माओवादियों
के वार्ताकार होने के आधार पर आप तब कैसा महसूस करते हैं जब मीडिया माओवाद को ‘आंतरिक
आतंकवाद’ और ‘देश के लिए बड़े खतरे’ जैसा कहता है?
मीडिया
तो वैसे ही बनाता है। ये नहीं कि मनमोहन सिंह ने कहा है इसीलिए मैं...। रोजाना मीडिया
वही प्रचार कर रहा है और उसे मानने के लिए भी मिडिल शासक तैयार हैं। ऐसी स्थिति बनी
है, इसीलिए समस्या हो रही है लेकिन अब एक अंतर आ गया है। ग्रास-रूट लेवल पर जो संघर्ष
कर रहे हैं, आदिवासी लोग हैं, दलित लोग हैं, किसान-मजदूर लोग हैं, वे अपने लिए, अपने
साथ रहकर काम करने वाले माओवादी क्या कर रहे हैं, ये समझ गए हैं। वे मीडिया पर निर्भर
नहीं हैं उनके बारे में समझने के लिए। जो टाउन्स में, अर्बन्स में रहने वाले मिडिल-क्लास
लोग हैं, उनको तो सही पहचान माओवादियों के बारे में नहीं हो रही है, यह एक बड़ी समस्या
है क्योंकि 1857 से लेकर आज तक हम देखते हैं कि संघर्ष करने वाले किसान-मजदूरों को
बुद्धिजीवियों का समर्थन मिल रहा था क्योंकि उसे मालूम होता था कि ग्रास-रूट लेवल पर
क्या हो रहा है। आज ऐसा नहीं है। अगर है भी तो दूसरी बात है कि आज बुद्धिजीवियों को
खरीद लिया गया है। कॉरपोरेट सेक्टर ने उन्हें खरीद लिया है। पहले गाँव में जब टीचर
होते थे, उनका बहुत ही कम वेतन हुआ करता था। वेतन न हो तो गाँव की जनता के ऊपर निर्भर
होकर बच्चों को पढ़ाते थे। यानी, वे जनता के साथ रहते थे। आज स्थिति बदल गई है। आज
टीचर को, प्रोफेसर को एक लाख रुपए वेतन मिलता है और पढ़ाने की कोई जिम्मेदारी भी नहीं
है। तो क्या अपेक्षा करते हैं? क्योंकि बात यहाँ तक आ गई बुद्धिजीवी के लिए कि अब वे
चेतना से जनता के पक्ष को रख सकते हैं, स्थिति से जनता के पक्ष नहीं रख सकते। स्थिति
बहुत बदल गई है, हमारी लाइफ़-स्टाइल बहुत बदल गई है। हर तरफ़ से टैक्स मिल रहा है।
घर आकर कार देता है, बाद में इंस्टॉलमेंट में कीमत लेता है। टी.वी. देता है। सभी उपकरण
जो मनोरंजन के, रहने के हैं, आपके घर में आ जाते हैं, इंस्टॉलमेंट में ले सकते हैं
और सरकार भी बहुत बड़े पैमाने पर आपको वेतन देती है। यह सहूलियत सॉफ्टवेयर में है,
यूनीवर्सिटीज में है, हर जगह है, आपको जनता से अलग करने के लिए। ऐसी स्थिति में आप
जनता का पक्ष लेने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि आपकी वैसी स्थिति नहीं है। भूख को
महसूस करने की स्थिति ही नहीं है आपकी। भूखी पीढ़ी का पक्ष कैसे रख सकते हैं? चेतना
से रख सकते हैं, कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है। अब कितने लोग हो सकते हैं जो अपनी चेतना
को...। आज देखिए न, एक विरोधाभास है, आदिवासी लोग जंगल में रहते हैं और हमारी जो ये
पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी है, ये तो नंबर से बनने वाली है। अब एक नंबर से बनने वाली
पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी, जिसे मेजोरिटी डेमोक्रेसी कहते हैं। इस मेजोरिटी डेमोक्रेसी
में आठ-दस प्रतिशत रहने वाले आदिवासियों की चेतना डिसाइड नहीं करती तो कौन-सी बात डिसाइड
कर सकती है क्योंकि मैंने केरल जाकर देखा था, वहाँ चार प्रतिशत ही आदिवासी लोग हैं।
1970 से लेकर नब्बे के दशक तक जनता के लिए लिखने वाला, एक बड़ा मशहूर लोक-साहित्य का
कवि, रामाकृष्णा मिनिस्टर बन गया। बहुत ही अच्छी तरह आदिवासियों के लिए लिखा। मैंने
उनसे पूछा, ‘यह नेशनल पार्क क्यों बनवाया? आदिवासी महिला के ऊपर इतना क्यों हमला हो
रहा है? यहाँ की जो जाति है, जिसका नाम कुछ है, जो एंटी नेशनल पार्क स्ट्रगल चलाया
है।’ कहा, “नहीं-नहीं, जमाना बदल गया है।” “नहीं-नहीं, जमाना नहीं बदला, तुम बदल गये
हो।” और एसेम्बली में बैठकर रेजोल्यूशन करते हैं एंटी-आदिवासी क्योंकि पूरे गैर-आदिवासी
लोग हैं। वे डिसाइड कर रहे हैं। इसीलिए तो मेरा कहना है कि बात (आदिवासियों के संबंध
में) ज्यादा लोग पूछ रहे हैं, ऐसा नहीं होता है। अब सोम पेटा हुआ है। वहाँ समस्या खासकर
किसके लिए आ रही है? फिशरमैन (मछुआरों) के लिए आ रही है, किसानों के लिए आ रही है।
श्रीकाकुलम जिले की आबादी में वे लोग माइनॉरिटी (अल्पसंख्यक) ही हो सकते हैं और उनकी
जिंदगी खत्म हो रही है। ये संख्या से निश्चय करते हैं या न्याय-अन्याय से डिसाइड करते
हैं? महाभारत में जब पांडव जंगल में जा रहे होते हैं तो द्रौपदी उनके साथ जाती है,
कुन्ती नहीं जा पाती। तो कुन्ती द्रौपदी से एक बात कहती है – “सुनो! अब तो बारह साल
के लिए इन लोगों की तुम्हीं देखभाल कर लेना। ये युधिष्ठिर है, बड़ा है, तुम्हारे मन
में भी उसके लिए सम्मान है। पकाने और खिलाने के समय तुम यह बात मन में रखती हो, मुझे
बताने की जरूरत नहीं। भीम है, वो तो छीन लेता है, उसके बारे में भी कुछ कहने की जरूरत
नहीं। अर्जुन है, उसके लिए तुम्हारे मन में प्रेम है। इन तीनों के बारे में कुछ भी
कहने की जरूरत नहीं पर ये जो नकुल-सहदेव हैं, छोटे बच्चे हैं। ये पूछते नहीं, ये मुँह
से कहते नहीं हैं। इनके बारे में सोचो।” यानी oppressed of oppressed के बारे में,
जिसे न्याय मिलना है, उसके बारे में सोचो। यानी आज की डेमोक्रेसी की एक परिभाषा यह
होनी चाहिए कि एक्सप्रेशन मे कौन-से लोग Oppressed हैं? उनको क्या मिलना चाहिए? आदिवासियों
में भी बंजारों को बहुत कुछ मिल रहा है लेकिन कोया, गोंड, इन लोगों को क्या मिल रहा
है? दलितों में भी माला (मेहतर) जैसी जाति को मिल रहा है, लेकिन मादिगा (चमार), को
क्या मिल रहा है? डक्करी को क्या मिल रहा है? सब-कास्ट को क्या मिल रहा है? यह सोचना
ही डेमोक्रेसी होती है, न्याय होता है। ये सब चेतना से डिसाइड कर सकते हैं मगर मेजोरिटी-माइनॉरिटी,
ये जो पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी की बातें हैं, उससे तो नहीं हो सकता।
माओवाद-नक्सल
आन्दोलन और आदिवासी उन्मूलन के सन्दर्भ में क्या भारतीय मीडिया का नजरिया बदलना चाहिए?
बदलना
तो चाहिए ही लेकिन भारतीय मीडिया के सेल्फ इंटरेस्ट से तो समस्या आती है। उसका इंटरेस्ट
तो है ही मगर उससे ज्यादा क्या चाहेगा? जन-आंदोलन को अपना मीडिया बनाना है, एक वैकल्पिक
मीडिया बनाना चाहिए, जनता का मीडिया बनाना चाहिए और वह ग्रास-रूट लेवल से बनती आनी
चाहिए क्योंकि समझिए, आपने एक ग्लास हाउस (शीशे का घर) बना लिया है। अब ग्लास हाउस
के ऊपर पत्थर डालने वाले लोगों की हिफ़ाजत के लिए ग्लास हाउस में रहने वाले तो काम
नहीं करते। तो ग्लास हाउस पर पत्थर डालने वाले लोगों के लिए एक अलग मीडिया बननी है।
तो जैसा (सत्यजीत राय की फिल्म) प्रतिद्वंद्वी में एक कैरेक्टर कहता है कि “सिर्फ बम
डालना ही नहीं है, अपना बम तुमको ही बनाना है।” तो क्रांति करने वाले जैसे क्रांति
के लिए अपने आप शस्त्र बनाते हैं या पुलिस-स्टेशन पर हमला करके छीन लेते हैं, वैसे
ही अपना मीडिया भी खुद बना लेना है या जनांदोलन के प्रभाव से मीडिया के ऊपर दबाव लाकर
अपनी बातें रखने के लिए उसके ऊपर दबाव डालना है। जब दबाव बनता है, जैसे 2004 में जब
दबाव बना तो हमारी ख़बरें दी गईं। जब दबाव नहीं बनता है, तो हमारी ख़बरें नहीं दी जाती
हैं। जैसा मार्क्स ने भी कहा है कि केवल जल-जंगल-जमीन की मुक्ति नहीं, अपनी भाषा और
अपनी संस्कृति को भी मुक्त करना है Judges are to be judged, prosecutors are to
be prosecuted. वह होना है। उसके लिए अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को हमें मुक्त करना
है। इसे करने के लिए वैकल्पिक मीडिया बनाना है, वैकल्पिक पीपुल्स मीडिया बनाना है,
वैकल्पिक भाषा को बनाना है, वैकल्पिक संस्कृति को बनाना है। आज ‘वैकल्पिक’ नहीं हो
सकता है, वो ‘पीपुल्स’ (जनता का) ही होना चाहिए। मगर उस पर आक्रमण हो रहा है। उसे इस
आक्रमण से मुक्त करके हमें जनता के हित में करना है।
क्या
तेलुगु, तमिल, मलयालम, बंगला जैसी भाषाई पत्रकारिता ज्यादा जनपक्षीय भूमिका निभाती
है?
क्रांति
की स्थिति बहुत आगे रही तो मजबूरन उसका पक्ष लेते हैं, वैसी नहीं रही तो पक्ष नहीं
लेते। दूसरी तरफ़ जितनी अंग्रेजी, हिन्दी भाषाओं का निहित स्वार्थ है उतना निहित स्वार्थ
नहीं रहे तो थोड़ा बचते हैं। समझिए, दैनिक भास्कर है। दैनिक भास्कर की छत्तीसगढ़ में
बहुत सी कोयले की कंपनियाँ हैं तो उसका निहित स्वार्थ ज्यादा होता है। वहीं आंध्र प्रदेश
का एक छोटा-मोटा न्यूज पेपर होता है, उतना निहित स्वार्थ नहीं होता है, तो रिपोर्ट
नहीं होती है। यहीं आप छत्तीसगढ़ आंदोलन को देखिए। दंडकारण्य आंदोलन के बारे में भोपाल
से आने वाले, अलग क्षेत्रों से आने वाले, रायपुर से आने वाले हिंदी पेपर्स में रिपोर्टिंग
बहुत रिटॉर्टेड (तोड़ी-मरोड़ी गई) होती है, लेकिन हैदराबाद से आने वाला जब भद्राचलम
से रिपोर्टिंग करता है, तो उतना ‘बायस्ड’ (पक्षपातपूर्ण) नहीं होता क्योंकि उसका उतना
निहित स्वार्थ नहीं है, तो फ़र्क होता है। तमिल मीडिया वहाँ के ईलम के इश्यू को लेकर
क्या रिपोर्टिंग करता है? एल.टी.टी.ई. के बारे में वह क्या रिपोर्टिंग करता है? केरल
में यू.ए.पी.ए. लागू किया जा रहा है, वहाँ का मीडिया कोई रिपोर्टिंग नहीं करता है।
तो वहाँ भी एक निहित स्वार्थ काम करता है और ज्यादातर पूरे मीडिया को कंट्रोल कर रही
हैं मल्टीनेशनल कम्पनियाँ। यहाँ तक कि क्षेत्रीय अख़बार भी मल्टीनेशनल कंपनियों के
दलाल बन गए हैं। एक भी अख़बार या चैनल ऐसा नहीं है जिसके ऊपर टाटा या अम्बानी का कंट्रोल
न हो। नमस्ते तेलंगाना नाम का एक न्यूज पेपर है। उसका एक चैनल है, टी न्यूज चैनल। ये
टी न्यूज चैनल, राज न्यूज से लिंक होता है, जी.टी.वी. से लिंक होता है, क्योंकि अलग
से चल नहीं सकता। एक विशिष्टता होती है जो कि मल्टीनेशनल कम्पनी की ही होती है, यही
समस्या है।
पोस्को,
जैतापुर, कुंडनकुलम, तेलंगाना की ख़बरें इन दिनों राष्ट्रीय मीडिया की बड़ी ख़बर नहीं
हैं। ख़बरें कौन रोकते हैं – सरकार या उद्योगपति?
दोनों
ही। उद्योगपति के लिए सरकार रोकती है। उद्योगपति भी छोटे-मोटे तो हैं नहीं। उद्योगपति
कॉरपोरेट हैं और ख़बरें उनके इंटरेस्ट में सरकार रोकती है। इंटरेस्ट उनका है।
अम्बानी
परिवार के ख़िलाफ़ देश के किसी हिस्से में कोई ख़बर लीक नहीं हो सकती। आखिर क्यों?
क्योंकि
कल ही अरुंधति रॉय कह रही थीं, “आप क्यों इतनी बहस कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी बनेगा
या राहुल बनेगा? यह बहस क्यों? जो भी बने, बनाने वाला अम्बानी है, टाटा है।” सवाल यह
है, देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री कौन होते हैं? दिखने वाले कठपुतली हैं ये लोग।
इनको चलाने वाले तो अलग हैं – अंबानी है, टाटा है, बात यह है। इसलिए अम्बानी के विरोध
में कहीं ख़बर लीक नहीं हो सकती।
आप
जनपक्षीय पत्रकारिता की दिशा में प्रेस-काउंसिल और काटजू जी की भूमिका से संतुष्ट हैं?
(हँसते
हुए) नहीं हैं, क्योंकि खासकर हमारा अनुभव है कि जब ‘चेयरमैन ऑफ़ दि प्रेस काउंसिल’
होते हुए काटजू यहाँ आया था, हम कुडनकुलम में ‘फैक्ट फाइंडिग’ के लिए गए थे। वरलक्ष्मी
(हमारी संस्था की सचिव) भी गई थी जो वहाँ गिरफ्तार कर ली गई। देश-भर के एक ऑल इंडिया
फैक्ट फाइंडिंग, आर.डी.एफ. ने आयोजित किया। वहाँ क्रांति चलाने के लिए उड़ीसा, दिल्ली,
राँची सहित अन्य जगहों से लोग आए थे। यहाँ से वरलक्ष्मी और तीन लोग गए जो वहाँ गिरफ्तार
कर लिए गए। एक महीने के लिए जेल में रहे। मीडिया ने इनका फोटो लगाकर खूब प्रचार किया
कि ‘ये सब माओवादी हैं। वरलक्ष्मी माओवादी है और वरलक्ष्मी का पति एक ‘अंडरग्राउंड’
माओवादी नेता है।’ जबकि सच्चाई यह है कि वरलक्ष्मी की शादी ही नहीं हुई है। तमिल न्यूज
पेपर, तमिल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने खूब झूठा प्रचार किया। दैनिक ईनाडु है, जिसका सबसे
बड़ा सरक्युलेशन रहता है। उसने भी ख़बर छापी। हमने प्रोटेस्ट किया, तो उसका कहना था
कि ‘आप भी लिखिए, हम वह भी छापेंगे।’ आज कोई बड़ा विषय होता है, कल हमारा खंडन होता
है और दूसरा न्यूज आता है। इसे लेकर हमने प्रेस-काउंसिल से शिकायत की। प्रेस-काउंसिल
का चेयरमैन दो-तीन रोज के लिए यहाँ आया था। उसके एजेंडे में यह मुद्दा ही नहीं था।
मैं उससे मिलने के लिए गया तो पता चला कि वह मुख्यमंत्री से मिलने गया है, तो मैं पुष्पराज
के कहने के बाद प्रेस-काउंसिल के एक सदस्य से मिला। तो प्रेस-काउंसिल के सदस्य ने कहा
कि ‘मुझे शिकायत ही नहीं मिली है। आप फिर से दीजिए।’ यह एक स्थिति है। दूसरी स्थिति
यह है कि इतना बड़ा जनांदोलन चल रहा है, इतने छात्रों ने खुदकुशी कर ली है, तेलंगाना
मुद्दे को लेकर हजारों लोग परेशान हैं लेकिन वह (काटजू) यहाँ आकर इसके विरोध में बयान
देकर जाता है और ईनाडु के बारे में जो शिकायत आती है, वो नहीं लेता है। कहता है कि
‘मुझे सी.एम. ने डिनर पर बुलाया है।’ आपको तो रामोजी राव डिनर देता है, आपको तो मुख्यमंत्री
डिनर देता है, तो आप कैसे शिकायत लीजिएगा? आप ही बोल रहे हैं कि ‘मैं नहीं जा सकता
हूँ, मैं नहीं ले सकता हूँ।’ यह कैसा जनपक्ष होता है? हाँ, हमको लगता है कि जो सेक्युलर
डेमोक्रेटिक इश्यूज हैं, उन पर उसका रवैया तो ठीक लगता है लेकिन समस्या यह है कि जब
मुद्दा वर्ग का होता है तो हम कहीं भी न्याय की आशा नहीं कर सकते।
भारतीय
मीडिया की वह भूमिका जिसने आपको निजी तौर पर बहुत दुखी किया? आप जनांदोलनों की वैकल्पिक
मीडिया के बारे में क्या सोचते हैं?
जनांदोलन
का मीडिया बन रहा है और बनाया भी जा रहा है। छोटी-छोटी डॉक्यूमेंट्री फिल्में बन रही
हैं। हाल ही में संजय काक ने बहुत अच्छी फिल्म बनाई है ‘रेड आंट ड्रीम’ (माटी के लाल)।
उन्होंने तीन मुद्दे लिए हैं। दंडकारण्य में क्या हो रहा है? जब अरुंधति रॉय गई थीं
तो संजय काक भी गए। दंडकारण्य में कैसा जनतंत्र है? क्या प्रयोग किए जा रहे हैं? किन
सपनों को हासिल करने के लिए वहाँ के लोग सोच रहे हैं? एक नियमगिरी आदिवासी ने क्या-क्या
संघर्ष किए हैं? क्योंकि बाहर की दुनिया यह समझ रही है कि नियमगिरी एक स्पॉण्टेनियस
(स्वत:स्फूर्त) आंदोलन है। वो (मीडिया) पूरा सच नहीं बता रहा है। वहाँ भी माओवादियों
की भूमिका है। ज्यादा तो नहीं, मगर भूमिका है। तीसरा पंजाब को लेकर। भगत सिंह को लेकर
आज तक क्रांति की क्या परंपरा है? क्या चल रहा है मल्टीनेशनल कम्पनियों में? इन तीनों
को मिलाकर डॉक्यूमेंट्री बनाई है काक ने। हम इस फिल्म को इफ्लू (इंग्लिश एंड फॉरेन
लैंग्वेज यूनिवर्सिटी, हैदराबाद) में भी ले जाकर दिखाएंगे। तो एक वैकल्पिक, जनता के
पक्ष में लेकर मीडिया आना चाहिए और इसके लिए छोटे-छोटे प्रयास होने चाहिए। ये हो रहे
हैं और होंगे।
एन.जी.ओ.
के कार्यों को मीडिया ने ‘विकासपरक पत्रकारिता’ का नाम दिया है। क्या आप एन.जी.ओ. की
लीक से हो रही पत्रकारिता से संतुष्ट हैं?
कैसे
संतुष्ट हो सकते हैं? क्योंकि उसका उद्देश्य यह है कि सारांश के तौर पर वह साम्राज्यवाद
की सेवा कर रहा है। खासकर यह होता है कि क्रांति की बात को लेकर प्रचार होता है, तो
क्रांति को ‘रिफॉर्म’ में खत्म करने के लिए एन.जी.ओ. आ रहा है, कॉन्सस (जागरूकता) में
आ रहा है। मैंने हाल ही में एक फिल्म देखी थी, मिनुगुरुलु। इसे अमेरिका में रहने वाले
एक एन.आर.आई. ने यहाँ आकर यह बनायी है। मुझे लगा कि इसे एक्शन एड सपोर्ट कर रहा है।
थीम अच्छी है, बनाया भी बहुत अच्छा है। नेत्रहीन विद्यार्थियों का मुद्दा है। उनके
होस्टल, उनके स्कूल, कितनी बुरी हालत में हैं! उनके लिए जो फंड मिलता है, उसे वहाँ
के चलाने वाले खा जाते हैं और उनके लिए जो कमेटी है, कमेटी का चेयरमैन कैसे फंड को
खा जाता है? फिल्म अच्छी बनी है। ‘अंधा होने से पहले वह अच्छा फोटोग्राफ़र था। बाद
में एक एक्सीडेंट में वह अंधा हो गया। तो वो अपनी यादों के सहारे, अपने ज्ञान से, कैमरा
लगाकर पूरी फिल्म बनाता रहता है, बहुत अच्छा! अगर क्रिएटिविटी देखी जाए तो as an
art-piece, best art-piece. अब उसका पूरा-पूरा प्रयास होता है कि ये सब चीजें, नीचे
जो हो रही हैं, उन्हें वह कलेक्टर को बताए। ये सब करके, कैमरा लगा के, और वह भी कलेक्टर
के अटेंशन के लिए एक बड़े वाटर टैंक के ऊपर से कहता है कि ‘मैं खुदकुशी कर लूँगा।’
तो नीचे बहुत-से लोग आते हैं, पुलिस आती है, तो कलेक्टर भी आता है। तब उसने फिल्म बनाई।
पूरा रिफॉर्म हो जाता है। यानी इससे क्या निकलता है देखने वालों को? जितना भी हो रहा
है, भ्रष्टाचार हो या जो भी हो, कलेक्टर के नीचे एक सिस्टम है, उसी से हो रहा है। इसमें
कलेक्टर नहीं है, इसमें पोलिटिकल सिस्टम नहीं है, इसमें दूसरे लोग नहीं हैं और ये रिफॉर्म
करने वाला भी वही पालिटिकल सिस्टम है। वही रिफॉर्म करता है, ये फिल्म में है। जैसे
‘अंकुरम’ एक अच्छी जेन्यूइन फिल्म थी। फिल्म का एक पात्र झूठे मुठभेड़ में मारा गया,
उसके बारे में जो बयान दिया गया, उस बयान को लेकर सरकार ने जाँच कराई और उसके लिए सजा
भी दी। यह संदेश देने के लिए बहुत प्रभावशाली और बहुत विश्वसनीय फिल्म बनाई है। इसका
उद्देश्य है रिफॉर्म की बात करना, वह कहीं सच्चाई में नहीं हो रहा है। आजाद के एन्काउंटर
के बारे में सुप्रीम कोर्ट में गए तो बेंच ने कहा, “ये कैसे हो सकता है? रिपब्लिक अपने
बच्चों को आप मार रहा है?” When we have petition the Supreme Court that was the
first reaction of the Supreme Court. अन्त में क्या निकला है? सी.बी.आई. ने जाँच की,
रिपोर्ट दी, क्या निकला है? दूसरी तरफ़ हमारा अनुभव है, कलेक्टर का अपहरण कर लिया,
बहुत से डिमांड रखे, जनता के, आदिवासियों के। क्या नतीजा निकला? एक भी आदिवासी को नहीं
छोड़ा, एक भी डिमांड पूरी नहीं की। समझिए, आप बताते हैं कि यह होने से बहुत रिफॉर्म
आया है तो देखिए कि कहाँ आया है? सारे एन.जी.ओ. की कोशिश यह होती है कि क्रांति से
रिफॉर्म में ले जाएँ, तो खासकर एन.जी.ओ. की भूमिका यह हो रही है कि लोगों की चेतना
को वर्ग-संघर्ष की ओर न ले जाओ, वर्ग-संकट की ओर न ले जाओ, क्लास-कोलैबोरेशन (वर्ग
सहभागिता) और एडजस्टमेंट (वर्ग सामंजस्य) में ले जाओ क्योंकि ये भी कॉरपोरेट स्ट्रक्चरल
एडजस्टमेंट (संरचनात्मक सामंजस्य) करते हैं। एन.जी.ओ. स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट के लिए
काम कर रहे हैं और इसीलिए मीडिया उनका बहुत प्रचार करता है।
क्या
भारत में ‘प्रो-एस्टेब्लिस्मेंट जर्नलिज्म’ के समानांतर ‘एंटी-एस्टैब्लिशमेंट जर्नलिज्म’
खड़ा हो पाया है?
अब
ऐसा नहीं है कि मीडिया में ही एंटी-एस्टेब्लिशमेंट लोग हैं, मगर वह तो ‘dominated
by, controlled by Pro-establishment’. अब अपनी-अपनी छोटी-छोटी पत्रिकाएँ निकालनी हैं,
इसीलिए तो एक समय था कि कलकत्ते में ‘छोटी पत्रिकाओं का आंदोलन चला। पीपुल्स मीडिया
का एक आंदोलन आना चाहिए तो उतने पैमाने पर नहीं हो सकता, फिर भी अलग-अलग क्षेत्रों
में डि-सेंट्रेलाइज्ड (विकेंद्रीकृत) रूप में आना चाहिए। अभी कोशिश हो रही है, ये बंद
नहीं होनी चाहिए, बल्कि और भी ज्यादा होनी चाहिए।
भारत
के बहुल पेशेवर पत्रकारों और चंद गैर-पेशेवर पत्रकारों के लिए आपकी कोई अपील?
जाइए,
वहाँ देखिएगा, जहाँ ग्रास-रूट पर संघर्ष हो रहा है। जाइए, देखिए, आपको जो लगे, वो रखिए।
बिना गए, बिना देखे, जो आपको दिया गया है, वो मत बताइए। सच्चाई को बाहर लाइए। बस...।
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