08 जनवरी 2011

बगैर पेशे का माओवादी होना

चन्द्रिका
९२ पेज के फैसले में तीन जिंदगियों को आजीवन कारावास दिया जा चुका है. बिनायक सेन के बारे में उतना कहा जा चुका है जितना वे निर्दोष हैं और उतना बाकी है जितना सरकार दोषी है. अन्य दो नाम पियुष गुहा और नारायण सान्याल, जिनका जिक्र इसलिये सुना जा सका कि बिनायक सेन के साथ ही इन्हे भी सजा मुकर्रर हुई, शायद अनसुना रह जाता. पर जिन नामों और संख्याओं का जिक्र नहीं आया वे ७७० हैं, जो बीते बरस के साथ छत्तीसगढ़ की जेलों में कैद कर दी गयी, इनमें हत्याओं और यातनाओं को शामिल नहीं किया गया है. जिनमे अधिकांश आदिवासी हैं पर सब के सब माओवादी. यातनायें इससे कई गुना अधिक हैं और दुख जिसकी गणना किसी भी जनगणना में बाकी रह जायेगी. इनके बारे मे बात करना युद्ध में एक मार्मिक व स्पर्षी अलाप ही होगा. छत्तीसगढ़ का आदिवासी होना थोड़े-बहुत उलट फेर के साथ माओवादी होना है और माओवादी होना अखबारी कतरनों से बनी हमारी आँखों में आतंकवादी होना. यह समीकरण बदलते समय के साथ अब पूरे देश पर लागू हो रहा है. सच्चाई बारिश की धूप हो चुकी है और हमारा ज़ेहन सरकारी लोकतंत्र का स्टोर रूम.
दशकों पहले जिन जंगलों में रोटी, दवा और शिक्षा पहुंचनी थी, वहाँ सरकार ने बारूद और बंदूक पहुंचा दी. बारूद और बंदूक के बारे में बात करते हुए शायद यह कहना राजीव गाँधी की नकल करने जैसा होगा कि जब बारूद जलेगी तो थोड़ी गर्मी पैदा ही होगी. देश की निम्नतम आय पर जीने वाला आदिवासी समाज, देश के सबसे बड़े और दुनिया के १० में से एक सार्वाधिक रक्षा बजट प्राप्त सेना से लड़ रहा है. यह लड़ने की आस्था है, धार्मिक आस्था के विरुद्ध लड़ाई की ऐसी आस्था जिसमे हर बार जीतने की ख्वाहिश तीव्र हो जाती है. इस बात से बेपरवाह कि देश का मध्यम वर्ग भारतीय सत्ता को बहुत ताकतवर मानता है.
दुनिया की महाशक्ति के रूप में गिने जाने वाले देश की सत्ता से लड़ना शायद और यकीनन आदिवासियों की इच्छा नहीं रही होगी, पर यह जरूरत बन गयी, कि जीने के लिये रोटी और बंदूक साथ लेके चलना और जंगलों की नई पीढ़ीयों ने लड़ाईयों के बीच जीने की आदत डाल ली. देश में व देश के राज्यों में सभी शासित पार्टियों ने आदिवासीयों का उन्मूलन अपना फर्ज बना लिया है. बुद्धदेव भट्टाचार्य या बंगाल की बात यहाँ अलग से करना उन्हें अलग पंक्ति में खड़ा करना होगा. गृह मंत्रालय पेशेवर आदिवासी उन्मूलक बन गया सिर्फ झंडे और चेहरे बदलते रहे. लवासा (पुणे और बाम्बे के बीच पैली विस्तृत पहाड़ियों पर चल रही एक परियोजना) माओवादियों से मुक्त है और यहाँ के आदिवासी गाँव बेखौफ उजाड़े जा रहे हैं. यहाँ के आदिवासियों की स्थिति बस्तर और गड़चिरौली से भिन्न नही है. देश के विकसित होने के स्वप्न वर्ष २०२० से भी एक वर्ष बाद बनकर तैयार होने वाला यह पहला पर्वतीय नियोजित शहर होगा. यहाँ के आदिवासियों के पास न तो बारूद है न बंदूक बस उनकी आवाजे हैं जो घाटी के बाहर तक बमुश्किल से निकल पायी हैं.
अब तो बस देश की जनता अपनी जरूरतें पूरी कर रही है. मसलन आदिवासियों को जीने के लिये जंगल की जरूरत है और जंगल को पेड़ों की जरूरत, पेड़ों को उस जमीन की जरूरत जिसकी पीठ पर वे खड़े रह सकें, उस पीठ और जमीन की जरूरतें है कि उन्हें बचाया जा सके उखड़ने और खोदे जाने से और इन सारे बचाव व जरूरतों को पूरा करने के लिये के लिये जरूरी है माओवादी हो जाना. कार्पोरेट और सरकार की जुगलबंद संगीत को पहाड़ी और जंगली हवा में न बिखरने देना. सरकार की तनी हुई बंदूक की नली से गोली निकाल लेना, अपनी जरूरतों के लिये जरूरत के मुताबिक जरूरी हथियार उठा लेना. शहर के स्थगन और निस्पन्दन से दूर ऐसी हरकत करना कि दुनिया के बुद्धिजीवियों की किताबों से अक्षर निकलकर जंगलों की पगडंडियों पर चल फिर रहे हों. इस बिना पर इतिहास की परवाह न करना कि लिखा हुआ इतिहास लैंप पोस्ट के नीचे चलते हुए आदमी की परछाईं भर है, बदलते गाँवों के साथ अपने नाम बदलना और पुलिस के पकड़े जाने तक बगैर नाम के जीना, या मर जाना, कई-कई नामों के साथ. नीली पॉलीथीन और एक किट के साथ जिंदगी को ऐसे चलाना कि समय को गुरिल्ला धक्का देने जैसा हो. उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के विगत वर्षों के संघर्ष, जिनका माओवादियों ने नेतृत्व किया, जीवन जीने के लिये अपनी अस्मिता के साथ खड़े होने के सुबूत हैं. जिसे भावी प्रधानमंत्री की होड़ में या निर्विरोध चुना जाने वाला, सनसनी खेज यात्रायें करता कांग्रेस का युवा युवराज हाल के एक बड़े अधिवेशन में एक तरफ उड़ीसा के आदिवासियों की जीत करार देता है और कहता है कि आम आदमी वो है जो व्यवस्था से कटा हुआ है. तो दूसरी तरफ देश की लोकतांत्रिक संरचना उन्हें माओवादी कहकर जेल में या सेना के शिकारी खेल में खत्म कर रही है.
इस पूरी परिघटना के एक विचारक नारायण सान्याल, उर्फ नवीन उर्फ विजय, उर्फ सुबोध भी हैं इसके अलावा इनके और भी नाम हो सकते हैं जिनका पुलिस को पता नहीं भी हो. पोलित ब्यूरो सदस्य माओवादी पार्टी, कोर्ट के दस्तावेज के मुताबिक उम्र ७४ साल और पेशा कुछ नहीं. बगैर पेशे का माओवादी. शायद माओवादियों की भाषा में प्रोफेशनल रिवोल्यूशनरी कहा जाता है और माओवादी होना अपने आप में एक पेशा माना जाता है. उर्फ तमाम नामों के साथ नारायण सान्याल को कोर्ट में पेशी के लिये हर बार ५० से अधिक पुलिस की व्यवस्था करनी पड़ती है. तथ्य यह भी कि नारायण सान्याल किसी जेल में २ माह से ज्यादा रहने पर जेल के अंदर ही संगठन बना लेते हैं. देश के जेलों में बंद कई माओवादियों के ऊपर ये आरोप हैं और उन्हें २ या तीन महीने में जेल बदलनी पड़ती है. बीते २५ दिसम्बर को चन्द्रपुर जेल के सभी माओवादी बंदियों को नागपुर जेल भेजना पड़ा क्योंकि पूरी जेल ही असुरक्षित हो गयी थी. प्रधानमंत्री का कहना है कि पूरा देश ही असुरक्षित है और माओवादी उसके सबसे बड़े कारक हैं. आदिवासियों का कहना है कि वे असुरक्षित हैं, क्योंकि उनके बसेरों में पुलिस और सेना घुसा दी गयी है. पुलिस और सेना इसलिये असुरक्षित है क्योंकि अक्सर जहाँ वे तैनात हैं, खासतौर से बच्चों के स्कूलों पर कब्जा कर. वहीं कहीं लैंड माइन बिछाकर उन्हें या उनके बसेरों को उड़ा दिया जा रहा है. असुरक्षा की इस पूरी कायनात में फिर सुरक्षित कौन है? वह जज्बा जो गृहमंत्री के आदेश पर देश के आदिवासियों को सेना और पुलिस के साथ लड़ा रहा है. वह इंतजार जो बीतती उम्र के साथ मौत के लिये बेखौफ है. वे इरादे जो सबकुछ बदलने के लिये जेहन में पल रहे हैं या वह हठ जो जमीन बाशिंदों की नहीं पूजीपतियों की करार दे रहा है. ये सब बरकरार हैं. यही बरकरारी शब्दों की थोड़ी हेर-फेर और क्रिया के बड़े उलटफेर के साथ इन सबको बेकरार कर देती है जो एक मानवाधिकार कार्यकर्ता (सरकारी और एन.जी.ओ. नियुक्त को न जोड़ा जाय), एक बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता (किनको न जोड़ा जाय आप खुद तय करें) है. एक डच कवि जुस्ट हिल्टरमन की पंक्तियां उनके लिये जो बचे रह गये छत्तीसगढ़ या छत्तीसगढ़ों में मानवाधिकार का काम करते हुए. वह अहमद ही था/ जो मुझे गांव दिखाने ले गया था/ जब अपने काम के सिलसिले में/ मैं यह देखने आया था/ कि शहर में/ कितने घर गिरा दिये गये हैं/ और कितने सील कर दिये गये हैं/ आया था/ इतिहास दर्ज करने/ आधिपत्य का/ मानवाधिकार का काम अच्छा है/ जब आपके पास फुरसत का समय हो.
बिनायक सेन, सान्याल और पीयुषगुहा के फैसले में कोर्ट के द्वारा प्रस्तुत निर्णय और पुलिस के द्वारा पेश की गयी चार्जशीट मे बहुत कम फर्क है. यह मामूली सा फर्क जिस बड़े फर्क की ओर इशारा कर रहा है वह है वर्तमान संरचना में न्यायपालिका व अन्य पहले से ही भ्रष्ट घोषित किये जा चुके स्तम्भों के फर्क का मिटना. संरचना में एक मात्र बची उम्मीद का खत्म होना. जितने बड़े पैमाने पर इसको लेकर प्रतिरोध हुए हैं वह विकल्प की तलाश में लोगों के हांथों का उठना है. मुमकिन है कि इन प्रतिरोधों के बाद बिनायक सेन को रिहा भी कर दिया जाय पर छत्तीसगढ़ के ७७० व देश में कई ७७० लोगों की रिहाई एक मुक्तिकामी संघर्ष के बाद ही हो सकती है.
लिहाजा बिनायक सेन के आजीवन कारावास पर बहस का केन्द्रीय बिन्दु माओवादी हो रहे देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों व बुद्धिजीवियों की भूमिका पर है. नारायण सान्याल, कोबाद गांधी, अभिषेक मुखर्जी जैसे बुद्धिजीवियों के माओवादी हो जाने का प्रश्न है. कि आखिर तेरह भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का स्कालर छात्र माओवादी क्यों बना? एक मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में आज अपनी भूमिका कैसे अदा करे? क्या यह सलवा-जुडुम की सरकारी हिंसा को वैध करके या फिर इसके प्रतिरोध में जन आंदोलन के साथ खड़े होकर. क्या इन जनांदोलनों को इस आधार पर खारिज किया जा सकता है कि यह माओवादियों के नेतृत्व में चल रहे हैं? यह खारिजनामा ६ लाख छत्तीसगढ़ के आदिवासी विस्थापितों को भी खारिज करना होगा. जिसे रमन सिंह यह कहते हुए पहले ही खारिज कर चुके हैं कि जो सलवा-जुडुम में नहीं है वो सब माओवादी है और अब सलवा-जुडुम कैंप में गिने चुने ही लोग बचे हैं, बाकी आदिवासी जंगलों में लौट चुके हैं.

1 टिप्पणी:

  1. न्यायालय पर भरोसा रखो। माओ-के लाल हत्यारों और उनके समर्थकों के छाती पीट विलाप से सच्चाई बदल नहीं जायेगी। आतंकवादी और उनके समर्थक फोडा हैं।

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