06 जून 2013

जनता होशियार : हमारे संसदीय राजा आखेट पर निकले हैं


सुष्मिता

एक सवाल-एक बात: 4                                                

फोटो- दख़ल की दुनिया.
माओवादियों के द्वारा छत्तीसगढ़ में 25 मई को हुई कार्रवाई के बाद कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार बहस का विषय बने हुए हैं. इन्हीं सवालों पर बहस के लिए 'एक सवाल-एक बात' शीर्षक से कुछ कड़िया प्रस्तुत की जा रही हैं. बहस के लिए आप अपने सवाल और अपनी बात dakhalkiduniya@gmail.com पर भेज सकते हैं. सुष्मिता ने यह आलेख ग्रीनहंट के शुरुआती समय में लिखा था जिसे दखल की दुनिया ने एक बुकलेट के रूप में प्रकाशित किया था. बहस में इसकी सार्थकता को देखते हुए इसे यहाँ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है. 


सामंती युग में राजा-महाराजा जंगलों में शिकार खेलने जाते थे। वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे. अब समय बदल गया है. इसलिए अब राजा का शौक भी बदल गया है. अब तो जंगली जानवर बचाए रखने की चीज बन गए हैं. इसलिए अब जंगलों में रहने वाले आदिवासियों का शिकार होगा. राजा अपने शागिर्दों के साथ नए शिकार पर जाने की तैयारी कर रहा है. टीवी चैनलों पर युद्ध के धुन बजने लगे हैं. यहां तक कि चैनलों ने ‘लाइन ऑफ़ कंट्रोल’ की घोषणा भी कर दी है। इसका नाम दिया गया है ‘आपरेशन ग्रीन हंट’। गृह मंत्रालय ने देश की सबसे गरीब जनता पर युद्ध की घोषणा कर दी है। यह हमला नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर किया जानेवाला है. हालांकि नक्सलवाद के बारे में पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटिल के विचार थोड़े अलग थे. उनका मानना था कि नक्सलवाद देश के लिए उतना बड़ा खतरा नही है जितना बढ़ा-चढ़ाकर इसे दिखाया जाता है. महज एक साल में इतना बड़ा क्या बदलाव हो गया? मुंबई हमले के बाद चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया और रातों-रात पूरा परिदृश्य बदल गया. अब नक्सलवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा बन गए.
चिदंबरम के इस दृष्टिकोण के पीछे चिदंबरम की व्यावसायिक पृष्ठभूमि भी है। चिदंबरम देश की सबसे बड़ी कारपोरेट धोखाधड़ी करनेवाली कंपनी एनरान के वकील थे। इसके बाद वे पर्यावरण नियमों की अनदेखी करने के लिए कुख्यात दुनिया की सबसे बड़ी खदान कंपनी ‘वेदान्ता’ के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के सदस्य रहे। वितमंत्री बनने से पहले उन्होंने अपने इस पद से इस्तीफा दे दिया. इनकी व्यावसायिक पृष्ठभूमि को समझने के बाद चिदंबरम की चिंता को समझना आसान हो जाता है. लेकिन इसके बावजूद चिदंबरम के दावों को समझना जरूरी है. क्या वास्तव में माओवादी देश की विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं? क्या माओवादियों को खत्म करने से विकास का रास्ता पशस्त हो जाएगा? क्या इन सैनिक हमलों से माओवादियों का खात्मा हो जाएगा?

‘आपरेशन ग्रीन हंट’ और प्रतिरोध
आपरेशन ग्रीन हंट जनता के खिलाफ एक सरकारी बर्बर युद्ध है जिसे तीन चरणों में चलाया जाना है. सबसे पहले छतीसगढ़-आंध्रप्रदेश-उड़ीसा के सीमावर्ती इलाके से इसकी शुरुआत होनी है. इस आपरेशन में स्थानीय बलों के अलावा लगभग एक लाख अर्द्धसैनिक बलों को लगाया जाना है. इस काम में अमरीकी अधिकारी भी लगे हुए हैं. सरकार का कहना है कि आदिवासी इलाकों का विकास इसलिए नहीं हो पाया है चूंकि इनपर माओवादी काबिज हैं. इसलिए जरूरी है विकास के लिए सबसे पहले इन इलाकों को खाली कराया जाए. लेकिन यह सच्चाई से कोसों दूर है. यदि सच में माओवादी इन इलाकों के विकास में बाधा हैं तो फिर सरकार उन इलाकों का विकास क्यों नहीं करती जहां माओवादी नहीं हैं? सरकार के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो देश के 604 में से महज 182 जिले माओवादियों के प्रभाव में हैं. सरकार बाकी के जिलों का विकास क्यों नहीं करती? इन इलाकों में भी माओवादी लगभग 25 सालों से ही हैं इससे पहले सरकार को इसकी विकास की चिंता क्यों नहीं थी. राजस्थान, यूपी अब भी बुरी तरह पिछडे हुए है। सरकार इसको विकास का माडल क्यों नहीं बनाती?
लेकिन सच्चाई तो कुछ और ही है। सरकार ने झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और छतीसगढ़ के तमाम पहाड़ और जंगलों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर दिया है. 2008 के मध्य तक पहाड़ों और खदानों से संबंधित उड़ीसा में 65 एमओयू, झारखंड में 42 एमओयू और छतीसगढ़ में 80 एमओयू बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ किए गए हैं. आदिवासी जनता के पैरों तले बड़ी मात्र में बहुमुल्य खनिज हैं. छतीसगढ़ में एक तरफ सरकार ने 2005 में एमओयू किया तो दूसरी तरफ उसके अगले ही दिन कांग्रेस के नेतृत्व में सलवा जुडुम की घोषणा हुई. यह एक सरकारी बर्बर गिरोह है जो वियतनाम में अमरीका द्वारा गठित खुनी गैंगों की तर्ज़ पर बनाया गया है. केन्द्र सरकार के ग्रामीण विकास विभाग द्वारा जनवरी, 2008 में गठित 15 सदस्यीय समिति की रिपोर्ट (स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस एंड अनफिनिशड टास्क ऑफ़ लैंड रिफार्म ) का सलवा जुडुम के बारे में कहना है कि, ‘‘खुले रूप से इस घोषित युद्ध का अंत अब तक के सबसे बड़ी जमीन हड़प में होगा...टाटा और एस्सार स्टील भारत में उपलब्ध सबसे बेहतर लौह अयस्क की खदान के लिए सात या इससे अधिक गांवों को लेना चाहते थे. आदिवासियों के प्रारंभिक प्रतिरोध के बाद सरकार ने अपनी योजना वापस ले ली. एक नया दृष्टिकोण जरुरी था. यह सलवा जुडुम के साथ सामने आया जो मुरियाओं द्वारा गठित था, इनमें से कुछ पहले माओवादियों के ही कार्यकर्ता थे. इसके पीछे व्यापारी, ठेकेदार, और खदान वाले लोग थे. सलवा जुडुम को धन उपलब्ध करानेवालों में टाटा और एस्सार प्रथम थे. 640 गाँव सूने हो गए. इनको जला दिया गया और सत्ता की मदद से बंदुक की नोंक पर खाली कराया गया. दंतेवाड़ा की कुल जनसंख्या का लगभग आधा साढ़े तीन लाख लोग विस्थापित हो गए. उनकी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. उनकी बेटियों को मार दिया गया और नवयुवकों को अपंग बना दिया गया. जो जंगल में नहीं भाग सके उन्हें सलवा जुडुम द्वारा संचालित शिविरों में ले जाया गया. ताजा जानकारी के अनुसार इन खाली किए गए 640 गांवों को टाटा और एस्सार लेने के लिए तैयार है.’’
इससे साबित हो जाता है कि इन इलाकों को खाली करवा कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप दिया जाना है. सरकार का कहना है कि विकास का यही रास्ता है.
दरअसल यह कम तीव्रतावाले युद्धों की साम्राज्यवादी रणनीति का एक हिस्सा है। इसका इस्तेमाल मुलतः वियतनाम युद्ध के दौरान किया गया था. साम्राज्यवादियों ने संघर्ष के इलाकों में वहीं के लोगों को लेकर अपने तंत्र खड़े किए और इसका इस्तेमाल अपने युद्धों के लिए किया. इसने सत्ता के पक्ष में एक हिस्से को गोलबंद करने की कोशिश भी की. इसी अनुभव का इस्तेमाल आज भारत में हो रहा है. सरकार द्वारा छतीसगढ़ में सलवा जुडुम, झारखंड में नासुस, आंध्रप्रदेश में कई विजलैंट गैंग, असम में सुल्फा, प बंगाल में हर्मद वाहिनी इत्यादि इसके कुछ उदाहरण हैं. इन गिरोहों का काम मुलतः संघर्षरत जनता पर दमन ढाना होता है. यह वितीय पूंजी के पक्ष में एक जनमत का भी निर्माण करता है. नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ संघर्षरत जनता, उड़ीसा में पोस्को के खिलाफ संघर्षरत जनता के खिलाफ इसने जनगोलबंदी के साथ-साथ हमला भी किया. हमें यह समझना चाहिए कि साम्राज्यवाद अपने हमलों में उस देश के पूंजीपति वर्गों को भी शामिल करता है. वियतनाम पर अमरीकी हमले के समय वहां के तमाम बड़े पूंजीपति अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ खड़े थे. इसको समझे बगैर जनसंघर्ष को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता. इस तरह आॅपरेशन ग्रीन हंट साम्राज्यवादियों के पक्ष में जनता के खिलाफ छेड़ी जानेवाली युद्ध है.
कई लोग मानवीय और आम नागरिकों के नुकसान होने के तर्क पर इस हमले का विरोध कर रहे हैं. इनका कहना है कि इस लडाई के बीच में आदिवासी फंस गए हैं. इनका कहना है कि माओवादियों के निचली कतार के लोग भी तो गरीबी के कारण ही इस लड़ाई में हैं. यह समझ देश के मध्य वर्ग के चरित्र को ही सामने रखता है. यह वर्ग सोचता है कि कोई गरीब कैसे राजनीतिक लक्ष्यों के लिए लड़ सकता है. यह मध्य वर्ग का एक पारंपरिक चरित्र है और वह गरीबों को ऐसे ही देखते आया है. यह वर्ग यह नहीं समझ पाता कि इन गरीबों के लिए मध्य वर्ग के तरह स्कूल नहीं हैं बल्कि गरीबों के राजनीतिक प्रशिक्षण का केन्द्र संघर्ष ही है. इन गरीबों ने अपनी राजनीतिक ताकत दिखा दी है. लालगढ़ ने भी गरीब जनता के राजनीतिक चेतना को सामने रख दिया है. सच तो यह है कि इन गरीबों की जगह देश के मध्य वर्ग और संसदीय वामपंथियों की लड़ाई आजिविका के लिए है और अब यह राजनीतिक लक्ष्यों को काफी पीछे छोड़ आया है. कुछ लोगों की आलोचना है कि माओवादी महज स्थानीय मुद्दों में ही उलझे रहते हैं और उनका राष्ट्रीय राजनीति में कोई हस्तक्षेप नहीं होता. दरअसल ये लोग स्थानीय संघर्षों के राजनीतिक अंतर्वस्तु को समझ नहीं पाते तथा संसद के अंदर के बहसों को ही मूल संघर्ष समझते हैं. वे एक जमींदार और पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के बीच के संबंधों को ठीक से नहीं समझ पाते. वे इन ग्रामीण लड़ाइयों के शहरों के साथ के संबंधों को नहीं समझ पाते. नीचे से उपर तक सरकारी मशीनरी शासक वर्गों के इशारे पर ही काम करती है, यह है सामंतों, दलाल पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों का वर्ग. साम्राज्यवाद इन स्थानीय दलालों के जरिए ही शोषण चलाता है. इसके लिए वह स्थानीय संरचनाएं भी खड़ा करता है और ये साम्राज्यवादी शोषण के एक औजार बन जाते हैं. यदि चुपचाप लूट को बर्दाश्त किया जाए तो ये कुछ नहीं करते लेकिन जैसे ही इनकी आमदनी के हजारवें हिस्से पर भी चोट होता है तो ये बौखला जाते हैं. जैसा कि मार्क्स ने चर्च के बारे में कहा था कि इनको लाख गालियां दो ये कुछ नहीं कहेंगे लेकिन जैसे ही इनकी आमदनी के हजारवें हिस्से पर भी चोट होगा तो ये बौखला जाएंगे. अपने मुनाफे पर चोट से यह वर्ग बौखला गया है. इस तरह इन तमाम स्थानीय लड़ाइयों की राष्ट्रीय राजनीति में एक भूमिका है. यह भूमिका आज देश की जनता के सामने है कि किस तरह आदिवासियों के विस्थापन और साम्राज्यवादी लूट को मुद्दे के रुप में इन स्थानीय लड़ाइयों ने ही सामने लाया न कि संसद ने.
आज नक्सलवादियों को ‘अराजकतावादी’ और ‘आतंकवादी’ कहा जा रहा है. इस काम में वाम से दक्षिण तक काफी मुस्तैदी से जुटे हैं. लेकिन सच तो यह है कि 1970 में अपनी पार्टी के लाइन की तुलना में आज ये काफी उदार हुए हैं. उस समय सीपीआइ(एमएल) ने सफाया को संघर्ष के एकमात्र स्वरूप के रूप में स्वीकार किया था. इसके अलावा जनसंगठन और जनसंघर्ष को संशोधनवाद माना जाता था. माओवादियों ने इसमें कार्यनीतिक गलती की बात कहते हुए इसमें सुधार किया और सफाया को महज एक संघर्ष का स्वरुप तथा जनसंगठन-जनसंघर्ष को क्रांति के एक अभिन्न हिस्से के रुप में स्वीकार कर अपनी गलती सुधारी लेकिन पार्टी की बुनियादी रणनीति से दृढ़ता पर डटे रहे. सशस्त्र संघर्ष के मसले में बदलाव बस इतना हुआ कि 1970 में पार्टी के पास सशस्त्र संघर्ष की एक ठोस दिशा थी लेकिन व्यवहार में इसे और ठोस होना था. माओवादियों ने उस ठोस दिशा पर कायम रहते हुए व्यवहार में इसे ठोस किया. हालांकि इन्होने भी काफी बाद में किया जब इन्हे आंध्रप्रदेश में भारी नुकसान उठाना पड़ा. शांतिपूर्ण संघर्ष का स्वाद तो खुद माओवादियों को भी चखना पड़ा. 2004 में वार्ता के दौर में इन्होने 10-15 लाख लोगों तक की रैलियां की. इसके जरिए इन्होने अपने जनाधार और जनसमर्थन के बारे में उठने वाले तमाम सवालों का करारा जबाब दिया. लेकिन इसके बाद भारी पैमाने पर इनके कार्यकर्ताओं की हत्या की गई और अंततः उन्हे आंध्रप्रदेश से पीछे हटना पड़ा. क्या किसी भी संघर्ष का राजनीतिक चरित्र केवल इसलिए खत्म हो जाता है चूंकि वह हथियारबंद संघर्ष में विश्वास करती है? हथियारबंद संघर्ष तो महज संघर्ष का एक पहलु है. अगर माओवादी संघर्ष को केवल सैनिक रुप से देखते तो इस विशाल सेना के सामने कबका झुक गए होते. इसके बजाए उनका जनता की ताकत में विश्वास है. इसीलिए उन्होने इस हमले को व्यापक जनगोलबंदी और सैनिक प्रतिरोध के बदौलत हराने की बात कही है. सच तो यह है कि आदिवासियों का मसला इसिलिए एजेंडे में आया है. चूंकि उनके एक हाथ में राजनीति तो दुसरे में हथियार है. नर्मदा के विस्थापितों का दर्द कौन सुनने गया? हाल का विस्थापन पहला नहीं है बल्कि इससे पहले भी विस्थापन हुए हैं.
विकास या लूट और जमीन हरण
पूंजीवादी विकास बिना हिंसा के रास्ता पकड़े आगे नहीं बढ़ सकता. यदि ऐतिहासिक तथ्यों पर नजर डाली जाए तो यह सरकार भी वही कर रही है जो पहले इंगलैंड, अमरीका, लैटिन अमरीका और वियतनाम जैसे देशों में किया गया था. यह वह दौर था जब सामंतवाद को तोड़कर पूंजीवाद खड़ा हो रहा था. 16 वीं शताब्दी के शुरू में इंगलैंड में भी सामंतों ने सामुहिक भूमि से किसानों को खदेड़कर उनकी जमीनों को भेड़ों के बाड़े में बदल दिया था. हालांकि इस सामूहिक जमीन पर किसानों का भी उतना ही अधिकार था जितना सामंतों का. इसके बावजूद इन किसानों को भारी हिंसा के जरिए उन जमीनों से उजाड़ दिया गया. जमींदारों ने एक नारा दिया था कि खेती की जमीनों को भेड़ों के बाड़े में बदल डालो. इस काम को उस दौर में बढ़ते ऊन के भाव ने भी काफी गति दी. इसके अलावा इसका दूसरा फायदा यह हुआ कि पूंजीपतियों को भारी मात्रा में काफी सस्ते मजदूर मिल गए. अमरीका का इतिहास भी वहां कि आदिम प्रजाति रेड इंडियंस के भारी नरसंहार और खून से लिखी गई. वेस्टवार्ड मुवमेंट के नाम से चर्चित इस परिघटना में हम इसे देख सकते हैं. उस दौरान उन इलाकों में सोने के खदानों पर कब्जा करने के लिए भारी मात्रा में बाहरी लोग गए. रेड इंडियंस की पूरी प्रजाति को लगभग नष्ट कर दिया गया. रेड इंडियंस वहां के मूल निवासी थे. आज वहां उन्हें अजायबघरों में रखा जाता है. लैटिन अमरीका और वियतनाम में भी वहां के आदिवासियों की पूरी प्रजाति को ही खत्म कर दिया गया. भारत में भी उनके उतराधिकारी यही नरसंहार चलाना चाहते हैं. अब आदिवासियों के सामने दो ही रास्ते हैं कि या तो विकास के इस ऐतिहासिक परिघटना का हिस्सा बनें या फिर एक नई तरह की विकास का इतिहास रचें. इतिहास गढ़ने के सवाल पर पारंपरिक से लेकर वामपंथी पार्टियां कान खड़े कर लेंगी. बाड़ाबंदी आंदोलन के भारतीय उतराधिकरी कहेंगे कि कोई भी इतिहास गढ़ने कि बात अतीत हो गई. अब हमें नए तरह से सोचना चाहिए. संसद की पुजारी वामपंथी पार्टियां कहेंगी कि नरसंहार तो ठीक नहीं है लेकिन कोई शांतिपूर्ण रास्ता तलाशना होगा. हिंसक संघर्ष के बजाए सामाजिक सद्भाव से ही कुछ मिल सकता है. मतलब इनका पतन वर्ग संघर्ष से अब वर्ग सहयोग तक हो गया. कई अन्य लोग कहेंगे कि सेज के खिलाफ संघर्ष तो ठीक है लेकिन लोकतंत्र में जनवादी क्रांति की बात करना अनुचित है. इस तरह संसदीय वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी तक अपने निष्कर्ष में यही कहते हैं कि विकास की कोई नई रणनीति नहीं हो सकती. भले ही पुरानी रणनीति को ही मानवीय बनाया जा सकता है,

सच्चाई यह है कि बुर्जुआ विकास के इस रणनीति के लोकतांत्रिक बनने की कोई गुंजाइश नहीं है. लूट और नरसंहार तो इसका अंतर्निहित चरित्र है. इससे नरसंहार और जमीन के हरण को अलग नहीं किया जा सकता. इसका कारण यह है कि यह अपनी समृद्धि का इतिहास अपनी मेहनत के बल पर नहीं बल्कि जनता की बहुसंख्या के शोषण, लूट और हत्या पर लिखता है. अब तक का इतिहास तो यही रहा है. जो लोग बीच का रास्ता तलाशने की बात कहते हैं वे इस बात का जबाब नहीं देते की नर्मदा के विस्थापितों का क्या हुआ. आदिवासी इलाकों में लगे बड़े-बड़े उद्योगों का कौन सा फायदा आदिवासियों को मिला? आदिवासियों के पैरों के नीचे से निकला कोयला तो दिल्ली को चकाचैंध करता है लेकिन आदिवासी बिना दवा दारु के मर-खप जाते हैं. छतीसगढ़ से निकला लोहा जापान के स्कुटर उद्योग को चमकाता है लेकिन यहां के आदिवासी आज तक स्कुटर के बारे में नहीं जानते. तमाम आदिवासी अपने ही घरों को उजाड़ कर लगाए गए उद्योगों के बाबुओं से लेकर किरानियों तक के गुलाम बन गए. आदिवासी बेटियां दिल्ली और अन्य बड़े शहरों के रइस घरों की दासी बन गईं. खुद अपना ही घर बेगाना हो गया. जंगल पर फारेस्टर का कब्जा तो जमीन पर बड़े लुटेरे दैत्यों का कब्जा. चिदंबरम जी को समझना चाहिए की यह इक्सवीं सदी है न कि सोलहवीं सदी. आदिवासियों ने अपने पिछले संदर्भों से समझा है कि समझौते का मतलब है कि इन बाबुओं की गुलामी करो. अपनी बेटियों को इन बाबुओं के हवाले कर दो. अब यह आदिवासियों को मंजुर नहीं है. पिछले साठ सालों में पहली बार आदिवासियों का सवाल एजेंडे पर आया है. आज तक संसद में बैठे लोंगों ने बर्बादी और लूट के सिवाय क्या दिया. पुर्व जस्टीश पीबी सावंत ने दिल्ली के एक कार्यक्रम में माओवादियों को इस बात के लिए धन्यवाद दिया कि उन्होने आदिवासियों के एजेंडे को देश के सामने रख दिया है. त्रासदी यह है कि अब भी उन्हीं इलाकों की बात हो रही है जिन इलाकों में संधर्ष है, इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि यदि अविकास और शोषण के कोहरे से निकलना है तो संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है. तमाम पिछड़ी जनता के लिए यह एक सबक होगी.
बीसवीं सदी के मध्य तक इस आबादी के पास इस नरसंहार से बचने की कोई ठोस वैकल्पिक योजना नहीं थी. खासकर उन आदिवासियों के पास जिनको अबतक उनकी जमीन से बेदखल नहीं किया गया था. कार्ल मार्क्स ने 19 वीं सदी में पूंजीवादी दैत्य और लूट से मुक्ति का जनता को उपाय बताया. उन्होने मेहनतकशों को स्पष्ट कर दिया कि ब्यापक जनता की बदहाली का कारण बाबुओं और पूंजीपतियों की समृद्धि है. इससे मुक्ति के लिए मार्क्स ने समाजवादी क्रांति का हथियार मेहनतकशों के हाथों में दिया. इसके बाद लेनिन ने 20 वीं शताब्दी के शुरू में बताया के यह पूंजीवादी दैत्य अब साम्राज्यवाद में बदल गया. उन्होने यह भी बताया के यह दैत्य अब और खूनी हो गया है. यानी इसके अंदर की प्रगतिशील चिजें भी अब प्रतिगामी हो गई हैं. मुनाफे की गिरती दरों की वजह से अब इन हत्यारों के खून की प्यास और बढ़ गई थी. इस आबादी को अब और खतरा बढ़ गया था. ये तमाम आबादियां उस समय ब्रिटेन या फिर यूरोप के उपनिवेश थे. ऐसे समय में माओ-त्से-तुंग ने इस आबादी को नरसंहार से बचने का रास्ता सुझाया. उन्होने कहा कि दो ही रास्ते हैं. या तो सत्ता की चाबी अपने हाथों में लेने के लिए कुर्बानियां दो या फिर नरसंहार का दंश झेलो. लेकिन नरसंहार की तुलना में कुर्बानियां नगण्य होगी. उन्होने उस आबादी को रास्ता सुझाया जो अब भी पूर्व पूंजीवादी संबंधों के दौर से गुजर रही थी और इसक साथ-साथ कई साम्राज्यवादी देशों के शोषण का शिकार थी. उन्होनें कहा कि इसका हल एक नई तरह की जनवादी क्रांति है जो बराबरी के लिए रास्ता प्रशस्त करेगी. यह वही ऐतिहासिक कार्यभार है जिसे पूरा करने से बुर्जुआ वर्ग ने अपनी जबाबदेही खींच ली थी. लेकिन अब इस जनवादी क्रांति का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग के हाथों में होगा. इस तरह से अर्धऔपनिवेशिक शोषण के शिकार जनता के हाथों में नवजनवादी क्रांति का एक नया हथियार था. माओ ने इसे पूरा करने का ठोस रास्ता भी सुझाया. आज छतीसगढ़ से लेकर उडीसा, प बंगाल, बिहार, झारखंड की जनता इतिहास से सबक लेकर इसी लड़ाई को आगे बढ़ा रही है. अब वह समझती है कि कोई भी सम्मानजनक समझौता इस व्यवस्था में संभव नहीं है. इसलिए किसी नए विकल्प और नए रास्ते की ही जरुरत है. एक अध्ययन के अनुसार उड़ीसा में मौजूद बाक्साइट की कीमत 2004 की कीमत पर 2270 अरब डालर है. यह रकम भारत के सकल घरेलु उत्पाद से दोगुनी है. वर्तमान में इसकी कीमत 4000 अरब डालर के करीब होगी. इसमें सरकार को आधिकारिक रुप से महज सात फीसदी रायल्टी मिलेगी. इसके अलावा झारखंड, छतीसगढ़ में लगभग 4000 अरब डालर से अधिक की अकूत खनिज अलग है. यह विकास है या फिर लूट इसका अंदाजा हम इसी से लगा सकते हैं.

हिंसा का सवाल
अब फिर हिंसा का सवाल सामने आ जाता है. लेकिन इतिहास साक्षी है कि ऐतिहासिक रुप से हिंसा की जिम्मेवारी तथाकथित समृद्धि का तानाबाना रचने वाले नरसंहारियों पर है न कि आदिवासी और मेहनतकश जनता पर. आज समूचे देश के सामने यह सवाल यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा है कि आप किसकी हिंसा कि आलोचना करेंगे रोमन साम्राज्य के हत्यारों की या फिर स्पार्टकस के नेतृत्व में विद्रोह करने वाले गुलामों की. जाहिर तौर पर स्पर्ताकास के विद्रोह में हिसा और बर्बादी हुई. यदि कभी हिंसा का इतिहास लिखा गया तो यही बात सामने आएगी कि दुनिया कि समूची हिंसा में प्रतिरोध की ताकतों की हिस्सेदारी न के बराबर है. हिंसा का सहारा तो सबसे पहले सत्ता में बैठे वर्गों ने लिया. कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट की लड़ाई में खून की नदी बह गई. इस्लाम का उदय तो युद्ध करते हुए ही हुआ. एक अध्ययन बताता है कि सर्वाधिक भयंकर और युद्ध का अभिशाप और ‘गौरव’ 20वीं सदी को ही है. इस सदी के केवल 25 वर्षों में जितनी हत्यायें की गई है, अतीत में किसी एक सदी में भी नहीं हुई है. इस हिंसा कि वजह मुनाफे और वर्चस्व की लड़ाई थी. भारत में तो हिंसा की पूरी संस्कृति ही रही है. रामायण और महाभारत की कहानियां हिंसा और खून से लथपथ है. भारत में बौद्धों को भारी पैमाने पर हिंसा के जरिए शंकराचार्य के चेलों ने नष्ट किया. अबतक जनता मालिकों के लिए अपना जान गंवाती रही है लेकिन अब वह अपने बेटे-बेटियों के लिए लड़ रही है. यह बात जरुर नई है.

दरअसल शासकों को हिंसा शब्द से आपति होती है. शासकीय भाषा में इसी हिंसा को शक्तिपूजा, बल की साधना, आत्मरक्षा, देश की सुरक्षा आदि कहा जाता है. इतिहास में इस बात के कहीं भी प्रमाण नहीं हैं कि कोई भी राजा बगैर हथियारों के सत्ता में कायम रहा हो. जिस वर्ग के हाथ में सत्ता रहा है उस वर्ग के हाथ में हथियार भी रहे है. राष्ट्रीयता के संघर्ष वाले इलाकों को खून के समंदर में डुबो दिया गया है. अकेले काश्मीर में पिछले 20 सालों में 70,000 जानें गई हैं. इनमें दसियों हजार लोगों का टार्चर किया गया, महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, हजारों लोग लापता हो गए. समूचा उतर-पूर्व सरकारी हिंसा और आतंक का रंगमंच बना हुआ है. महज दो महीने पहले मणिपुर में एक निहत्थे युवक को सरेआम गोली मारकर मुठभेड़ बता दिया गया. तहलका ने जब इस हत्या कि सिलसिलेवार तस्वीर छापी तो इसपर एक जांच की घोषणा हो गई. आंध्रप्रदेश में ही पिछले एक दशकों में सैंकड़ों छात्रों सहित लगभग चार हजार युवकों की हत्या कर दी गई. गुजरात के दंगों में ही लगभग दो हजार मुस्लिमों को मार दिया गया. इन लोगों का हत्यारा कौन है? कौन इन होनहार बेटों को लील रहा है. संघर्ष के इलाके ऐसे इलाके में तब्दील हो गए हैं जहां बेटियां लापता हो जाती हैं और फिर उनकी नंगी लाशें बरामद होती है. मायें अपने बेटों का उम्र भर इंतजार करती है लेकिन पूरी उम्र इंतजार खत्म नहीं होती. बहनों को अपने भाइयों की कोई खबर नहीं मिलती. 1970 के दशक में पूरा प बंगाल नवयुवकों के खून से लथपथ हो गया. पिछले एक दशक में बर्ज में डुबने के कारण 1,80,000 किसानों ने अपनी जान दे दी. कौन है इन सबका हत्यारा? इन बेटे-बेटियों का जुर्म बस इतना था कि ये यथास्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. यदि हिंसा के सवाल का हल ढूंढ़ना है तो इनके हत्यारों को ढूंढ़ना होगा. कितनी अजीब बात है कि सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करनेवाले देश में जन हत्या खुद एक सत्तापोषित राजनीति है. जनता ने तो व्यवहार से ही सीखा है कि यदि संघर्ष को एक मुकाम पर पहुंचाना है तो खूद को सशक्त करना होगा और शासक वर्गों के हथियार पर एकाधिकार को तोड़ना होगा. कौन अपनी सुख-शांति नीलाम कर देना चाहता है. हिंसा तो सत्ताओं का प्रिय शगल रहा है. सत्ता में बैठे लोग और धनाढ्य लोग रोमन साम्राज्य के थियेटरों में रंगमंच पर हत्या और महिला-पुरुष संबंधों की वास्तविक दृश्यों का लुत्फ उठाते थे. इसके बाद साम्राज्यवादियों ने विश्वयुद्धों में इस हत्या का लुत्फ उठाया. हिरोशिमा-नागासाकी के हत्यारो और हिटलर ने फिर इनकी विरासत को आगे बढ़ाया. इस तरह हिंसा और हत्या की पूरी जबाबदेही भी इन सत्ताओं के माथे है न कि संघर्षरत जनता के माथे. जनता ने तो इस हिंसा से मुक्ति के लिए प्रतिरोध शुरु किया चूंकि इनके पास इसके अलावा आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प था.

लोकतंत्रः सिद्धांत और व्यवहार
क्या लोकतंत्र महज हाथों में लगाए गए नीली स्याही का प्रतीक भर रह गया है. अगर लोकतंत्र का मर्म पुछना है तो सुगना से पुछिए. एसपीओ ने उसका बलात्कार किया और फिर कहा कि तुमसे शादी कर लेंगे. मकदम मुके से पुछिए जिसके पति की पिछले महीने हत्या कर दी गई. कश्मीर और मणिपुर की महिलाओं से पुछिए. सुप्रीम कोर्ट ने जब ज्यादतियों की जांच की बात की तब मानवाधिकार आयोग ने इन हत्याओं और बलात्कार के लिए माओवादियों को ही जवाबदेह ठहरा दिया. जबकि बलात्कार से पीड़ित महिलाओं के बयान तक नहीं लिए गए. ये लोग महज नाम नहीं बल्कि इस लोकतंत्र के शिकार लोगों का प्रतीक बन गए हैं.
लोकतंत्र एक बहुत ही निरीह शब्द बनकर रह गया है. इसका इस्तेमाल साम्राज्यवादी से लेकर फासीवादी तक अपने-अपने फायदों के लिए करते हैं. यानी हरेक तरह का कुकर्म इस लोकतंत्र के नाम पर ही होता है. लेकिन लोकतंत्र सच में कोई ऐसी चीज नहीं थी. एक राजनीतिक संस्था के रुप में लोकतंत्र फ्रांस की राज्य क्रांति के साथ सामने आया. जहां बुर्जुआ वर्ग ने बसटिले को ध्वस्त करते हुए समानता, एकता और बंधुत्व का नारा दिया. सामंतों की जागीरें जप्त कर ली गई और जोतनेवालों को बांट दिया गया. इस तरह यह एक सामंतवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई थी जिसकी बुनियाद औद्योगिक क्रांति ने गढ़ी थी. जोतनेवालों को जमीन, महिलाओं की आजादी, मेहनतकशों को अपेक्षाकृत अधिक अधिकार जैसे कई कई प्रगतिशील काम इसने किए. लेकिन मुनाफे की प्यास यहां भी बरकरार रही. 19 वीं सदी के उतरार्द्ध में पूंजीपतियों के मुनाफे की दर में गिरावट होने लगी. अब यह मंदी का शिकार हो गया था. 20 वीं सदी के शुरु में यह अपने विकास के चरम पर पहुंच गया और अब मुनाफे की लूट के लिए यह पूरी तरह जनविरोधी हो गया. अब वित्तिय पूंजी के युग में लोकतंत्र भी बड़े पूंजीपतियों का गुलाम हो गया. मुक्त व्यापार की धारणा से लैस अमरीकी साम्राज्यवाद के लिए भी लोकतंत्र एक आम जुमला हो गया. लेकिन इसका दंश भी वियतनाम और चिली की जनता को झेलना पड़ा. इराक और अफगानिस्तान तो अब भी इस ‘लोकतंत्र’ का दंश झेल रहे हैं. दरअसल लोकतंत्र अब मुक्त व्यापार का पूरक बन गया था.
भारत का तो कहना ही क्या. अंग्रेजों के जाने के बाद तमाम जमींदार और पूंजीपति ही राष्ट्रभक्त बन गए. ये वही लोग थे जो नीचले स्तर पर अंग्रेजों के लिए काम करते थे. सारे राजे-रजवाड़े ही भारतीय जनता के भविष्य निर्धारक बन गए. दुनिया में लोकतंत्र जहां सामंतवाद को ध्वस्त कर खड़ा हुआ वहीं यह भारत में सामंतवाद के गठजोड़ में खड़ा हुआ. फासीवाद भारतीय संसद की एक मुख्य विशेषता भी है. भारतीय संसद को इतने अधिकार प्राप्त हैं कि यह जब चाहे संसद को रद्द कर दे. आपातकाल के रुप में इसका व्यावहारिक इस्तेमाल हुआ. यह गैरजनवादी हो सकता है लेकिन कानूनी रुप से जायज था. संकट के दौर में तो यह और ज्यादा प्रतिगामी हो गया है. आज सत्ता का ज्यादा से ज्यादा केन्द्रीकरण कैबिनेट और उससे भी ज्यादा संसदीय समितियों में हो गया है. संसद का मतलब पक्ष और विपक्ष दोनो होता है. लेकिन आज कोई भी पार्टी सबसे पहले अपनी पार्टी की कार्यसमिति में मुद्दों को को तय करता है और फिर इसे कैबिनेट में पास करा लेता है. संयुक्त सरकार के बावजूद बहुमत वाली पार्टी को इसका फायदा होता है. संसद में पास होने की गुजाइश में इसे संसद में लाया जाता है नहीं तो अध्यादेश के रुप में इसे लागू कर दिया जाता है. अब बिल की जगह अध्यादेशों ने ले ली है. संसदीय राजनीति ने 1947 के बाद से जाति, धर्म और क्षेत्रवाद जैसे तमाम प्रतिगामी चीजों का इस्तेमाल किया है. कई लोगों का तर्क है कि जाति, धर्म के कारण लोकतंत्र का नुकसान हुआ है जबकि सच तो यह है कि संसदीय राजनीति ने इन संस्थाओं का इस्तेमाल कर इसकी खाई को और बढ़ा दिया है. संसदीय राजनीति में जगह बनाने के लिए क्षेत्रवादी उन्माद बढ़ाया जाता है. क्षेत्रवाद राष्ट्रीयता का सवाल नहीं बल्कि संसदीय राजनीति का साईड अफेक्ट है.आज सत्ता को प्राप्त तमाम आपातकालीन अधिकार ही शासन के आम औजार बन गए हैं. संसद आर्थिक और विदेश मामलों में बहस के अलावा कुछ कर भी नहीं सकती हैं ऐसे में भारतीय लोकतंत्र भारतीय जनता पर दमन ढाने के एक और औजार के रुप में सामने आता है.
इस बाजार के युग में संसद खुद एक बाजार बन गयी है. सांसद रिश्वत कांड, नोट के बदले वोट कांड, तहलका घोटाला इसके ताजा और खूलेआम उदाहरण हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में संसदीय पार्टियों का आधिकारिक घोषित खर्चा लगभग 2 अरब डालर (लगभग 92 अरब रुपए)था. लेकिन आकलनकर्ताओं का मानना है कि यह आंकड़ा 10 बिलियन डालर (लगभग 460 अरब रुपए) के बराबर होगा. इस खर्चे में वामपंथी पार्टियों की हिस्सेदारी भी कम नहीं है. इन पार्टियों के पास यह धन कहां से आता है? यह किसकी कमाई का पैसा है? स्विस बैंक में खरबों डालर किसकी कमाई का पैसा जमा है? कौन है इसका मालिक? यह साबित करता है कि संसद को जमीदारों और पूंजीपतियों के हाथों में गिरवी रख दिया गया है.
हमें पढ़ाया जाता है कि जनता की ताकत संसद में निहित होती हैं. संसदीय वामपंथी तो संसद के पुजारी बन गए हैं. इनके लिए हरेक समस्याओं का रामबाण है इनको चुनाव जिताकर संसद भेजना. सच तो यह है कि संसद में जमींदारों और पूंजीपतियों की ताकत निहित है. पिछले साठ सालों में संसद ने कितने फैसले जनता से जुड़े हुए लिए? आज तक भूमिहीनों को जमीन क्यों नहीं दी जा सकी? दलित आज भी जूते के नीचे रखे जाने वाली चीज क्यों रह गए हैं? पहचान की राजनीति के नाम पर खड़ी हुई कई दलितवादी, पिछड़ावादी पार्टियों ने लूट का साम्राज्य खड़ा किया और साम्राज्यवाद के एक नंबर दलाल साबित हुए. आदिवासी इतने सालों बाद भी महज शिकार खेलने की चीज रह गए हैं. पूंजीपतियों से जुड़े फैसले रातों-रात लिए जाते हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में श्रम सुधारों और कर रियायतों को रातों-रात पास कर दिया जाता है. संसदीय वामपंथियों के साथ दिक्कत यह है कि ये संसद की ताकत और सत्ता की दमनकारी ताकत का आकलन तो अधिक करते हैं. लेकिन जनता की ताकत पर अब उनको विश्वास नहीं रह गया. जनता ने तो भारी निराशा के बाद ही सशस्त्र संघर्ष का रास्ता चुना.
संसद और विधानसभाएँ गरीब जनता को अधिकार नहीं दे सकती. इसका ताजा उदाहरण बिहार साबित हुआ है.बिहार की सरकार ने भूमि सुधार आयोग गठित किया. आयोग ने अपनी अनुसंशाएं सरकार को सौंप दी. सरकार ने ना-नुकुर करते हुए बटाइदारी की चर्चा शुरु की. यह पुनः एक एजेंडा बन गया. इसके तुरंत बाद के उपचुनाव में सरकार को भारी हार झेलनी पड़ी. कहा जाने लगा कि इसकी वजह बटाइदारी है. फिर सरकार ने बातचीत भी बंद कर दी. बाकि कुछ हो या न हो इससे इतना तो साफ हो जाता है कि जो भी सरकार भूमिहीनों के लिए जमीन, गरीबों के लिए अधिकार की बात करेगी उसे अपदस्थ कर दिया जाएगा. वामपंथियों ने भी क्या किया. प बंगाल में 1982 में विधानसभा चुनाव और 1983 में पंचायत चुनाव में वाम फ्रंट की जीत के बाद आपरेशन बर्गा और बंजर जमीनों के वितरण का काम भी बंद हो गया. यही नहीं 2004 के मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 14.31 फीसदी बर्गादार विभिन्न जगहों पर पिस्थापित हो गए. यदि कुल वितरित जमीनों पर नजर डाली जाए तो सितंबर 2001 तक कुल 10.58 लाख एकड़ बंजर जमीनों को वितरित किया गया और दर्ज किए हुए बर्गादार 11.08 लाख एकड़ पर काबिज थे. यदि दोनों को मिलाकर देखा जाए तो भूमि सुधार के अंदर आने वाली जमीन का यह महज 15.5 फीसदी है. नरेगा, इंदिरा आवास योजना की लूट में क्या वामपंथी पार्टियों के पंचायत प्रधान शामिल नहीं हैं? इसका मतलब है कि मुख्य सवाल यह नहीं है कि सत्ता में कौन सी पार्टी है. हमें यह समझना चाहिए कि अर्धसामंतवाद का खात्मा अर्धऔपनिवेशिक परिस्थितियों में संभव नहीं है. दलाल बड़े बुर्जुआ और जमींदारों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली सत्ता भूमिहीनों और गरीबों को अधिकार नहीं दे सकती है. यदि देश में सबसे अधिक कही भूमि सुधार हुआ भी है तो वह है जम्मु और काश्मीर न कि प बंगाल.
जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल है तो यह भी उसी समय तक कायम रहता है जब तक यह सत्ता के लिए चुनौती न बन जाए. इसका ताजा उदाहरण लालगढ़ है. वहां पुलिय संत्रास प्रतिरोध समिति ने प्रतिरोध के तमाम जनवादी स्वरुपों पर खुद का कायम रखा. इसने अपने लक्ष्यों और मांगों के साथ कोई समझौता नहीं किया. जब आंदोलन एक उंचाई पर पहुंचा तो सुरक्षा बलों का भारी दमन इस इलाके में शुरु हो गया. अंततः इसने हथियार उठाने की घोषणा कर दी और कहा कि अब दमन की वजह से जनवादी प्रतिरोध की कोई गुजाइश नहीं बच गई. यानी कि कोई भी संघर्ष यदि इमानदारी के साथ अपने लक्ष्यों को हासिल करना चाहता है तो उसे अंततः संघर्ष के स्वरुप के बंधन से निकलना ही होगा.
इस तरह भारत का लोकतंत्र एक मृग-मरीचिका की तरह है. बाहर से देखने के लिए कुछ और और अंदर से कुछ और. विधायिका से लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका तक वित्तिय पूंजी की गुलाम हो गई है. खदान कंपनी वेदान्त के पर्यावरण संबंधी काले रिकार्ड को देखते हुए वहां के एक व्यक्ति ने इसे खदानों का ठेका देने पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की. न्यायाधीश जस्टीश कपाड़िया ने भरी अदालत में कहा कि स्टरलाइट एक अच्छी कंपनी है. यह ठेका स्टरलाइट को दिया जाए. इसमें हमारा शेयर भी है. हालांकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की विशेषज्ञ समिति ने जंगल के तबाह होने के चलते खनन की छुट नहीं देने की सलाह दी थी. यहां यह जानना जरुरी है कि स्टरलाइट वेदान्ता की ही एक सहायक कंपनी है. इस तरह हम देखते हैं कि समुचा तंत्र वित्तिय पूंजी की तीमारदारी में व्यस्त है ऐसे में तो जनता की बात करनी भी बेमानी है.

आशा की किरण
हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब पूरी दुनिया एक भारी आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही है. ऐसा दौर संघर्षों और उथल-पुथल से भरा हुआ दौर होता है. ऐसे संकट में शासक वर्ग का और फासीवादी होना लाजिमी है. देश की सबसे गरीब जनता के पैरों के तले से जमीन छीनने के लिए युद्ध की घोषणा हो चुकी है. शासकवर्गीय पाटियों की तो बात ही छोड़ दें वामपंथी भी नक्सलवादियों पर बर्बर हिंसा में लिप्त रहने का आरोप लगाते हुए उनकी आलोचना कर रह हैं और इस तरह वे अंततः फासीवादी ताकतों के साथ ही खड़े हो रहे हैं. इन लोगों में केवल माओवादियों को खत्म किए जाने के तरीकों को लेकर बहस है. इनका बस ये कहना है कि माओवादियों को सैनिक हमले के बजाए विकास के बल पर खत्म किया जाना चाहिए. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इन्हे सैनिक कार्रवाई और विकास के समन्वय में खत्म किया जाना चाहिए. ऐसे लोगों के लिए फिदेल कास्त्रो द्वारा कोलंबिया के एक क्रांतिकारी संगठन फार्क पर किए गए हमले का जेम्स पेत्रास द्वारा दिया गया जबाब पर्याप्त है. जेम्स पेत्रास ने कहा था,‘‘ इन तर्कों (फार्क के बर्बर हिंसा में शामिल होने) के साथ कास्त्रो को 20वीं सदी के शुरु के रूस की क्रांति से लेकर चीन और वियतनामी क्रांतियों की भी आलोचना करनी चाहिए. क्रांतियां निदर्यी होती हैं लेकिन कास्त्रो यह भूल जाते हैं कि प्रतिक्रांतियां कहीं अधिक निर्दयी होती है. युद्ध के दौरान वियतनाम में खड़े किए गए खुफिया नेटवर्क की तरह ही युरीब (कोलंबिया की सरकार) ने स्थानीय अधिकारियों को शामिल कर स्थानीय खुफिया नेटवर्क गठित किया. वियतनामी क्रांतिकारियों ने इस खुफिया नेटवर्क के स्थानीय सहयोगियों का सफाया इसलिए किया क्योंकि ये दसियों हजार वियतनामी ग्रामीण मिलिशिया के फांसी और हत्या के लिए जिम्मेवार थे.’’
इन तमाम आलोचनाओं को मुंह चिढ़ाते हुए आदिवासी अपने दुश्मन के सामने सीना ताने खड़े हैं. देश की सबसे गरीब जनता कह रही है कि संसद में बैठे लोग भले ही साम्राज्यवादियों के जुठन खाने के लिए आपस में लड़ते रहें हम अपने बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए युद्ध में शामिल होने जा रहे हैं. हमने अपनी मुक्ति का एजेंडा देश के सामने रख दिया है. हम कोई भी पुराना विकल्प स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. अब देश को तय करना है. तय करना है उन सभी को जो ‘आइवरी टावर’ पर बैठे सुनहरे सपने बुनते हैं. बेहतर भविष्य की कल्पनाओं में डूबे रहते हैं. अब समय आ गया है जब हम तय करें कि हमें किसके पक्ष में खड़ा होना है. रोमन साम्राज्य के हत्यारों के पक्ष में या फिर स्पार्टाकस के पक्ष में. एक सकारात्मक संकेत यह है कि देश की व्यापक जनता और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आदिवासियों के पक्ष में खड़ा होने का जज्बा दिखाया है भले ही संसद और विधानसभाओं में बैठी तमाम ताकतें सरकार के साथ खड़ी हों. जीत अंततः जनता की ही होगी चूंकि जनता ही इतिहास का निर्माण करती है. सत्तायें तो केवल और केवल दमन करती है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. जटिल मुद्दा है -मूल वासियों का विस्थापन का औचित्य और अनिवार्यता ,पूंजीवाद , विकास और विनाश के विपरीत समीकरण आदि को पूरी जिम्मेदारी और संवेदना के साथ समझना होगा ! कहीं कोई मध्यमार्ग शायद मिल जाय!

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  3. आपने लिखा....हमने पढ़ा
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए कल 10/06/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    धन्यवाद!

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