17 सितंबर 2008

समाज नहीं जुडेगा तो शिक्षा किसी काम की नहीं

शिक्षा की वर्तमान दशा दिशा व खासतौर से विदर्भ में पुलिस प्रशासन द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में की जा रही दख़लंदाजी को ध्यान में रखते हुए दखल भित्ति पत्रिका का अंक शिक्षा पर केन्द्रित था जिसकी सामाग्री को विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व इंटरनेट से चुना गया था. पत्रिका के इस अंक को सुविधा के लिये हम एक-एक आलेख के रूप में प्रकाशित कर रहे है.
शिक्षा सेवा एक महत्वपूर्ण धंधे के रूप में उभरी है. उच्च शिक्षा एवं प्रशिक्षण के लिए विदेश में जाकर पढने की प्रक्रिया तेज हो गयी है. २००५-०८ के विश्र्व बैंक के रिपोर्ट के अनुरूप यहां शिक्षा की नियमावली में संशोधन हुए और नये-नये कानून बनाये जा रहे हैं. विश्र्व बैंक के नॉलेज बैंक की अवधारणा के अनुरूप विद्यालय से लेकर विश्र्वविद्यालय तक शैक्षिक कार्यक्रम शुरू हैं. इससे शिक्षा के सामाजिक मूल्य की जगह उपयोग एवं इस्तेमाल का पक्ष महत्वपूर्ण बन गया. इस कारण शिक्षा में बाजारू मूल्य का विस्तार हुआ है. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक खरीद-फरोख्त का काम शुरू हो गयी है. शिक्षा की निजी दुकानों की होड मची हुई है. इसमें डोनेशन की अवधारणा को सेवा शुल्क के तर्ज पर प्रस्तुत किया जा रहा है. अक्षय कुमारशिक्षा महज अक्षर एवं अंक ज्ञान या तकनीकी शिक्षण, प्रशिक्षण या सूचनाओं का हस्तांतरण नहीं, बल्कि मानव का निर्माण करनेवाली एक सामाजिक प्रक्रिया है. इसलिए शिक्षा व्यवस्था की बंदोबस्त के लिए सामाजिक सरोकार अनिवार्य हैं, परंतु स्कूली पाठ्य पुस्तकों एवं शिक्षण व्यवस्था को जन सरोकार से अलग भुलावे में रखने की कोशिश हो रही है. व्यवस्थित शैक्षिक कार्यक्रम के माध्यम से शिक्षा के बुनियादी मूल्यों को हर स्तर पर बदलने का काम एकतरफा चल रहा है. इससे शिक्षा के लिए समान अवसर का परिप्रेक्ष्य धूमिल हो गया है. इसलिए समान शिक्षा प्रणाली के कामों को अलग-अलग कर लागू किया जा रहा है, जबकि समान शिक्षा प्रणाली का काम टुकडों में नहीं किया जा सकता है. सबके लिए शिक्षा अभियान के जारी कार्यक्रमों से हर क्षेत्र में द्वंद्व पैदा हुए हैं, क्योंकि इसमें शैक्षिक कार्यक्रमों और समान शिक्षा की व्यवस्था के बीच अन्योन्याश्रय संबंध के छद्म का बोध हो रहा है, लेकिन इसकी रूपरेखा रहस्यपूर्ण बनी हुई है. इसलिए शिक्षा व्यवस्था के गोपनीय विषय को हम नहीं समझ पा रहे हैं. इस कारण शैक्षिक कार्यक्रम के प्रयोजन और परिणाम के संदर्भ में व्यवधान पैदा हो गया है.शिक्षा के लिए समान अवसर का प्रयोजन समानता, सद्भाव एवं सामाजिक न्याय के संवैधानिक संकल्प की स्थापना करना है. इसलिए समाज में मानवीय मूल्य का विकास करना इस अवधारणा का मूलभूत परिणाम है. लेकिन शिक्षा की बात करनेवाले अर्थवादी हो गये हैं. इस कारण निर्धारित प्रयोजन को वे नजरअंदाज कर रहे हैं. इससे सोचने एवं काम करने की कार्यपद्धति यांत्रिक हो गयी है और प्रयोजन के अनुरूप परिणाम नहीं निकल रहे हैं. सबके लिए शिक्षा कार्यक्रम का प्रयोजन सबको साक्षर बनाना है और जीविकोपार्जन के लिए अक्षर एवं अंक की पहचान करना है. इसलिए सबके लिए शिक्षा के कार्यक्रमों में सामाजिक-आर्थिक अवस्था एवं हैसियत के अनुरूप शिक्षा से जुडने का प्रयोजन तय है. इसलिए साक्षरता के औसत में वृद्धि इसका परिणाम है. व्यावसायिक प्रशिक्षण के आधार पर व्यक्तिगत जीवन को संवारना है. सबके लिए शिक्षा का प्रयोजन अब बाजार के लिए मानव संसाधन तैयार करना है. इसके परिणामस्वरूप तर्कहीन, आज्ञाकारी, अनुशासित सेवक बनाने की शैक्षिक कार्रवाई अनेक रूपों में निरंतर चल रही है. इसमें रोजगार के अवसर की बातें आदर्शवादी ढंग से की जाती हैं. शिक्षा व्यवस्था के ये अलग-अलग रास्ते हैं. दोनों के प्रयोजन और परिणाम के पहलू भिन्न-भिन्न हैं. फिर भी इन दोनों के बीच घालमेल की स्थिति बन गयी है. इसलिए नामांकन आदि के मिथ्या वर्णन द्वारा व्यवस्था के पक्ष में तार्किक आधार गढा जा रहा है. इससे अवधारणात्मक भटकाव की स्थिति पैदा हो गयी है. जारी...........



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