मणिपुर में ११ सितम्बर २००८ को एक गैर लोकतांत्रिक कानून (आर्मड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट) आफ़्सपा को लगे हुए ५० साल पूरे हो रहे हैं. आजादी के ११ वर्ष बाद १९५८ में यह कानून कुछ क्षेत्रों में नागा बिद्रोह से निपटने के लिये लगाया गया था. धीरे-धीरे इसका विस्तार होता गया और १९८० में पूरे मणिपुर को अशांत घोषित कर दिया गया. आफ्सपा को आर्मड फोर्स स्पेसल पावर आर्डिनेंस के तौर पर बनाया गया जिसे अंग्रेजों द्वारा १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन से निपटने के लिये भारतीय आंदोलन कारियों के दमन के लिये बनाया गया था. तब से पूरे राज्य में आपातकाल की स्थिति बनी हुई है. यह गैर लोकतांत्रिक कानून राज्य के गवर्नर/या केन्द्र को यह अधिकार देता है कि वे किसी भी क्षेत्र को अशांत घोषित कर सकते हैं. किसी भी आयुक्त अधिकारी या एन.सी.ओ. तक को यह अधिकार देता है कि यदि उसे लगता है कि कोई व्यक्ति कानून व्यवस्था तोड़ सकता है व यदि कोई व्यक्ति हथियार या कोई भी चीज जिसका इश्तेमाल हथियार के रूप में किया जा सकता है के साथ पाया जाय तो शक के आधार पर वह किसी भी व्यक्ति को गोली मार सकता है या इतने बल का प्रयोग कर सकता है जिससे उसकी मौत हो जाय. इस रूप में यदि इसकी व्याख्या करें तो वह किसान भी आता है जो अपने औजार के साथ खेत जा रहा हो.कानून लागू होने के बाद दिनों-दिन अमानवीयता बढ़ती गयी और रोज बरोज सेना के बढ़ते दमन को देख मानवाधिकार संगठन ने आफ्सपा के खिलाफ ८०-८२ में याचिकायें दर्ज की जिसमे जीवन, आजादी, बराबरी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताको चुनौती दी गयी, परन्तु १५ वर्षों बाद १९९७ में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सही ठहराते हुए कुछ निर्देश दिये उन निर्देशों के तहत आर्मी को बताया गया कि वह क्या करे और क्या न करे, जिसमें यह कहा गया कि गोली चलाने के पहले व्यक्ति को चेतावनी दी जानी चाहिये, और किसी भी कार्यवाही के समय नागरिक प्रशासन को शामिल किया जाना चाहिये इन बातों का सैन्य बल द्वारा कडा़इ से पालन किया जाय. परन्तु उसके बाद भी किसी निर्देश का पालन नहीं होता अलबत्ता डी.जी.पी. का यह बयान आया कि निर्देशों की भावना का पालन होता है इसके शब्दों का नहीं. इस रूप में स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है कि आर्मी किस तरह के भावना का पालन करती होगी.सेना को यह भी निर्देश दिया गया था कि कि किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के बाद वह जल्द से जल्द व्यक्ति को नजदीकी पुलिस थाने को सौंप दे और आर्मी को पूछताछ का कोई अधिकार नही बनता इसके बावजूद आर्मी थर्ड डिग्री का इश्तेमाल कर अभियुक्तों से पूछ-ताछ करती है और अक्सर पूछ ताछ के बाद गोली मार देती है. इस रूप में सेना वहाँ नागरिक प्रसासन की मदद करने के बजाय एक स्वतंत्र इकाई के रूप में कार्य कर रही है. इस कानून को लागू होने के बाद से अब तक मणिपुर के अनगिनत लोग मारे जा चुके हैं और गायब हैं. लोगों को यह नहीं पता कि किस दिन उनके घर में आर्मी आयेगी और उनके किसी भी सदस्य को उठा ले जायेगी. दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र में ऎसी अमानवीय स्थिति बनी हुई है जहाँ पूरी तरह से सेना का शासन चल रहा है. परन्तु भारत के अधिकांश हिस्सों के लोगों को इन स्थितियों की भनक तक नहीं है. और कुछ मुद्दॊं को छोड़ कर भारतीय मीडिया ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया है. ११ जुलाई २००४ को इम्फाल के पूर्व जिला बामोन की एक ३२ वर्षीय महिला थंगजम मनोरमा को असम राइफल्स द्वारा रात को उनके घर से उठा लिया गया और तमाम तरह की यातनाओं के बाद उनकी लाश को घर से ५-६ कि.मी. की दूर स्थित राजमार्ग पर फ़ेक दिया गया था, जिसको लेकर मणिपुर में एक बढा़ विरोध प्रदर्स्गन हुआ था और महिलाओं ने निरवस्त्र होकर यह नारा दिया था कि "इडियन आर्मी रेप अस" जिसे राष्ट्रीय मीडिया ने पहली बार गम्भीरता से लिया था पर उसके बाद रोज दिनों दिन घटनायें घटती जा रही हैं पर राष्ट्रीय मीडिया में उसकी खबरें कहीं नहीं दिखती. २००२ में जब भारत के प्रधानमंत्री १५ अगस्त देश के लोकतंत्र को और मजबूत बनाने की बात करते हुए तिरंगा फ़हरा रहे थे. उसी समय मणिपुर का एक छात्र नेता पेबम चितरंजन बिसनपुर चौराहे पर खुद को यह कहते हुए जला लिया कि इस अप्रजातांत्रिक कानून में में मरने के बजाय मै मशाल की तरह जलकर मरना पंसंद करूंगा. राज्य में हर वर्ष इसी तरह से सैकड़ों लोग आर्मी की गोलियों से मारे जा रहें हैं तिस पर गृह मंत्री मणिपुर में जाकर यह बयान देते हैं कि मरनें वालों की संख्या इतनी नहीं है कि इस पर परेशान हुआ जाय.क्या किसी लोकतंत्र में मनोरमा जैसी एक भी महिला का आर्मी द्वारा बलात्कार, और महिलाओं का निरवस्त्र प्रदर्शन उन्हें कम लगता है? देश के स्वतंत्रता दिवस पर किसी व्यक्ति का देश के किसी कानून से क्षुब्ध होकर मरना कम है.जबकि वास्तविक स्थितियाँ इतनी ही नहीं है राज्य मानवाधिकार की रिपोर्ट के मुताबिक ३०-५० मानवाधिकार हनन की घटनाएं सामने आती है या दर्ज होती हैं. परन्तु इतनी घटनाएं दर्ज होने के बावजूद भी राष्ट्रीय मानवाधिकार ने इस राज्य को अनदेखा करने का प्रयास किया है और अभी तक कोई भी बैठक इस राज्य में नहीं की. राज्य मानवाधिकार को एक सीमित धन ही उपलब्ध कराया जाता है.जबकि वहीं दूसरी तरफ सेना के खर्चे में हर वर्ष बढो़त्तरी की जा रही है. इस अमानवीय कानून को लेकर अब तक न जाने कितने विरोध प्रदर्सन हो चुके हैं, मणिपुर के लोग कितनी बार सड़कों पर उतर चुके हैं. इरोम शर्मीला द्वारा २ न. २००४ से लगातार ४ वर्षों की भूख हड़ताल जारी है. पर सरकार ने अभी तक चन्द जाच कमेटियाँ बनाने के सिवा कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. मनोरमा मामले को लेकर गठित की गयी सी. उपेन्द्र आयोग की १०२ पृष्ठ की रिपोर्ट २२ दिसम्बर २००४ को आयी पर अभी तक उसको गुप्त रखा गया है उसका प्रकाशन तक नही किया गया. यद्यपि आफ्सपा को इंफाल के ७ मुनिस्पल क्षेत्रों यानि ३२ वर्ग कि.मी. से हटाया गया है परन्तु हत्या का शिलसिला यहाँ भी कम नहीं हुआ है आर्मी यहाँ से लोगों को पकड़ती है और उस क्षेत्र से बाहर लेजाकर उनको गोली मार्ती है. इन स्थितियों के बीच वहाँ के स्कूलों की स्थिति ये है कि ३६५ दिन में औसतन १०० दिन या उससे कम भी चल पाते हैं कारण वश वहाँ के छात्रों का लगातार पलायन जारी है और २०,००० से अधिक छात्र राज्य से बाहर जाकर पढ़ रहे हैं. स्कूली बच्चों ने राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली किताबों को राज्यपाल को वापस कर दिया है. इन स्थितियों के बीच सरकार को चाहिये कि वह कोइ उचित कदम उठाये और गैर लोकतांत्रिक कानून को वापस ले.
चीन के बारे में क्या खयाल है? कम्युनिस्ट होकर लोकतन्त्र की बात करना क्या बेइमानी नहीं है?
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