01 जनवरी 2011

कश्मीर की स्थिरता

-दिलीप ख़ान
उत्तरी कश्मीर के पुलिस डीआईजी मुनीर अहमद ख़ान की माने तो सोपोर ज़िले में अभी बीस आतंकवादी सक्रिय है और इसके कारण वहां अगले दिनों में भी अस्थिरता बनी रह सकती है. पुलिस दस्तावेजों के मुताबिक इस साल अब तक 25 से अधिक आतंकवादियों को सोपोर में मारा जा चुका है. आतंकवादियों पर बात करते हुए ’बीस’ के साथ पुलिस ने ’लगभग’ ’आस-पास’ या ’से ज़्यादा’ जैसे शब्द नहीं लगाए और इस तरह उसने अपनी सक्षमता को दिखाया कि वे ऐसी घटनाओं का गुप्त विवरण रखते हैं! मुनीर ख़ान के इस बयान को यदि कश्मीर पुलिस की हो रही आलोचनाओं की पृष्ठभूमि में देखे तो मामला अधिक स्पष्ट होगा. हाल के दिनों में कश्मीर में चल रहे हलचलों, जिसमें पत्थर फेंकने वाले समूहों के साथ पुलिसिया झड़प केंद्रीय है, ने इन दिनों एक नया मोड़ ले लिया है. कश्मीर विषयक मामले में देश की राजनीतिक संवेदनशीलता एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है लेकिन इस संवेदनशीलता का प्रदर्शन कैसे हो, यह उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है. कश्मीर की पुलिस इन दिनों बेतरह सक्रिय है.
कॉलेज के एक सहायक प्रोफ़ेसर नूर मोहम्मद भट्ट को सिर्फ़ इस बिनाह पर राजद्रोह के आरोप के साथ गिरफ़्तार करना कि उसने कश्मीर में चल रहे मौजूदा प्रदर्शनों पर प्रश्न-पत्र तैयार किया, न सिर्फ़ एक भयादोहन है बल्कि इससे घाटी के लोगों का पुलिस से विश्वास और कम होगा. प्रश्न-पत्र के जिस बिंदु पर पुलिस ने ज़ोर दिया कि इसमें ’पत्थर फेंकने वाले समूहों’ पर टिप्पणी करने को मांगा गया था कि वे देशभक्त हैं अथवा नहीं, वह एक मत आधारित प्रश्न था और उस आधार पर राजद्रोह का आरोप लगाना बेहद आपत्तिजनक है. क्या हमारी देशभक्ति इतनी कमज़ोर है कि एक प्रश्न से यह ढह जाएगी? शैक्षणिक संस्थानों में यदि समसामयिक विषयों पर मत-प्रतिमत निकल कर नहीं आएंगे तो यह लोकतांत्रिक नींव को कमज़ोर करने वाला ही प्रयास होगा और हमारे सामने यह लोकतंत्र का एकरेखीय मॉडल पेश करेगा, जिसमें एक मत के तले दूसरा दब कर रह जाएगा. पुलिस द्वारा की गई इस गिरफ़्तारी में विश्वविद्यालय प्रशासन के रूख का इंतजार करना भी शामिल नहीं था. दुनिया में अधिकांश प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों को इतनी स्वायत्तता दी गई है कि वे अपने नियम-क़ायदों से चलते हैं और देश के आला अधिकारियों को भी विश्वविद्यालय में मामूली कार्रवाई करने से पहले विश्वविद्यालय प्रशासन से अनुमति लेनी पड़ती है. पुलिस ने न सिर्फ़ इस मामले में सीधे हस्तक्षेप किया बल्कि इसके बाद सिलसिलेवार तरीके से विश्वविद्यालयों के प्रश्न-पत्र को आधार बनाकर एक और प्रोफ़ेसर को दोषी क़रार दिया. इस प्रोफ़ेसर पर अश्लीलता का आरोप लगाते हुए पुलिस ने यह दावा किया कि ऐसी हरकतों को बर्दास्त नहीं किया जाएगा. डीआईजी अब्दुल गनी मीर की चिंता का दायरा यह था कि इसे अकेले प्रो. शाद रमज़ान नहीं कर सकते तथा इस घटना में कुछ और लोग भी शामिल रहे होंगे और उन शामिल लोगों को भी नहीं छोड़ा जाएगा. इस मामले को प्रोफ़ेसर की ग़लती यह बतायी जा रही है कि उन्होंने विद्यार्थियों को परीक्षा में अंग्रेज़ी से उर्दू में एक ऐसा परिच्छेद अनुवाद करने को दिया जिसमें महिलाओं के स्तन का ज़िक्र था. इस परिच्छेद में जीववैज्ञानिक तरीके से महिला स्तन का ज़िक्र किया गया था और इस तरह के विवरण छात्र-छात्राएं अपने स्कूल के दिनों में ही पढ़ चुके होते हैं. कश्मीर पुलिस की यह ग़ैरजिम्मेदार सतर्कता है. ये उसी तरह का उपक्रम है जैसे देश के अन्य हिस्सों में कुछ साल पहले कुछ पुलिसकर्मियों ने ’ऑपरेशन मजनूं’ के तहत प्रेमी युगलों को पार्कों में पीटा था. कश्मीर की पुलिस ’नैतिक पुलिस’ और ’देशभक्त पुलिस’ में तब्दील हो गई है.
विश्वविद्यालय को लेकर पुलिस इसलिए इतनी चौकस है क्योंकि कश्मीर के मौजूदा आंदोलन में वह युवाओं की संख्या देख चुकी है और वह इस बात को अच्छी तरह जानती है कि यदि कुछ शिक्षकों पर कार्रवाई की जाती है तो यह बांकी युवाओं के लिए एक संदेश का काम करेगी. कश्मीर विश्वविद्यालय के क़ानून विभाग पर किसी शरारती तत्त्व द्वारा पाकिस्तान का एक छोटा सा झंडा लगा देने के बाद जिस तरह कुछ मीडिया समूहों ने रिपोर्टिंग की उससे ऐसी कार्रवाई करने के लिए पुलिस का हौसला और बढ़ता है. एक अख़बार ने लिखा कि ’पुलिस ने मौके पर पहुंच कर झंडा कब्जे में ले लिया’, गोया झंडा न हो कोई विस्फोटक सामग्री हो!
कश्मीर में खुद पुलिस को लेकर कई आंदोलन चले हैं. शोपियां कांड में पुलिस के कथित अपराध को लेकर घाटी महीनों बंद रही थी. वहां पुलिस विरोधी कुछ ऐसे संगठन बने हैं जो अपनी राजनीति में कत्तई अलगाववादी नहीं है. ऐसी स्थिति में पुलिस आतंकवादियों को मारने में सफ़लता हासिल कर लेगी, लेकिन सही मायनों में सोपोर स्थिर नहीं हो पाएगा.
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