07 जून 2013

लोकतंत्र पर हमला या लोकतंत्र विरोधियों पर हमला?


सुनील कुमार

एक सवाल-एक बात: 6 

फोटो: दख़ल की दुनिया
माओवादियों के द्वारा छत्तीसगढ़ में 25 मई को हुई कार्रवाई के बाद कई ऐसे सवाल हैं जो लगातार बहस का विषय बने हुए हैं. इन्हीं सवालों पर बहस के लिए 'एक सवाल-एक बात' शीर्षक से कुछ कड़िया प्रस्तुत की जा रही हैं. बहस के लिए आप अपने सवाल और अपनी बात dakhalkiduniya@gmail.com पर भेज सकते हैं. 


25 मई, 2013 की शाम, लगभग 5 बजे सुकमा जिले के दरभा घाटी में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) द्वारा कांग्रेस के ‘परिवर्तन यात्रा’ पर हमला किया गया। इस हमले में बस्तर का टाईगर कहे जाने वाले महेन्द्र कर्मा, कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नन्द कुमार पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार सहित 29 लोगों की मृत्यु हो गई जिसमें कांग्रेसी नेता, कार्यकर्ता और पुलिस बल के जवान थे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल सहित करीब 32 लोग घायल हो गये। इस हमले के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष सभी ने गले फाड़-फाड़ कर चिल्लाना शुरू कर दिया कि यह हमला ‘भारतीय लोकतंत्र’ पर हमला है। उन्होंने कहा कि इस हमले से निपटने (दमन चक्र चलाने) के लिए हम सभी को दलगत राजनीति से ऊपर उठना चाहिए और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को कुचल देना ही ‘लोकतंत्र’ पर हमले से बचने का एक मात्र रास्ता है।
25 मई, 2013 की घटना से पहले 17 मई, 2013 की रात बीजापुर के एड़समेटा गांव में जब गांव के आदिवासी अपना बीज पर्व मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे, उसी समय अर्द्धसैनिक बल के जवानों ने उनके ऊपर फायरिंग शुरू कर दी, जिसमें तीन मासूम बच्चों सहित 8 लोगों की मौत हो गई और 5 घायल हो गये। घायल 4 लोग जब अस्पताल गये तो उनको देखने के लिए कोई कर्मचारी तक नहंीं आया और उनको भूखे रहकर वहीं रात गुजारनी पड़ी। घायलों में से एक तो अस्पताल गया ही नहीं। एक साल पहले 28 जून, 2012 की रात बीजापुर के सरकिनगुड़ा में बीज पर्व पर बात करने के लिए इकट्ठा हुए थे, उस रात भी ‘बहादुर’ सीआरपीएफ और कोबरा बटालियन के जवानों ने 17 ग्रामिणों को मौत की नींद सुला दिया, जिसका जश्न रायपुर से लेकर दिल्ली तक मनाया गया और कहा गया कि हमारे बहादुर जवानों को बहुत बड़ी सफलता मिल गई है। ऐसी छोटी-बड़ी घटनायें लगातार छत्तीसगढ़ में होती रहती हैं और होती रहंेगी। सीआरपीएफ प्रमुख प्रणय सहाय के अनुसार वामपंथी उग्रवाद प्रभावित नौ क्षेत्रों में 84000 सीआरपीएफ के जवान तैनात किये गये हैं; इसके अलावा कोबरा, बीएसएफ, भारत तिब्बत सीमा पुलिस, ग्रेहाउंड, इत्यादि के अलावा राज्य पुलिस के जवानों को इन क्षेत्रों में लगाया गया है। इतनी भारी संख्या में जब जवान होंगे तो क्या करेंगे? उनको कुछ तो अपने ‘कर्तव्य का पालन करना पड़ेगा ही’। जब इन जवानों के कर्तव्य का खुलासा डॉ विनायक सेन व हिमांशु जैसे लोग करते हैं तो उनको फर्जी तरीके से फंसाया जाता है, उनके आश्रम को तोड़ दिया जाता है, यहां तक कि पुलिस अधिकारियों द्वारा पत्रकारों को मारने की खुली छुट वायरलेस पर दी जाती है।
बस्तर का टाइगर
महेन्द्र कर्मा बस्तर टाइगर के नाम से जाने जाते थे। मेरी राय में महेन्द्र कर्मा टाइगर ही नहीं खूंखार टाइगर थे, जिनकी भूख कभी शांत होने वाली नहीं थी। महेन्द्र कर्मा ने अपनी राजनीति की शुरूआत सीपीआई के साथ की थी और 1978 में सीपीआई के टिकट पर पहली बार विधायक चुने गये थे। सत्ता के लोभ में फंसे कर्मा को जब दुबारा टिकट नहीं मिला तो उन्होंने कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया। 1996 में जब सीपीआई ने संविधान की पांचवी और छठवीं अनुसूची को लागू कराने के लिए आन्दोलन शुरू किया तो महेन्द्र कर्मा ने इसका विरोध किया। कर्मा भोले-भाले आदिवासियों को फंसाकर उनकी जमीनें ले लिया करते थे और उसमें लगे बेशकीमती पेड़ों को कटवा कर बेच दिया करते थे। यह कांड ‘मालिक मकबूजा’ के नाम से जाना जाता है। महेन्द्र कर्मा ने आदिवासियों की जमीन और खनिज संपदा हड़पने के लिए सलावा जुडूम अभियान चलाया, जिसमें लगभग 650 गांवों को जला दिया गया, हजारों लोगों की नृशंसता पूर्वक हत्या की गई, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, यहां तक कि मासूम बच्चों को भी मारा गया, उनकी ऊंगलियां काट दी गई। 50000 आदिवासियों को उनके गांव से उठाकर सलावा जुडूम के कैंप में रखा गया। कैम्पों में इन आदिवासियों को जानवरों जैसा रखा जाता था और महिलाओं के साथ क्या सलूक होता रहा है यह छुपी हुई बात नहीं है। छत्तीसगढ़ के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अजित योगी अपने भाषाणों में बार-बार एक घटना का जिक्र करते हैं कि उनके एक कार्यकर्ता ने शाम के समय फोन करके ‘‘गाली देते हुए कहा कि तुम आदिवासियों के नेता बनते हो आज हमारी बेटी को सलवा जुडूम वालों ने उठा लिया है और तुम कुछ नहीं कर सकते।’’ सलावा जुडूम के लिए केन्द्र तथा राज्य सरकार ने अर्द्धसैनिक बल उपलब्ध कराया तो इस कैम्प का खर्च टाटा और एस्सार ने उठाया। इससे यह बात साफ हो जाती है कि सलावा जुडूम का मकसद क्या था। इस तरह इस टाइगर और उनके पूर्वजों की अनेकों कहानियां मिल जायेंगी।
25 मई, 2013 की घटना के बाद एसौचेम (पूंजीपतियों की संस्था) के अध्यक्ष राजकुमार एन. धूत ने कहा कि ‘‘नक्सल प्रभावित राज्यों में काम करने वाले लोगों के बीच असुरक्षा का जिस तरह का माहौल है उसे लेकर संगठन बेहद चिंतित है ........। इसके लिए आर्थिक या किसी और स्तर पर जिस भी तरह की मदद की दरकार सरकार को होगी उसमें भारतीय औद्योगिक जगत सदैव साथ देगा।’’ एसौचेम की बात से बिल्कुल साफ है कि पूंजीपतियों की लूट को बनाये रखने के लिए सरकार को चाहे जितने भी निर्दोष लोगों की खून बहाना पड़े, जितनी भी मां-बहनों के साथ बलात्कार करना पड़े, करेंगे।
लोकतंत्र पर हमला
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के हमले को भारतीय लोकतंत्र पर हमले की बात शासक वर्ग के मीडिया में जोर-शोर से कही जा रही है। शासक वर्ग द्वारा चलाये गये अभियान सलावा जुडूम, ग्रीन हंट द्वारा अपनी जीविका के साधन, जल-जंगल-जमीन, बचाने के आन्दोलन में मारे गये लोगों के लिए क्या सरकार ने कभी खेद प्रकट किया है और हत्यारों, बलात्कारियों को सजा दी है? क्या एड़समेट्टा और सारकिनगुड़ा के हत्यारे दोषी अधिकारियों, मंत्रियों को सजा दी है या कभी दे पायेगी?  इन निहत्थे आदिवासियों की हत्या और बलात्कार पर भारत का लोकतंत्र शर्मसार क्यों नहीं होता? उड़ीसा से लेकर झारखंड तक पूंजीपतियों की लूट को बनाये रखने के लिए जनता के आन्दोलनों को कुचला जा रहा है, फर्जी केस लगाकर जेलों में डाल दिया जा रहा है, महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा है। क्या आम जनता के लिए भी कोई लोकतंत्र है? भारत में किसान विरोधी नीतियों के कारण लगभग 5 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। क्या इन हत्यारी नीतियों पर कभी विचार किया गया है? इस देश में मां-बहनों को अपने पेट की भूख मिटाने के लिए अपने ही जिस्म का सौदा करना पड़ता है, अपने बच्चों को चंद रुपये की खातिर बेच दिया जाता है, जिससे कि वे कुछ दिन और जिन्दा रह सकें। जब मजदूर इसी लोकतंत्र द्वारा दिये गये अपने कानूनी अधिकार की मांग करते हैं तो हजारों मजदूरों को एक साथ नौकरी से निकाल कर उनके परिवारों को तिल-तिल मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। उससे भी जब उनके मनोबल को नहीं तोड़ पाते है तो इन मजदूरों को सालों-साल जेल में रखकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है- जैसा कि मारूति सुजुकी, ग्रेजियानो, निप्पोन इत्यादि मजदूरों के साथ किया जा रहा है। 19 मई, 2013 को ही जब कैथल में मारूति सुजुकी के मजदूर, उनके परिवार और समर्थक मारूति सुजुकी मजदूरों पर हो रहे अन्याय की मांग को लेकर हरियाणा के उद्योग मंत्री से मिलना चाहते थे तो महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया, पानी की बौछार की गई तथा चुन-चुन कर नेतृत्वकारी मजदूरों और उनके समर्थकों को पकड़ा गया और फर्जी धाराओं के तहत उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। ये घटनाएं लोकतंत्र का संचालन करने वाली संसद से मात्र कुछ दूरी पर एनसीआर में ही हो रही है, दूर-दराज की बात तो छोड़ ही दीजिये कि वहां जनता पर किस तरह के जुल्मों-सितम ढाये जा रहे हैं। इससे साफ है कि इस लोकतंत्र में से लोक (जनता) गायब है और तंत्र ही बच गया है और जब इस तंत्र पर हमला होता है तो शासक वर्ग तिल मिला उठता है जो आवाज तंत्र के खिलाफ हो उस आवाज को कुचलने के लिए दिन-रात एक कर देता है। रातों रात राहुल गांधी रायपुर पहुंच गये, दूसरे दिन प्रधानमंत्री से लेकर सोनिया गांधी तक छत्तीसगढ़ पहुंच जाते हैं। लेकिन ये लोग चंद दूरी पर मजदूरों पर हो रहे हमले पर जाना या उनके अधिकारों के विषय में बोलना उचित नहीं समझते। जिस देश में ‘लोकतंत्र’ के ढांचे में ही हिंसा है; जहां जाति, धर्म, लिंग के नाम पर लोगों को मार दिया जाता है और ‘लोकतंत्र’ का मुखिया कहता है कि ‘‘बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है’’ तो दूसरी घटना में राजधर्म निभाने की बात कही जाती है तो कभी बेटियों के पिता होने की दुहाई दे कर अपनी जिम्मेदारी से इतिश्री कर ली जाती है।  राष्ट्रपति से प्रधानमंत्री तक सभी एक सुर में कह रहे हैं कि लोकतंत्र में किसी भी प्रकार के हिंसा का स्थान नहीं है। क्या अब तक सलावा जुडूम या जीविका के साधन के लिए आंदोलन कर रहे लोगों पर हो रहे हमले लोकतंत्र का हमला नहीं है? दिल्ली में भी माओवादी हमले कर सकते हैं इस तरह की अफवाह फैला कर, क्या दिल्ली व दिल्ली जैसे शहरों भी जनवाद पंसद लोगों पर दमन चक्र चलाने की साजिश की जा रही है। क्या यहां पर लोकतंत्र बचा है? ‘लोकतंत्र’ पर हमला हो रहा है या ‘लोकतंत्र’ विराधियों पर हमला हो रहा है?
मीडिया का रोल
प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह द्वारा मुख्यमंत्रियों की बैठक में कहा गया था कि मिडिया को भी को-आपट करना चाहिए। इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया शासक वर्ग की बातों को ही जोर-शोर से प्रचारित कर रही है या उनके सुर में सुर मिलाने वाले लोगों की बातों को ही तवज्जो दे रही है।  ज्यादातर ऐसे लोगों को चर्चा में बुलाया जा रहा है जो कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) यानी शोषित-पीड़ित जनता के आन्दोलन को बर्बर तरीके से कुचलने के पक्ष में है। अगर इस चर्चा में कोई तथ्यों को रखते हुए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से बिना शर्त बातचीत का सुझाव देता है तो उसे माओवादी का प्रवक्ता का संज्ञा दे दी जाती है। जल-जंगल-जमीन की लूट में से एक हिस्सा इन मीडिया को भी मिलता है विज्ञापन के रूप में, जो कि सरकार व कम्पनियों द्वारा दिया जाता है। बहुत सारे मीडिया घराने अब तो सीधे सीधे जल-जंगल-जमीन के लूट में लगे हुए हैं- जैसे कि दैनिक भास्कर समूह के चेयरमैन रमेश चंद अग्रवाल को रायगढ़ में कोल ब्लॉक का आवंटन किया गया है। इसी तरह नवभारत ग्रुप ने बस्तर में आइरन स्पंज प्रोजेक्ट के लिए 8 सितम्बर, 2003 को 1460 करोड़ रु. का छत्तीसगढ़ सरकार के साथ इकरारनामा (डवन्) किया है।
नक्सलवाद ने जहां सामंतों की चुलें हिला दी वहीं नक्सलवाद का विकसित रूप माओवाद ने आज समांतो व पूंजीपतियों के मनसूबों पर पानी फेर दिया है। टाटा कोे बस्तर में  5.5 मिलियन टन का स्टील प्लांट लागने के लिए 2044 हेक्टेअर भूमि चाहिए जिसके लिए 6 जून 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार के साथ इकरारनामा (डवन्) हुआ है। लेकिन तीन बार इकरारनामा का नवीनीकरण होने के बाद भी आज तक अपने मकसद में टाटा कमायब नहीं हो पाया। इसी तरह एस्सार कम्पनी के साथ भी जुलाई 2005 में इकरारनामा हुआ है। एस्सार कम्पनी दंतेवाड़ा जिले के भांसी में 3.2 मिलियन टन का प्लांट लगाना चाहती है लेकिन ये कम्पनी भी आज तक कामयाब नहीं हो पाई है (ये दोनों कम्पनियों ने सलवा जुडूम कैम्प का खर्च दिया था)। अनिल अग्रवाल (जो कि वेदांता कम्पनी के भी मालिक हैं और उड़ीसा के नियामगिरी को भी बर्बाद करने पर लगे हुए हैं) बाल्को की क्षमता को 1 लाख टन प्रति वर्ष से बढ़ा कर 7 लाख टन प्रतिवर्ष करना चाहते हैं। छत्तीसगढ़ सरकार 2001 से 2010 तक पूंजीपतियों के साथ 192126.09 करोड़ रु. का 121 इकरारनामा (डवन्) किया है। अपने जीविका के साधन जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेतृत्व में आदिवासियों का जो संघर्ष चल रहा है इस इकरारनाम को लागू नही होने दे रहा है। पूंजीपतियों के लूट को बनाये रखने के लिए देश की जनता पर अघोषित युद्ध थोप दिया गया है। इस अघोषित युद्ध को छिपाने के लिए ही प्रचारित किया जा रहा है कि नक्सलवाद अपने वैचारिक संघर्षों से भटक गया है और आतंकवाद व गुंडा गिरोह में तब्दील होकर चंदा उगाही कर रहा है; माओवादी नेताओं और बुद्धिजीवयों में राजनीति करने का धैर्य और विवेक नहीं है। जहां पीढ़ी दर पीढ़ी जनता आज तक अपने को लूटती हुई देखती आई है जहां लोगों को दो जून की रोटी, पीने का स्वच्छ पानी तक नहीं है- शिक्षा और स्वास्थ्य तो दूर की बात है, जो भी उनके पास है उसको भी लूटा जा रहा है और हम उनसे धैर्य की बात कर रहे हैं।
इस लूट को बनाये रखने के लिए सीआरीपीएफ, कोबरा, बीएसएफ, भारत तिबब्त सीमा पुलिस, ग्रेहाउण्ड, वायु सेना, प्रशिक्षण के नाम पर सेना इसके अलावा सलावा जुडूम, कोया कमांडो, नागरिक सुरक्षा समिति जैसे कई प्राइवेट सेनायें भी बनाई व लगाई गई हैं। अमेरिका और इस्राइल द्वारा तकनीक से लेकर ट्रेनिंग तथा हथियार दिया जा रहा है। सेटेलाइट और यूएवी (मानवरहित एरियल व्हेकल)  के सहारे फोटो लेकर हमले किये जाते रहे हैं। शासक वर्ग सैनिक, अर्द्धसैनिक बलों के बल पर दमन चक्र चला कर लूट को बनाये रखना चाहती है। यह सैनिक, अर्द्धसैनिक बल उसी शोषित-पीड़ित के घर से आते हैं जिसकी राजनीति भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) करती है और जिस दिन वे इन बलों को अपनी राजनीति को समझा दिया उस दिन सब कुछ बदल जायेगा।
माओवादियों का विदेशी सम्बंध
गृहमंत्री रहते हुए पी. चिदम्बरम ने संसद में बयान दिया है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को विदेशों से मद्द मिलने का कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन बार-बार इस बात को उछाला जाता है कि माओवादियों का तार विदेशों से जुड़े हैं, इनको पास काफी संख्या में आधुनिक राइफलें हैं। दरभा घाटी के हमले में माओवादियों ने 1830-1840 दशक के भरमार बंदूकों का इस्तेमाल किया है; इस बात की पुष्टि घायल और अन्य लोगों के शरीर से पुराने हथियारों की गोली मिलने से होती है। रामकृष्ण केयर अस्पताल के संचालक डॉ संदीप दवे के अनुसार 99 प्रतिशत घायलों के शरीर से पहले भी पुराने हथियारों की ही गोलियां निकलती रही हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि आज भी माओवादियों के पास ज्यादातर पुराने हथियार हैं। माओवादियों पर क्रूरतापूर्वक हत्या करने की बात कही जा रही है जब कि ‘परिवर्तन यात्रा’ में शामिल डॉ. शिव नरायण के अनुसार,  ‘‘मेरे पैर से खून बहता देख उनके कमांडर ने कहा कि डॉक्टर साहब को इंजेक्शन लगा दो।’’ इस तरह माओवादियों ने कई घायलों का इलाज किया और पानी पिलाया और महेन्द्र कर्मा, नन्द कुमार पटेल और उनके बेटे के अलावा सभी आत्मसमर्पण करने वालों लोगों को छोड़ दिया। हमले के दो घंटे बाद पत्रकार नरेश मिश्रा बाइक से घटना स्थल पर पहुंचे और घायलों को मदद करने लगे; जब वह घायलों के मदद में लगे थे उसी समय कांग्रेसी नेता कवासी लखमा उनकी बाइक लेकर भाग गये, इस कारण उनको पैदल ही वापस आना पड़ा।
समाधान
भारत का शासक वर्ग इस समस्या का समाधान दमन के रूप में देख रहा है। लेकिन जरूरत है कि अभी तक पूंजीपतियों की लूट के लिए जो भी हमले जनता पर किये गये है उन हमले के जिम्मेदार लोगों को सजा हो। आदिवासी क्षेत्रों में संविधान की अनुच्छेद 5 और 6 को लागू किया जाये और लोगों के सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार दिया जाये। सभी इकरारनामा (डवन्) को रद्द किया जाये। किसी भी प्रकार के इकरारनामा करते समय लोगों की अनुमति ली जाये। आपॅरेशन ग्रीन हंट सहित, सैनिक, अर्द्धसैनिक को वापस बुलाया जाये और माओवादियों से बिना शर्त बात की जाये। जेलों में बंद सभी आन्दोलनकारियों को रिहा किया जाये। शासक वर्ग के दमन से माओवाद समाप्त नहीं होगा।
सुनील कुमार से आप sunilkumar102@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.



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