इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली के
इस संपादकीय को पढ़िए और याद कीजिए कि हाल में किस पत्रिका या अखबार में
आपने इतना साहसिक और पक्षधर संपादकीय पढ़ा है. 25 मई को छत्तीसगढ़ में सलवा
जुडूम के कर्ता-धर्ता और इलाके में पहली बार अर्धसैनिक बलों की तैनाती
करने वाले नेताओं की हत्या के बाद जो बगुला भगती निंदा कोरस शुरू हुआ है,
उसे न सिर्फ इस संपादकीय में फटकार लगाई गई है, बल्कि एक उत्पीड़क राज्य
में उत्पीड़ित जनता के हिंसक क्रांतिकारी संघर्ष की जरूरत और औचित्य पर की
तरफ भी ध्यान दिलाया गया है. अनुवाद: रेयाज उल हक
माओवादी हिंसा के खिलाफ धर्मात्माओं जैसी नाराजगी का समूह गान (कोरस) फिर से शुरू हुआ है. व्यावसायिक मीडिया फिर से ‘वामपंथी उग्रवादियों’ के खून का प्यासा हो उठा है. ‘मानवाधिकार संगठन माओवादियों द्वारा छेड़े गए आतंक की निंदा क्यों नहीं कर रहे हैं?’ एक टीवी न्यूज एंकर चिल्लाया. ‘माओवादी आतंक के खिलाफ सरकार की लड़ाई पटरी से क्यों उतरी?’ दूसरा चीखा. अपने स्टूडियो के महफूज माहौल में टीवी पर बड़ी-बड़ी तोपें दगती रही हैं! वे माओवादी छापामारों के एक कामयाब एंबुश को पचा नहीं सकते हैं. ‘यह ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिए एक बड़ा धक्का है’ (ऑपरेशन ग्रीन हंट माओवाद विरोधी, विद्रोह के खिलाफ एक अभियान है). ‘क्या ग्रीन हंट को ऊपर से नीचे तक बदल कर इसे तेज नहीं किया जाना चाहिए?’ या इससे भी आगे, ‘बस्तर के मोर्चे पर क्या फौज की तैनाती नहीं की जानी चाहिए?’ हमें ऐसी उन्मादी लहर में बह जाने के बजाए शायद सबसे पहले जो हुआ उसे उसके उचित परिप्रेक्ष्य में रखना चाहिए और फिर उस पर गौर करना चाहिए.
25 मई को अपने अमले और जेड-प्लस तथा सुरक्षाबलों की ऐसी ही दूसरी श्रेणियों के साथ जा रहे छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेताओं के काफिले पर माओवादी छापामारों के हमले ने रायपुर और नई दिल्ली में राज्य मशीनरी को हिला दिया. इस हमले का निशाना राज्य में कांग्रेस के मुखिया और राज्य के एक पूर्व गृह मंत्री नंद कुमार पटेल और राज्य प्रायोजित हथियारबंद निजी हत्यारे गिरोह सलवा जुडूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा थे. हत्याएं मौके पर ही की गईं और दो घंटों की लड़ाई में काफिले के साथ चल रहे राज्य के सुरक्षाकर्मी छापामारों के मुकाबले में कहीं नहीं ठहर सके. काफिला दक्षिणी छत्तीसगढ़ में बस्तर क्षेत्र में सुकमा की परिवर्तन यात्रा से लौट रहा था और माओवादी न केवल यह जानते थे कि काफिले में कर्मा और पटेल थे बल्कि उन्हें इसके रूट की भी जानकारी थी.
ऐसा लगता है कि कांग्रेस और अधिक केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को भेज कर ऑपरेशन ग्रीन हंट को तेज करने पर आमादा है. हालांकि राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार को माओवादियों के साथ बातचीत शुरू करने का सुझाव दिया है. इस पर गौर किया जाना चाहिए कि माओवादी हमेशा बातचीत के लिए तैयार रहे हैं, भले ही उन्होंने इस पर जोर दिया हो कि वे ताकत का इस्तेमाल करना नहीं छोड़ेंगे. इसके बावजूद, भाजपा आगे दिखने की कोशिश में चाहे जो सुझाए, कांग्रेस यकीनन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के इस बयान से खुश होगी जिसमें ‘इस माओवादी तबाहियों’ के खात्मे के लिए ‘कड़ी कार्रवाई’ की मांग की गई है और ‘माओवादियों द्वारा हिंसा की राजनीति से लड़ने के लिए सभी लोकतांत्रिक ताकतों’ से अपील की गई है.
हम माओवादी हिंसा के खिलाफ इस धर्मात्माओं जैसी नाराजगी के कोरस में शामिल होने से इन्कार करते हैं. क्यों? पीड़ित जनता इन तथाकथित आतंकवाद-विरोधियों से रग रग से वाकिफ है, चाहे वो उत्तरी छत्तीसगढ़ के साधारण आदिवासी हों या गुजरात के मुसलमान हों. ये तथाकथित आतंकवाद-विरोधी एक ऐसे आतंकवाद के अपराधी हैं जो ‘मानवता के खिलाफ जुर्म’ के दायरे में आता है. उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने ‘सुरक्षा-संबंधी खर्च’ को मंजूरी दी है, जिससे सलवा जुडूम को पैसा मिला. राज्य की भाजपा सरकार ने अपनी भूमिका निभाते हुए आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के शिविरों के लिए निर्धारित पैसे को सलवा जुडूम नेताओं को सौंप दिया. और खनन कंपनियों ने सलवा जुडूम के युद्ध सरदारों के साथ ‘सुरक्षा और ‘जमीन को खाली कराने’ की सेवाओं’ के लिए करार किए. महेंद्र कर्मा ने जिस सलवा जुडूम का नेतृत्व किया वो ‘स्थानीय उभार की ओट में जमीन और सत्ता की लूट’ थी, जैसा कि डाइलेक्टिकल एंथ्रोपोलॉजी नामक जर्नल में लिखते हुए जेसन मिकलियन ने इसे बताया है (33, 2009, पृ. 456).
छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा, बस्तर और बीजापुर जिलों में खनिज संपदा से भरपूर इलाके में कॉरपोरेशनों द्वारा बड़े पैमाने के जमीन के अधिग्रहण के संदर्भ में पूरे के पूरे गांव खाली करा दिए गए और गांव वालों को जबरन शिविरों में हांक कर ले जाया गया. इन शिविरों से जो लोग भाग गए उन्हें माओवादी करार दिया गया और उनको निशाना बनाया गया. असल में सलवा जुडूम, जिसने गांवों को खाली करना और जबरन लोगों को शिविरों में ले आने को संगठित किया, ‘(राज्य) सरकार द्वारा गठित और प्रोत्साहित किया गया था और उसे केंद्र सरकार द्वारा आग्नेयास्त्र और सांगठनिक सहायता दी गई थी.’ नहीं. यह उद्धरण इस देश के नागरिक स्वतंत्रता और जनवादी अधिकारों वाले संगठनों में से किसी की रिपोर्ट से नहीं लिया गया है, बल्कि इसे 2009 की उस मसौदा रिपोर्ट के अध्याय 4 से लिया गया है, जिसे कमेटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशन एंड अनफिनिश्ड टास्क ऑफ लैंड रिफॉर्म्स के सब ग्रुप चार ने लिखा था. यह कमेटी ग्रामीण विकास मंत्रालय, नई दिल्ली ने गठित की थी. बिना शब्दों को हल्का किए हुए, यह रिपोर्ट ‘कोलंबस के बाद सबसे बड़ी आदिवासी भूमि लूट’ का जिक्र करती है जिसकी शुरुआती पटकथा ‘टाटा स्टील और एस्सार स्टील ने लिखी जिनमें से हरेक कंपनी सात गांव और उनके आस पास की जमीन चाहती थी ताकि भारत में उपलब्ध लौह अयस्क के सबसे समृद्ध भंडार का खनन कर सके.’
जून 2005 से लेकर इसके बाद के करीब आठ महीने सलवा जुडूम द्वारा की गई तबाही के गवाह रहे, जिसमें राज्य के सुरक्षा बलों में भी मदद की- इसमें सैकड़ों आम गोंडी किसानों की हत्या की गई, सैकड़ों गांवों को तबाह कर दिया गया और लोगों को जबरदस्ती शिविरों में ले जाया गया, महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की गई, खेती की जमीनों के बहुत बड़े टुकड़े परती पड़े रहे, छोटे-मोटे वन उत्पादों को जमा करने का काम पूरा ठप पड़ गया, साप्ताहिक हाटों तक आना-जाना रुक गया, स्कूल पुलिस कैंपों में बदल दिए गए और जनता के अधिकारों पर पूरी तरह कुचल दिया गया. जब माओवादियों ने भूमकाल मिलिशिया बनाई और उनकी पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी ने ‘रणनीतिक पलटवार अभियान’ (टैक्टिकल काउंटर-ऑफेंसिव कैंपेन) के सिलसिले की शुरुआत की, तब कहीं जाकर भारतीय राज्य ने विद्रोह के खिलाफ अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना शुरू किया. तब इसने सितंबर 2009 में ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू किया, जो तब से चल रहा है और इस साल जनवरी से तेज हुआ है, इसकी आखिरी मुख्य घटना बीजापुर जिले में 17 मई को एडेसमेटा गांव की रात में घटी, जहां सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स के कमांडो बटालियन फॉर रिजॉल्यूट एक्शन के कर्मियों ने एकतरफा और अंधाधुंध गोलीबारी करके आठ आम आदिवासियों की हत्या कर दी, जिसमें चार नाबालिग शामिल हैं. इनमें से कोई भी माओवादी नहीं था.
माओवादी हिंसा के खिलाफ धर्मात्माओं वाली नाराजगी का यह कोरस कहां था, जब सलवा जुडूम मानवता के खिलाफ अपराध कर रहा था और जब ऑपरेशन ग्रीन हंट भी ठीक यही काम कर रहा था (और कर रहा है)? हम जानते हैं कि एक उचित राजनीतिक व्यवहार क्या होता है, और इस समूह गान के नेताओं से यकीनन कहीं अधिक अच्छे से जानते हैं. लेकिन जो हुआ उसका हमने उसका विश्लेषण किया, लेकिन अपने संदर्भों में और अपने मकसद के लिए. चूंकि अब तक सामने आई सूचनाएं आधी-अधूरी हैं, तो हम इस वक्त अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि कुछ सवाल पूछे जाएं. जिन संदर्भों और हालात का खाका हमने पेश किया है उनमें, और इस तथ्य की रोशनी में कि संविधान और कानून पीड़ितों को इंसाफ दिलाने में नाकाम रहे हैं, माओवादियों के नेतृत्व में उत्पीड़ितों की यह हिंसा क्या एक जरूरत नहीं थी? क्या इसने इंसाफ के मकसद को पूरा नहीं किया है? क्या यह नैतिक रूप से जायज नहीं था? क्या उत्पीड़ितों के पास उस हिंसा को चुनौती देने का कोई दूसरा रास्ता भी बच गया था, जो उनके उत्पीड़न को मुमकिन बनाता है और उसे कायम रखता है? लेकिन उत्पीड़ितों की हिंसा के उस पहलू के बारे में क्या, जो अमानवीय बनाता है? क्या क्रांतिकारियों को अपनी तैनाती को कुछ निश्चित सीमित शर्तों के तहत नहीं ले आना चाहिए, जैसे कि जेवेना सम्मेलन के कॉमन आर्टिकल 3 और प्रोटोकॉल दो, जो कि गैर-अंतरराष्ट्रीय हथियारबंद विवादों से जुड़े हुए हैं? क्रूरता और निर्ममता क्रांति के साधनों का हिस्सा कभी नहीं बनने चाहिए.
25 मई का माओवादी छापामार हमला उत्पीड़ितों की हिंसा की व्यापक परिघटना का एक टुकड़ा है, जो हमेशा ही उत्पीड़कों की हिंसा से पैदा होता है.
तस्वीर: चंद्रिका. कुछ और तस्वीरें देखने के लिए यहां क्लिक करें (फेसबुक लिंक)
माओवादी हिंसा के खिलाफ धर्मात्माओं जैसी नाराजगी का समूह गान (कोरस) फिर से शुरू हुआ है. व्यावसायिक मीडिया फिर से ‘वामपंथी उग्रवादियों’ के खून का प्यासा हो उठा है. ‘मानवाधिकार संगठन माओवादियों द्वारा छेड़े गए आतंक की निंदा क्यों नहीं कर रहे हैं?’ एक टीवी न्यूज एंकर चिल्लाया. ‘माओवादी आतंक के खिलाफ सरकार की लड़ाई पटरी से क्यों उतरी?’ दूसरा चीखा. अपने स्टूडियो के महफूज माहौल में टीवी पर बड़ी-बड़ी तोपें दगती रही हैं! वे माओवादी छापामारों के एक कामयाब एंबुश को पचा नहीं सकते हैं. ‘यह ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिए एक बड़ा धक्का है’ (ऑपरेशन ग्रीन हंट माओवाद विरोधी, विद्रोह के खिलाफ एक अभियान है). ‘क्या ग्रीन हंट को ऊपर से नीचे तक बदल कर इसे तेज नहीं किया जाना चाहिए?’ या इससे भी आगे, ‘बस्तर के मोर्चे पर क्या फौज की तैनाती नहीं की जानी चाहिए?’ हमें ऐसी उन्मादी लहर में बह जाने के बजाए शायद सबसे पहले जो हुआ उसे उसके उचित परिप्रेक्ष्य में रखना चाहिए और फिर उस पर गौर करना चाहिए.
25 मई को अपने अमले और जेड-प्लस तथा सुरक्षाबलों की ऐसी ही दूसरी श्रेणियों के साथ जा रहे छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेताओं के काफिले पर माओवादी छापामारों के हमले ने रायपुर और नई दिल्ली में राज्य मशीनरी को हिला दिया. इस हमले का निशाना राज्य में कांग्रेस के मुखिया और राज्य के एक पूर्व गृह मंत्री नंद कुमार पटेल और राज्य प्रायोजित हथियारबंद निजी हत्यारे गिरोह सलवा जुडूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा थे. हत्याएं मौके पर ही की गईं और दो घंटों की लड़ाई में काफिले के साथ चल रहे राज्य के सुरक्षाकर्मी छापामारों के मुकाबले में कहीं नहीं ठहर सके. काफिला दक्षिणी छत्तीसगढ़ में बस्तर क्षेत्र में सुकमा की परिवर्तन यात्रा से लौट रहा था और माओवादी न केवल यह जानते थे कि काफिले में कर्मा और पटेल थे बल्कि उन्हें इसके रूट की भी जानकारी थी.
ऐसा लगता है कि कांग्रेस और अधिक केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को भेज कर ऑपरेशन ग्रीन हंट को तेज करने पर आमादा है. हालांकि राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार को माओवादियों के साथ बातचीत शुरू करने का सुझाव दिया है. इस पर गौर किया जाना चाहिए कि माओवादी हमेशा बातचीत के लिए तैयार रहे हैं, भले ही उन्होंने इस पर जोर दिया हो कि वे ताकत का इस्तेमाल करना नहीं छोड़ेंगे. इसके बावजूद, भाजपा आगे दिखने की कोशिश में चाहे जो सुझाए, कांग्रेस यकीनन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के इस बयान से खुश होगी जिसमें ‘इस माओवादी तबाहियों’ के खात्मे के लिए ‘कड़ी कार्रवाई’ की मांग की गई है और ‘माओवादियों द्वारा हिंसा की राजनीति से लड़ने के लिए सभी लोकतांत्रिक ताकतों’ से अपील की गई है.
हम माओवादी हिंसा के खिलाफ इस धर्मात्माओं जैसी नाराजगी के कोरस में शामिल होने से इन्कार करते हैं. क्यों? पीड़ित जनता इन तथाकथित आतंकवाद-विरोधियों से रग रग से वाकिफ है, चाहे वो उत्तरी छत्तीसगढ़ के साधारण आदिवासी हों या गुजरात के मुसलमान हों. ये तथाकथित आतंकवाद-विरोधी एक ऐसे आतंकवाद के अपराधी हैं जो ‘मानवता के खिलाफ जुर्म’ के दायरे में आता है. उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने ‘सुरक्षा-संबंधी खर्च’ को मंजूरी दी है, जिससे सलवा जुडूम को पैसा मिला. राज्य की भाजपा सरकार ने अपनी भूमिका निभाते हुए आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के शिविरों के लिए निर्धारित पैसे को सलवा जुडूम नेताओं को सौंप दिया. और खनन कंपनियों ने सलवा जुडूम के युद्ध सरदारों के साथ ‘सुरक्षा और ‘जमीन को खाली कराने’ की सेवाओं’ के लिए करार किए. महेंद्र कर्मा ने जिस सलवा जुडूम का नेतृत्व किया वो ‘स्थानीय उभार की ओट में जमीन और सत्ता की लूट’ थी, जैसा कि डाइलेक्टिकल एंथ्रोपोलॉजी नामक जर्नल में लिखते हुए जेसन मिकलियन ने इसे बताया है (33, 2009, पृ. 456).
छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा, बस्तर और बीजापुर जिलों में खनिज संपदा से भरपूर इलाके में कॉरपोरेशनों द्वारा बड़े पैमाने के जमीन के अधिग्रहण के संदर्भ में पूरे के पूरे गांव खाली करा दिए गए और गांव वालों को जबरन शिविरों में हांक कर ले जाया गया. इन शिविरों से जो लोग भाग गए उन्हें माओवादी करार दिया गया और उनको निशाना बनाया गया. असल में सलवा जुडूम, जिसने गांवों को खाली करना और जबरन लोगों को शिविरों में ले आने को संगठित किया, ‘(राज्य) सरकार द्वारा गठित और प्रोत्साहित किया गया था और उसे केंद्र सरकार द्वारा आग्नेयास्त्र और सांगठनिक सहायता दी गई थी.’ नहीं. यह उद्धरण इस देश के नागरिक स्वतंत्रता और जनवादी अधिकारों वाले संगठनों में से किसी की रिपोर्ट से नहीं लिया गया है, बल्कि इसे 2009 की उस मसौदा रिपोर्ट के अध्याय 4 से लिया गया है, जिसे कमेटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशन एंड अनफिनिश्ड टास्क ऑफ लैंड रिफॉर्म्स के सब ग्रुप चार ने लिखा था. यह कमेटी ग्रामीण विकास मंत्रालय, नई दिल्ली ने गठित की थी. बिना शब्दों को हल्का किए हुए, यह रिपोर्ट ‘कोलंबस के बाद सबसे बड़ी आदिवासी भूमि लूट’ का जिक्र करती है जिसकी शुरुआती पटकथा ‘टाटा स्टील और एस्सार स्टील ने लिखी जिनमें से हरेक कंपनी सात गांव और उनके आस पास की जमीन चाहती थी ताकि भारत में उपलब्ध लौह अयस्क के सबसे समृद्ध भंडार का खनन कर सके.’
जून 2005 से लेकर इसके बाद के करीब आठ महीने सलवा जुडूम द्वारा की गई तबाही के गवाह रहे, जिसमें राज्य के सुरक्षा बलों में भी मदद की- इसमें सैकड़ों आम गोंडी किसानों की हत्या की गई, सैकड़ों गांवों को तबाह कर दिया गया और लोगों को जबरदस्ती शिविरों में ले जाया गया, महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की गई, खेती की जमीनों के बहुत बड़े टुकड़े परती पड़े रहे, छोटे-मोटे वन उत्पादों को जमा करने का काम पूरा ठप पड़ गया, साप्ताहिक हाटों तक आना-जाना रुक गया, स्कूल पुलिस कैंपों में बदल दिए गए और जनता के अधिकारों पर पूरी तरह कुचल दिया गया. जब माओवादियों ने भूमकाल मिलिशिया बनाई और उनकी पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी ने ‘रणनीतिक पलटवार अभियान’ (टैक्टिकल काउंटर-ऑफेंसिव कैंपेन) के सिलसिले की शुरुआत की, तब कहीं जाकर भारतीय राज्य ने विद्रोह के खिलाफ अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना शुरू किया. तब इसने सितंबर 2009 में ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू किया, जो तब से चल रहा है और इस साल जनवरी से तेज हुआ है, इसकी आखिरी मुख्य घटना बीजापुर जिले में 17 मई को एडेसमेटा गांव की रात में घटी, जहां सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स के कमांडो बटालियन फॉर रिजॉल्यूट एक्शन के कर्मियों ने एकतरफा और अंधाधुंध गोलीबारी करके आठ आम आदिवासियों की हत्या कर दी, जिसमें चार नाबालिग शामिल हैं. इनमें से कोई भी माओवादी नहीं था.
माओवादी हिंसा के खिलाफ धर्मात्माओं वाली नाराजगी का यह कोरस कहां था, जब सलवा जुडूम मानवता के खिलाफ अपराध कर रहा था और जब ऑपरेशन ग्रीन हंट भी ठीक यही काम कर रहा था (और कर रहा है)? हम जानते हैं कि एक उचित राजनीतिक व्यवहार क्या होता है, और इस समूह गान के नेताओं से यकीनन कहीं अधिक अच्छे से जानते हैं. लेकिन जो हुआ उसका हमने उसका विश्लेषण किया, लेकिन अपने संदर्भों में और अपने मकसद के लिए. चूंकि अब तक सामने आई सूचनाएं आधी-अधूरी हैं, तो हम इस वक्त अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि कुछ सवाल पूछे जाएं. जिन संदर्भों और हालात का खाका हमने पेश किया है उनमें, और इस तथ्य की रोशनी में कि संविधान और कानून पीड़ितों को इंसाफ दिलाने में नाकाम रहे हैं, माओवादियों के नेतृत्व में उत्पीड़ितों की यह हिंसा क्या एक जरूरत नहीं थी? क्या इसने इंसाफ के मकसद को पूरा नहीं किया है? क्या यह नैतिक रूप से जायज नहीं था? क्या उत्पीड़ितों के पास उस हिंसा को चुनौती देने का कोई दूसरा रास्ता भी बच गया था, जो उनके उत्पीड़न को मुमकिन बनाता है और उसे कायम रखता है? लेकिन उत्पीड़ितों की हिंसा के उस पहलू के बारे में क्या, जो अमानवीय बनाता है? क्या क्रांतिकारियों को अपनी तैनाती को कुछ निश्चित सीमित शर्तों के तहत नहीं ले आना चाहिए, जैसे कि जेवेना सम्मेलन के कॉमन आर्टिकल 3 और प्रोटोकॉल दो, जो कि गैर-अंतरराष्ट्रीय हथियारबंद विवादों से जुड़े हुए हैं? क्रूरता और निर्ममता क्रांति के साधनों का हिस्सा कभी नहीं बनने चाहिए.
25 मई का माओवादी छापामार हमला उत्पीड़ितों की हिंसा की व्यापक परिघटना का एक टुकड़ा है, जो हमेशा ही उत्पीड़कों की हिंसा से पैदा होता है.
तस्वीर: चंद्रिका. कुछ और तस्वीरें देखने के लिए यहां क्लिक करें (फेसबुक लिंक)
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