22 जनवरी 2011

स्थाई सदस्यता के लिए राजनीतिक भटकाव


-दिलीप खान
(जनसत्ता में प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप)
पिछले कुछ वर्षों से किसी भी महत्त्वपूर्ण देश के राष्ट्राध्यक्ष के साथ औपचारिक अथवा अनौपचारिक बातचीत में भारत की तरफ़ से एक मुद्दे को बेहद प्रमुखता से रखा जाता है, वह है संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता. एकदम हालिया तौर पर इस स्वर को हमने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, फ़्रांसिसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और चीनी प्रधानमंत्री बेन जियाबाओ के भारत यात्रा के दौरान सुना. इस मांग को भारत न सिर्फ़ किसी देश विशेष के साथ पारस्परिक बातचीत में उठाता रहा है बल्कि विभिन्न अंतरराष्ट्रीय गुटों और संगठनों के मंच से भी अपने पक्ष में समर्थन हासिल करने की अपील करता रहा है. फिलवक़्त ठीक इसी तरह की मांग कुछ अन्य देश भी कर रहे हैं. ख़ास तौर पर जर्मनी, ब्राज़ील और जापान. भारत सहित इन तीन देशों ने मिलकर जी-4 नाम से एक संगठन भी बना रखा है जिसका मुख्य लक्ष्य ही संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता हासिल करना है. आम तौर पर जब इस तरह के अंतरराष्ट्रीय गुट बनते हैं तो आर्थिक और सामरिक संबंध इनके केंद्र में होते हैं. जी-4 का केंद्रीय उद्देश्य यह साबित करता है कि दुनिया के ऐसे देश, जो संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्य नहीं हैं और किसी न किसी तरह एक शक्ति के रूप में अपने उभार को देख रहे हैं, वे ’वीटोधारी रेखा’ के अंदर आने के लिए कितने बैचैन हैं! साथ ही, इन उपक्रमों के जरिए ये देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्य देशों को प्राप्त ’अमोघ हथियार’ वीटो को सैद्धांतिक रूप से वैधता भी दे रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पिछले 60 से भी अधिक वर्षों से सबसे बड़े संस्था के बतौर मान्य संयुक्त राष्ट्र में ढ़ांचागत परिवर्तन को लेकर अब कोई सवाल ही नहीं है. हालांकि यह सवाल कभी था भी नहीं. बस ढांचागत समायोजन की मांग इस रूप में होती रही है कि अधिक शक्ति बटोरने की जुगत में कुछ ऐसे देश जो दुनिया में अपना एक प्रभाव रखते हैं वे शक्तिशाली क्लब में शामिल होना चाहते हैं.
मौजूदा वैश्विक राजनीतिक लक्ष्य और ज़िम्मेदारियों के संबंध में इन देशों की चर्चा को तत्काल यहां छोड़ देते हैं. फिर भी, ऐसे उठने वाले मांगों और इसके पक्ष-विपक्ष में दिए जाने वाले तमाम दलीलों को स्थाई सदस्यता की संरचना के साथ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समीक्षा करने पर ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में इन देशों की मांग ग़लत दिशा में हैं. स्थाई सदस्यता चंद देशों की परस्पर-सहमति पर आधारित व्यवस्था है. दरअसल फरवरी 1945 में येल्त्रा सम्मेलन, जिसे क्रीमिया सम्मेलन भी कहा जाता है, में जब स्थाई सदस्यता की बीज बोई गई तो इसके निहितार्थ बहुत गूढ़ नहीं थे. क्रीमिया में युद्धोत्तर स्थिति में यूरोप के भीतर एक सांगठनिक ढांचा निर्मित करने को लेकर यह प्रयास था, जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ के राष्ट्राध्यक्ष एक साथ उपस्थित थे. इन राजनीतिक समीकरणों के बीच रूजवेल्ट ने सोवियत संघ को संयुक्त राष्ट्र में शामिल होने के लिए मना लिया, जिसे सोवियत संघ ने वीटो जैसी किसी शक्ति हासिल होने के शर्त पर स्वीकार किया. सोवियत संघ की इस मांग के पीछे तत्कालीन भू-राजनैतिक परिस्थितियां थीं कि किसी भी अनचाहे प्रस्ताव को पश्चिमी पूंजीवादी देश एक जुट होकर अपने पक्ष में न करवा ले. सोवियत संघ के राष्ट्र संघ से अलग होने के बाद इसकी अप्रासंगिकता ने यह स्पष्ट कर दिया था कि किसी भी संगठन को अंतरराष्ट्रीय होने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि सोवियत संघ उसमें शामिल हो. इस बिनाह पर स्थाई सदस्यता की व्यवस्था की गई. हालांकि अमेरिका और ब्रिटेन अपने भीतर असीमित अधिकार रखने की मंशा पहले से बनाए हुए थे, उन्हें इस तरह एक और बेहतर बहाना मिल गया था. फ़्रांस को इसमें शामिल किए जाने के पीछे जर्मनी के ख़िलाफ़ फ्री फ़्रेंच बलों का बेहद शानदार प्रदर्शन था. इसके अतिरिक्त औपनिवेशिक शक्ति के रूप में फ्रांस यूरोप के भीतर के एक बड़ा बल था.
अब यहां से लेकर आगे की स्थिति को देखें तो यह साफ़ जाहिर होता है कि इन चार-पांच देशों द्वारा लिए गए फैसले को कभी भी इस तरह चुनौती नहीं दी गई कि उनके असीमित अधिकार को न्यून करके अन्य देशों के स्तर पर लाया जाए. अलबत्ता यह ज़रूर हुआ है कि इन शक्तियों को हासिल करने की दावेदारी बढ़ गई है. दबे-खुले स्वरों में यह मांग कुछ समय से हो रही है कि संयुक्त राष्ट्र की पुनर्समीक्षा की जानी चाहिए जिसमें बलाघात इस बात पर है कि सुरक्षा परिषद के भीतर जितने स्थाई सदस्य हैं वे दुनिया को ठीक तरह से प्रतिनिधित्व नहीं दे रहे हैं. यह सिर्फ़ कुछ क्षेत्र विशेष के ही देश हैं. मसलन दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया महादेश से एक भी देश इस समूह में शामिल नहीं हैं. या फिर एक अरब से अधिक जनसंख्या वाले देश भारत को एशिया से एक सदस्य चीन के होने के बावजूद स्थाई किया जाए. दावेदारी साबित करने के लिए पैमाना बनाना बहुत मुश्किल नहीं हैं. अर्थव्यवस्था, क्षेत्र, जनसंख्या, क्षेत्रफल, लोकतंत्र सबकुछ इसके लिए खोला जा सकता है. लेकिन, असली सवाल यह है कि कुछ देशों द्वारा बनाए गए इस सुरक्षा कवच सरीखे व्यवस्था को चुनौती दी जानी चाहिए अथवा राजनीतिक तौर पर इस व्यवस्था के लिए उन देशों को प्रोटेक्ट करते हुए उसमें शामिल होने की गुहार लगाना चाहिए?
भारत जैसे देशों के पास फिलहाल वह क्षमता है कि वे तमाम ऐसे देशों का जो इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, उनकी अगुवाई कर सके. इस काम के लिए भारत स्वाभाविक तौर पर ’तीसरी दुनिया’ के देशों का पसंद भी बन सकता है. जी-77 जैसे समूह में भारत अपनी मज़बूत हैसियत रखता है. यदि इस जगह पर भारत बल लगाता है तो इसे इसमें अधिक स्वीकृति भी मिलेगी और अधिक सम्मान भी. इससे पहले भी ग़रीब मुल्कों ने साथ मिलकर ऐसे कई ढांचों के विरुद्ध लड़ाईयां लड़ी हैं. शीत युद्ध के समय भारत समेत ’तीसरी दुनिया’ के कई ’विकासशील’ देशों ने उसमें शामिल दो गुटों से अलग अपना एक स्वतंत्र गुट बनाया था. इस ज़मीन से साम्राज्यवाद और घटाटोप पूंजीवाद के ख़िलाफ़ कई लड़ाईयां लड़ी गई जिनमें से कुछ में ये जीते औए कुछ में हारे. गुटनिरपेक्ष देशों ने एक समय में यूनेस्को पर इस बात के लिए दबाव बनाया था कि वे तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था को बदलें और सत्तर के दशक में दुनिया के सामने ’नई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ पेश की गई. इस व्यवस्था से ऐसा नहीं था कि ’तीसरी दुनिया’ के देशों को कोई बड़ी सफ़लता हासिल हुई. फिर भी इसके सांकेतिक महत्त्व बड़े दूरगामी थे. मसलन इसी के आस-पास इन देशों ने दुनिया भर में असंतुलित सूचना प्रवाह को दुरूस्त करने के लिए ठीक उसी तर्ज पर ’नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था’ बनाने की मांग की. और इसी के मद्देनज़र यूनेस्को ने मैकब्राइड आयोग का गठन किया था, जिसकी संस्तुतियों से खफ़ा होकर अमेरिका ने यूनेस्को की सदस्यता त्याग दी थी.
मौजूदा संकट यह है कि ये तमाम देश अपनी इन इतिहासों से दूर निकल आए हैं. शीत युद्ध की समाप्ति के साथ ही सैद्धांतिक रूप से गुटनिरपेक्षता का औचित्य भी खत्म हो गया और इन देशों के भीतर पल रहे उदार बुर्जुआओं ने पूंजीवाद के नए संस्करण ’वैश्वीकरण’ को अपने-अपने देशों में पैबस्त कराया. अब ये बुर्जुआ ही सही अर्थों में शासक हैं. जाहिर है किसी भी ऐसे ढांचे को चुनौती देने में इन देशों की सत्ता (शासक) हिचकिचाएंगी जो किसी ऐसी ही व्यवस्था की पैदाइश हो जिससे वे खुद फल-फूल रहे हैं.
सोवियत संघ के विघटन के बाद यह साफ़ जाहिर हो गया है कि दुनिया में शक्ति केंद्रण एक खास देश के पास है. लेकिन इन वर्षों में यह भी बेहद स्पष्टता के साथ प्रकट हुआ है कि दुनिया के प्रत्येक हिस्से में कुछ देशों ने आपस में अधिक दुश्मनाना भाव विकसित किए हैं. शीत युद्ध के दौरान गुटबाजी में वैचारिकी अधिक महत्त्वपूर्ण था. वैचारिकी अब गौण हो रहा है. और दुनिया में शत्रुता का पैमाना वापस 20वीं सदी के पूर्वार्ध की तरह हो रहा है. हर देश अपने क्षेत्र विशेष में शक्तिशाली होकर उभरना चाह रहा है. इसे समूचे ग्लोब पर महसूस किया जा सकता है कि अधिकांश देशों के पड़ोसी ही उसके सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर चिह्नित है. वे एक-दूसरे से आर्थिक, राजनीतिक और यहां तक कि सैन्य क्षेत्र में आगे निकलने को और प्रत्येक दूसरे को ’कुचलने’ को बेताब नज़र आते है. ऐसे में यह तर्क कितना खोखला लगता है कि सुरक्षा परिषद में क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की कमी को दूर करने के लिए हर क्षेत्र से कुछ देशों को इसमें शामिल किए जाने की ज़रूरत है. क्या भारत को स्थाई सदस्यता मिल जाने से यह पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व कर पाएगा? या फिर जापान को स्थाई सदस्यता मिलने से वह उत्तर और दक्षिण कोरिया का प्रतिनिधित्व कर पाएगा? अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बड़े पेंचोखम हैं. जिस जी-4 का भारत सदस्य है और स्थाई सदस्यता के लिए हाथ-पांव मार रहा है, उसके विरोध में दुनिया के कुछ देशों ने एक संगठन बना रखा है जिसे ’सहमति के लिए एकता आंदोलन’ अथवा कॉफी क्लब कहा जा रहा है. जिस तरह जी-4 का केंद्रीय एजेंडा स्थाई सदस्यता हासिल करना है उसी तरह कॉफी क्लब का स्थाई एजेंडा इन्हें ऐसा करने से रोकना है. इसमें स्पेन, इटली, कनाडा, दक्षिण कोरिया, पाकिस्तान, अर्जेंटीना जैसे देश शामिल हैं. तस्वीर बेहद स्पष्ट है. जैसा ऊपर जिक्र किया गया है ठीक उसी तर्ज पर जर्मनी को रोकने के लिए स्पेन, इटली, नीदरलैंड्स जैसे देश हैं, ब्राजील के लिए मैक्सिको और अर्जेंटीना है, भारत के लिए पाकिस्तान है, और जापान के लिए दक्षिण कोरिया. ऐसे में प्रतिनिधित्व की बात कैसे की जा सकती है? क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व को और अधिक ’ईमानदार’ बनाने के लिए जी-4 देशों ने यह भी सलाह दी है कि दो अफ्रीकी देशों को भी इसमें शामिल किया जाए लेकिन जब अफ्रीकी संघ में इसके लिए कोशिश हुईं तो मिस्र, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका में से दो को चुनने में संघ असमर्थ रहा. आपसी होड़ कहीं अधिक तीव्र है.

भारत समेत कुछ अन्य देशों को यदि स्थाई सदस्यता मिल जाती है तो इससे अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में क्या फर्क आएगा? अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक प्रतिस्पर्धा जिस स्तर की है उसमें इस बात की प्रबल संभावना है कि कुछ और देश इसके लिए कतार में खड़े हो जाएंगे और अपनी दावेदारी के लिए कोई ठोस बहाना भी ढूंढ लेंगे. लामबंदी का एक लंबा दौर चलेगा. यह लामबंदी और प्रतिस्पर्धा उसी तरह की होगी जैसी नाभिकीय हथियारों के मामले में अब तक देखने को मिली है. उत्तरी कोरिया इसलिए बम बना रहा है क्योंकि अमेरिका दक्षिणी कोरिया के साथ सामरिक अभ्यास करता है और अमेरिका के पास नाभिकीय बम है तथा उत्तरी कोरिया अपने को ’सुरक्षित’ बनाए रखना चाहता है! पाकिस्तान के पास इसलिए नाभिकीय बम है क्योंकि वह भारत के पास भी है! जिस तरह सुरक्षा की परिभाषा बदली है और नाभिकीय हथियार के ख़िलाफ़ नाभिकीय हथियार को सुरक्षा माना जा रहा है उसी तरह वीटो शक्ति को लेकर भी इसी तरह की प्रतिस्पर्धा देखने को मिले तो कोई आश्चर्य नहीं.
ऐसी मांगों के बाद मूल समस्या ढंक जाती है. या यूं कहे कि वह वैध हो जाती है. असल मसला सिर्फ़ यह रह जाता है कि वो शक्ति किसके पास हो. जबकि वास्तव में इसी शक्ति को चुनौती दी जानी चाहिए. यदि वीटो धारी देशों की संख्या बढ़ती है तो इसके दुरुपयोग और भी बढ़ेंगें. वीटो इस्तेमाल के पीछे प्रत्येक स्थाई सदस्य देशों के अपने हित रहे हैं. सोवियत गणराज्य से संबंधित मामले में मोटोलोव ने इतनी दफ़ा वीटो किया कि उन्हें ’मि. वीटो’ कहा जाने लगा. 1970 में अपना पहला वीटो इस्तेमाल करने के बाद से अमेरिका ने 80 से अधिक बार इसे दोहराया है. दसियों बार अंतरराष्ट्रीय मतों को धता बताते हुए उसने इजराइल के मसले पर बेशर्मी से अपने इस अधिकार का इस्तेमाल किया है. मध्य-पूर्व के मामले में अमेरिका पिछले बीस-पच्चीस सालों से बेतरह इसे भांजता रहा है और स्थाई कोटे से बाहर खड़े देशों ने अधिकांश समय इसकी निंदा की है. कई देशों ने इसे इस रूप में भी देखा कि यह दुनिया के चुनिंदा देशों को हासिल अलोकतांत्रिक अधिकार है. ऐसे में वे देश अब यदि खुद वीटो हासिल करने की मुहिम में लग जाए तो जाहिर है कि वे अलोकतांत्रिक होड़ में अपने को न सिर्फ़ शामिल कर रहे हैं बल्कि और आगे के लिए इसकी राह भी खोल रहे हैं.
इज़राइल में सामरिक और युद्ध कारणों से अमेरिकी वीटो ने यह स्पष्ट किया कि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना जिस संकल्पना के साथ की गई थी कि युद्धोत्तर समय में यह अंतरराष्ट्रीय शांति और सद्भावना के लिए काम करेगी, अब यह कई मामलों में उसके उलट जा रही है. संयुक्त राष्ट्र सहित दुनिया की तमाम बड़ी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को वास्तविक रूप से अमेरिका ही नियंत्रित कर रहा है इसलिए उसे अपने किसी भी फैसले पर इन संस्थाओं की रज़ामंदी की ज़रूरत नहीं मालूम पड़ती. इराक पर हमले की घोषणा करते हुए अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र को यह जानकारी दी थी कि वह चाहे तो अमेरिका के आदेशों का पालन करें या ’अप्रासंगिक’ बन कर रह जाए. संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए चुप्पी बेहतर समझा!
ऐसी स्थिति में यदि कुछ देशों को स्थाई सदस्यता मिल भी जाती है तो यह बहुत साफ़ है कि वे उसी अधिकारभाव और ताकत के साथ वीटो का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे जैसे कुछ ’बड़े’ देश कर रहे हैं. मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य इसके लिए बेहद दुस्साहसी देशों की मांग करता है. इतिहास में देखें तो मंगोलिया के मुद्दे पर सोवियत संघ रिपब्लिक ऑफ चाइना पर दबाव बना चुका है जिसके बाद चीन को अपने वीटो से मुकड़ना पड़ा था. फ़िलहाल अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जो समीकरण हैं उसमें ऐसे दबाव की संभावना पहले की तरह सुरक्षित है. यदि कोई देश अमेरिका की इच्छा के विरुद्ध सुरक्षा परिषद में वीटो करता है तो बहुत संभव है कि वह विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संघ के जरिए उस ख़ास देश पर आर्थिक दबाव बनाए. दरअसल दुनिया में नियंत्रण का असली संस्था संयुक्त राष्ट्र रह ही नहीं गई है. अब नियंत्रण इन्हीं आर्थिक संगठनों के जरिए कायम हो रही है. इन तमाम संस्थाओं का सबसे बड़ा वित्तपोषक और शेयरधारक अमेरिका है. विश्व बैंक का अध्यक्ष पारंपरिक तौर पर कोई अमेरिकी नागरिक ही बनता है. इस संस्था में अमेरिका के पास सबसे अधिक वोटिंग शक्ति है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में किसी भी फैसलों के लिए अमेरिका अकेले पर्याप्त है. संयुक्त राष्ट्र का भी सबसे बड़ा वित्तपोषक अमेरिका है. इन अधिकारों से वह कोई भी कदम उठाने के लिए आज़ाद है. वह इराक का तेल कब्जा कर संयुक्त राष्ट्र का ’सबसे बड़ा वित्तपोषक’ बना रहेगा और इसके जरिए वह फिर ’इराक’ का तेल कब्जाता रहेगा. यह दिलचस्प है कि किसी संस्था के समानांतर कुछ ऐसी संस्थाओं को खड़ा कर दिया जाए कि वह उनके सामने बौनी साबित हो और इन समानांतर संस्थाओं पर मज़बूती से नियंत्रण कायम कर असली संस्था को बिल्कुल पंगु बना दिया जाए.
यदि कोई देश स्थाई सदस्य बन कर भी अपने वीटो का इस्तेमाल आज़ादी से नहीं कर सकता तो स्थाई सदस्यता की इतनी तीव्र मांग बेकार है. इस एक ध्रुवीय युग में वीटो अंततः अमेरिका के पक्ष में ही जाएगा. कई देशों को वीटो मिल जाने के बाद भी विद्रोही साहसिक रवैया दिखाने की कूव्वत उनमें नहीं होगी और साम्राज्यवादी देश यह कहकर अपने को और उदार साबित कर लेंगे कि उन्होंने कुछ अन्य देशों को भी स्थाई सदस्य बनाया. यह अमेरिकी ’लोकतंत्र’ के प्रसार के अभियान को भी प्रमुखता से स्थापित करेगी.
लेकिन एक प्रमुख सवाल यह है कि जो देश पिछले कुछ सालों से स्थाई सदस्यता की मांग कर रहे हैं उनकी प्रकृति किस तरह की है? संयुक्त राष्ट्र की स्थापना को साठ साल से अधिक हो गए हैं लेकिन यह मांग बमुशिल एक दशक पुरानी है. इन वर्षों में भारत और ब्राज़ील ने तेजी से ’आर्थिक विकास दर’ हासिल किया है जबकि जर्मनी और जापान आर्थिक मामलों में पहले से संपन्न माने जाते हैं. यह मतलब निकाला जा सकता है कि आर्थिक मज़बूती इसमें एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व के तौर पर शामिल है. इन देशों के भीतर जो आर्थिक विकास का पूरा ढांचा है वह पूंजीवादी विकास के डॉमिनेंट पैराडाइम मॉडल के जरिए तैयार हुआ है और इसमें वित्तीय क्षेत्र का प्रमुख योगदान रहा है. दुनिया में वित्तीय पूंजी के जरिए ही शक्ति का आभास कराया जा रहा है. भारत वित्तीय अर्थव्यवस्था के क़रीब अपने को पा रहा है. अगर भारत स्थाई सदस्य बनता है तो इसका झुकाव भी ऐसे ही देशों के प्रति अधिक होगा. मतलब स्थाई सदस्य बनने की मांग जिन परिस्थितियों और पैमानों के आधार पर हो रही है वह पूंजीवाद समर्थक माहौल बनाने का ही काम करेगी और यही इनकी राजनीति का भी हिस्सा बनेगी. ये मज़बूत अर्थव्यवस्था वाले देश किनके पक्ष में खड़े होंगे यह पता लगाना मुश्किल नहीं रह गया.

’तीसरी दुनिया’ के देशों के साथ एक बड़ी समस्या जो पिछली सदी से ही देखने को आ रही है कि वे कई महत्त्वपूर्ण मामलों में अपना मॉडल तैयार करने में विफल रहे हैं और पश्चिमी देशों के मॉडल द्वारा फैलाए गए गोट पर ही अपना गोट फेंकते रहे हैं. यदि लोकतांत्रिक कहे जाने वाले देश खुद ही विशेषाधिकार इस्तेमाल करने की इच्छा रखने लगे तो जाहिर है वे उस विशेषाधिकार की राजनीतिक जाल में फंस गए हैं. किसी भी संस्था का जब तक हिस्सा बनकर और उसके नियमों को परम सत्य मानकर कोई योजना बनाई जाएगी तब तक मौलिक ढांचा और विचार प्रस्तुत करने में समस्याएं आती रहेंगी. स्थाई सदस्यता के मामले में भी यही बात देखने को मिल रही है और कोई भी देश इस नियम को चुनौती देने को अभी तैयार ही नहीं दिख रहा है, गोया तमाम कोशिशों के बावज़ूद यह नियम अपरिवर्तनीय हो.

पूंजीवाद में ’देयर इज नो अल्टरनेटिव’ का प्रचार जिस रूप में किया गया उसकी पृष्ठभूमि इस बिसात पर बनी थी कि पूंजीवाद के भीतर ही लोगों को इतने विकल्प दे दिए जाए कि वे उससे बाहर निकल कर सोचने की जहमत ही न उठाए. जिस सांस्कृतिक प्रभुत्व में भारत अभी है और जिस ओर यह जा रहा है उससे साफ़ प्रतीत हो रहा है कि यह अधिकांश मामलों में पश्चिमी देशों द्वारा बनाए गए ढांचों को अपनाएगा और उसी में अपनी जगह तलाशेगा. अमेरिकी समर्थन हासिल करने के लिए भारत जितनी कोशिशें कर रहा है, और जितनी परस्पर-विरोधी बातें वाशिंगटन कैंप से देखने-सुनने को आ रही है, उसके बावजूद बहुत संभव है कि अमेरिका निकट भविष्य में भारत के पक्ष में खुलकर खड़ा हो जाए, क्योंकि हाल-फिलहाल भारत अमेरिका का अच्छा सहयोगी है और अमेरिका को भी सबप्राइम मॉर्गेज संकट के समय मंदी से उबरने के लिए भारत और चीन जैसे देशों की ओट की ज़रूरत महसूस हुई थी. इसके अतिरिक्त यह भी साफ़ जाहिर हो रहा है कि जिस तरह की वैचारिक वर्चस्व (हेजेमनी) क़ायम करने की पश्चिमी देशों की मंशा थी उसमें वे बेहद सफल रहे हैं. इस तरह की मांगें उस हेजेमनी की सफलता को दर्शाती हैं.
पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों के मॉडल के साथ यह चालाकी जुड़ी हुई है कि वे अपने हित में स्पेस बनाए रखते हैं. मसलन विश्व व्यवस्था के लिए वैश्वीकरण के साथ जब वे नया मॉडल पेश कर रहे हैं तो द्वितीय विश्वयुद्ध के समय के इस साठ साल पुराने मॉडल, संयुक्त राष्ट्र, में फेरबदल करने को तैयार क्यों नहीं दिखते? वैश्वीकरण की स्थिति में तो फ़िर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नए संगठनों को खड़ा किया जाना चाहिए था. लेकिन अपने द्वारा प्रस्तुत वैश्वीकरण के दौरान वे ऐसी नकली बहसों में लोगों को उलझाकर रख देते हैं कि असल सवाल ढंका रह जाता है. परिवर्तन के बदले समायोजन होता है. ऐसे ही किसी समायोजन के तहत भविष्य में यदि भारत सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनता है तो यह इसका एक झटके में एक पाले से दूसरे पाले में पलायन होगा जो किसी संस्था के भीतर हैसियत बदलने से अधिक वैचारिक पलायन को रेखांकित करेगा.

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1 टिप्पणी:

  1. बढ़िया आलेख..
    अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बखिया उधेड़ दी.

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