यह एक वैधानिक तर्क है कि पाले समाजवाद के लिए आंदोलन बढ़ने के जो कारण थे आज, बल्कि पिछली शताब्दी के प्रारंभ अथवा पहले अन्य किसी समय से ज्यादा, इस सदी के प्रारंभ में और मज़बूत हैं. सामाजिक जीवन के संगठन में पूँजीवाद अभी भी शोषक और पर्यावरणीय विध्वंस का रास्ता है. क्षणिक विजयी पूँजीवाद उन्हीं ढाँचागत दबावों/मजबूरियों के तहत, पहले जैसे ही विध्वंसक परिणामों को उत्पन्न कर संचालित हो रहा है.यह अभी भी संकटों से घिरा हुआ है तथा अपनी अति विशाल/अनोखी उत्पादन क्षमता के बावजूद, मानव समुदाय की ज़रूरतों के लिए, यहाँ तक कि अपने प्रभुत्व की दुनिया में व्यापक आबादी को जीने-खाने तक की सुविधा मुहैया कराने के लिए , अपनी उपलधियों को सौंपने में जन्मजात तौर पर अक्षम है. अपने वर्तमान चरम उत्कर्ष के बावज़ूद, पूँजीवाद शताब्दियों से मौजूद एक भी समस्या का समाधान नहीं कर सका. और उसने समाजवादी इच्छाओं व संघर्षों का आधा-अधूरा ही सही भरण पोषण किया. समाजवाद के विश्वव्यापी संक्रमण का तर्क आज भी पहले से कहीं ज़्यादा उपयुक्त बना हुआ है.
सोवियत संघ के विघटन ने इस तर्क में किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नही लाया है, सिवाय इसके कि आर्थिक तौर पर शोषक, नैतिक रुप से घृणास्पद तथा पर्यावरण के लिए गैरटिकाऊ चरित्र का पूँजीवाद अब इतिहास के किसी भी समय से ज़्यादा नंगा हुआ है.......
वर्तमान प्रभुत्वशाली पूँजीवाद के विरोध मे समाजवादी विपक्ष के पुनर्निर्माण के लिए आत्मगत स्थितियाँ तथा व्यक्तिगत व जनसंगठन के स्तर पर मौजूद भ्रूणावस्था की वस्तुगत स्थितियाँ आज ज़्यादा आस्तित्वमान हैं. पश्चिम में 'कोई विकल्प नहीं' की खुशफ़हमी अब जा चुकी है. अतीत में इसी तरह की कई घोषणाओं सहित 'इतिहास के अंत' की बचकाना घोषणा मजबूती से अस्वीकृत कर दी गयी है. दीर्घ अवधि में जनता सोचती है कि कल्याणकारी पूँजीवाद प्रतिनिधिक नहीं, बल्कि वह जिस कठोर यथार्थ का अनुभव कर रही है वह प्रतिनिधिक है. लोग पूँजीवाद वास्तव में है क्या इसे कटोरता से सीख रहे हैं. वैश्विक पूँजीवाद, वैश्वीकरण तथा अमरीका के नये वर्चस्व के विनाशकारी हृदयस्थल में लोग पूँजीवाद, साम्राज्यवाद तथा अपने ही शासकवर्ग की दलाली के बारे में नया पाठ सीख रहे हैं. विकल्प का सवाल फिर एजेंडे में आ गया है तथा यद्यपि दिग्भ्रमित अथवा छितराये तरीके से ही, पूंजीवाद विरोधी संघर्ष दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न तरीकों तथा आकारों में जारी है. ये संघर्ष पिछली शताब्दी का जस का तस दुहराव नहीं चाहते. हमें बताया गया है कि ''इतिहास अपने आप को नहीं दुहराता'' लेकिन मार्क्स ने कहा है कि 'इतिहास हमसे ज़्यादा कल्पनाशील होता है'. इतिहास निश्चित तौर पर आश्चर्य चकित करता है- और शोषितों तथा दमितों द्वारा क्रांतियां उनमें से एक है......
सशस्त्र संघर्ष अथवा व्यापक विद्रोह का उभार ही क्रांतियां नहीं होते, यद्यपि इनकी जरूरत को इंकार नहीं किया जा सकता। यह क्रांति को इतिहास के एक खास क्षण जैसे विंटर पैलेस पर कब्ज़ा या बास्तील के तूफान जैसे एक निश्चित प्रतिबिंब की तरह देखने में कोई मदद नहीं करते। क्रांति, पूंजीवादी लोकतंत्र के शासनकाल में खुद की विशिष्ट जटिलताओं के साथ, एक जटिल प्रक्रिया के रूप में बेहतर ढंग से समझी जा सकती है। और जहां तक हम इसे समझते हैं वह यह कि भविष्य की क्रांतियों के व्यवहारिक तथा सैद्धांतिक रूपों के बारे में अनुमान नही लगा सकते। और हम यह आश्चर्य जानते हैं कि इतिहास का उतार-चढा़व हमें बीसवीं सदी में ले गया है। और इस बारे में संदेह का कोई आधार नहीं है कि यह और ज़्यादा हमें ले जायेगा। विद्रोह में जनता की आविष्कारिता किसी भी संवेदनशील विद्वान या दार्शनिक की कल्पना के परे रही है और यह जारी रहेगी...... जारी........
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