30 जुलाई 2008

समाजवाद का भविष्य-2

वास्तव में , आज हमें अपने इतिहास का बचाव या उस पर पुनः दावा करना, सोवियत संघ में जो कुछ हुआ उसके मूल्यांकन करना हमारे लिये अपने आप में एक क्रांतिकारी प्रोजेक्ट है.
अपने अतीत से हमें हमेशा ही एक दुःखदायी पाठ सीखना चाहिये. वास्तविकता का सामना करना तथा वाम की जरूरी राजनीति और संस्कृति का पुनर्निर्माण करना अतंत आवश्यक है लेकिन इस बारे में बेहतर संतुलन होना भी बराबर जरूरी है.दूसरे शब्दों में यह जानने की भी जरूरत है यह अतीत पूरी तरह से दुःखभरी विरासत नही है.हमें इस मूल्यांकन या आत्मपरीक्षण में नहाने की कठौती से बच्चे को ही बाहर नहीं फेंक देना चाहिये.
सोवियत संघ के अनुभवों का मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन, इतिहास में समाजवाद तथा इसके साथ जुडे़ हुये संपूर्ण कम्युनिस्ट आंदोलन, भले ही इसके द्वारा नेतृत्व अथवा पथप्रदर्शन किया गया हो, के प्रथम प्रयोग के असफलता की पराकाष्ठा स्वभावतः सभी जगह के समाजवादियों के लिये महत्वपूर्ण है, चाहे वह उत्तर हो या दक्षिण. लेकिन विशेषकर जिन्हें इन अनुभवों के अध्यायों से सीखने की जरूरत है वे हैं नेता तथा इससे भी ज्यादा कम्युनिस्ट पार्टियों के जुझारू कैडर, जिनके लिये सोवियत संघ संदर्भ तथा पहचान का निर्णायक बिंदु था तथा जहाँ बाद के समय में कई विभेद पैदा हो गये थे.पश्चिम में , मार्क्सवाद में ही सोवियत संघ के विघटन तथा इससे जुडी़ समस्याओं के जवाब तलाशने की अनिच्छुक और अक्षम इन अधिकतर पार्टियों ने साधारणतया समाजवादी प्रोजेक्‍ट का परित्याग कर सामजिक जनवादी रास्ता पकड़ लिया है. अन्य जगहों, विशेषकर तीसरे देशों में हलाँकि औपचारिक कम्युनिस्ट बचे रहे लेकिन जो कुछ भी घटित हुआ उससे भ्रमित तथा विमुख होकर रह गये, आधिकारिक मार्क्सवाद की रूढि़यों का उन्मूलन करने में अक्षम रहे. इन सब का आरोप ख्रुश्चेवी संशोधनवाद, गोर्बाचोव के विश्‍वासघात अथवा अमरीकी साम्राज्यवाद तथा सीआईए की गुप्त कार्ययोजनाओं पर मढ़ते रहे. यहां तक कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट संरचनायें, अथवा चीनी प्रतिरूप के पुराने ढर्रों पर चलने वाले लोग भी कमोबेश इसी सरलीकृत तथा छिछली समझ से परे जाने में असफल रहे.
जब तक समाजवाद के विध्वंस तथा इसके संकट को समझा नहीं जाता तथा इस समझ को पूरे सवालों पर पुनर्विचार के लिये नहीं लागू किया जाता, आंदोलन में अतिवामपंथी तथा लंबे समय से मौजूद सुधारवादी ताकतों को वास्तविक रचनात्मक मार्क्सवाद से बदाने का कोई मौका नहीं है. अतीत में मौजूद गतिकी के कारण यह कम्युनिस्ट पार्टियाँ बची रहेंगी लेकिन पुराने नेताओं एवं पहले के संघर्ष व उपलब्धियों से प्राप्त विश्‍वसनीयता के खत्म होते जाने तथा नयी क्रांतिकारी भर्तियों की असफलता से वह सिर्फ़ अवरुद्ध होकर रह जायेंगी अथवा अर्थवादी अभ्यासों के सहारे चलकर चुनावी सुधार तथा यहाँ तक कि वर्तमान पूँजीवादी वैश्‍वीकरण के साथ सामंजस्य करके लगातार नीचे गिरती जायेंगी. मार्क्सवादी लेनिनवादी या माओवादी शक्तियाँ अपनी क्रांतिकारी प्रतिबद्धताओं का निर्वहन करते हुये भी सीमित क्षेत्र में एक दूसरे से लड़ते झगड़ते तथा अलग थलग पड़ते हुये संकुचित आंदोलन के रूप मे रही आयेंगी. कम्युनिस्ट नाम के बावजूद यह पार्टियां तथा संरचनायें पुनः मजबूत होने तथा समाजवाद के लिये एक प्रभावी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने का मौका गँवा रही हैं.
तीसरी दुनिया के समाजवादियों, जो अपने आप को कम्युनिस्ट कहते हैं उन्हें मिलाकर, के लिए सोवियत अनुभव निरपवाद रूप से अतिरिक्‍त महत्व रखता है. क्लासिकल मार्क्सवाद, उन्नत पूँजीवादी देशों तथा अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर समाजवाद के निर्माण के संदर्भ सहित, कुछ सामान्य सिद्धांतों को छोड़कर कम-अधिक रूसी बोल्शेविकों के संपूर्ण बगैर घोषित सीमा क्षेत्रों, अर्थात अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्वशाली पूँजीवाद के सबसे उन्नत देशों के निरंतर शत्रुतापूर्ण रुख के बीच किसी पिछडे़ देश में समाजवाद के लिये संघर्ष, में अप्रत्याशित स्थापना यात्रा जैसा ही है.वहाँ कुछ अग्रणी प्रयास हुये. अतः वस्तुगत परिस्थितियों की ताकतें, इस अभूतपूर्व कार्यभार के के लिये सिद्धांत तथा व्यवहार की अपर्याप्तताओं के साथ इसके पतन के कारणों सहित सोवियत अनुभव, रूस तथा अन्य गरीब और पिछडे़ देशों के क्रांतिकारियों को अमूल्य सबक सिखाते हैं. विशेष तौर पर इस नवीन वैश्विक पूँजीवाद के प्रभुत्व के दौर में एक बेहतर, जरूरी समाजवाद के लिये तथा खुद के निर्माण के लिये भी...........
भूतपूर्व सोवियत संघ में जो कुछ भी हुआ वह, मार्क्स के तर्कों के आधार पर, पूँजीवादी सामाजिक ढाँचे के समाजवादी नकार की संभाव्यता तथा जरूरत के लिए किसी भी रूप में अवैधानिक नही है। और अब समाजवाद लिये संघर्ष सिर्फ़ पहले से कहीं ज्यादा कठिन और जटिल दिशा की ओर मुड़ गया है. समाजवादी शायद इस भ्रम में कभी नहीं रहे कि समाजवाद के लिये होने वाला संघर्ष सरल अथवा तुरंत सफल हो जाने वाले अभियान की तरह है. पहली असफलता के बाद अब यह पहले से कहीं बहुत अधिक कठिन होगा, अगली बार समाजवाद को लंबा चक्करदार रास्ता तय करना होगा. लेकिन इस संदर्भ में निराशा महसूस करने का कोई कारण नही है. पिछले कुछ वर्षों की तुलना मे भौतिक परिस्थितियाँ आज ज्यादा उपयुक्‍त तथा आत्मगत ज़रूरत/दबाव अधिक मजबूत हैं. और समाजवादी उद्देश्यों का प्रभाव क्षेत्र तभी बढ़ सकता है जबकि पूँजीवाद की, खुद से उत्पन्न संकटों का समाधान करने की, असमर्थता बढ़ती जायेगी.......!
जारी.....

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