-दिलीप ख़ान
आंकड़े से बात शुरू करते हैं. राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक सन 2009 में सत्रह हज़ार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की, जोकि पिछले छह सालों में रिकार्ड है. आर्थिक विपन्नता और कर्ज तले दबे रहने के कारण 1997 से लेकर 2009 तक दो लाख से भी अधिक किसानों ने आत्महत्या के रास्ते को चुना है. इसी कालावधि में आत्महत्या के कारण देश के नक्शे के भीतर कुछ भौगोलिक क्षेत्रों की नई पहचान निर्मित हुई है. ज़्यादा मुनासिब यह कहना होगा कि इन क्षेत्रों के नाम के साथ स्वतः ही किसान आत्महत्याओं की तस्वीर दिमाग में कौंधने लगती है. यह एक तरह से पर्याय बन गया है- विदर्भ मतलब किसान आत्महत्या. हालांकि, इस तस्वीर की निर्मिति में समय लगा है. विदर्भ में किसान आत्महत्या जब राष्ट्रीय सुर्खियों में आई, उससे पहले हज़ारों किसान अपनी जान गवा चुके थे. कुछ प्रतिबद्ध पत्रकारों और कुछ ऐसी ख़बरों को सनसनी की तरह बेचने वालों ने जिस समय इसे तवज्जो दी, उस समय यह तथ्य भी जाहिर हुआ था कि किसानों और खेती-किसानी की रिपोर्टिंग में लगे पत्रकारों की संख्या बेहद न्यून है, जबकि एक फैशन परेड को कवर करने के लिए सैंकड़ों पत्रकार हाज़िर हैं.
अब इन क्षेत्रों के स्थानीय पृष्ठों के लिए यह एक रुटीन ख़बर की तरह है. आत्महत्यामूलक बहस में किसान आत्महत्या इतने वज़न के साथ मौजूद है कि दूसरे ईकाईयों में हो रहे आत्महत्याओं पर ज़्यादा बात नहीं हो पा रही. समस्या को एक जगह केंद्रित कर देने से सहूलियत होती है. इसमें इसे उस ख़ास क्षेत्र की विशेष परिघटना के तौर पर देखे जाने का आग्रह निहित रहता है. विशेष परिघटना का एक लोकप्रिय शिगूफ़ा प्रचारित किया जाता है. मसलन बहुतेरे ऐसा सुनने को मिलता है कि बिहार के किसान अधिक ग़रीब है लेकिन वे विदर्भ के किसानों के मुकाबले अधिक जीवट और साहसी होते हैं इसलिए वे आत्महत्या नहीं करते. छिपी हुई बात यह है कि विदर्भ के किसान कमज़ोर और लचर होते हैं. इसे प्रमुख कारण के तौर पर स्थापित कर देने से मूल कारण छुपा रह जाता है. ऐसा एहसास दिलाया जाता है कि “सुसाइड बेल्ट” के किसी किसान का आत्महत्या करना आम है. “सुसाइड बेल्ट” बनने के कारणों पर चर्चा नहीं होती. इसी चर्चा के अभाव में इस तरह के बेल्ट देश भर में विचरण करते रहते हैं. इसका भूगोल बदलता-फैलता रहता है. नए-नए बेल्ट बनते रहते हैं.
किसान आत्महत्या के भयावह आंकड़ों के साथ अभी जो ताजा चिंताजनक तथ्य सामने आ रहा है, वह यह कि ’दक्षिण भारत का मैनचेस्टर’ कहे जाने वाले कोयंबटूर से सटे हुए ज़िले तिरुपुर में पिछले दो सालों में एक हज़ार से अधिक वस्त्र-मज़दूरों ने आत्महत्या की है. तिरुपुर देश के बुने हुए सूती कपड़ों का लगभग 90% निर्यात करने वाला शहर है. बीते साल की पहली छमाही में 350 से अधिक मज़दूर आत्महत्या कर चुके थे और जून से अगस्त के बीच लगभग 250. अकेले अगस्त महीने में ही 103 लोगों ने अपनी जान दी. वहां प्रतिदिन औसतन पांच-दस लोग या तो आत्महत्या कर रहे हैं अथवा ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं. ज़िला प्रशासन को आत्महत्या निरोधक क्लिनिक बनाना पड़ा है, जहां आत्महत्या की कोशिश करने वाले मरीजों का ईलाज होता है.
आत्महत्या के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए तिरुपुर एक मॉडल है. तिरुपुर तमिलनाडु का ऐसा शहर है जहां पिछले दशक में सबसे तेजी से शहरीकरण हुआ है. विकास के सारे ’लोकप्रिय’ प्रतिमानों का इस शहर में खूब विस्तार हुआ है. मिसाल के तौर पर यहां कपड़े का व्यवसाय 2008 के 80०० करोड़ रुपए के मुकाबले 2009 में बढ़कर 120०० करोड़ रुपए का हो गया. वहां की एक स्थानीय कपड़ा कंपनी ने स्विटजरलैंड की एक बड़ी टी-शर्ट कंपनी का नियंत्रण अधिकार हासिल कर लिया. वहां के अधिकांश निर्यातक एकसाथ मिलकर साफ़ और हरे शहर के लिए मेहनत कर रहे हैं. इस शहर से वालमार्ट, टॉमी हिलफिगर, रिबॉक, डिज़ल, स्विचर जैसी दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां सौदा करती है, लेकिन वहां के अधिकांश मज़दूर बेहद सस्ता जहर और रसायन खाकर मर रहे हैं. आम तौर पर चूहे मारने की दवा और गाय के गोबर के पाउडर सरीखा कोई रसायन खाकर लोग आत्महत्या कर रहे हैं, जो सस्ता और आसानी से उपलब्ध हैं.
बारह घंटे काम करने के बाद मज़दूरों को दो सौ रुपए प्रतिदिन मिलता है. यह सिलाई, कटाई और बुनाई का दर है. कपड़ा मोड़ने और पैक करने का और भी कम है. देश के अन्य हिस्सों की तरह यहां भी श्रम क़ानून को नहीं अपनाया जाता और ओवरटाइम की व्यवस्था को मालिक अपनी सुविधानुसार तय करते हैं. मज़दूरों की झोपड़पट्टियों में कई जगह हफ़्ते में एक दिन पानी आता है और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए मज़दूरों को एकजुट होने से न सिर्फ़ कंपनी मालिक रोकते हैं बल्कि मज़दूर प्रतिरोध को दबाने में ज़िला प्रशासन का प्रच्छन्न प्रोत्साहन भी रहता है. ज़िला प्रशासन और राज्य की भूमिका को समझने के लिए एक मिसाल ले सकते हैं. वर्ल्ड सोशलिस्ट वेबसाइट के अनुसार जिस दिन उनके रिपोर्टर शहर में गए उस दिन हज़ारों पुलिस वाले यह कहते हुए घर-घर में तलाशी ले रहे थे कि कोई माओवादी वहां छुपा है. लेकिन वेबसाइट का दावा है कि पुलिस का असली मकसद कामगारों द्वारा नियोजित अगले दिन के प्रदर्शन को कमज़ोर करना और उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए भयभीत करना था. पुलिस महकमा हर चीज़ को अलग-अलग करके देखने के पक्ष में है. मज़दूर समस्या और मज़दूर आत्महत्या को भी अलग-अलग कर देखने का उनका आग्रह है. लेकिन घटनाओं को अलग करके विश्लेषण करने में सिर्फ़ अपने सुविधाजनक स्थिति को हासिल करना एक निहित राजनीति है. मसलन, छत्तीसगढ़ में भी राज्य यह कहता है कि आदिवासी समस्या और माओवाद को अलग करके देखा जाना चाहिए, लेकिन माओवाद को राज्य के लिए बड़ा ख़तरा बताते हुए किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता को बिना किसी ठोस सबूत के गिरफ़्तार कर लेना अलग चीज़ के दायरे में नहीं आता. माओवाद बड़ा ख़तरा है इसलिए किसी के नाम के साथ इसका टैग लगाकर गिरफ़्तार किया जा सकता है. संसदीय राजनीति में भ्रष्टाचार की गूंज में क्या किसी ऐसे नेता को गिरफ़्तार किया जा सकता जिसका इससे कोई लेना-देना न हो. क्या उसके साथ यह तर्क इस्तेमाल किया जा सकता है कि भ्रष्टाचार बड़ी समस्या है इसलिए किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता है?
तिरुपुर में आत्महत्या के आंकड़े का अश्लीलता की हद तक बढ़ जाने के बाद इसकी जांच-पड़ताल के लिए जिस समिति का गठन किया गया है उसमें डॉक्टर, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर व्यवसायी और सरकारी नुमाइंदे तक शामिल है लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर इसमें मज़दूर कार्यकर्ता को शामिल नहीं किया गया है. मज़दूरों की समस्या पर बात रखने का अधिकार मज़दूर को नहीं दिया जा रहा है. यह आयात-निर्यात को पूरी अर्थव्यवस्था में सबसे प्रमुख हिस्सा मानने वाले इस संरचना की निर्मिति का हिस्सा है. मज़दूरों के अधिकार और जीवन जीने की न्यूनतम शर्तों को दबाया जा रहा है. तिरुपुर में एक मज़दूर का फैक्ट्री में काम के दौरान हाथ कटने के बाद उन्हें न सिर्फ़ ईलाज के लिए पैसा देने से कंपनी मुकड़ गई बल्कि उसके बाद उसे काम से भी निकाल दिया गया. पिछले दो सालों में लगभग 25000 मज़दूरों को काम से निकाला गया है और तीव्र शहरीकरण से उपजी स्थिति में वे अपनी जीविका के लिए भीषण जद्दोजेहाद से गुजर रहे हैं. ऐसी परिस्थिति में तिरुपुर में अभी और आत्महत्या होने की संभावना है. धीरे-धीरे डॉलर सिटी, कॉटन सिटी, निट सिटी जैसी उपाधियों से हटकर तिरुपुर अब तमिलनाडु की आत्महत्या राजधानी के तौर पर विकसित हो रही है. विदर्भ की ही तरह हज़ारों लोगों के मरने के बाद यह मीडिया का विषय बनेगी.
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आंकड़े से बात शुरू करते हैं. राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक सन 2009 में सत्रह हज़ार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की, जोकि पिछले छह सालों में रिकार्ड है. आर्थिक विपन्नता और कर्ज तले दबे रहने के कारण 1997 से लेकर 2009 तक दो लाख से भी अधिक किसानों ने आत्महत्या के रास्ते को चुना है. इसी कालावधि में आत्महत्या के कारण देश के नक्शे के भीतर कुछ भौगोलिक क्षेत्रों की नई पहचान निर्मित हुई है. ज़्यादा मुनासिब यह कहना होगा कि इन क्षेत्रों के नाम के साथ स्वतः ही किसान आत्महत्याओं की तस्वीर दिमाग में कौंधने लगती है. यह एक तरह से पर्याय बन गया है- विदर्भ मतलब किसान आत्महत्या. हालांकि, इस तस्वीर की निर्मिति में समय लगा है. विदर्भ में किसान आत्महत्या जब राष्ट्रीय सुर्खियों में आई, उससे पहले हज़ारों किसान अपनी जान गवा चुके थे. कुछ प्रतिबद्ध पत्रकारों और कुछ ऐसी ख़बरों को सनसनी की तरह बेचने वालों ने जिस समय इसे तवज्जो दी, उस समय यह तथ्य भी जाहिर हुआ था कि किसानों और खेती-किसानी की रिपोर्टिंग में लगे पत्रकारों की संख्या बेहद न्यून है, जबकि एक फैशन परेड को कवर करने के लिए सैंकड़ों पत्रकार हाज़िर हैं.
अब इन क्षेत्रों के स्थानीय पृष्ठों के लिए यह एक रुटीन ख़बर की तरह है. आत्महत्यामूलक बहस में किसान आत्महत्या इतने वज़न के साथ मौजूद है कि दूसरे ईकाईयों में हो रहे आत्महत्याओं पर ज़्यादा बात नहीं हो पा रही. समस्या को एक जगह केंद्रित कर देने से सहूलियत होती है. इसमें इसे उस ख़ास क्षेत्र की विशेष परिघटना के तौर पर देखे जाने का आग्रह निहित रहता है. विशेष परिघटना का एक लोकप्रिय शिगूफ़ा प्रचारित किया जाता है. मसलन बहुतेरे ऐसा सुनने को मिलता है कि बिहार के किसान अधिक ग़रीब है लेकिन वे विदर्भ के किसानों के मुकाबले अधिक जीवट और साहसी होते हैं इसलिए वे आत्महत्या नहीं करते. छिपी हुई बात यह है कि विदर्भ के किसान कमज़ोर और लचर होते हैं. इसे प्रमुख कारण के तौर पर स्थापित कर देने से मूल कारण छुपा रह जाता है. ऐसा एहसास दिलाया जाता है कि “सुसाइड बेल्ट” के किसी किसान का आत्महत्या करना आम है. “सुसाइड बेल्ट” बनने के कारणों पर चर्चा नहीं होती. इसी चर्चा के अभाव में इस तरह के बेल्ट देश भर में विचरण करते रहते हैं. इसका भूगोल बदलता-फैलता रहता है. नए-नए बेल्ट बनते रहते हैं.
किसान आत्महत्या के भयावह आंकड़ों के साथ अभी जो ताजा चिंताजनक तथ्य सामने आ रहा है, वह यह कि ’दक्षिण भारत का मैनचेस्टर’ कहे जाने वाले कोयंबटूर से सटे हुए ज़िले तिरुपुर में पिछले दो सालों में एक हज़ार से अधिक वस्त्र-मज़दूरों ने आत्महत्या की है. तिरुपुर देश के बुने हुए सूती कपड़ों का लगभग 90% निर्यात करने वाला शहर है. बीते साल की पहली छमाही में 350 से अधिक मज़दूर आत्महत्या कर चुके थे और जून से अगस्त के बीच लगभग 250. अकेले अगस्त महीने में ही 103 लोगों ने अपनी जान दी. वहां प्रतिदिन औसतन पांच-दस लोग या तो आत्महत्या कर रहे हैं अथवा ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं. ज़िला प्रशासन को आत्महत्या निरोधक क्लिनिक बनाना पड़ा है, जहां आत्महत्या की कोशिश करने वाले मरीजों का ईलाज होता है.
आत्महत्या के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए तिरुपुर एक मॉडल है. तिरुपुर तमिलनाडु का ऐसा शहर है जहां पिछले दशक में सबसे तेजी से शहरीकरण हुआ है. विकास के सारे ’लोकप्रिय’ प्रतिमानों का इस शहर में खूब विस्तार हुआ है. मिसाल के तौर पर यहां कपड़े का व्यवसाय 2008 के 80०० करोड़ रुपए के मुकाबले 2009 में बढ़कर 120०० करोड़ रुपए का हो गया. वहां की एक स्थानीय कपड़ा कंपनी ने स्विटजरलैंड की एक बड़ी टी-शर्ट कंपनी का नियंत्रण अधिकार हासिल कर लिया. वहां के अधिकांश निर्यातक एकसाथ मिलकर साफ़ और हरे शहर के लिए मेहनत कर रहे हैं. इस शहर से वालमार्ट, टॉमी हिलफिगर, रिबॉक, डिज़ल, स्विचर जैसी दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां सौदा करती है, लेकिन वहां के अधिकांश मज़दूर बेहद सस्ता जहर और रसायन खाकर मर रहे हैं. आम तौर पर चूहे मारने की दवा और गाय के गोबर के पाउडर सरीखा कोई रसायन खाकर लोग आत्महत्या कर रहे हैं, जो सस्ता और आसानी से उपलब्ध हैं.
बारह घंटे काम करने के बाद मज़दूरों को दो सौ रुपए प्रतिदिन मिलता है. यह सिलाई, कटाई और बुनाई का दर है. कपड़ा मोड़ने और पैक करने का और भी कम है. देश के अन्य हिस्सों की तरह यहां भी श्रम क़ानून को नहीं अपनाया जाता और ओवरटाइम की व्यवस्था को मालिक अपनी सुविधानुसार तय करते हैं. मज़दूरों की झोपड़पट्टियों में कई जगह हफ़्ते में एक दिन पानी आता है और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए मज़दूरों को एकजुट होने से न सिर्फ़ कंपनी मालिक रोकते हैं बल्कि मज़दूर प्रतिरोध को दबाने में ज़िला प्रशासन का प्रच्छन्न प्रोत्साहन भी रहता है. ज़िला प्रशासन और राज्य की भूमिका को समझने के लिए एक मिसाल ले सकते हैं. वर्ल्ड सोशलिस्ट वेबसाइट के अनुसार जिस दिन उनके रिपोर्टर शहर में गए उस दिन हज़ारों पुलिस वाले यह कहते हुए घर-घर में तलाशी ले रहे थे कि कोई माओवादी वहां छुपा है. लेकिन वेबसाइट का दावा है कि पुलिस का असली मकसद कामगारों द्वारा नियोजित अगले दिन के प्रदर्शन को कमज़ोर करना और उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए भयभीत करना था. पुलिस महकमा हर चीज़ को अलग-अलग करके देखने के पक्ष में है. मज़दूर समस्या और मज़दूर आत्महत्या को भी अलग-अलग कर देखने का उनका आग्रह है. लेकिन घटनाओं को अलग करके विश्लेषण करने में सिर्फ़ अपने सुविधाजनक स्थिति को हासिल करना एक निहित राजनीति है. मसलन, छत्तीसगढ़ में भी राज्य यह कहता है कि आदिवासी समस्या और माओवाद को अलग करके देखा जाना चाहिए, लेकिन माओवाद को राज्य के लिए बड़ा ख़तरा बताते हुए किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता को बिना किसी ठोस सबूत के गिरफ़्तार कर लेना अलग चीज़ के दायरे में नहीं आता. माओवाद बड़ा ख़तरा है इसलिए किसी के नाम के साथ इसका टैग लगाकर गिरफ़्तार किया जा सकता है. संसदीय राजनीति में भ्रष्टाचार की गूंज में क्या किसी ऐसे नेता को गिरफ़्तार किया जा सकता जिसका इससे कोई लेना-देना न हो. क्या उसके साथ यह तर्क इस्तेमाल किया जा सकता है कि भ्रष्टाचार बड़ी समस्या है इसलिए किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता है?
तिरुपुर में आत्महत्या के आंकड़े का अश्लीलता की हद तक बढ़ जाने के बाद इसकी जांच-पड़ताल के लिए जिस समिति का गठन किया गया है उसमें डॉक्टर, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर व्यवसायी और सरकारी नुमाइंदे तक शामिल है लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर इसमें मज़दूर कार्यकर्ता को शामिल नहीं किया गया है. मज़दूरों की समस्या पर बात रखने का अधिकार मज़दूर को नहीं दिया जा रहा है. यह आयात-निर्यात को पूरी अर्थव्यवस्था में सबसे प्रमुख हिस्सा मानने वाले इस संरचना की निर्मिति का हिस्सा है. मज़दूरों के अधिकार और जीवन जीने की न्यूनतम शर्तों को दबाया जा रहा है. तिरुपुर में एक मज़दूर का फैक्ट्री में काम के दौरान हाथ कटने के बाद उन्हें न सिर्फ़ ईलाज के लिए पैसा देने से कंपनी मुकड़ गई बल्कि उसके बाद उसे काम से भी निकाल दिया गया. पिछले दो सालों में लगभग 25000 मज़दूरों को काम से निकाला गया है और तीव्र शहरीकरण से उपजी स्थिति में वे अपनी जीविका के लिए भीषण जद्दोजेहाद से गुजर रहे हैं. ऐसी परिस्थिति में तिरुपुर में अभी और आत्महत्या होने की संभावना है. धीरे-धीरे डॉलर सिटी, कॉटन सिटी, निट सिटी जैसी उपाधियों से हटकर तिरुपुर अब तमिलनाडु की आत्महत्या राजधानी के तौर पर विकसित हो रही है. विदर्भ की ही तरह हज़ारों लोगों के मरने के बाद यह मीडिया का विषय बनेगी.
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शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंओर हम औरंगाबाद को कितनी कारो वाला शहर कहकर प्रचारित करते है .....डिमार्केशन लाइन बढ़ रही है ....साल दर साल !!!
जवाब देंहटाएंsahi hai....media farmer suicide par thahar gayi hai...yahi hai vishay ko simit kar dena.
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