03 जून 2008

बदलाव के दौर में मीडिया:-


संजय कुमार
पत्रकारिता बदलाव के दौर में है. पत्रकारिता मिशन है या व्यवसाय, बहस करना अब बेमानी है. हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शुरुआती दौर में पत्रकारिता पेशा नहीं बल्कि मुहिम हुआ करता था लेकिन अब नहीं. उपभोक्तावादी संस्कृति और भूंडलीकरण के इस आपाधापी के दौर में मीडिया का स्वरूप बदल चुका है.
बदलते दौर में सवाल भी उठता है कि मिशन के तौर पर पत्रकारिता को अपनाने वाले लोग आखिर कब तक बदलते परिवेश से अपने को बचते बचाते रहेंगे. अगर पत्रकारों की माली हालत पर नजर डालें, तो प्रिंट मीडिया में हमेशा से हिन्दी और भाषाई पत्रों के पत्रकारों की स्थिति अंगरेजी पत्रों से बदतर देखी गयी है. हालांकि पिछले कुछेक वर्ष में व्यापक बदलाव आया है.
वहीं जब से खबरिया चैनलों का भारतीय मीडिया में प्रवेश हुआ है, मीडिया के अंदर और बाहर व्यापक बदलाव देखा जा रहा है. मीडिया में कार्यरत पत्रकारों के रहन-सहन में एक नयी धारा उभर कर सामने आयी है. कहा जा सकता है कि आज भारतीय पत्रकारिता 'विलासी पत्रकारिता' के दौर में है. हो भी क्यों नहीं, पत्रकार भी तो आदमी हैं और उन्हें भी बेहतर जीवन जीने का पूरा हक है. लिहाजा पत्र और पत्रकारिता ने आज चोला बदल लिया है. आम आदमी की खबर की जगह समाज में विलासी तत्वों को खबरों में अहमियत दी जाने लगी है.
आजादी के पहले और आजादी के बाद कुछ वर्षों के दौरान पत्रकारिता मिशन रहा, लेकिन कुछ ही समय बाद इसका स्वरूप बदल गया और मिशन से प्रोफेशन हो गया. कह सकते हैं कि शुद्ध रूप से पेशा हो गया है. मीडिया का स्वरूप किस कदर बदल चुका है, इसे साफ देखा जा सकता है.
बदलाव के क्रम में खबरों में भी जबरदस्त बदलाव आया है. 'टू इनफॉर्म, टू एजूकेट, टू इंटरटेन' की परिभाषा बदल गयी है. मीडिया व्यावसायिक हो गयी है और उसके मेनजर ही खबरों को सामने लाया जाता है. तभी तो आज पत्रकारिता की परिभाषा को बदलते हुए, जनहित की खबरों को दरकिनार कर दिया गया. अब बिहार की मीडिया पर एक नजर डालें, तो पाते हैं कि सबसे ज्यादा खबरें अपराध की ही होती है. पटना से प्रकाशित राष्ट्रीय और स्थानीय सभी अखबारों का औसत देखा जाये, तो प्रति अखबार प्रति दिन जन विकास और ग्रामीण विकास की मात्र दो से तीन खबरें ही प्रकाशित करते हैं. जिसमें सकारात्मक और नकारात्मक खबरें शामिल रहती हैं. औसतन सभी अखबार सबसे ज्यादा अपराध और राजनैतिक खबरें ही प्रकाशित करती हैं. उसके बाद सरकारी, प्रशासनिक और सांस्कृतिक व शिक्षा से जुडी खबरों को प्रकाशित किया जाता है. एक अखबार औसतन, एक दिन में अपराध की २२, राजनैतिक १५, सरकारी-प्रशासनिक ६, सांस्कृतिक-शिक्षा ६, भ्रष्टाचार २ और विकास की ३ खबरें प्रकाशित करती हैं. नाकारात्मक खबरों के लिए जाना जाने वाला बिहार के साथ जब साकारात्मक खबर जुडती है, तो मीडिया उसे हल्के या फिर नजर अंदाज करती है. हाल की ही में नयी दिल्ली से चली एक खबर को लें, एक शोधकर्त्ता ने बिहार को कृषि विकास में पंजाब से आगे बताया है. इस खबर को बिहार के पत्रों ने अंदर के पृष्ठों में स्थान दिया. जबकि इस खबर को प्राथमिकता के साथ पहले पृष्ठ पर स्थान मिलना चाहिए था. जाहिर है खबरों में बदलाव आया है. व्यापार और व्यावसायिक खबरें पहले पेज पर आ गयी हैं. होटल में सेलिना (अभिनेत्री) से हुई बदसलूकी की खबर या फिर उद्योगपतियों व उनकी पत्नियों की खबरें प्रमुखता से मीडिया में आ रही हैं. प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, सभी का एक जैसा ही हाल है. पूंजीपति और समाज में अतिसंपन्न लोगों से जुडी खबरों के आगे विकास और अंतिम पायदान पर खडे लोगों से जुडी खबरों को वह स्थान नहीं मिल पाता, जो उसे मिलना चाहिए ङ्क्ष जनता से जुडी हार्ड और साफ्ट खबरों पर अब कम ही पत्रकार मेहनत करते नजर आते हैं. उपभोक्ता सामग्री के लांचिंग कार्यक्रम को कवर करने और उसे बेहतर डिसप्ले देने में मीडिया कोई कसर नहीं छोडता है. ऊपर से उस कार्यक्रम में कोई सेलिब्रेटी हो तो खबर को प्रमुखता से लिया जाता है.
( लेखक आकाशवाणी से संबद्ध हैं.)

1 टिप्पणी:

  1. चन्द्रिका जी,आपका लेख पढ़ा,मीडिया के विषय में आपके विचार को पढ़कर अच्छा लगा.
    वक्त के साथ हर चीज बदल रही है,तो मीडिया में भी बदलाव उचित है पर दुर्भाग्य कि कुछ सकारात्मकता के साथ ढेरों नकारात्मकता आ जुड़ी हैं.
    खैर,आपके लेख में जो आंकडे हैं वो निश्चय ही हमें आइना दिखाने वाले हैं,उम्मीद ही की जा सकती है अपने द्वारा किए जाने वाले समुचित प्रयासों के साथ कि हम इस वस्तुस्थिति को कुछ हद तक बदलने में सक्षम होंगे.
    आमीन
    आलोक सिंह "साहिल"

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