एक सवाल-एक बात: 5
राज्य हत्या: कॉमरेडों की याद में बनाए गए स्तूपम (DK) |
माओवादियों के द्वारा छत्तीसगढ़ में 25 मई को हुई कार्रवाई के बाद कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार बहस का विषय बने हुए हैं. इन्हीं सवालों पर बहस के लिए 'एक सवाल-एक बात' शीर्षक से कुछ कड़िया प्रस्तुत की जा रही हैं. बहस के लिए आप अपने सवाल और अपनी बात dakhalkiduniya@gmail.com पर भेज सकते हैं.
अजीत हर्षे की बात-
अब पहले प्रश्न को लेते हैं कि हत्याएँ क्यों हो रहीं हैं:आम तौर से कह दिया जाता है भूख के कारण हत्याएँ हो रही हैं। मगर ऐसा नहीं है। कश्मीर में और उत्तर पूर्व में भूख इसका कारण नहीं है। दरअसल अन्याय के कारण हत्याएँ होती हैं, न्याय न मिलने के कारण हत्याएँ होती हैं और आतंकवाद पनपता है। लोगों को न्याय दे दीजिये, आतंकवाद अपने आप समाप्त हो जाएगा। लेकिन साधारण जनता को न्याय प्रदान करना इस संविधान के अंतर्गत सरकारों के लिए मुश्किल होता जा रहा है। जो जितना गरीब है न्याय उससे उतना ही दूर है।
यहाँ बंगाल, झारखंड से लेकर महाराष्ट्र और आन्ध्रप्रदेश तक फैले आदिवासी बेल्ट में फैले माओवादी आतंकवाद की बात हो रही है। यह इलाका देश का सबसे गरीब और पिछड़ा इलाका है। संयोग से प्रकृतिक संपदाओं के लिहाज से वह सबसे सम्पन्न भी है। इस सम्पदा पर सबसे पहले उन्हीं आदिवासियों का हक है इस बारे में अगर किसी को संदेह है तो आगे न पढ़ें। और अगर आप मेरी बात से सहमत हैं तो आदिवासियों के साथ पिछले 66 सालों में कितना ज़बरदस्त अन्याय हुआ है यह आप देख सकते हैं। और फिर आपकी इस बात से भी सहमति स्वाभाविक है कि यही माओवादी आतंकवाद का कारण है। इस चर्चा को यहीं समाप्त करें, क्योंकि इस पर चर्चा काफी हो चुकी है और न्याय के बारे में इससे महत्वपूर्ण सवाल मैं उठाना चाहता हूँ। और वह इस प्रकार है:
हम जानते हैं कि देश में गरीबी रेखा तय कर दी गई है और वह है शहरों में, लगभग 900 प्रतिव्यक्ति रुपए प्रतिमाह और गावों में 700 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति माह। यह तो कम से कम है, इसके नीचे बहुत बड़ी खाई है मित्रों। गावों और उन आदिवासी क्षेत्रों में यह खाई कितनी गहरी है इसका अनुमान इन क्षेत्रों में भूख से होने वाली मौतों (या हत्याओं?) से जाना जा सकता है, कुपोषण के आंकड़े देखे जा सकते हैं। देश की औसत प्रति व्यक्ति आय है 5700 रुपए। अगर मैं कहूँ कि इससे ज़्यादा कमाने वाला किसी न किसी रूप में देश में चल रही अन्यायी व्यवस्था से जुड़ जाता है तो फेसबुक पर बैठे सभी मित्र मुझे पागल कहेंगे। मगर सच यही है। इसे थोड़ा बढ़ा (10-20 प्रतिशत) लें या कम कर लें क्योंकि गरीबों में, कामकाजियों में थोड़ा बहुत फर्क तो हो ही सकता है। वैसे भी यह औसत तो है ही। अब पहले इस बात पर थोड़ी चर्चा हो जाए कि कैसे इस औसत से ज़्यादा पाने वाले (कमाने वाले, नहीं कह रहा हूँ क्योंकि मैं न्यायपूर्ण कमाई की बात करना चाहता हूँ।) शोषण में किस तरह सहभागी हैं।
देश में पंजीकृत रोजगार देने वाली मुख्य रूप से दो ही संस्थाएँ हैं: सरकार और कारपोरेट घराने। और इन संस्थाओं में काम करने वाले सबसे छोटे कर्मचारी का ही वेतन (ऊपरी आमदनी छोडकर) इस औसत के (परिवार में 3-4 सदस्य मनाने पर) करीब होता है। दूसरे अधिकांश कर्मचारियों के वेतन तो बहुत ज़्यादा होते हैं। यह अतिरिक्त वेतन कहाँ से आता है? दरअसल यह उसी लाभ का हिस्सा है जो ये सरकारें और कारपोरेट घराने बाकी जनता का शोषण करके ‘कमाती’ हैं। कर्मचारियों को संतुष्ट रखने के लिए जिनकी तनख़्वाहें इसी नाजायज कमाई में से समय-समय पर बढ़ा दी जाती हैं। अब आप कहेंगे कि सरकारें तो कारपोरेट नहीं हैं। अब इसी समझ में समस्या है। बात यह है कि आर्थिक न्याय की अवधारणा को सरकारीकरण से जोड़ने का समय कम से कम 60-70 साल पुराना हो चुका है। 70 के आसपास का वह दौर हम पार कर आए हैं और चीन तो इसका ज्वलंत उदाहरण है ही। अब दुनिया की कोई सरकार, जनतान्त्रिक-पूंजीवादी, सैनिक-तानाशाही, धार्मिक और यहाँ तक कि कम्यूनिस्ट सरकारें भी एक विशाल कारपोरेट के सिवा कुछ नहीं है। दुनिया भर में सरकारें इस वक़्त दोहरी भूमिका में है। खुद (और अपने कर्मचारियों के लिए) लाभ कमाओ (इसके लिए यहाँ तक कि चोरी करो, डाका डालो, हत्याएँ करो) और कारपोरेट की सेवा और सुरक्षा करो। इस लाभ के गणित की चर्चा भी इस दौरान बहुत हो चुकी है। उसे छोड़ें।
अब इन सरकारी और कारपोरेट कर्मचारियों में उन्हें और जोड़ लें जो छोटे दुकानदार हैं, मध्यम और बड़ी खेती वाले किसान हैं, तो इस पूरे शोषण तंत्र में हिस्सेदार मध्यवर्ग का कोरम पूरा हो जाता है। ये लोग दरअसल इन्हीं सरकारों और कारपोरेट घरानों की भीख पर पल रहे नौकर हैं जिनमें से कई संवेदनहीन नौकर उनके एजेन्टों का काम भी करते हैं।
इस चर्चा के बाद यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि 25 मई की माओवादी हत्याओं के बाद माओवादियों के विरुद्ध जनाक्रोश क्यों उमड़ पड़ा। इस विरोध के पीछे इस मध्यवर्ग का बहुत बड़ा हित छिपा हुआ है। बहुत से लोग सिर्फ अंबानी, अनिल अग्रवाल, टाटा वगैरह को गलियाँ देकर समझ रहे हैं कि कर्तव्य की इतिश्री हो गई। इनमें से अधिकांश सरकारी नौकर होंगे। सोचते हैं, हम तो सरकारी कर्मचारी हैं। अगर टाटा या पोस्को की जगह कोल इंडिया या सेल यही काम करे तो इन्हें कोई परेशानी नहीं होने वाली। दरअसल कर भी रही है कई जगह। इनके निजीकरण के विरोध के पीछे भी यही बात है। इनकी 70 साल पुरानी अवधारणा ही यह है सरकारी है तो वह न्यायपूर्ण भी है! सोवियत संघ के पतन के बाद भी इनकी आँखें नहीं खुलीं। खैर।
यह स्पष्ट करने के बाद कि इन आतंकी हत्याओं का जन्म ही अन्याय से हुआ है, हम दूसरे प्रश्न पर आते हैं कि इन हत्याओं को रोका कैसे जाए। कई मित्र यह कहते हैं कि आदिवासियों का शोषण और दमन हो रहा है यह वे मानते हैं मगर माओवादियों की हत्याओं को वे जायज़ नहीं ठहरा सकते। कुछ गांधीवादी हैं और कुछ यह समझते हैं कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है और ये माओवादी आदिवासियों को बहला फुसलाकर, डरा-धमकाकर और अपनी सत्ता स्थापित करने के उद्देश्य से ऐसा कर रहे हैं और दरअसल आदिवासी तो भारतीय न्याय व्यवस्था पर भरोसा करते हैं। बताइये, अगर इन पढे लिखे लोगों का भोलापन देखकर हंसी न आए तो क्या हो। उनसे पूछना ही होगा कि क्या आप भारतीय न्याय व्यवस्था पर भरोसा करते हैं। दिल्ली, पटना, बंगलोर, मुंबई वासियों से और गावों में रहने वाले आप जैसे लोगों से ही मैं पूछना चाहता हूँ, जिनके बच्चे आरक्षण विरोध में आत्मदाह कर रहे हैं, जिनकी लड़कियों को बलात्कार और हत्या करके सड़कों पर डाल दिया जाता है, युवाओं को प्रेमविवाह करने पर फांसी पर चढ़ा दिया जाता है। मुझे नहीं लगता कि आदिवासियों का इतने अत्याचारों के बाद देश की न्याय व्यवस्था में रत्ती भर भी विश्वास हो सकता है। कानूनों पर हो सकता है, न्यायाधीशों पर हो सकता है मगर व्यवस्था पर नहीं। वैसे तो ईमानदार कर्मचारियों पर, नेताओं पर (विशेषकर कम्यूनिस्ट नेताओं पर, जो बेचारे आजकल उन इलाकों में माओवादियों के डर से जा भी नहीं पाते), एनजीओज़ पर भी हो सकता है। मगर इतना ही काफी नहीं है। और जब ऐसा है तो वे न्याय की गुहार किसके पास करें? तब उन्हें माओवादी ही दिखाई देते हैं जो कार्पोरेट्स से उगाही करते होंगे मगर उनकी हत्याओं का, गलत ही सही, तुरंत बदला भी लेते हैं। वे जंगलों की रक्षा का, अपने मतलब से ही सही, दावा करते हैं, भले ही टीवी नहीं आने देते। वे सोचते हैं इन माओवादियों का साथ देने पर परेशानियाँ तो बहुत हैं मगर आदिकाल से जैसे वे जी रहे थे उसमें इनका कोई सीधा हस्तक्षेप भी नहीं है।
अब सवाल यह है कि आदिवासियों का भारतीय न्याय व्यवस्था पर विश्वास कैसे कायम किया जाए। सीधी सी बात है कि उन्हें न्याय मुहैया कराके। आतंकवादियों से उनका पीछा छुड़ाकर। उन्हें भोजन, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य मुहैया कराके। उन्हें अपनी मर्ज़ी से जीवन जीने की आज़ादी देकर। यह हो सकता है, उनसे संवाद करके। आप पूछेंगे ‘वे’ हैं कौन तो वे सबसे पहले माओवादी ही हैं। कम से कम इस समय, जब कि सरकारें, एनजीओज़ ईमानदार कम्यूनिस्ट पार्टियां वहाँ जाने में नाकाम हैं, आदिवासी, माओवादियों से डरकर या उन्हें अपना समझकर उनके साथ हैं तो फिर बात माओवादियों से ही करनी होगी। सिर्फ बात। उनके विरुद्ध कोई भी सैनिक कार्रवाही कारगर नहीं हो सकती, क्योंकि आदिवासी ही उनका ह्यूमन-शील्ड हैं। पहले उनसे बात करें, फिर आदिवासियों के बीच जाकर धीरे धीरे उन्हें अपनी बात समझाएँ। सबसे बड़ी बात उन इलाकों का औद्योगीकरण उनकी मर्ज़ी के विरुद्ध करने की जल्दबाज़ी न करें।
देश को यह समझना होगा कि यही वे लोग हैं जिनके पास जंगल और पहाड़ खोने के बाद खोने के लिए कुछ भी नहीं बचता और ऐसे लोगों को ही सर्वहारा कहा जाता है। ऐसे लोग खुद पर अन्याय होने पर कुछ भी कर सकते हैं, माओवादी, माओ-आतंकवादी (या क्रांतिकारी) हो जाना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं होगी। पूंजीवादी-जनतांत्रिक सरकारों को खुद अपने आपको बचाने के लिए उन्हीं के संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रताएँ जनता को फौरी तौर पर मुहैया करा देनी होंगी अन्यथा हिंसा का दौर कभी खत्म नहीं होने वाला। इन्हीं स्वतंत्रताओं को प्रदान करने का सरकारों का अस्वीकार ही इस समस्या का मूल कारण है।
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