एक सवाल-एक बात: 1
माओवादियों के द्वारा छत्तीसगढ़ में 25 मई को हुई कार्रवाई के बाद कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार बहस का विषय बने हुए हैं. इन्हीं सवालों पर बहस के लिए 'एक सवाल-एक बात' शीर्षक से कुछ कड़िया प्रस्तुत की जा रही हैं. बहस के लिए आप अपने सवाल और अपनी बात dakhalkiduniya@gmail.com पर भेज सकते हैं.
माओवादियों के द्वारा छत्तीसगढ़ में 25 मई को हुई कार्रवाई के बाद कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार बहस का विषय बने हुए हैं. इन्हीं सवालों पर बहस के लिए 'एक सवाल-एक बात' शीर्षक से कुछ कड़िया प्रस्तुत की जा रही हैं. बहस के लिए आप अपने सवाल और अपनी बात dakhalkiduniya@gmail.com पर भेज सकते हैं.
फोटो- दख़ल की दुनिया |
47 के पहले यह शायद ठीक-ठीक रहा होगा पर उसके बाद यह
ज्यादा गुलाम हुआ. ऐसा हम पुरानी किताबों के सहारे देख पाते हैं. यह हमारा ज़ेहन है.
आवाम की ज़ेहनियत गुलाम की ज़ेहनियत बन गई. यह बात एक निर्णय जैसी है जिसकी सुनवाई अभी
बाकी है. यह बात पिछले दिनों माओवादियों द्वारा छत्तीसगढ़ में हुई कार्यवाही के संदर्भ
में है. जिसे लोकतंत्र पर हमला कहा जाने लगा. संसद पर जब हमला हुआ था तब भी ऐसा ही
कहा गया था. सरकारी संस्थानों पर जब भी हमले हुए वे लोकतंत्र पर हमले के रूप में प्रचारित
किए गए. सरकारें क्या लोकतंत्र होती हैं या उनके संस्थान लोकतंत्र होते हैं? लोकतंत्र
शुरुआती दौर से ही एक मूल्य के रूप में स्थापित हुआ, जो कई व्यवस्थाओं को आधार प्रदान
करता है. व्यवस्थाएं सरकारों को आधार देती हैं और सरकार संस्थानों को. इसलिए जब किसी
संस्थान और पार्टी पर हमले को लोकतंत्र पर हमला कहा जाता है तो उस सरकार या व्यवस्था
के आलोचना की गुंजाइश को वे खत्म कर देते हैं. क्योंकि जो यह बोल रहे होते हैं इस व्यवस्था
के दायरे में उन्हें वे सुविधाएं मुहैया है और उनके अस्तित्व इसके साथ ही टिके होते
हैं. यह उस भोंपू की बात है जो दमनकारी सरकार की जीभ को अपने चोंगे में भरकर जिंदा
रहते हैं, आप उन्हें अखबार, टी.वी. कुछ भी कहें. इन पार्टियों, संस्थानों में उनके
द्वारा, दो सौ साल पहले लोकतंत्र के नारे में जो मूल्य था उसे पाया हुआ सा मान लिया
जाता है. यह समय का अवसरवाद है जो इस तरह के दुस्प्रचार को हवा देता है. जबकि इसके
ठीक उलट वे रोज लड़ते हुए दिखते हैं कि असमानता की खाईं गहरी होती जा रही है. एक झूठी
लड़ाई को वे लगातार जिंदा रखते हैं, एक से फारिग होकर दूसरे के कंधे पर जा टिकते हैं.
फिर सवाल उठता है कि लोकतंत्र के उन मूल्यों को पाने की प्रक्रिया में क्या यह व्यवस्था
काम कर रही है. सन् 47 के बाद यह गुलामी शुरू हुई जिसने आवाम के ज़ेहन को सरकारी बना
दिया और सरकारी संस्थानों पर हमले, लोकतंत्र पर हमले कहे जाने लगे. इसके पहले सरकार
और उसके संस्थानों पर बस्तर में व्यापक हमले हुए और उसे स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई
का हिस्सा माना गया. एक आदिवासी के लिए क्या सन् सैतालिस वैसा ही था जैसा अन्य के
लिए. सन् सैतालिस किसके लिए कैसा था. यह एक बरस था जब लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया
शुरू की जानी चाहिए थी… पर. बस्तर और पूरे दंडकारण्य के लिए क्या सत्ता के हस्तांतरण
से कोई फर्क पड़ा. दरअसल अंग्रेजों ने जिस मुहिम की शुरुआत की थी भारतीय राज्य ने आदिवासी
इलाकों में उसे विस्तार देने का ही काम किया. अगर अंग्रेजों के जमाने में वह गुलाम
बनाए जाने की प्रक्रिया थी तो यह रंग बदले हुए प्रशासकों द्वारा गुलाम बनाए जाने की
ही प्रक्रिया है. अंग्रेजों ने उनके गांवों और जमीनों को चिन्हित भर किया था और भारतीय
राज्य उसे बेचने पर आमादा है. वे आदिवासियों को मुख्यधारा में लाना चाहते हैं और मुख्यधारा
कहते हुए एक ऐसे पवित्रता का बोध जोड़ा जाता है जहाँ सबको समनता दे दी गई हो. मुख्यधारा
क्या लोकतंत्र है, मुख्यधारा में क्या वह गुंजाइश है जहां एक आदिवासी अपने जीवनशैली
के साथ जीने का हक पा सके? यह ऐतिहासिकता का सच है कि विविधताएं समुदायगत रूप में यहाँ
बनी और उन विविधताओं ने भिन्न व्यवस्थाओं को निर्मित किया. प्रतिकार इसलिए है क्योंकि
एकरूपी व्यवस्था सब पर लागू नहीं की जा सकती. ऐसे में यदि अंग्रेजों के साथ जैसा सलूक
दंडकारण्य के आदिवासियों ने 1910 में या उससे पहले के विद्रोहों में किया वैसा ही सलूक
भारतीय राज्य के साथ करना क्या इसलिए ज्यादती माना लिया जाए क्योंकि यह स्थानीय शासकों
(भारतीय राज्य) का सलूक है? यह सोचना बेहद मुश्किल है. गैर आदिवासियों के द्वारा विकास
के जो माडल खड़े किए गए हैं यदि आदिवासी समुदाय उन्हें स्वीकार नहीं करते तो यह प्रतिकार
उनको स्वीकार नहीं होता. यह 47 के पहले की अंग्रेजीयत है जिसे गैर आदिवासी समुदाय आदिवासियों
पर थोपना चाहते हैं. यदि वे इसे स्वीकार न करें तो वे आतंकवादी हैं और यदि उनसे जबरन
स्वीकार करवाया जाए, उन पर हमले कर उन्हें विस्थापित होने को मजबूर किया जाए और वे
प्रतिकार करें, हमले के खिलाफ कार्यवाही करें तो यह लोकतंत्र पर हमला माना जाए. यदि
यह सब आतंकवाद है तो स्वतंत्रता संग्राम आतंकवादियों का संग्राम था. क्योंकि गैर समुदायों
के द्वारा शासन को पसंद न किए जाने और उसके खिलाफ वह एक स्व शासन की ही लड़ाई थी. इसलिए
एक बड़े वर्ग की मानसिकता 47 के बाद उस गुलामी की मानसिकता है जो भिन्न-भिन्न समुदायों,
राष्ट्रीयताओं को अपनी गुलामी में रखना चाहती है. वह खुद के वर्चस्व और एक विनाशकारी
व्यवस्था के लिए सिर्फ सहमति चाहती है, असहमति नहीं. जहाँ असहमति के लिए जगह न हो वह
लोकतंत्र नहीं हो सकता. जहां भिन्न समुदायों को उनकी जीवनशैली के साथ जीने का हक न
हो और दमन के साथ सब कुछ थोपा जा रहा हो उसे सहन करना और जीना मानवीय गरिमा के विरुद्ध
है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें