी खबरें राज्य के सभी अखबारों में प्रमुखता से छपी हैं. फिर भी राज्य द्वारा गठित समान स्कूल प्रणाली आयोग एवं बिहार पाठ्यचर्या रूपरेखा, २००८ में इसकी पूर्ण अनदेखी हुई है. इस तरह की शैक्षिक गतिविधियों से सांप्रदायिक मानस के निर्मित होने की आशंका है. फिर भी इस तरह के शिक्षण संस्थानों को राज्य द्वारा विभिन्न तरह से प्रोत्साहन मिल रहा है. दूसरी ओर शैक्षिक प्रक्रिया में विवेचनात्मक पहल बंद हो गयी है.
मनुष्य के अंदर कल्पना के पालन एवं संरक्षण में विचार की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन अवधारणात्मक भटकाव होने से सोचने-समझने की शक्ति का ह्रास हुआ है. इस कारण शैक्षिक कार्यक्रम की वर्तमान प्रकृति से विवेचन की शक्ति लगातार कमजोर हो रही है, क्योंकि इसमें स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने का अवसर नहीं मिलता है.
शैक्षिक कार्यक्रमों की प्रकृति के कारण समाज में नयी संस्कृति एवं परंपरा का जन्म हुआ है. इससे सोच एवं समझ के स्तर में गहराई आने के बजाय इसमें विभ्रम की स्थिति पैदा हुई है. पढे-लिखे लोगों और अनपढ लोगों के बीच स्थायी दीवार खडी हो गयी है. वर्तमान प्रणाली के कारण ज्ञान सृजन में अनुभव का औचित्य खत्म हो गया है. इससे ज्ञान और काम के बीच का रिश्ता टूट गया है. गांव-शहर, शिक्षक-छात्र, शिक्षक-समुदाय, शिक्षक-शिक्षाशास्त्री, प्राथमिक-माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के स्तर पर अलग-अलग स्वतंत्र संकाय कार्य कर रहे हैं. इन वजहों से शिक्षा के लिए पूंजी का महत्व बढ गया है. शैक्षिक कार्यक्रम पूंजीपरस्त हो गये हैं. शिक्षा की योजनाएं भी लाभ-हानि की संभावनाओं के अनुरूप तय हो रही हैं. जाहिर है कि इससे शिक्षा के मूल्य में ह्रास होगा, जो शुरू हो भी चुका है.
मनुष्य में सोचने एवं विचार करने की शक्ति नैसर्गिक रूप से विद्यमान रहती है. इसलिए अनपढ व्यक्ति भी तर्क-वितर्क करते हैं और पढने-लिखने के बाद परीक्षण तथा अनुसंधान करते हैं. लेकिन वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में यह अवसर नहीं है.
शिक्षा के खर्च की आड में अब राज्य अपने दायित्व से मुंह मोडने लगा है. जबकि जन शिक्षा के कारण आमजन की जन्म एवं मृत्यु दर में सकारात्मक बदलाव आये हैं. जीवनस्तर भी समृद्ध हुआ है. राष्ट्रीय आय के उपार्जन एवं वितरण की प्रक्रिया में संतुलन आया है, फिर भी जन शिक्षा द्वारा अर्जित इस लाभ के अंशों को उपार्जन के रूप में नहीं देखा जा रहा है, क्योंकि शिक्षा के सामाजिक सरोकार को खत्म कर दिया गया है. इस कारण मानवीय मूल्य की बातें सामाजिक मूल्य से अलग की जा रही हैं. शैक्षिक कार्यक्रम में सामाजिक मूल्य अप्रसांगिक हो गये हैं.
शैक्षिक प्रक्रिया में व्यक्ति केंद्रित पहल चल रही है. शैक्षिक कार्यक्रम के निर्माण एवं संचालन में सामाजिक दृष्टिकोण की जगह व्यक्तिवाद स्थापित हो रहा है. इस कारण शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक मूल्य का औचित्य खत्म हो गया है. शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक हस्तक्षेप में ठहराव आ गया है.
सामाजिक मूल्यों के अप्रासंगिक होने के कारण शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक प्रक्रिया बंद हो गयी है. पहले से सामुदायिक सहयोग के भाव सीमित हुए हैं. कुल मिला कर शैक्षिक प्रक्रिया कमजोर हुई है. इस कमजोरी को ठीक करने के लिए व्यक्ति केंद्रित अवधारणा (प्रधान शिक्षक, मुखिया, समिति के सचिव, अध्यक्ष) के तहत सघन काम चल रहे हैं, जिसने सामाजिक प्रक्रिया का आधार ध्वस्त हो कर दिया है. सामाजिक हस्तक्षेप भी कम हुआ है. यह कमी स्वतःस्फूर्त नहीं है, बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में जारी सामाजिक प्रक्रिया के सिद्धांतों की अवहेलना होने के कारण आया है. इसलिए सामाजिक हस्तक्षेप में ठहराव एक महत्वपूर्ण शिक्षाशास्त्रीय मसला है. लेकिन इसके पहलुओं की चर्चा पाठ्यचर्या के निर्माण एवं संचालन के स्तर पर नहीं की जाती. परिणामस्वरूप शिक्षा व्यवस्था में यथास्थिति बनाये रखनेवाले शिक्षाशास्त्र का वर्चस्व कायम है.
शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति/संस्था/संगठन के स्तर पर हुए अंकेक्षण से उजागर हुआ है कि शैक्षिक कार्यक्रम नियम विरुद्ध कार्य चल रहे हैं, क्योंकि बेकायदा कार्यपद्धति अपनायी जा रही है. इस संबंध में अधिकारी, मंत्री, मुख्यमंत्री को जानकारी देना भी उपयोगी नहीं रह गया है. उदाहरणस्वरूप एनसीइआरटी, नयी दिल्ली के अखिल भारतीय सातवें शिक्षा सर्वेक्षण के प्रतिवेदन को देखा जा सकता है, जिसमें बिहार के अरवल जिले के करपी प्रखंड के अस्तित्वहीन बदरीगढ गांव के स्कूल को सात शिक्षकों के साथ पक्के भवन के रूप में प्रदर्शित किया गया है. इस तरह की अनियमितता प्रखंड स्तर पर और भी है. इससे जिला और राज्य की शिक्षण संस्थाओं की स्थिति की विश्र्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खडा होता है.
हमलोगों ने इस संबंध में २९ मार्च, २००६ को सचिव, मानव संसाधन विकास विभाग, भारत सरकार को पत्र लिखा. लेकिन इस संबंध में अभी तक युक्तिसंगत जवाब नहीं मिला है, जबकि इस सर्वेक्षण के प्रतिवेदन के आधार पर अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय शैक्षिक कार्यक्रम के मानक बनते हैं और उसके आधार पर शैक्षिक कार्यक्रम चलते हैं. इस संदर्भ में राज्यस्तरीय कार्यों की स्थिति को समझने के लिए अरवल जिला का ही एक उदाहरण लिया जा सकता है. करपी प्रखंड में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा पूर्ण मान्यता प्राप्त उच्च विद्यालय, आनंदपुर के पास अपनी जमीन तथा प्रारंभिक भवन हैं, परंतु राज्य सरकार की अनदेखी के कारण इस विद्यालय की स्थिति काफी दयनीय बनी हुई है. इस कारण यह आनंदपुर गांव का यह विद्यालय खेदरू विगहा में चल रहा है. इस संबंध में ग्राम चौहर, मानपुर, बालागढ, पकरी आदि गांवों के १३४ ग्रामीणों के हस्ताक्षर से राकेश कुमार द्वारा १२ अप्रैल, ०६ को दिया गया आवेदन एक प्रमाण है. इससे यह उजागर होता है कि बिहार में मान्यता प्राप्त चलंत विद्यालय (एक गांव से दूसरे गांव) की भी परंपरा बनी हुई है.
२००७ में महालेखाकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान के प्रस्तुत अंकेक्षण प्रतिवेदन से व्यवस्था के अभाव, नियम रहित कार्यों के संचालन से अवहित कर्म (ङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्ष) उजागर हुए हैं, लेकिन शिक्षा व्यवस्था की अनियमितताओं की चिंता सामाजिक, राजनीतिक, अकादमिक एवं प्रशासनिक स्तर पर नहीं किये जाने के कारण भ्रष्टाचार के आधार का संवर्धन जारी है.
शिक्षा के क्षेत्र में जारी अनियमित पहल से संबद्ध लोगों का आचरण बिगड रहा है. इस कारण कुछ पाने या गलतियों से बचने या बचाने की प्रवृत्ति का विकास हुआ है. उदाहरणस्वरूप बिहार में गठित समान स्कूल प्रणाली आयोग की प्रक्रिया को देखा जा सकता है. इसमें अवधारणात्मक कमियों के कारण आयोग की संरचना में नौकरशाही का प्रभुत्व है. इसलिए अन्य शिक्षाकर्मियों को औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से संपर्क करने के बावजूद विमर्श का अवसर नहीं मिला. १८ नवंबर, २००६ को एक जनपक्षी मसौदा सभी सदस्यों को कार्यालय में पत्र के साथ समर्पित किया गया, लेकिन इसकी अनदेखी की गयी. १८ नवंबर, २००६ को पुनः उसी तरह बिहार की शैक्षिक पारिस्थितिकीय दस्तावेज सभी सदस्यों को प्रस्तुत किया गया था. लेकिन उसकी भी अनदेखी की गयी.
कहा गया कि समान स्कूल प्रणाली की व्यवस्था के लिए काफी धन की जरूरत है. यह बिहार जैसे पिछडे और गरीब राज्य के लिए संभव नहीं है. इसलिए आयोग की अनुशंसा में स्थानीय निकाय के साथ निर्धारित समन्वयन की प्रकृति से जनतांत्रिक प्रक्रिया नहीं उभरती है. इसमें स्कूल के पोषक क्षेत्र के निर्धारण में भी स्थानीय निकाय की भूमिका को महत्वपूर्ण नहीं माना गया है. इस संबंध में सवाल उठाने पर आयोग के एक सदस्य द्वारा कहा गया कि बिहार की पंचायती राज्य प्रणाली बहुत पिछडी हुई है. ऐसे में उसे शिक्षा की व्यवस्था में पूरी तरह शामिल नहीं कर सकते. जब इसमें सुधार होगा, तभी इसे लिया जायेगा.
आयोग की अनुशंसा में कहा गया है कि विद्यालयों के अधिग्रहण से शिक्षकों के चरित्र में रातों-रात बदलाव आये हैं. शिक्षक अब सरकारी नौकर हो गये हैं और उनमें लापरवाही के भाव पैदा हुए हैं. स्कूल व्यवस्था की दुर्दशा के लिए मुख्य रूप से शिक्षक को दोषी बताया गया है, जबकि राज्य की नीति संहिता में शिक्षकों के सृजन एवं नियंत्रण का प्रावधान है. फिर भी शिक्षकों की गरिमापूर्ण श्रृंखला को पंचायत शिक्षक, प्रखंड शिक्षक, नगर शिक्षक, व्यावसायिक शिक्षक आदि के नाम से अलग-अलग श्रेणियों में बांट दिया गया है.
इसी तरह प्राइवेट स्कूल के पक्ष में आयोग के सदस्यों द्वारा कहा गया कि आयोग की रिपोर्ट में निजी स्कूलों को नजरअंदाज नहीं किया गया है और न ही उन्हें बंद करने का निर्णय लिया गया है. सरकार के सिद्धांतों के अनुसार जो निजी स्कूल कार्य करेंगे, उन्हें सरकार की ओर से अनुदान भी दिया जायेगा. इसमें अपने दायित्व से बचने के लिए सदस्यों द्वारा यह गुहार लगायी गयी कि राज्य में प्राइवेट स्कूल की लॉबी बहुत मजबूत है. अंततः इस तरह की बातें शिक्षा को खरीद-फरोख्त की वस्तु बना देती हैं.
१९९९ में विश्र्व बैंक के सहयोग से ज्योमतियन में सबके लिए शिक्षा सम्मेलन हुआ. इसके बाद १९९५ में प्रायरिटीज एंड स्ट्रैटेजीज फॉर एजुकेशन नाम्व से विश्र्व बैंक द्वारा समीक्षा प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ. इसमें शिक्षा के सामाजिक कामों के लाभ को उजागर नहीं किया गया, लेकिन वर्ष १९९८-९९ में विश्र्व बैंक की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में विकास के लिए ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा की संस्तुति को महत्वपूर्ण सवाल बनाया गया है और २००० में विश्र्व बैंक द्वारा डकार में पुनः सबके लिए शिक्षा सम्मेलन हुआ. इससे शिक्षा सेवा एक महत्वपूर्ण धंधे के रूप में उभरी है. उच्च शिक्षा एवं प्रशिक्षण के लिए विदेश में जाकर पढने की प्रक्रिया तेज हो गयी है. २००५-०८ के विश्र्व बैंक के रिपोर्ट के अनुरूप यहां शिक्षा की नियमावली में संशोधन हुए और नये-नये कानून बनाये जा रहे हैं. विश्र्व बैंक के नॉलेज बैंक की अवधारणा के अनुरूप विद्यालय से लेकर विश्र्वविद्यालय तक शैक्षिक कार्यक्रम शुरू हैं. इससे शिक्षा के सामाजिक मूल्य की जगह उपयोग एवं इस्तेमाल का पक्ष महत्वपूर्ण बन गया. इस कारण शिक्षा में बाजारू मूल्य का विस्तार हुआ है. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक खरीद-फरोख्त का काम शुरू हो गयी है. शिक्षा की निजी दुकानों की होड मची हुई है. इसमें डोनेशन की अवधारणा को सेवा शुल्क के तर्ज पर प्रस्तुत किया जा रहा है.
शैक्षिक संस्थाओं के कार्यक्रमों के उपयोग के लिए वसूल किये जानेवाले कर को सेवा शुल्क के रूप में लिया गया है, लेकिन लाभ की दृष्टि से निर्धारित सेवा शुल्क के कारण सामान्य बच्चे छूट जा सकते हैं. इस कारण पूर्व में लाभकारी सेवा शुल्क वसूल करने के लिए शिक्षण संस्थान अधिकृत नहीं थे. इसलिए शिक्षा की नियमावली को इसके अनुकूल बनाया जा रहा है. इससे शिक्षण संस्थानों के डोनेशन की कार्यपद्धति का वैधानिकीकरण हो रहा है. उपभोक्तावादी संस्कृति को संरक्षण मिल रहा है. शिक्षा व्यवस्था में उपभोक्तावादी संस्कृति कायम हो गयी है. इससे शैक्षिक कार्यक्रम जनविरोधी हो गये हैं. इन्हें जनपक्षी बनाने के लिए अब शिक्षा व्यवस्था का सामाजिकीकरण एकमात्र रास्ता है.
उपभोक्तावादी संस्कृति से उबरने के लिए शिक्षा के बाजारू चरित्र में बदलाव जरूरी है. इसलिए शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त अनियमितता एवं भ्रष्टाचार को खत्म करना है. इसके लिए सामाजिक हस्तक्षेप जरूरी है. किंतु यह काम सामाजिक प्रक्रिया के माध्यम से ही संभव है. इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना है. वर्तमान शैक्षिक विमर्श को बदलना है. परंतु यह जटिल कार्य है. इसलिए शैक्षिक कार्यक्रमों में अवधारणात्मक बदलाव के लिए आलोचनात्मक चेतना का विकास करना है. इसलिए सभी स्तर पर आमजन की सृजनात्मक भागीदारी के अवसर पर सृजन करना जरूरी है. इससे पूंजीपरस्त सरकारीकरण की कार्यपद्धति में सामाजिक शक्ति को पुनर्स्थापित किया जा सकता है. इसलिए शिक्षा की रूपरेखा को जनपक्षी बनाने का यह एकमात्र रास्ता है.
लेखक जानेमाने शिक्षाविद हैं और ग्रामीण स्तर पर शिक्षा व्यवस्था के लंबे अध्ययन के दौरान उन्होंने यह लेख लिखा है.
इन स्थितियों में शिक्षा व्यवस्था के ऊपर सरकार का पूर्ण अधिकार कायम हो गया है. इसने शिक्षा व्यवस्था का केंद्रीकरण किया है. हालांकि सरकारी, गैर सरकारी, सामाजिक एवं धार्मिक शैक्षिक संस्थाएं एक साथ चल रही हैं. इससे लगता है कि शिक्षा का विकेंद्रीकरण हुआ है, लेकिन वास्तविकता इससे उलट है. इन सबके बावजूद केंद्रीकृत शिक्षा व्यवस्था बनी हुई है.
इधर बिहार के गैर सरकारी स्कूलों में पाठ्य-पुस्तकों एवं पाठ्यचर्या के माध्यम से हिंदू व मुसलिम इतिहास की बातें खुलेआम चल रही हैं. इसलिए लोगों में संप्रदायों के बारे में तुलनात्मक भाव पैदा हो रहे हैं. इससे समाज में एक किस्म का धार्मिक अलगाव भी पैदा हो रहा है. आम जन को विभाजित किया जा रहा है. संप्रदायों के बारे में गलतफहमियां पैदा हो रही हैं.
इन सबके बावजूद राज्य सरकार द्वारा इस संदर्भ में किसी तरह के हस्तक्षेप नहीं हुए हैं, जबकि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने बिहार की स्कूली पुस्तकों के इस प्रसंग को काफी गंभीरता से लिया है. इसकी खबरें राज्य के सभी अखबारों में प्रमुखता से छपी हैं. फिर भी राज्य द्वारा गठित समान स्कूल प्रणाली आयोग एवं बिहार पाठ्यचर्या रूपरेखा, २००८ में इसकी पूर्ण अनदेखी हुई है. इस तरह की शैक्षिक गतिविधियों से सांप्रदायिक मानस के निर्मित होने की आशंका है. फिर भी इस तरह के शिक्षण संस्थानों को राज्य द्वारा विभिन्न तरह से प्रोत्साहन मिल रहा है. दूसरी ओर शैक्षिक प्रक्रिया में विवेचनात्मक पहल बंद हो गयी है.
मनुष्य के अंदर कल्पना के पालन एवं संरक्षण में विचार की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन अवधारणात्मक भटकाव होने से सोचने-समझने की शक्ति का ह्रास हुआ है. इस कारण शैक्षिक कार्यक्रम की वर्तमान प्रकृति से विवेचन की शक्ति लगातार कमजोर हो रही है, क्योंकि इसमें स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने का अवसर नहीं मिलता है.
शैक्षिक कार्यक्रमों की प्रकृति के कारण समाज में नयी संस्कृति एवं परंपरा का जन्म हुआ है. इससे सोच एवं समझ के स्तर में गहराई आने के बजाय इसमें विभ्रम की स्थिति पैदा हुई है. पढे-लिखे लोगों और अनपढ लोगों के बीच स्थायी दीवार खडी हो गयी है. वर्तमान प्रणाली के कारण ज्ञान सृजन में अनुभव का औचित्य खत्म हो गया है. इससे ज्ञान और काम के बीच का रिश्ता टूट गया है. गांव-शहर, शिक्षक-छात्र, शिक्षक-समुदाय, शिक्षक-शिक्षाशास्त्री, प्राथमिक-माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के स्तर पर अलग-अलग स्वतंत्र संकाय कार्य कर रहे हैं. इन वजहों से शिक्षा के लिए पूंजी का महत्व बढ गया है. शैक्षिक कार्यक्रम पूंजीपरस्त हो गये हैं. शिक्षा की योजनाएं भी लाभ-हानि की संभावनाओं के अनुरूप तय हो रही हैं. जाहिर है कि इससे शिक्षा के मूल्य में ह्रास होगा, जो शुरू हो भी चुका है.
मनुष्य में सोचने एवं विचार करने की शक्ति नैसर्गिक रूप से विद्यमान रहती है. इसलिए अनपढ व्यक्ति भी तर्क-वितर्क करते हैं और पढने-लिखने के बाद परीक्षण तथा अनुसंधान करते हैं. लेकिन वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में यह अवसर नहीं है.
शिक्षा के खर्च की आड में अब राज्य अपने दायित्व से मुंह मोडने लगा है. जबकि जन शिक्षा के कारण आमजन की जन्म एवं मृत्यु दर में सकारात्मक बदलाव आये हैं. जीवनस्तर भी समृद्ध हुआ है. राष्ट्रीय आय के उपार्जन एवं वितरण की प्रक्रिया में संतुलन आया है, फिर भी जन शिक्षा द्वारा अर्जित इस लाभ के अंशों को उपार्जन के रूप में नहीं देखा जा रहा है, क्योंकि शिक्षा के सामाजिक सरोकार को खत्म कर दिया गया है. इस कारण मानवीय मूल्य की बातें सामाजिक मूल्य से अलग की जा रही हैं. शैक्षिक कार्यक्रम में सामाजिक मूल्य अप्रसांगिक हो गये हैं.
शैक्षिक प्रक्रिया में व्यक्ति केंद्रित पहल चल रही है. शैक्षिक कार्यक्रम के निर्माण एवं संचालन में सामाजिक दृष्टिकोण की जगह व्यक्तिवाद स्थापित हो रहा है. इस कारण शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक मूल्य का औचित्य खत्म हो गया है. शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक हस्तक्षेप में ठहराव आ गया है.
सामाजिक मूल्यों के अप्रासंगिक होने के कारण शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक प्रक्रिया बंद हो गयी है. पहले से सामुदायिक सहयोग के भाव सीमित हुए हैं. कुल मिला कर शैक्षिक प्रक्रिया कमजोर हुई है. इस कमजोरी को ठीक करने के लिए व्यक्ति केंद्रित अवधारणा (प्रधान शिक्षक, मुखिया, समिति के सचिव, अध्यक्ष) के तहत सघन काम चल रहे हैं, जिसने सामाजिक प्रक्रिया का आधार ध्वस्त हो कर दिया है. सामाजिक हस्तक्षेप भी कम हुआ है. यह कमी स्वतःस्फूर्त नहीं है, बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में जारी सामाजिक प्रक्रिया के सिद्धांतों की अवहेलना होने के कारण आया है. इसलिए सामाजिक हस्तक्षेप में ठहराव एक महत्वपूर्ण शिक्षाशास्त्रीय मसला है. लेकिन इसके पहलुओं की चर्चा पाठ्यचर्या के निर्माण एवं संचालन के स्तर पर नहीं की जाती. परिणामस्वरूप शिक्षा व्यवस्था में यथास्थिति बनाये रखनेवाले शिक्षाशास्त्र का वर्चस्व कायम है.
शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति/संस्था/संगठन के स्तर पर हुए अंकेक्षण से उजागर हुआ है कि शैक्षिक कार्यक्रम नियम विरुद्ध कार्य चल रहे हैं, क्योंकि बेकायदा कार्यपद्धति अपनायी जा रही है. इस संबंध में अधिकारी, मंत्री, मुख्यमंत्री को जानकारी देना भी उपयोगी नहीं रह गया है. उदाहरणस्वरूप एनसीइआरटी, नयी दिल्ली के अखिल भारतीय सातवें शिक्षा सर्वेक्षण के प्रतिवेदन को देखा जा सकता है, जिसमें बिहार के अरवल जिले के करपी प्रखंड के अस्तित्वहीन बदरीगढ गांव के स्कूल को सात शिक्षकों के साथ पक्के भवन के रूप में प्रदर्शित किया गया है. इस तरह की अनियमितता प्रखंड स्तर पर और भी है. इससे जिला और राज्य की शिक्षण संस्थाओं की स्थिति की विश्र्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खडा होता है.
हमलोगों ने इस संबंध में २९ मार्च, २००६ को सचिव, मानव संसाधन विकास विभाग, भारत सरकार को पत्र लिखा. लेकिन इस संबंध में अभी तक युक्तिसंगत जवाब नहीं मिला है, जबकि इस सर्वेक्षण के प्रतिवेदन के आधार पर अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय शैक्षिक कार्यक्रम के मानक बनते हैं और उसके आधार पर शैक्षिक कार्यक्रम चलते हैं. इस संदर्भ में राज्यस्तरीय कार्यों की स्थिति को समझने के लिए अरवल जिला का ही एक उदाहरण लिया जा सकता है. करपी प्रखंड में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा पूर्ण मान्यता प्राप्त उच्च विद्यालय, आनंदपुर के पास अपनी जमीन तथा प्रारंभिक भवन हैं, परंतु राज्य सरकार की अनदेखी के कारण इस विद्यालय की स्थिति काफी दयनीय बनी हुई है. इस कारण यह आनंदपुर गांव का यह विद्यालय खेदरू विगहा में चल रहा है. इस संबंध में ग्राम चौहर, मानपुर, बालागढ, पकरी आदि गांवों के १३४ ग्रामीणों के हस्ताक्षर से राकेश कुमार द्वारा १२ अप्रैल, ०६ को दिया गया आवेदन एक प्रमाण है. इससे यह उजागर होता है कि बिहार में मान्यता प्राप्त चलंत विद्यालय (एक गांव से दूसरे गांव) की भी परंपरा बनी हुई है.
२००७ में महालेखाकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान के प्रस्तुत अंकेक्षण प्रतिवेदन से व्यवस्था के अभाव, नियम रहित कार्यों के संचालन से अवहित कर्म (ङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्ष) उजागर हुए हैं, लेकिन शिक्षा व्यवस्था की अनियमितताओं की चिंता सामाजिक, राजनीतिक, अकादमिक एवं प्रशासनिक स्तर पर नहीं किये जाने के कारण भ्रष्टाचार के आधार का संवर्धन जारी है.
शिक्षा के क्षेत्र में जारी अनियमित पहल से संबद्ध लोगों का आचरण बिगड रहा है. इस कारण कुछ पाने या गलतियों से बचने या बचाने की प्रवृत्ति का विकास हुआ है. उदाहरणस्वरूप बिहार में गठित समान स्कूल प्रणाली आयोग की प्रक्रिया को देखा जा सकता है. इसमें अवधारणात्मक कमियों के कारण आयोग की संरचना में नौकरशाही का प्रभुत्व है. इसलिए अन्य शिक्षाकर्मियों को औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से संपर्क करने के बावजूद विमर्श का अवसर नहीं मिला. १८ नवंबर, २००६ को एक जनपक्षी मसौदा सभी सदस्यों को कार्यालय में पत्र के साथ समर्पित किया गया, लेकिन इसकी अनदेखी की गयी. १८ नवंबर, २००६ को पुनः उसी तरह बिहार की शैक्षिक पारिस्थितिकीय दस्तावेज सभी सदस्यों को प्रस्तुत किया गया था. लेकिन उसकी भी अनदेखी की गयी.
कहा गया कि समान स्कूल प्रणाली की व्यवस्था के लिए काफी धन की जरूरत है. यह बिहार जैसे पिछडे और गरीब राज्य के लिए संभव नहीं है. इसलिए आयोग की अनुशंसा में स्थानीय निकाय के साथ निर्धारित समन्वयन की प्रकृति से जनतांत्रिक प्रक्रिया नहीं उभरती है. इसमें स्कूल के पोषक क्षेत्र के निर्धारण में भी स्थानीय निकाय की भूमिका को महत्वपूर्ण नहीं माना गया है. इस संबंध में सवाल उठाने पर आयोग के एक सदस्य द्वारा कहा गया कि बिहार की पंचायती राज्य प्रणाली बहुत पिछडी हुई है. ऐसे में उसे शिक्षा की व्यवस्था में पूरी तरह शामिल नहीं कर सकते. जब इसमें सुधार होगा, तभी इसे लिया जायेगा.
आयोग की अनुशंसा में कहा गया है कि विद्यालयों के अधिग्रहण से शिक्षकों के चरित्र में रातों-रात बदलाव आये हैं. शिक्षक अब सरकारी नौकर हो गये हैं और उनमें लापरवाही के भाव पैदा हुए हैं. स्कूल व्यवस्था की दुर्दशा के लिए मुख्य रूप से शिक्षक को दोषी बताया गया है, जबकि राज्य की नीति संहिता में शिक्षकों के सृजन एवं नियंत्रण का प्रावधान है. फिर भी शिक्षकों की गरिमापूर्ण श्रृंखला को पंचायत शिक्षक, प्रखंड शिक्षक, नगर शिक्षक, व्यावसायिक शिक्षक आदि के नाम से अलग-अलग श्रेणियों में बांट दिया गया है.
इसी तरह प्राइवेट स्कूल के पक्ष में आयोग के सदस्यों द्वारा कहा गया कि आयोग की रिपोर्ट में निजी स्कूलों को नजरअंदाज नहीं किया गया है और न ही उन्हें बंद करने का निर्णय लिया गया है. सरकार के सिद्धांतों के अनुसार जो निजी स्कूल कार्य करेंगे, उन्हें सरकार की ओर से अनुदान भी दिया जायेगा. इसमें अपने दायित्व से बचने के लिए सदस्यों द्वारा यह गुहार लगायी गयी कि राज्य में प्राइवेट स्कूल की लॉबी बहुत मजबूत है. अंततः इस तरह की बातें शिक्षा को खरीद-फरोख्त की वस्तु बना देती हैं.
१९९९ में विश्र्व बैंक के सहयोग से ज्योमतियन में सबके लिए शिक्षा सम्मेलन हुआ. इसके बाद १९९५ में प्रायरिटीज एंड स्ट्रैटेजीज फॉर एजुकेशन नाम्व से विश्र्व बैंक द्वारा समीक्षा प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ. इसमें शिक्षा के सामाजिक कामों के लाभ को उजागर नहीं किया गया, लेकिन वर्ष १९९८-९९ में विश्र्व बैंक की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में विकास के लिए ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा की संस्तुति को महत्वपूर्ण सवाल बनाया गया है और २००० में विश्र्व बैंक द्वारा डकार में पुनः सबके लिए शिक्षा सम्मेलन हुआ. इससे शिक्षा सेवा एक महत्वपूर्ण धंधे के रूप में उभरी है. उच्च शिक्षा एवं प्रशिक्षण के लिए विदेश में जाकर पढने की प्रक्रिया तेज हो गयी है. २००५-०८ के विश्र्व बैंक के रिपोर्ट के अनुरूप यहां शिक्षा की नियमावली में संशोधन हुए और नये-नये कानून बनाये जा रहे हैं. विश्र्व बैंक के नॉलेज बैंक की अवधारणा के अनुरूप विद्यालय से लेकर विश्र्वविद्यालय तक शैक्षिक कार्यक्रम शुरू हैं. इससे शिक्षा के सामाजिक मूल्य की जगह उपयोग एवं इस्तेमाल का पक्ष महत्वपूर्ण बन गया. इस कारण शिक्षा में बाजारू मूल्य का विस्तार हुआ है. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक खरीद-फरोख्त का काम शुरू हो गयी है. शिक्षा की निजी दुकानों की होड मची हुई है. इसमें डोनेशन की अवधारणा को सेवा शुल्क के तर्ज पर प्रस्तुत किया जा रहा है.
शैक्षिक संस्थाओं के कार्यक्रमों के उपयोग के लिए वसूल किये जानेवाले कर को सेवा शुल्क के रूप में लिया गया है, लेकिन लाभ की दृष्टि से निर्धारित सेवा शुल्क के कारण सामान्य बच्चे छूट जा सकते हैं. इस कारण पूर्व में लाभकारी सेवा शुल्क वसूल करने के लिए शिक्षण संस्थान अधिकृत नहीं थे. इसलिए शिक्षा की नियमावली को इसके अनुकूल बनाया जा रहा है. इससे शिक्षण संस्थानों के डोनेशन की कार्यपद्धति का वैधानिकीकरण हो रहा है. उपभोक्तावादी संस्कृति को संरक्षण मिल रहा है. शिक्षा व्यवस्था में उपभोक्तावादी संस्कृति कायम हो गयी है. इससे शैक्षिक कार्यक्रम जनविरोधी हो गये हैं. इन्हें जनपक्षी बनाने के लिए अब शिक्षा व्यवस्था का सामाजिकीकरण एकमात्र रास्ता है.
उपभोक्तावादी संस्कृति से उबरने के लिए शिक्षा के बाजारू चरित्र में बदलाव जरूरी है. इसलिए शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त अनियमितता एवं भ्रष्टाचार को खत्म करना है. इसके लिए सामाजिक हस्तक्षेप जरूरी है. किंतु यह काम सामाजिक प्रक्रिया के माध्यम से ही संभव है. इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना है. वर्तमान शैक्षिक विमर्श को बदलना है. परंतु यह जटिल कार्य है. इसलिए शैक्षिक कार्यक्रमों में अवधारणात्मक बदलाव के लिए आलोचनात्मक चेतना का विकास करना है. इसलिए सभी स्तर पर आमजन की सृजनात्मक भागीदारी के अवसर पर सृजन करना जरूरी है. इससे पूंजीपरस्त सरकारीकरण की कार्यपद्धति में सामाजिक शक्ति को पुनर्स्थापित किया जा सकता है. इसलिए शिक्षा की रूपरेखा को जनपक्षी बनाने का यह एकमात्र रास्ता है.
लेखक जानेमाने शिक्षाविद हैं और ग्रामीण स्तर पर शिक्षा व्यवस्था के लंबे अध्ययन के दौरान उन्होंने यह लेख लिखा है.
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