02 जून 2013

भगतसिंह से सबक लें माओवादी

एक सवाल-एक बात: 2                                                 

माओवादियों के द्वारा छत्तीसगढ़ में 25 मई को हुई कार्रवाई के बाद कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार बहस का विषय बने हुए हैं. इन्हीं सवालों पर बहस के लिए 'एक सवाल-एक बात' शीर्षक से कुछ कड़िया प्रस्तुत की जा रही हैं. बहस के लिए आप अपने सवाल और अपनी बात dakhalkiduniya@gmail.com पर भेज सकते हैं. 
   
माओवादियों से एक बात- अनुराग मोदी
समाजवादी जन परिषद्/श्रमिक आदिवासी संगठन , बैतूल, म. प्र.

                          
सबसे पहले तो,  मै आपसे इस बात को कबूल करूं कि शुरुवात में मेरे मन मै आपको अपना साथी संबोधित करने में थोड़ी झिझक थी. लेकिन, मेरे मन की यह दुविधा ज्यादा देर नहीं टिकी. मै यह मानता हूं,  हम साथी है. क्योकि हम दोनों ही बेहतर समाज बनाने की लड़ाई की लड़ाई लड़ रहे है. यह अलग बात है की हमारी राहे अलग-अलग है,  लेकिन हमारी मंजिल तो एक है. और इस एक मंजिल के राही  होने के नाते तो हम साथी हुए.
                  मै यहाँ यह बहस नहीं करना चाहता की अहिसात्मक आन्दोलन का जो रास्ता हम लोगो ने अपनाया है वो ही सही है, और आपका अपनाया हुआ हिसात्मक आन्दोलन का रास्ता गलत है. यह बहस कभी ख़त्म नहीं होगी. कियोंकि मेरी  हिंसात्मक  आन्दोलन को लेकर अपनी आलोचना है,   ठीक उसी तरह जैसी आपकी आलोचना  अहिंसात्मक आन्दोलनों को लेकर होगी. मै अन्य लोगो की तरह आपको बिगड़ा हुआ क्रांतिकारी भी नहीं मानता. मै जानता हूँ, आपको अपने  हिंसा के रस्ते में उतना ही अटूट विश्वास है, जितना मुझे अहिंसा के रास्ते में. हम दोनों का ही अपने- अपने रास्ते  बदलना कठिन  है; शायद असम्भव. लेकिन फिर भी,  मेरे मन में विगत कुछ समय से कई सारी बाते उमड़ रही है.  मै इस पत्र के माध्यम से अपनी इस बैचैनी; मन की उथल-पुथल; सवाल; चाहे  जो कहे, को आप-तक पहुँचाना  चाहता हूँ. आपसे विनम्र अनुरोध है,  मेरी इन बातों को कतई भी कोई सीख मानने कि भूल न करे. ना तो मेरी कोई ऐसी कोई बोद्धिक झमता ही है, और ना  ही इतना गहरा अध्ययन कि मै हिंसात्मक और अहिंसात्मक  आन्दोलन पर आपसे बहस कर सकूँ. पिछले २३ साल के आदिवासियों के बीच काम के अपने अनुभव; आजादी के आन्दोलन के इतिहास के कुछ पन्ने पढने से बनी थोड़ी- बहुत  समझ ; विगत कुछ वर्षो में फिलिस्तीन और  अरब देशो के साथ-साथ कश्मीर के  आंदलनो में आ रहे बदलाव,  इस सबको आपसे बाँट रहा हूँ.
                    सबसे पहले,  मै आदिवासी समुदाय के साथ कम के अपने अनुभव कि बात करू. इन २३ सालो में मैंने एक बात आदिवासी समुदाय के बारे में बहुत गहरे से समझी है: अपनी सत्ता स्थापित करना और फिर उसमे लोगो को सत्ता के  नियम से जीना सिखाना या मजबूर करना, यह बात उनकी मूल सोच से ही मेल नहीं खाती.  आदिवासी समुदाय एक संतोषी समाज है ,  उसमे अपार  छमता है लेकिन लालसा जरा भी नहीं :  वो अपनी जरूरत के अनुसार जमीन जोतता है; अपनी जरूरत भर के कपडे पहनता है और; जरूरत भर के संसाधन अपने पास रखता है. यहाँ तक कि उनके राजाओ के किले भी कही से कही तक किले न लगकर बस एक झोटे-मोटे दुर्ग होते है. उनमे पूरे देश पर कब्जा करने कोई लालसा नहीं है, चाहे फिर वो सता बुलेट के  रस्ते से आए, या बैलेट के  रास्ते से.
आदिवासी कि सबसे मूल सोच है,  स्वंत्रता: अपनी मर्जी के अनुसार जीने कि आजादी; अपनी परम्पराए निभाने  की  आजादी;  सता के नियमो में बंधकर अपना  जीवन बेहतर बनाना  यह उसे मंजूर नहीं. ऐसा नहीं है की आदिवासी गांधी या मार्क्स को नहीं समझता है. वो गांधी के आन्दोलन के मर्म को तो नमक सत्याग्रह को जंगल सत्याग्रह में अपनाकर ही समझ गया था. इतना  ही नहीं अंगेजो के खिलाफ सस्त्र विद्रोह और फांसी  में चड़ने वालो में भी सबसे आगे रहकर,  उसने अपनी विद्रोही तेवर का दूसरा रूप भी जमकर दिखाया. लेकिन इस सबके मूल में है,  उसकी प्रक्रति के अपने सम्बन्ध और अपने परिवेश में आजादी के मायने की असली समझ. आदेवासी अपनी समझ अनुभूति से बनता है, हमारी और आपके तरह किताबी ज्ञान से नहीं. आदिवासी समुदाय का अंग्रेजो के साथ झगडा सता को लेकर उतना नहीं था जितना उसके अपनी जंगल में आजादी को लेकर था; अंग्रेजो ने जंगल में उसकी सारी स्वन्त्रताये छीन ली थी और उसे अपने नियम कानून में बांधना शुरू कर दिया था. इसलिए जब आदिवासी समुदाय ने ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका तब उसने बाकी हिन्दुस्तानी  राजाओ कि तरह  गणित नहीं लगाया,  कि ब्रितानी बन्दूको और तोपों के आगे वो अपने तीर -कमान लेकर कैसे लडेगा. वो लड़ा,  और हजारो कि संख्या में शहीद भी हुआ. ऐसा नहीं था कि वो यह सच्चाई समझने में नाकाम था, लेकिन उसे अपनी आजादी मौत से भी ज्यादा अजीज थी  और, इसलिए उसने ब्रितानी हुकूमत कि हरदम मुखालफत की. और आज भी, हिंसात्मक-अहिंसात्मक यह सिधान्तिक बहस से उसे मतलब नहीं है , जो उसके पास आया और  उसे विश्वास हो गया, वो अपनी आजादी के लिए बिना लाभ-हानि के  गणित लगाये उसके साथ हो लिया. उसे बस अपनी आजादी  चाहिए,  उसे सता पर बैठकर दुसरे कि जिन्दगी नियंत्रित करने कि लालसा नही है. यह आजादी की  असली अनुभूति  ही है,  इसलिए  देश कथित रूप से आजाद होने  के बाद  विगत  ६५ सालो से अगर कोई एक समुदाय है,  जो अपनी असली आजादी के लिए ,  हिंसक हो या  अहिंसक तरीके से, लगातार  संगर्ष कर रह है, तो वो है आदिवासी .
दुनिया का अनुभव बताता है;  बुलेट के रास्ते आई सता में बैलेट के रास्ते आई सता से ज्यादा  अंकुश है. और, वैसे भी सता किसी भी रास्ते से आए  थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ विकास का माडल तो वही पश्चिमी ही रहना है. विकास के इस मोडल के चलते ही संसाधनों पर कब्जे के लिए  ही हिंसात्मक और अहिंसात्मक दोनों ही तरह के  आंदोलनों का दमन हो रहा है. आपके लिए  सलवा जुडूम है तो हमारे लिए वन सुरक्षा समीति, और बाकी सारे कानून.  इन दोनों  के नाम पर आदिवासी समाज को आपस में भिड़ाया जा रहा है. आपके कब्जे वाले इलाको में जमीन झुपे संसाधनों की जरुरत पड़ते ही नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी समस्या बन गया. केंद्र सरकार के  गृह विभाग से लेकर  ग्रामीण विकास विभाग ने  एक गृह युद्ध जैसी स्थिती बना रखी  है. यहाँ तक की दो एक दुसरे को फूटी आँख नहीं सुहाने वाली पार्टीयो,  कांग्रेस और भाजपा,  में दोस्ती हो गई की;  भाजपा व्दारा शुरू किया सलवा जुडूम कार्यक्रम कोंग्रेस के नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा लीड़ कर रहे थे.
                       अब दूसरी बात, हम देखे किस तरह से समय के साथ आंदोलनों कि रणनीति में समय-समय पर परिवर्तन आये;  वो अहिंसात्मक से हिंसात्मक और फिर अहिंसात्मक हुए. इस मामले में भगतसिंह और फिलिस्तीन के आन्दोलनकरियो  कि रणनीति में कई समानताये है. पहले हम फिलिस्तीन कि बाते करे: फिलिस्तीन में १९३० के आसपास  प्रदर्शनों, धरनों, रैलियों का दौर जू लोगो कि बढ़ती बसाहट के साथ ही शरू हो गया  था. यह आन्दोलन हर दमन के बावजूद १९३३ तक अहिसात्मक रहा.  जब १९३३ में,  एक रैली के दौरान ब्रितानी घुड़सवार सिपाही कि लाठियों  से घायल होने के बाद  प्रसिद्ध नेता; ८१ वर्षीय मुसा अल हुसैन काजिम का इंतकाल हो गया, तब  फिलिस्तीन आन्दोलन ने अचानक हिसा कि राह पकड़ ली. यह कुछ -कुछ भतसिंह द्वारा लाला लाजपतराय पर बरसी ब्रितानी-लाठी के बदले में सांडर्स कि हत्या जैसा है. फिलिस्तीन में शुरू हुआ हिंसात्मक आन्दोलन का दौर  लगभग ७ दशक तक अविराम जारी रहा; इस दौरान फिलस्तीन गुरिल्ला युद्ध ने नई उचाई छूई. लेकिन इसी फिलिस्तीन आन्दोलन में,  विगत ५-६ सालो से,  वापस एक  रणनीतिक परिवर्तन का दौर दिख रहा है. वहां विरोध के नए-नए तरीके ढूढने की कोशिश तेज हुई है.
इसका परिणाम यह है की वहां  अनेक तरह से,  लोगो द्वारा अहिसात्मक विरोध का दौर चल रह है. न सिर्फ बड़ी रैलियों का दौर चल रहा है बल्कि,  इजराइल की जेलों में १० हजार  फिलिस्तीनी कैदी भूख हड़ताल तक कर रहे है. यह अलग बात है की इन रैलियों में पथराव आम बात है , लेकिन फिलीस्तीनी आन्दोलन का इतिहास देखते हुए इन रैलियों में पथराव को हिसा नहीं माना जा सकता. हालाँकि, इन अहिंसात्मक आंदोलनों को किसी भी बड़ी फिलिस्तीनी पार्टी का समर्थन नहीं है. लेकिन इन प्रदर्शनों के चलते हालात यह है, पूरी दुनिया को घातक से घातक हथियार सप्लाई करने वाली इजराइली हुकूमत कि इजराइल डिफेन्स फोर्स को इन प्रदर्शनकारियो से निपटना ज्यादा भारी  पड़  रहा है.
हमारे देश के जम्मू और काश्मीर में भी विरोध कि रणनीति में गहरा परिवर्तन आ रहा है. जमू और कश्मीर में विरोध कि जड़ काफी पुरानी है. यहाँ शुरू हुआ  अहिसात्मक आन्दोलन को 1989 में  हिसा के दौर  में चला गया; १९९९ में आत्मघाती हमलो का दौर.  लेकिन अब फिर महीनो चलने वाली रैलियों का दौर शुरू हो गया है. इन रैलियों में पत्थरबाजी जरुर होती है, लेकिन हमे इसे भी स्थानीय परिपेक्ष्य हिंसा कहने से बचना होगा.
जब मै आजादी के आन्दोलन में क्रांतिकारियों के इतिहास पर नजर डालता हूँ,  तो मेरी नजर भगतसिंह और उनके साथियों पर पड़ती है. किस तरह उन्होंने अपने विचार बदले बिना,  समय के अनुसार सांडर्स कि हत्या से लेकर असेम्बली में बम फेकने और  जेल में भूख-हड़ताल तक अपनी  रणनीति को बदला. 8 अप्रेल 1929  को दिल्ली कि केन्द्रीय असेम्बली में फेकें बम ने ब्रितानी हुकूमत के एक भी नुमाइन्दे को किसी भी तरह से हताहत नहीं किया, लेकिन फिर भी उस अहिसात्मक-बम कि गूँज आज तक सुनाई दे रही है. इसके बाद ब्रितानी ट्रायल कोर्ट में दिए जवाब और, जेल में चली लम्बी भूख-हड़ताल;  पहले १४ जून १९२९ से ४ अक्टूबर तक चली ११२ कि दिन कि भूख-हड़ताल, जो ६३ दिन बाद अपने साथी बटुकेश्वर दत्त कि भूख-हड़ताल से हुई मौत के बाद भी ५९ दिनों तक जारी रही; फिर १९३० के फरवरी माह में १५ दिन कि भूख-हड़ताल; उनकी अगस्त १९३० में की गई भूख -हड़ताल के बारे में तो सन २००७ में मालूम पड़ा, जब सुप्रीम कोर्ट भगतसिंह के केस से सम्बंधित दस्तावेज सार्वजनिक किए. इन भूख-हड़तालो ने  क्रांतिकारियों को देश के जनमानस में स्थापित कर दिया, और  अचानक भगतसिंह का कद गाँधी के समकक्ष हो गया.
अंत में, हम अरब देशो में आए वर्तमान बदलाव के दौर को देखे, किस तरह दशको कि हिंसा से ग्रस्त इन देशो में लोग बन्दूको और तोपों के सामने निहत्थे सडको पर उतर रहे है.  आज जब  हमारे देश में विदेशी पैसो से देश में एन जी ओ चलाने वाले लोग जंतर-मंतर से देश बदलने के दावा करते है; सरकार के सामने ताल ठोकते  है और अहिंसात्मक आन्न्दोलानो को कानून की नोक पर कुचला जा रहा है;   सब तरफ भयानक उथल -पुथल है. इस एतिहासिक समय में आप दुर्गम और  दूरस्थ इलाको में बैठकर,  युद्ध लड़कर अपनी ऊर्जा जाया न करे. आज जरुरत है, फिलिस्तीन से लेकर काश्मीर तक बह रही बदलाव की हवा का सम्मान करने का. हम जानते है की आप भी बेकार के खून-खराबे में विश्वास नहीं करते है;  हिंसा को आपने एक रणनीति के तौर पर अपनाया है . लेकिन जब  पूरी दुनिया में विरोध कि रणनीति में तेजी से बदलाव आ रहा है,  मेरा अनुरोध है कि आप लोग भी अपनी रणनीति पर पुनः विचार करे. और, जिस तरह भगतसिंह से लेकर आज फिलस्तीन के आन्दोलान्करीयो की बदलती रणनीति के चलते सरकारी दमन एक तरफ़ा पड़कर  सबके सामने नंगा हो गया, और इन क्रांतीकारियो के विचार पूरी दुनिया को मालूम पड़े.  उसी तरह आपके रणनीति परिवर्तन से सरकार की सारी युद्धआत्मक तैयारी  धरी की धरी रह जायेगी और, इससे न सिर्फ आदिवासी एक गृह-युद्ध की आग से बच जायेंगे,  बल्कि  आप जैसे समर्पित  विचारों के समूहों के  अपनी रणनीति में बदलाव लाने से  व्यापक व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता आसान होगा.

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