-दिलीप खान
लवासा परियोजना के संबंध में पर्यावरण मंत्रालय की हालिया पेशकश कि जुर्माना अदायगी के साथ कंपनी अपने काम को चालू रख सकती है, भारतीय राजनीति के कॉरपोरेट गठजोड़ को नए सिरे से रेखांकित करती है. यह पेशकश अपने में नायाब है. मंत्रालय का स्पष्ट मानना है कि इस परियोजना में नियमों की अनदेखी की गई है और इस बयान से ठीक पहले तक जयराम रमेश कई बार लवासा में तत्काल काम रोकने का फ़रमान सुना चुके थे. हाल के दिनों में पर्यावरण मंत्रालय नियमों को लांघने वाली ऐसी कई परियोजनाओं को काला झंडा दिखा चुका हैं जिसमें शुरुआती चरण का काम खत्म हो चुका था. पास्को, नियामगिरी से होते हुए यह लकीर अरुणाचल प्रदेश तक जाती है, जहां करोड़ों रुपए दांव पर लगे थे. लेकिन लवासा में जो बुनियादी फ़र्क है वह यह कि इसमें सीधे तौर पर राज्य के कई रसूखदार नेताओं के हित दांव पर है.
इस घोषणा से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी भी नियम का उल्लंघन करने के बाद पैसा अदायगी से उसे ढंका जा सकता है. संवैधानिक व्यवस्था के मुतल्लिक तो ऐसा कई बार जाहिर हुआ है कि व्यावहारिक रूप से इसके क्रियान्वयन में कई जगह समानता नहीं हैं लेकिन जुर्माना अदायगी का भाव कुछ इस तरह है जैसे किसी आपदा के समय राज्य पीड़ित नागरिकों को लाख-दो लाख देकर उनके दुःख को हरना चाहती हो अथवा किसी नागरिक को ग़लत जुर्म में सजा देने के बाद कुछ पैसे दे दिया जाता हो. यह संविधानेत्तर व्यवस्था है और जुर्माना के आधार पर यदि देश में परियोजना चालू रखने की व्यवस्था की यहां से शुरुआत होती है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए यह एक तोरण द्वार खोलने जैसा होगा. पॉस्को या फिर वेदांता क्या जुर्माना भरने से हिचकेंगे? नियामगिरी में संगठित प्रतिरोध के बाद जिस तरह राजनीतिक हलकों इसकी आवाज़ गूंजी उससे मंत्रालय के लिए कार्रवाई करना ज़रूरी हो गया था. पॉस्को और वेदांता एक तरह से कॉरपोरेट लूट के पर्याय के रूप में प्रकट हुए थे, ठीक उसी तरह जैसे कर्नाटक के रेड्डी को खनन का प्रतीक माना जाता है. यह अकारण नहीं है कि लवासा पर टिप्पणी करने के आस-पास ही अनिल अग्रवाल नियामगिरी में अपनी कंपनी वेदांता के लिए वापस काम शुरू करवाने के उद्देश्य से जयराम रमेश से घंटे भर बातचीत करते हैं, प्रधानमंत्री से मिलते हैं और दो दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट की दूसरी खंडपीठ भी वेदांता विश्वविद्यालय की सुनवाई से इनकार कर देती है. बहरहाल, वेदांता और पॉस्को पर आए मंत्रालय के फ़ैसले के बाद इन कंपनियों के पक्ष में ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का आग्रह कई बार झलका था. साफ़ है कि अग्रवाल हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से ही दिल्ली आए थे.
मुद्दा यह नहीं है कि किसी परियोजना के काम शुरू करने के बाद उसे बंद करने का आदेश सुनाना पूंजी की बर्बादी साबित होगी, असल मुद्दा यह है कि जब ऐसे किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी लेना अनिवार्य है तो इस उम्मीद में मंजूरी से बचते हुए कि बाद में किसी बिंदु पर समझौता हो ही जाएगा, इसका उल्लंघन करना संवैधानिक ढांचे से छेड़छाड़ करना हैं. देश में कई परियोजनाओं को इसी ठसक भरी उम्मीद के साथ शुरू किया जाता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां बिना पूर्व अनुमति के काम शुरू हुए हैं और बाद में उन्हें सरकार ने इसी आधार पर नहीं रोका कि यह विकास योजनाओं को हतोत्साहित करना होगा. कुछेक मामलों में तो सरकार संवैधानिक नियमों को छेड़ने वाली कंपनियों की पैरवी करती नज़र आई. नर्मदा घाटी में नियमों के भारी उल्लंघन के मामले आने पर विश्व बैंक ने ब्रेडफ़ोर्ड मोर्स की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी कि वे जांच करके बताए कि विश्व बैंक का भारत को पैसा देना उचित है अथवा नहीं. मोर्स समिति ने जो रपट सौंपीं उसके मुताबिक घाटी में पर्यावरणीय नियमों के छेड़छाड़ सहित विस्थापन के नियमों का भी पालन नहीं हुआ था. भारत उस रिपोर्ट से असंतुष्ट था और इसलिए उसी काम को दुबारा जांचने के लिए पामेला कॉक्स समिति गठित की गई. कॉक्स समिति की भी रिपोर्ट जब मोर्स सरीखा ही रहा तो विश्व बैंक को पैर खींचने पड़े थे.
ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार की जिम्मेदारी संविधान के प्रति हैं अथवा कंपनियों को पैसे डूबने से बचाने के प्रति? यदि विकास के मौजूदा स्वरूप को ही सरकार लागू करवाना चाहती है ऐसे संवैधानिक नियमों को बदल देना चाहिए. लेकिन, दिक्कत यह है कि जनपक्षधरता और पर्यावरणीय चिंता दर्शाने के चलते ये बदलाव मुश्किल हैं. कुछ परियोजनाओं के काम रोकने के संबंध में संसदीय राजनीतिक दलों के बीच ही पर्यावरण मंत्रालय की जिस तरह आलोचना हो रही है, उससे यह संभव भी है कि विकास के लोकप्रिय पैमानों के प्रति मोहाशक्त ये नेता संसद के भीतर बदलाव का एक एजेंडा भी प्रस्तुत करें. वैसे भी सांसदों पर कॉरपोरेट छाप लगातार गहरी होती जा रही है, दूसरे शब्दों में कहे तो कई सांसद ही अब व्यवसायी के रूप में अवतरित हो रहे हैं. लवासा पर लिए गए फ़ैसले के दूरगामी नतीजे होंगे.
मो. - +91 9555045077
E-mail - dilipk.media@gmail.com
लवासा परियोजना के संबंध में पर्यावरण मंत्रालय की हालिया पेशकश कि जुर्माना अदायगी के साथ कंपनी अपने काम को चालू रख सकती है, भारतीय राजनीति के कॉरपोरेट गठजोड़ को नए सिरे से रेखांकित करती है. यह पेशकश अपने में नायाब है. मंत्रालय का स्पष्ट मानना है कि इस परियोजना में नियमों की अनदेखी की गई है और इस बयान से ठीक पहले तक जयराम रमेश कई बार लवासा में तत्काल काम रोकने का फ़रमान सुना चुके थे. हाल के दिनों में पर्यावरण मंत्रालय नियमों को लांघने वाली ऐसी कई परियोजनाओं को काला झंडा दिखा चुका हैं जिसमें शुरुआती चरण का काम खत्म हो चुका था. पास्को, नियामगिरी से होते हुए यह लकीर अरुणाचल प्रदेश तक जाती है, जहां करोड़ों रुपए दांव पर लगे थे. लेकिन लवासा में जो बुनियादी फ़र्क है वह यह कि इसमें सीधे तौर पर राज्य के कई रसूखदार नेताओं के हित दांव पर है.
इस घोषणा से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी भी नियम का उल्लंघन करने के बाद पैसा अदायगी से उसे ढंका जा सकता है. संवैधानिक व्यवस्था के मुतल्लिक तो ऐसा कई बार जाहिर हुआ है कि व्यावहारिक रूप से इसके क्रियान्वयन में कई जगह समानता नहीं हैं लेकिन जुर्माना अदायगी का भाव कुछ इस तरह है जैसे किसी आपदा के समय राज्य पीड़ित नागरिकों को लाख-दो लाख देकर उनके दुःख को हरना चाहती हो अथवा किसी नागरिक को ग़लत जुर्म में सजा देने के बाद कुछ पैसे दे दिया जाता हो. यह संविधानेत्तर व्यवस्था है और जुर्माना के आधार पर यदि देश में परियोजना चालू रखने की व्यवस्था की यहां से शुरुआत होती है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए यह एक तोरण द्वार खोलने जैसा होगा. पॉस्को या फिर वेदांता क्या जुर्माना भरने से हिचकेंगे? नियामगिरी में संगठित प्रतिरोध के बाद जिस तरह राजनीतिक हलकों इसकी आवाज़ गूंजी उससे मंत्रालय के लिए कार्रवाई करना ज़रूरी हो गया था. पॉस्को और वेदांता एक तरह से कॉरपोरेट लूट के पर्याय के रूप में प्रकट हुए थे, ठीक उसी तरह जैसे कर्नाटक के रेड्डी को खनन का प्रतीक माना जाता है. यह अकारण नहीं है कि लवासा पर टिप्पणी करने के आस-पास ही अनिल अग्रवाल नियामगिरी में अपनी कंपनी वेदांता के लिए वापस काम शुरू करवाने के उद्देश्य से जयराम रमेश से घंटे भर बातचीत करते हैं, प्रधानमंत्री से मिलते हैं और दो दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट की दूसरी खंडपीठ भी वेदांता विश्वविद्यालय की सुनवाई से इनकार कर देती है. बहरहाल, वेदांता और पॉस्को पर आए मंत्रालय के फ़ैसले के बाद इन कंपनियों के पक्ष में ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का आग्रह कई बार झलका था. साफ़ है कि अग्रवाल हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से ही दिल्ली आए थे.
मुद्दा यह नहीं है कि किसी परियोजना के काम शुरू करने के बाद उसे बंद करने का आदेश सुनाना पूंजी की बर्बादी साबित होगी, असल मुद्दा यह है कि जब ऐसे किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी लेना अनिवार्य है तो इस उम्मीद में मंजूरी से बचते हुए कि बाद में किसी बिंदु पर समझौता हो ही जाएगा, इसका उल्लंघन करना संवैधानिक ढांचे से छेड़छाड़ करना हैं. देश में कई परियोजनाओं को इसी ठसक भरी उम्मीद के साथ शुरू किया जाता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां बिना पूर्व अनुमति के काम शुरू हुए हैं और बाद में उन्हें सरकार ने इसी आधार पर नहीं रोका कि यह विकास योजनाओं को हतोत्साहित करना होगा. कुछेक मामलों में तो सरकार संवैधानिक नियमों को छेड़ने वाली कंपनियों की पैरवी करती नज़र आई. नर्मदा घाटी में नियमों के भारी उल्लंघन के मामले आने पर विश्व बैंक ने ब्रेडफ़ोर्ड मोर्स की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी कि वे जांच करके बताए कि विश्व बैंक का भारत को पैसा देना उचित है अथवा नहीं. मोर्स समिति ने जो रपट सौंपीं उसके मुताबिक घाटी में पर्यावरणीय नियमों के छेड़छाड़ सहित विस्थापन के नियमों का भी पालन नहीं हुआ था. भारत उस रिपोर्ट से असंतुष्ट था और इसलिए उसी काम को दुबारा जांचने के लिए पामेला कॉक्स समिति गठित की गई. कॉक्स समिति की भी रिपोर्ट जब मोर्स सरीखा ही रहा तो विश्व बैंक को पैर खींचने पड़े थे.
ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार की जिम्मेदारी संविधान के प्रति हैं अथवा कंपनियों को पैसे डूबने से बचाने के प्रति? यदि विकास के मौजूदा स्वरूप को ही सरकार लागू करवाना चाहती है ऐसे संवैधानिक नियमों को बदल देना चाहिए. लेकिन, दिक्कत यह है कि जनपक्षधरता और पर्यावरणीय चिंता दर्शाने के चलते ये बदलाव मुश्किल हैं. कुछ परियोजनाओं के काम रोकने के संबंध में संसदीय राजनीतिक दलों के बीच ही पर्यावरण मंत्रालय की जिस तरह आलोचना हो रही है, उससे यह संभव भी है कि विकास के लोकप्रिय पैमानों के प्रति मोहाशक्त ये नेता संसद के भीतर बदलाव का एक एजेंडा भी प्रस्तुत करें. वैसे भी सांसदों पर कॉरपोरेट छाप लगातार गहरी होती जा रही है, दूसरे शब्दों में कहे तो कई सांसद ही अब व्यवसायी के रूप में अवतरित हो रहे हैं. लवासा पर लिए गए फ़ैसले के दूरगामी नतीजे होंगे.
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लवासा प्रेम ही नहीं है..
जवाब देंहटाएंबल्कि सारे परियोजनाओं की यही गति है.
देखे नहीं टूजी और इत्यादि इत्यादि.