24 जून 2013

वरवर राव से बातचीत.

भाग-१ 

विश्व मीडिया में भारतीय मीडिया की जनोन्मुखता.

वरवर राव मूलतः तेलगू के कवि हैं. उनकी कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. दुनिया के क्रांतिकारी लेखकों में वरवर राव का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. ‘जन आंदोलन और मीडिया की भूमिका पर केन्द्रित यह साक्षात्कार सितारे हिन्द,गोपाल कुमार और आरळे श्रीकांत की बातचीत पर आधारित है. सभी हिन्दी एवं भारत अध्ययन विभाग अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं. इस पूरी बातचीत को क्रमवार दख़ल की दुनिया पर बयां पत्रिका से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है.

फोटो- दख़ल की दुनिया
वर्तमान समय में खासकर तीसरी दुनिया में जो जनान्दोलन चल रहे हैं, उनके बारे में मीडिया बता रहा है। यहाँ यह जनांदोलन के पक्ष में ही होता है। खासकर इराक के ऊपर अमेरिकी हमले के समय हो या आज तक। अल-जजीरा जो कि जनांदोलन के पक्ष में है उसे एक तरह से वैकल्पिक और पीपुल्स मीडिया कह सकते हैं। ‘द गार्जियन’ अख़बार का प्रकाशन चाहे अमेरिका से हो, चाहे लंदन से, वह थोड़ा-थोड़ा निष्पक्ष होता है लेकिन अगर वर्ग-संघर्ष की बात हो तो शायद उनकी पक्षधरता शासक-वर्ग के साथ ही होती है। जैसे बी.बी.सी. को भी निष्पक्ष माना जाता है मगर आजकल बी.बी.सी. भी वर्ग-संघर्ष की समस्या होने पर उतना निष्पक्ष नहीं रह पाता है। इंग्लैंड का ‘रूल्स ऑफ लॉ’ केवल इंग्लिश लोगों के लिए ही चलता है, आयरिश क्रांतिकारियों के लिए नहीं। फ्रांस कई क्रांतियों का केंद्र रहा है। अल्जीरिया उसका उपनिवेश था जहाँ फ्रांस ने अपने विरोध में चल रहे संघर्ष का दमन किया। 1968 में द गाल ने ज्यां पॉल सार्त्र और सीमोन द बउवार जैसे बुद्धिजीवियों के रहते हुए भी छात्रों के आन्दोलन को कुचल दिया।

आज स्थिति यह है कि इस्लाम को मानने वाले जितने भी देश हैं, जैसे- अफ़गानिस्तान, इराक, ईरान, सीरिया, फिलिस्तीन आदि। इन देशों में जब भी साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष होता है तो वहाँ विश्व-मीडिया की भूमिका निष्पक्ष नहीं होती है। विश्व-मीडिया ने एक मानसिकता भी बना रखी है कि इन देशों की संस्कृति ही पिछड़ी है। मीडिया हमेशा से ही यह प्रचार करती रही है कि इन देशों के लोग ‘कॉन्फ्लिक्ट्स सिविलियन्स’ हैं। आज विश्व-मीडिया हो या भारत की मीडिया, यह हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। मीडिया शुरुआत से ही एक उद्योग रही है और समय के साथ ही यह एक ‘मोर ऑफ द मोनोपोलस इंडस्ट्री का माउथ पीस’ रह गई है। 1955 के आंध्रा चुनाव के समय के तेलुगु अख़बार का संदर्भ देना यहाँ उचित ही रहेगा क्योंकि उसमें मीडिया के बारे में कहा गया है कि “This is the product of capitalism and that’s why all the stories which one is published also are fictitious. It itself is a poison’s daughter.” क्योंकि एक पूँजीपति ही अख़बार शुरू करता है तो वह आपको या लेखकों को ‘लोकतांत्रिक क्रिया-कलापों’ के लिए कितनी जगह देगा? वह उतनी ही जगह देगा जहाँ तक उसकी स्वार्थ-सिद्धि का अतिक्रमण न हो। एक उद्योगपति या ‘मास्टर ऑफ फैक्ट्री’ उसमें काम करने वाले मजदूरों को कितनी आजादी देगा? जैसा कि मार्क्स ने कहा है “आज काम करने के लिए रोटी, कल के मजदूर को पैदा करने के लिए भी रोटी, उससे ज्यादा क्या? और आजादी भी उतनी ही कि कल आकर वह फैक्ट्री में काम कर सके, जी सके।” उतनी ही आजादी आपको भी दे सकता है। हम यह भी देखते हैं कि एक फैक्ट्री-मालिक दूसरों, खासकर कम्युनिस्ट लोगों द्वारा ट्रेड यूनियन नहीं बनाए जाने पर खुद एक ट्रेड यूनियन बनाता है। तो जिस प्रकार एक पूँजीपति अपने लाभ का अतिक्रमण न होने तक ही आजादी देता है, वैसी ही आजादी अख़बारों में भी होती है। इस प्रकार अख़बार में एकाधिकार की प्रबलता दिखाई देती है।

हमारे भारत में देखा जाए तो अख़बार जूट मिलों के प्रचार के लिए शुरू हुआ था। देश-भर में अनेक जूट मिलों के मालिक गोयनका ने अपने जूट मिलों के प्रचार के लिए ‘इंडियन एक्सप्रेस’ नामक अख़बार की शुरुआत की जिसके बाद में बहुत-से संस्करण निकले। लगभग सौ साल पहले तेलुगु में काशीनाथुनि नागेश्वर राव ने बंबई से ‘आंध्र पत्रिका’ नामक अख़बार निकाला जिसका राष्ट्रीय आंदोलन में काफ़ी योगदान रहा। हम इसे तेलुगु मीडिया और तेलुगु साहित्य के लिए ‘देशोद्धारक’ मानते हैं। अब इसी नाम से प्रेस क्लब और प्रकाशन भी चल रहा है। इस पत्रिका में तेलुगु के जाने-माने लेखक लगातार लिखते आए हैं। 1920 से 1960 तक का लगभग विश्व-क्लासिक इसमें अनूदित होकर आया है। हम अपने बचपन से ही इस पत्रिका को पढ़ते आए हैं। इसके बारे में सौ साल पहले ही एक लेखक ने कहा था कि इसे ‘अमृतांजन’ के प्रचार के लिए शुरू किया गया। ‘अमृतांजन’ बनाने वाली एक कंपनी बंबई में है। इसमें एक व्यंग भी है कि अख़बार पढ़ते हुए सिरदर्द होता है, इसीलिए ‘अमृतांजन’ पीता है। इसमें पोलिटिकल इकोनॉमी यह है कि ‘अमृतांजन’ के प्रचार के लिए यह अख़बार शुरू किया गया।

आजकल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी आया है जिसमें कुछ गंभीर बातें भी होती हैं। मैंने एक बार उन्हें लिखा था समझो, बहुत अच्छे टेस्ट की फिल्में दिखाने वाले चैनल हैं। वे सत्यजीत रे की फिल्में दिखाते हैं या श्याम बेनेगल की लेकिन ये विज्ञापन के लिए अच्छी फिल्में दिखाते हैं। इसका उद्देश्य क्या है? हमें ऐसा लगता है कि वह एक अच्छी फिल्में बनाने वाला या दिखाने वाला चैनल है मगर ये फिल्मी चैनल अपने विज्ञापन दिखाने के लिए है और हमारी अभिरुचि सिनेमा देखने में। डिस्कवरी ऑफ इंडिया इसका उदाहरण है। नेशनल ज्योग्राफ़िक चैनल हो या डिस्कवरी चैनल, बहुत रोचक होते हैं। मगर ये चैनल हमे भूगोल पढ़ाने के लिए तो शुरू नहीं हुए हैं! अब इसलिए कि मीडिया को लाने के लिए पहली सीमा यह है कि इंडस्ट्री, वह भी मोनोपोली इंडस्ट्री, अपने प्रचार के लिए कोई भी अख़बार शुरू करती है। अब उसकी पोलिटिकल इकोनॉमी भी देखिए तो जाहिर होता है, बहुत से लोगों ने लिखा भी है कि आठ-दस पेज के अख़बार निकालने के लिए आज की स्थिति में 16 या 20 रुपए का खर्च आता है और चार-पांच रुपये में इसे बेचा जाता है। फिर ये दस रुपयों का जो नुकसान हो रहा है, वह कहाँ से पूरा हो रहा है? इसके लिए सरकार या प्राइवेट कंपनियाँ विज्ञापन देती हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया या हिन्दुस्तान टाइम्स देखिए। एक समय में टाइम्स ऑफ इंडिया के सोलह पब्लिकेशन होते थे। हम पढ़ते-लिखते थे क्योंकि अच्छी पत्रिका होती थी और ये निष्पक्ष लिखते थे। एक तरफ़ विज्ञापन, एक तरफ़ आलेख और समाचार और ‘फुली अल्टरनेटिव’, हिन्दुस्तान टाइम्स में देखिए। अब आपको एयरपोर्ट पर टिकट खरीदते समय टाइम्स ऑफ इंडिया या हिन्दुस्तान में पूरे विज्ञापन मिलेंगे। ये कहाँ से लेते हैं आप?

हमारा नाइट वाचमैन मर गया था, उसके ऊपर मैंने कविता लिखी है। उसके बारे में मैंने रुचि ली थी। वह दस दिनों में एक बार आकर देखता। “क्या है?” “ये पेपर है।” “यह सब!” दस दिन में एक पेपर बनता है! उसके मन में आया कि अंग्रेजी पेपर लेना है। अंग्रेजी पेपर इतना मोटा रहता है कि दस दिन में एक बनता है। अब यह देखिए कि कॉमन माइंड का कॉमन सेंस भी इतना रहता है कि इससे तो ज्यादा पैसा बनता है, इसीलिए इतना लेता है। यह बात मैंने कविता में भी लिखी है। जैसा कॉमन माइंड का स्टैंड ज्यूडिसियरी के लिए भी होता है। उसके बारे में कॉमन माइंड कहते हैं कि जो हारता है, वो कोर्ट में रोता है और जो जीतता है, वो घर आकर रोता है। वैसा ही मीडिया और अख़बार के बारे में भी एक कॉमन माइंड के लिए ठीक है। ‘अरे, ये तो कहानी लिखते हैं’, ‘और इतना मोटा पेपर क्या हो सकता है?’, यह फुली एडवरटाइजमेंट है, यह जन-सामान्य की भी समझ होती है। अब हमारे जिन लोगों का स्टेट्स बढ़ गया है उनका कहना है कि अब पेपर लेते ही इसलिए हैं कि कौन-से मॉल में कौन-सी चीज चीप मिलेगी? पेपर आते ही वो यही देखते हैं और खरीदने जाते हैं। हमारी तरह गंभीर और अर्थपूर्ण राजनीतिक ख़बर पढ़ने के लिए नहीं। आज आप देखिए, खासकर अंग्रेजी में द हिन्दू छोड़कर कोई भी अख़बार, न्यूज़ के लिए पढ़ने लायक होता है? वो भी जहाँ एकेडमिक डेवलपमेंट पॉलिसी की बात होती है। समझिए, कुडनकुलम हुआ है कल, कुडनकुलम के मुद्दे में मीडिया और सुप्रीम कोर्ट से लेकर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी तक सब इसे एक डेवलपमेंट प्रोग्राम समझते हैं और समर्थन देते हैं। इसे पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन प्राप्त है। आज की स्थिति में एक भी ऐसा अख़बार नहीं है जो इस तथाकथित विकासात्मक नीति और भूमंडलीकरण-नीति का समर्थन नहीं करता हो। नहीं तो मनमोहन सिंह की बुनियाद ही क्या है? मनमोहन सिंह की बुनियाद ही एक मिडिल क्लास इंटलेक्चुअल की बुनियाद पर बनी हुई है। कश्मीर का प्रसंग है, मैं परसों दिल्ली जाकर आया। एक सौ पचास लोग कश्मीर रैली से दिल्ली आए थे। उसमें दस हजार मिसिंग केसेज के लोग थे। जिनको फाँसी हुई है या जिन्हें आजीवन जेल हुआ है। मकबूल भट्ट की माँ थीं। एक और व्यक्ति जिसे आजीवन जेल की सजा हुई है, उसकी दो-तीन साल की बच्ची थी। अफ़जल गुरु की ‘डेड बॉडी’ की डिमांड थी। अच्छा, हमारा माइंड सेट भी देखिए आप! सरबजीत सिंह पाकिस्तान में मर जाता है। शायद उन्होंने मारा है। उसको फाँसी देना और बात है और मारना दूसरी बात! तो इसपर गुस्सा आता है हमारे लोगों को। इसी तरह की राय हम बनाकर रखते हैं देश-भक्ति के बारे में। आज की स्थिति में दूसरे देश पर आक्रमण करना ही देश-भक्ति है। राजकपूर ने एक फिल्म बनाई थी, ‘परदेशी’। फिल्म का नायक रूस जाकर आता है। फिल्म में एक देशी लड़की होती है, नरगिस। नायक उसको समझाता रहता है कि रूस में बहुत बर्फ़ गिरती है। आज हम हैदराबाद में रहकर मई महीने में कैसा महसूस करते हैं? नायिका पूछती है, ‘क्या होता है बरफ़?’ नायक के समझाने पर उसे समझ में आता है तो वह हँसती है। “अच्छा, ऐसा होता है बरफ़!” बोलने के बाद वह पूछती है, “तुम इतनी क्यों तारीफ़ कर रहे हो रूस की?” रूस की जनता बहुत प्रेम से देखती है रूस को, हम जैसे भारत को देखते हैं। देश-भक्ति ऐसी होती है। अपने देश के लिए जितना गुमान हमको होता है, उनके देश के लिए उतना गुमान उन लोगों को होता है। इसको हमें मानना है, यह देश-भक्ति है। हमें यह मानना चाहिए कि पाकिस्तान की जनता को पाकिस्तान के प्रति प्रेम है। परस्पर द्वेष नहीं होना चाहिए। तो खैर, उन्होंने मार डाला। एक तो फाँसी होने के कारण, दूसरा मार डालने के कारण बहुत गुस्सा आया। इतने गुस्से के बावजूद पाकिस्तान सरकार ने, जिसे हम लोकतंत्र नहीं मानते, उसने हमें डेड बॉडी दी, उनके परिवार वालों को दी। आपने क्या किया है अफ़जल गुरु के बारे में? आप लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं, (डेड बॉडी दे देते तो) क्या होता? आसमान तो नहीं गिरता उधर? सरबजीत की डेड बॉडी दे दी तो क्या हुआ? कश्मीर में क्या होता? हमें यह कहना है कि सरकार जो स्टैंड लेती है, मीडिया भी वही स्टैंड लेता है। पाकिस्तान की जेल में क्या हो रहा है, इतनी जाँच करने वाले मीडिया-बुद्धिजीवी क्या यह बताते हैं कि भारत की जेलें कैसी हैं? क्या किसी ने कभी जाँच की है? हम कमेटी फॉर द रिलीज ऑफ पोलिटिकल प्रिजनर्स की तरफ़ से देखें। कश्मीर से आए लोग अफजल गुरु की ‘डेड बॉडी’ माँग रहे हैं। यासीन मलिक तो फ्लाइट से आया था, उसे इन्क्वायरी करके फ्लाइट से वापस श्रीनगर भेज दिया और जो लोग बस से आए उन्हें एक टेंट हाउस में सी.आर.पी.एफ. ने रखा, उनको आने नहीं दिया और उन्हें जन्तर-मन्तर जाते समय गिरफ्तार किया। उनके समर्थन में हम प्रेस क्लब में कॉन्फ्रेंस करना चाहते थे तो प्रेस-कॉन्फ्रेंस रद्द करके वहाँ संघ परिवार के लोग आ गए। अब मीडिया जो आपसे पूछ रहा है, उसे लेकर आप समझ सकते हैं। यह हमारा अनुभव है। अब लोगों को गिरफ्तार करने के विरोध में असहमति प्रकट करने के लिए दस हजार रुपये बाँधकर, जो कि प्रेस क्लब का नियम है, हम प्रेस-कॉन्फ्रेंस करने गए। हमारे जाते ही दरवाजा बन्द कर दिया गया। अन्दर मीडिया वाले थे और बाहर दिल्ली पुलिस। एक तरफ़ बजरंग दल वाले, अलग-अलग संघ-परिवार के लोग और टोपी लगाए ‘आम आदमी’ के लोग नारे लगा रहे थे और हर एक हाथ में यासीन मलिक का फोटो लिए, ‘बलात्कारी यासीन मलिक’ बोलकर नारे लगा रहे थे। इसीलिए मैंने उनको ‘वन्दे मातरम पार्टी’, ‘भारत माता की जय पार्टी’ और ‘आम आदमी पार्टी’ कहा। तो वे नारे लगा रहे थे और हम अंदर गए। अंदर कहा गया कि प्रेस-कॉन्फ्रेंस तो रद्द कर दिया गया है। आप कैसे रद्द कर सकते हैं? आपके नियम के मुताबिक हमने रुपए दे दिए हैं। ये कैसा लोकतंत्र है?’ यही लोकतंत्र है? अरे, Media is supposed to be fourth pillar of the democracy. ओ! यही लोकतंत्र है। यह सच भी है क्योंकि लोकतंत्र के एक-एक स्तंभ का क्या हो रहा है, यह दिखाई दे रहा है। विधि- व्यवस्था की क्या हालत हो रही है? इसे कैसे अमल में लाया जा रहा है? न्याय-तंत्र की क्या हालत हो रही है? सबमें कितने घोटाले चल रहे हैं, दिखाई दे रहे हैं। आंध्रा में पाँच जज जेल में हैं। ऐसा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ठीक लोग हैं। यह बात आज से नहीं, जब भोपाल गैस ‘ट्रेजेडी’ हुई थी तो संबंधित कम्पनी में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के शेयर्स थे। वह कम्पनी एवरेडी बैटरी बनाने वाली एक मल्टीनेशनल कम्पनी है। ऐसा कौन-सा कॉरपोरेट सेक्टर है जहाँ जजों के शेयर्स न हों, राजनीतिज्ञों के शेयर्स न हों या ब्यूरोक्रेट्स के शेयर्स न हों? तभी तो मल्टीनेशनल कम्पनियाँ चैम्पियन बन गई हैं। 1984 का समय था। कहा गया कि ‘जिन लोगों के कम्पनी में शेयर्स नहीं हैं, वे जाँच में शामिल हो सकते हैं।’ तीन लोग यह कहकर पीछे हट गए कि ‘हमारे शेयर्स हैं।’ न्याय-तंत्र के साथ-साथ मीडिया की भी यही हालत हो गई है। यदि मीडिया के बारे में देखें तो खासकर वे लोग जो बड़े-बड़े एंकर्स हैं, कैसे पॉलिटीसियन्स और ब्यूरोक्रेट्स से संबंध रख कर, पैसे बना रहे हैं, सारी बातें बाहर आ रही है। मीडिया में खास बात यह है कि इसमें निहित स्वार्थ बहुत ज्यादा हो गया है। जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के अख़बार बेनेट कोलमेन कम्पनी के इंटरेस्ट के लिए चलते हैं। इसीलिए अरिंदम गोस्वामी इतनी बाउंसिंग बातें करता है। एक तरफ़ कोबाद गाँधी को दिखाया जाता है, भगत सिंह जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए। भगत सिंह के नारे लगाने वालों, इन्कलाब के नारे लगाने वालों को मीडिया आतंकवादी और राष्ट्र-विरोधी कहता है। हाँ, परसों उन्होंने मुझे भी कहा, ‘हम (प्रेस क्लब को) एंटी-नेशनलिस्ट को नहीं देते हैं।’ अरे, एंटी-नेशनलिस्ट तो एक जिद है, जिसे आप क्वालिफाई करते हो। लेकिन न्यूज पेपर, जिसे सरकार इनसर्जेंसी कहती है, वो इनसर्जेंट्स का भी इंटरव्यू लेता है। जा-जाकर प्रभाकरण का इंटरव्यू लिया है, जंगल में जा-जाकर गणपति का इंटरव्यू लिया है। आप खुद जा-जाकर सरकार जिन्हें इनसर्जेंट कहती है, उनका इंटरव्यू लेते हैं, हम आकर प्रेस-क्लब में कॉन्फ्रेंस करना चाहें तो हमको एंटी-नेशनल कहते हैं। मीडिया को राष्ट्रवादी या राष्ट्र-विरोधी नहीं होना चाहिए। Ever who are anti-national? You are supposed to unwed the press-conference. How they anti-nationals think? ऐसी स्थिति मीडिया की है। इसका कारण मीडिया की एक सीमा है और वह सीमा यह है कि मोनोपोलिस्ट्स का, कॉरपोरेट सेक्टर के निहित स्वार्थ को सर्व करने के लिए मीडिया आज है।

1 टिप्पणी:

  1. यह साक्षात्कार मेरी जानकारी में भारतीय मीडिया के संक्रमण के रहस्य की परतों को उजागर करनेवाला एक क्रन्तिकारी कवि का ऐतिहासिक वक्तव्य प्रमाणित होगा .सितारे हिंद ने इस साक्षात्कार के लिए बड़ी मशक्कत की है.सितारे के लिए साक्षात्कार की जिम्मेवारी को पूरा कर पाना बहुत कठिन हो रहा था और ऐसे में सितारे ने अपने सहपाठी गोपाल जी और श्रीकांत जी का सहयोग लिया .साक्षात्कार के सवाल तैयार करने,साक्षात्कार पूरा करने और उसे लिपिबद्ध करने में एक हफ्ते की मशक्कत की.मै इन त्रय साक्षात्कारकर्ता युवा शोधार्थिओं के प्रति आभार प्रकट करता हूँ कि इन्होने अपने पाठ्यक्रम से इतर के मुद्दे को तवज्जो दिया .चन्द्रिका जी आपने दखल की दुनिया में इस साक्षात्कार को क्रमवार प्रकाशित करने का फैसला लिया है .यह मेरे लिए सुखद है कि जिन तक बया की पहुँच नहीं है ,उनतक दखल की दुनिया से कोइ नई बात पहली बार पहुँच रही है .मुझे बया के अतिथि संपादक सत्यनारायण जी की सम्पादकीय नैतिकता पर आपत्ति है कि आपने बया के विशेषांक में प्रकाशित हो रहे सबसे महत्वपूर्ण साक्षात्कार को किसी सम्पादकीय टिपण्णी के बिना प्रकाशित किया.दूसरी भयानक गलती संपादक ने यह कर दी कि जिन गोपाल और श्रीकांत जी ने सितारे के नेतृत्व में किसी लोभ लालच के बिना (एक पैसे की भी पारिश्रमिक के शर्त के बिना )साक्षात्कार प्रक्रिया म कड़ी मेहनत की ,उन दो साथिओं का नाम बया में प्रकाशित साक्षात्कार से बाहर कर दिया गया .मैंने चन्द्रिका जी इसीलिए आपसे कहा था कि आप बया से साभार ना दें तो पत्रकारिता की आचारसंहिता का उलंघन नहीं होगा .मेरा अनुरोध है कि पत्रकारिता से जुड़े पत्रकार-संपादक , पत्रकारिता संस्थानों से जुड़े अध्यापक समूह,सचेतन नागरिक और हर तबके के संघर्षशील मेहनतकश आप इस साक्षात्कार को जरुर पढ़ लें.

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