05 जून 2013

सबसे बड़े लोकतंत्र का आदिवासी महिलाओं के साथ सुलूक तो देखिए.


प्रियंका शर्मा
फोटो- दख़ल की दुनिया

एक सवाल-एक बात: 3                                                

माओवादियों के द्वारा छत्तीसगढ़ में 25 मई को हुई कार्रवाई के बाद कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार बहस का विषय बने हुए हैं. इन्हीं सवालों पर बहस के लिए 'एक सवाल-एक बात' शीर्षक से कुछ कड़िया प्रस्तुत की जा रही हैं. बहस के लिए आप अपने सवाल और अपनी बात dakhalkiduniya@gmail.com पर भेज सकते हैं.


सरकार द्वारा घोषित माओवदी इलाकों में; जहां सलवा जुड़ुम और ऑपरेशन ग्रीन हंट जैसी (जनसंहारकारी) योजनाएं चलाई जा रही हैं, वहां सरकार आदिवासी महिलाओं की सुरक्षा/असुरक्षा के विश्लेषण का कोई रिकॉर्ड नहीं रखती है. यह रिकॉर्ड शायद इसलिए भी नहीं मिलता क्योंकि इस ‘सलवा जुड़ुम’ को 'राज्य सुरक्षा और शान्ति' की ज़मीन में बनाया गया है, और किसी भी संविधान, न्याय या कानून के लिए राज्य का जिम्मा पहला है. इस राज्य सुरक्षा के आड़ में देश में जगह-जगह सैन्यीकरण हो रहा है. क्योंकि भारतीय राज्य भी पुरुषवादी है, इसलिए ऐसे राज्यों में महिलाओं को इसकी कीमत बहुत बड़े पैमाने पर चुकानी पड़ी है/चुका रही है. इन सैन्यीकृत जगहों में महिलाओं पर सैन्य हिंसा की घटनाएं जब-तब मीडिया में भी आती रहती हैं, लेकिन अगर आप चाहें कि महिलाओं की सुरक्षा और इंसाफ का कोई ठीक-ठीक लेखा जोखा मिल जाए तो बस अन्यायों और नाइंसाफी का घिनौना ब्यौरा ही मिलता है.
सलवा जुडुम चलाए गए दंड्यकारण्य के जंगलों बसे चेरली, कोत्रापाल, मनकेली, कर्रेमरका, मोसला, मुण्डेर, पदेड़ा, परालनार, पूंबाड़, गगनपल्ली, लोहंड़ीगुडा, जगदलपुर, कारकेली, बेलनार,तालमेटला आदि ऐसे गांव हैं जहां के लोगों को सैन्यीकरण के चलते उन्हें जीवन यापन के साधनों; जंगल और ज़मीन को खो देना पड़ा है, यहां तक कि उन्हें ‘लंडा’ जैसा मोटे अनाज तक से भी वंचित होना पड़ा है, उनके घर जला दिए गए, अनाज, रुपए, पशु वगैरह सब लूट लिए गए, घरों से विस्थापित किया गया. महिलाओं के सामूहिक बलात्कार, पिटाई और हत्याएं की गई हैं.
देशद्रोह के केस में बंद सोनी सोरी का जेल से लिखा वह प्रश्न (पत्र) किसी भी संवेदंशील और इंसाफ पसंद व्यक्ति को आज भी याद होगा, “मुझे करंट शॉट देने, मुझे कपड़े उतार कर नंगा करने या मेरे गुप्तांगों में बेदर्दी के साथ कंकड़-गिट्टी डालने (एस.पी. अंकित गर्ग ने) से क्या नक्सलवाद की समस्या खत्म हो जाएगी? हम औरतों पर ऐसा अत्याचार क्यों, आप सब देशवासियों से जानना है।” सोनीसोरी तो उन कई सैकड़ों शोषित महिलाओं से थोड़ा अलग; शिक्षिका होने के करण, महिला संगठनों से संपर्क होने कारण और बड़ा जन समर्थन होने के कारण उन्होंने अंकित गर्ग के खिलाफ केस दर्ज करा पाईं और अपनी न्याय की उम्मीद बनाए रखी और 1 मई को इस मामले में उन्हें eएक केस में बरी भी कर दिया गया, लेकिन उन पर जेल में यौनिक हिंसा करने वाले (वर्तमान कानूनी परिभाषा में इसे बलात्कार की श्रेणी में नहीं माना जाता) अंकित गर्ग के खिलाफ आखिर कुछ भी नहीं हुआ और वह न सिर्फ साफ बच गया बल्कि उसका प्रमोशन भी हुआ और उसे वीरता पुरस्कार भी मिला भरत सरकार की तरफ से. महिलाओं पर सलवा जुडुम, पुलिस और पैरामिलिट्री के जवानों की हिंसा और उत्पीड़न के सभी मामले थाने और कोर्ट तक नहीं पहुंच पाते. 
अभी पिछले 28 मई को माओवादी पार्टी की तरफ से जारी की गई एक विज्ञप्ति में आंकड़े दिए गए हैं कि सलवा जुड़ुम ने केवल दो सालों में ही स्थानीय गुंडा गिरोहों और पुलिस के जवानों के साथ मिलकर सैकड़ों महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया. 99 महिलाओं के केस तो सिर्फ भारत के सर्वोच्च न्यालय में ही दर्ज हैं. महिलाओं के खिलाफ की गई हिंसा में ये तो सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के है और इनमें तमाम वो मामले जो बड़ी संख्या में हैं जो निचली अदालतों चल रहे हैं और कितनी बड़ी संख्या होगी जो किसी कोर्ट में शामिल नहीं हो पाए हैं. छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के शामसेट्टी गांव की वो घटना इसमे शामिल नहीं हो पाई हैं जिसमे 6 आदिवासी महिलाओं ने 2009 में सलवा जुड़ुम के कार्यकर्ताओं के खिलाफ सामूहिक बलात्कार की प्राथमिकी दर्ज कराई, मजिस्ट्रेट के सामने बयान भी दिया लेकिन 5 मार्च 2013 को उन्होंने और उनके परिवार वालों ने अपना मुकदमा वापस ले लिया. साथ ही इस गिनती में जिला न्यालयों और उच्च न्यायालयों में चल रही सुनवाई व पेशियां भी शामिल होने से बच गई हैं. भारत का कोई भी व्यक्ति वाकई में इन मामलों की संख्या का अंदाजा बहुत आसानी से लगा सकता है कि इन आदीवासी महिलाओं के साथ कितनी ज्यादतियां हुई होंगी क्योंकि भारत में अधिकतर मामलों में न्याय की लंबी, जटिल और बेहद खर्चीली प्रक्रिया के कारण खासकर महिलाओं सबंधित मामले या तो प्राथमिकी तक भी नहीं जा पाते या फिर जिला न्यालयों में ही सुलह कर/करवा लिए जाते हैं.
दो साल पहले ही हमारे विश्वविद्यालय (वर्धा) के दलित छात्र की बहन के साथ गांव में सवर्ण गुण्डों ने सामूहिक बलात्कार किया लेकिन पुलिस स्टेशन में मामले की एफ.आई.आर. 4-5 दिन के बाद स्थानीय लोगों और शहरी महिला संगठनों के संघर्ष व हस्तक्षेप के बाद ही दर्ज कराई जा सकी. समझा जा सकता है कि उस लड़की को न्याय की कितनी उम्मीद बची होगी और अंतत: क्या न्याय मिला होगा! फिर आदिवासियों के ये मामले तो पुलिस और राज्य पोषित सलवा जुड़ुम, सी.आर.पी.एफ के सैनिकों के ही खिलाफ़ आते हैं जिसे दर्ज़ कराने में लोगों को क्या करना नहीं करना पड़ता होगा! उत्पीड़ित महिलाएं तो ऐसे जीवन स्तर और जगह से आती हैं जिन्हें इन घटनाओं की शिकायत के लिए पुलिस स्टेशन और न्यायालय तक जाने के लिए ढ़ंग से सड़क तक उपलब्ध नहीं है, जिन्हें सिर्फ राशन पाने के लिए ही 20 से 50 कि.मी. तक भी पैदल चल के जाना पड़ता है. ऐसी स्थिति में पुलिस स्टेशन और न्यालय का चक्कर लगाने की बात असंभव ही लगती है. और इन सबके बावजूद अगर कोई हिम्मत भी करे ‘पुलिस-थाना, कचहरी-पेशी’ करने कि तो मामलों को तमाम तरीकों से दबा दिया जाता है. पिछले 5 मार्च को 6 आदीवासी महिलाओं द्वारा अपने आरोपों को वापस लेने वाले केस को भी कैसे भुलाया जा सकता है एक-दो नहीं बल्कि छ: महिलाओं और तीन गवाहों ने अपने आरोप बदल दिए. इसका जबाब आखिर किससे पास है कि इतनी मुश्किलों और संघर्ष से इन जटिलता भरी कोर्ट तक पहुंचने के बाद आखिर उनको पीछे क्यों हटना पड़ा? क्या मामला इतना सीधा था? जैसा कि अखबारों से पता चला?  
दंड्कारण्य के इन जंगलों में अधिकतर वही जनता रहती है जिसे भारत सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे रखा है (हालांकि बड़ा सवाल यह भी है कि भारत सरकार इनको भारतीय जनता मानती भी हो!, क्योंकि ऐसा तो कोई सरकार अपनी जनता के साथ नहीं करती, क्योंकि 25 मई के हमले के बाद 1 कांग्रेसी नेता ने दंड्यकारण्य के इलाके को दूसरा पाकिस्तान कहा था, जिसको किसी भी मीडिया माध्यम ने असंवैधानिक या अनैतिक नहीं कहा) जो 26 रुपए का नीचे गुज़ारा करती है. ऐसे में ये आदिवासी महिलाएं शायद इन बलात्कारों, शोषण, लूट और हत्याओं को किसी बहुत ज्यादा भयानक प्राकृतिक आपदाएं मानकर भुलाने की कोशिश कर रही हों या हो सकता है उनके पास उपलब्ध सबसे आसान और ज़मीनी तरीका; जिसे गैर-कनूनी और बार-बार अलोकतांत्रिक कहा जाता है; अपना लिया हो, खुद ही हथियार उठा कर खत्म कर देने का सपना देख रही हों. ये वो महिलाएं भी हैं जिन्होंने माओवादी प्रभाव से पहले जमींदारों के अनगिनत जुल्म झेले हैं और वर्षों-वर्षों जो इन ज़मीदरों/फॉरेस्ट ऑफीसरों से बलात्कृत होती रहीं. लेकिन सलवा जुड़ुम इन्हीं कहरों की इम्तेहां की तरह गुज़रा है. इससे पहले कम से कम उनकी अपनी ज़मीन और जंगल उनके पास था, सलवा जुड़ुम ने जिन्हें उजाड़ दिया और खत्म भी कर दिया.
सलवा जुड़ुम की सेना भर्ती के लिए 18 साल से कम उम्र की न जाने कितनी लड़कियों को SPO (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) बना दिया गया. कैंप्स में महिलाओं के साथ शारीरिक हिंसा और शोषण के भी बहुत से मामले सामने आए. महिला एस.पी.ओ. को भी रात में थाने में रुकने का नियम था; सिर्फ खाना खाने के लिए ही घर जाने की छूट थी, पे-स्केल बहुत कम थी और कई महिलाओं को महीनों वेतन नहीं दिया जाता था. दिसंबर, 2006 में प्रकाशित हुई CAVOW (कमेटी अगेंस्ट वॉयलेंस ऑन वीमेन) की दांतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) में चलाए जा रहे सलवा जुड़ूम एरिया की फैक्ट फाइंडिंग के लिए गई टीम को शारीरिक हिंसा और शोषण की बाबत पूछने पर बताया गया कि “बलात्कार और शोषण के मामले होते हैं पर वो सामने नहीं आते. बासागुड़ा के मुरोदोंडा से दो लड़कियों को पुलिस स्टेशन ले जाकर उनके साथ बलात्कार किया गया. शराब पीना और पोर्न फिल्में देखना पुलिस थानों में लगातार होता है. यहां तक कि महिला एस.पी.ओ. को पुरुष पुलिस कर्मियों के कमरों के नज़दीक सोने के लिए कहा जाता है.” (CAVOW रिपोर्ट, पृ-15) दोर्णापाल कैम्प की 22 और नज़दीकी गांव में भी लगभग इतनी ही संख्या में महिलाओं को पुलिस, सी.आर.पी.एफ., नगा, मिज़ो जवानों ने गर्भवती बना दिया. भैरमगढ़ के रिलीफ कैम्प में एस.पी.ओ. और पैरामिलिटरी के जवानों ने महिलाओं का यौन शोषण किया और दस महिलाओं को गर्भवती बना दिया. (CAVOW रिपोर्ट, पृ.-33)
सलवा जुड़ूम के जवानों की गोलीबारी में कईयों की जान चली गई. और कई महिलाओं को गैर-कनूनी ढ़ंग से जेल में बंद किया गया है. बेलनार गांव की सुदरी, फुलमती, श्यामवती को एस.पी.ओ. की गोलियां खेत में काम करते समय लगी और फिर उन्हें जेल में डाल दिया गया. कोर्ट में दो पेशियों के बाद भी उन्हें नहीं बताया गया कि उन पर क्या मुकदमा चल रहा है. नक्सलवाद के नाम पर महिलाओं की कई महीनों तक जेल में रखने पर भी पेशी नहीं की जाती और न ही घर वालों को मिलने की इज़ाजत दी जाती है. पिछली 1 मई को 16 साथियों के साथ सोनी सोरी के दोषमुक्त होने पर दांतेवाड़ा के सीनियर वकील अशोक जैन कहते हैं कि ‘इससे बात साफ होती है कि आदिवासियों को कैसे झूठे ममलों में फंसाया जा रहा है जबकि इनके ऐसे लगभग 90 प्रतिशत मामले झूठे होते हैं.’(सुबोजितबागची*) सलवा जुड़ुम के गुंडों ने और सी.आर.पी.एफ. के जवानों ने सोनिया, इतवारिन पोतइ और पल्लीवाया गांव के DKAMS के नेता की पत्नी ओय्यम बाली के कपड़े उतारे, यौनिक हिंसा की और कई दूसरी महिलाओं को नक्सल समर्थक कहकर बेरहमी से पीटा. कोर्तापाल गांव की पूनियम, बूदरी मिदियम, सुख्खी, और मंगली पुडियम को SJ जवानों ने राशन की दुकान जाने पर पीटा. वेछम गांव की कंदली पांडे के साथ महेंद्र कर्मा की अगुवाई में SJ और पुलिस जवानों ने बलात्कार किया.कर्र्ले बेरला गांव की माधवी सविता, तीलम जमली को SJ और नगा के सैन्य बलों ने थाने ले जाकर 1 हफ्ते तक सामूहिक बलात्कार किया. जंग्ला गांव की काल्मु जय्यु, कोरसा मुन्नी और कोरसा बुटकी, कोरतापाल की 6 महिलाओं का सामूहिक बलात्कार SJ और पुलिस कर्मियों ने किया. पोतेनार की कुंजमलख्खा का रेप करके SJ लीडर विक्रम माधवी के घर पर हफ्तों रखा गया. इदवाड़ा की लख्खे के साथ एस.पी.ओ. के 15 लोगों ने रेप किया फिर बेडरे के सी.आर.पी.एफ. कैम्प में रखकर दोबारा शोषण किया. नंगूर गांव की जैनी को रामा और जोगल (एस.पी.ओ.) ने गांव से अगवा कर रेप किया और फिर उन्हें भीबेडरे के सी.आर.पी.एफ. कैम्प में रखकर दोबारा शोषित किया गया. इंगमेत्ता की 3 और लंका की 2 महिलाओं को बेडरे के सी.आर.पी.एफ. कैम्प में शारीरिक शोषण के लिए रखा गया. पहले SJ और NAGA के सैन्य बलों फिर CRPF कैम्प्स में महिलाओं को जबरदस्ती रखकर सामूहिक बलात्कार और दमन की ये लिस्ट और भी बहुत लंबी है. 
सलवा जुड़ुम और सी.आर.पी.एफ. कैम्प्स में सैकड़ों आदिवासी महिलाएं सामूहिक बलात्कार सहित दूसरे किस्म की यौनिक हिंसा की शिकार हुईं, अनगिनत महिलाओं के साथ-साथ मार-पीट, शोषण और लूटने की घटनाओं को अंजाम दिया गया. जिनमें से अधिकतर मामलों की पुलिस थानों में एफ.आई.आर. तक दर्ज नहीं की गई. बहुत सी आदिवासी महिलाएं एस.पी.ओ. या फोर्स की बंदूकों से मारी गईं और बहुत सी गुमनाम की सूची में चली गई.    
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के प्रवक्ताओं के अनुसार शोषित महिलाओं की संख्या कोर्ट में संख्या से कहीं बहुत ज्यादा है. जिसे अभी तक न तो पीड़ितों को इंसाफ मिल सका है और न ही डॉक्यूमेंटेड किया जा सका है. अपनी किताब ‘उसका नाम वासु नहीं’ में दंड्यकारण्य के माओवादी इलाकों में रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार सुभ्रांशु चौधरी ने बताया है कि उनका परिचय कई लड़कियों और महिलाओं से हुआ जिनके साथ 2005 में सलवा जुड़ूम के सैनिकों ने बलात्कार किया और उनके घर जला दिए. (पृ.54) और इस सभी मामलों को जांचने का कोई ठीक-ठीक कोई और तरीका नहीं हैं सिवाय इसके आप बरसों-बरस पत्रकारिता करते रहिए. पुलिस, प्रशासन और जंगलों में गहरे जाकर बसे लोगों के बीच; तब कहीं कभी-कभी इन घटनाओं की पुष्टि टुकड़ों-टुकड़ों में होती रहे.
आदिवासियों के शोषण और उत्पीड़न के इतने केस पुलिस, प्रशासन और कोर्ट के संज्ञान में आने के बावजूद और सुप्रीम कोर्ट द्वारा सलवा जुड़ुम को गैर संवैधानिक घोषित किए जाने बाद भी सलवा जुडुम को बंद या खत्म नहीं किया गया. पिछले साल तक झारखण्ड पुलिस ने गैर-कानूनी रूप से 3400 एस.पी.ओ. हथियार बंद नियुक्ति बरकरार रखी है. दांतेवाड़ा में भी लगभग 12000 एस.पी.ओ. भर्ती रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी सी.आर.पी.एफ. और पुलिस के जवानों के जुल्म से आदिवासी महिलाएं मुक्त नहीं हो पाई हैं. 14 मार्च 2011 को दांतेवाड़ा में 300 घर जलाने के साथ सी.आर.पी.एफ. के जवानों ने 5 महिलाओं के साथ बलात्कार किया. 23 अक्टूबर 2012 को रांची जिला के डूंगराढ़ीह गांव की शुखरी के साथ पांच एस.पी.ओ. जवानों ने मिलकर बलात्कार किया.  
एक सरल अभिव्यक्ति अब तक लोकतंत्र का मतलब इंसाफ और बराबरी का राज, और नागरिकों की हर तरह सुरक्षा समझा गया है. लेकिन हमारे देश में इसके जिम्मेदार सरकारें शायद लोकतंत्र का यह अर्थ नहीं समझ पाई हैं और न ही उसे जनता तक ठीक-ठीक पहुचाने की कोशिश की है. भारत सरकार की नज़रों के सामने ही राज्य पोषित ऐसे गैर संवैधानिक हिंसा, शोषण और नाइंसाफी की कभी खत्म न होती श्रृंखला है और शायद इसी की वजह से ही शायद अधिकांश आदिवासी महिलाओं को माओवाद का रास्ता ही ठीक लगा है और सैकड़ों महिलाएं माओवादी पार्टी की सदस्य बन गईं. माओवादी पार्टी के प्रमुख नेता ‘कोसा’ कहते हैं कि अब पार्टी में 40-60% महिलाएं सदस्य हैं. ज़मीन के मुद्दों के बाद महिलाओं के मुद्दे ही पार्टी के लिए मुख्य हैं.... KAMS में लाख से अधिक महिलाएं हैं; दंड्यकारण्य में आदीवासी आंदोलन महिलाओं के बल पर चल रहा है. (सुभ्रांशु चौधरी, पृ.67) हालांकि माओवादी होने में भी जीवन शैली सरल नहीं है, सिर पर बिना छत महीनों चलते रहना और हर स्थिति में लड़ने को तैयार रहना जीवन के लिए एक मुश्किल चुनौती है. लेकिन उनके पास यह सिर्फ विकल्प ही नहीं, बल्कि राज्य की बनाई हुई स्थिति भी है. और यह सलवा जुड़ुम या ऑपरेशन ग्रीन हंट के विपरीत माओवाद का चुनाव महिलाओं की पुरुषवादी राज्य से विद्रोह का कदम भी है. इसीलिए यह भी कहा जा सकता है कि महिलाएं अधिक समता वाले कम पितृसत्तात्मक संरचना का निर्माण कर रहीं हैं.

प्रियंका शर्मा, पाण्डेचेरी विश्वविद्यालय में शोध कर रही हैं, उनसे sharrma.priyanka3@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

13 टिप्‍पणियां:

  1. दुखद ,शर्मनाक ,वीभत्स !!!!!!!!!!!!!!!!

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  3. ऐसे कुकृत्य निरंतर स्त्रियों पर हो रहे हैं. गांव, शहर, जंगल कोई जगह महफ़ूज़ नहीं लगती. इस हैवानियत भरे माहौल से निजात की उम्मीद के उपाय अक्सर उम्मीद नहीं जगाते. पितृसत्ता को तोड़े बगैर समता की उम्मीद करना नाउम्मीदी के अंधेरे को बढ़ाना ही होगा.

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  4. क्या अब भी हम गर्व से कह सकते हे की हम "भारतीय" हे .... !

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  5. dosto ham hamesh bahut badi badi bate karte hai hamare desh me jab bhi koi bada hadsha ya dil dahla dene wala wakya hota hai ham dahad dahad ka bahut kuchh kah jaate hai. koi bhi cheej jane bagair jane anjane me me kuchh bhi bol kar bad me pachhtate ha. Bastar kai samsyao se nahi jujh raha hai bastar ki sabse badi samasya sirf ashikshha hai. hame yaha k logo ko shikchha k liye prerit karna padega. Naxlisum koi samasya nahi hai wah to aatank hai. Aur aatank ka koi nahi hota ye aap sab jaante hai. aaj bastar me naxlisum failne ka sabse bada karan ham hai. ham dar kar unki madad kar rahe hai. ham naxlisum hi nahi yaha force se bhi darte hai. kyonki force bhi kisi ki nahi hai. bastar me chain tabhi milega jab naxli aur force dono yaha se chale jayemge. Bastar Sant chhetra hai ise shant hi rahne dijiye. Naxli ab sirf loot mar hi kar rahe hai. agar ye bhi lootere ho gaye hai to ab lagta hai yaha nai kranti lani padegi. jab policia lootero se bachne k liye logo ne naxliyo ka sahara liya to ab naxli lutero se bachne kuch na kuchh sonchna to padega. kranti to aayegi bhale der se hi. magar lootero ko bardast nahi kiya jayega chahe we koi bhi ho.

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  6. Naxli bhi mahilao k sath balatkar kar unhe chhor dete hai. lagabhag jitni bhi mahila naxli surrender ki unki jubani ye kahani suni ja sakti hai.

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  7. क्या एक पक्ष के बारे मे ही लिखा जाना उचित है क्या आप लोगो ने कभी 10/04/2010 को गड़गड़ मेटा (ताड़मेटला)मे शहिद 76 वीर जवानों की मृत शरीर को कितनी बर्बरता के साथ मारा गया था कभी सोचा। क्या आप लोग उनके परिवार वालो के बारे मे कुछ बोलने की हिम्मत हैं।

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    1. नितेश राय सर... जब यह घटना हुई थी तभी दखल की दुनिया ने अपना स्टैंड लिखा था... आप यहां देख सकते हैं. http://mohallalive.com/2010/04/07/chandrikas-stand-after-dantewada-attack/

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    2. यह भी देखें.... http://dakhalkiduniya.blogspot.in/2011/04/blog-post_9048.html

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