03 जून 2008

मीडिया का नया आचरण : चिंता नहीं, चिंतन की जरूरत


अवनींद्र
मैं इन बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं

लगता है हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक विकास की कहानी अभी अधूरी है. मीडिया के एक बडे वर्ग द्वारा रची गयी नयी आचार संहिता को देख कर तो ऐसा ही लगता. यह सच है कि आज हम सूचना क्रांति के युग में पहुंच गये हैं. सेटेलाइट और इंटरनेट ने पूरे विश्र्व को एक गांव में तब्दील कर दिया है. यह परिवर्तन बहुत हद तक सही भी है, क्योंकि जडता किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए शुभ नहीं है. लेकिन सवाल यह है कि हम परिवर्तन के नाम पर क्या-क्या स्वीकार करेंगेङ्क्ष आज अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने उपभोक्ता संस्कृति का नया संसार रच दिया है. इस प्रवृत्ति ने मीडिया को भी बाजार केंद्रित बना दिया है. अब निजी हित उससे जुड गये हैं. खबर उसके लिए एक प्रोडक्ट है और पाठक व दर्शक उसके खरीदार. प्रोडक्ट को बेचने के लिए कोई भी हथकंडा गैरवाजिब नहीं होता. मसलन हर तरह के उपक्रम किये जा रहे हैं. जो जितनी जल्दी अपने प्रोडक्ट को लांचिंग करेगा और उसे लुभावने आकर्षक कलेवर में बाजार में उतारेगा, वह उतने ही ग्राहक जुटायेगा. इस होड ने मीडिया को नारद जी के खबर पहुंचाने से छापाखाना होते हुए ब्रेकिंग न्यूज तक पहुंचा दिया है. अब मीडिया का जोर सबसे पहले पर ज्यादा है, चाहे इसका परिणाम जो भी हो.
पिछले वर्ष अगस्त-सितंबर में दिल्ली में लाइव इंडिया नामक एक चैनल ने एक शिक्षिका उमा खुराना पर लडकियों को फांस कर सेक्स रैकेट चलाने का आरोप लगाया. चैनल ने बकायदा इसकी छद्म सीडी भी दिखायी. इस खबर के बाद उत्तेजित लोगों ने उस स्कूल में तोडफोड भी की, जहां यह शिक्षिका पढाती थी. बाद में जब मामले की जांच पडताल की गयी, तो शिक्षिका पर लगाये गये सारे आरोप बेबुनियाद निकले. लेकिन मीडिया ने उस शिक्षिका के चरित्र पर जो दाग लगाया, वह वक्त के पानी से भी शायद नहीं धुलेगा. यह घटना हमेशा उस शिक्षिका के चरित्र के आगे प्रश्नचिह्न उपस्थित करती रहेगी. इसी तरह पिछले दिनों एक चैनल ने दिल्ली के एक गांव में भूत-प्रेत की कथा गढी, जिससे लोगों में भय फैल गया. कुछ लोगों ने चैनल के खिलाफ सूचना प्रसारण मंत्रालय में शिकायत की. इसके बाद मंत्रालय ने उस चैनल को नोटिस जारी किया.
यह सिर्फ उदाहरण है. इस तरह की घटनाएं प्रायः अधिकतर खबरिया चैनलों की सनसनी हुआ करती हैं. हर रोज घृणा फैलायी जा रही है, अंधविश्र्वास को अलंकृत किया जा रहा है. यह दुष्परिणाम है उस बाजारवाद का, जिसने हमारी संवेदना को कुंद कर दिया है. उचित-अनुचित के विवेक को लहूलुहान कर दिया है. सामाजिक सरोकार पर निजी सरोकार हावी हो गये हैं. सर्जना की तमीज खत्म हो गयी है. लडकी के शीलहरण की खबर प्रसारित कर हर घंटे उसका शीलहरण किया जाता है.खबर परोसते वक्त यह भी ध्यान नहीं रखा जाता कि यह बच्चों की आंखों के सामने से भी गुजरेगी और ऐसी सामग्री परोसकर हम भविष्य के लिए विकृत और कुंठित समाज का निर्माण कर रहे हैं. किसी साहित्यकार की मृत्यु खबर नहीं बनती, जबकि सिने तारिकाओं के रोमांस के किस्से दिखाने में घंटो जाया किये जाते हैं.
मीडिया अपने पक्ष में अक्सर यह तर्क भी देता है कि हमारा पाठक-दर्शक वर्ग हमसे यही अपेक्षा करता है,तो हम क्या करें ङ्क्ष लेकिन पाठकों-दर्शकों में क्या यह दिलचस्पी मीडिया ने पैदा नहीं की. क्या उसने समय-समय पर उन अंकुरित होती आकांक्षाओं की जडों में खाद पानी नहीं डाला. अब तो स्थिति यह हो गयी है कि हर घंटे एक्सक्लूसिव परोसने के चक्कर में यह भी ध्यान नहीं रखा जाता कि इसकी विश्र्वसनीयता क्या है और इससे किसी के चरित्र की हत्या भी हो सकती है. हर क्षेत्र में पारदर्शिता की बात करनेवाले मीडिया की पारदर्शिता ही संदिग्ध लगती है. एक समय पत्रकारिता त्याग और समर्पण की चीज हुआ करती थी. लेकिन ऐसा लगता है कि पत्रकारिता के उन्नायकों ने जो नींव रखी थी, उस पर हम मजबूत इमारत खडी नहीं कर पाये. पत्रकारिता तो एक ऐसा हथियार है, जिसका उपयोग और दुरुपयोग दोनों हो सकता है, लेकिन सवाल यह है कि इन हथियारों का संचालक कौन है, उसके न्यस्त हित क्या हैं. आज इस हथियार का संचालन अधिकतर अपरिपक्व हाथों में है. हालांकि सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण के इस दौर में भी कुछ अखबारों ने अपनी विश्र्वसनीयता जरूर बचाये रखी है. उनके लिए पर्यावरण और मानव मूल्यों की रक्षा काफी अहम है. लेकिन उनका सामना इन परचूनी बनियों से है. ऐसे में वे कब तक अपने विश्र्वास को अक्षुण्ण रख पायेंगे. मीडिया को यह समझना चाहिए कि आज संदेश विस्फोट का युग है और व्यक्ति अपने तर्क से ज्यादा मीडिया से प्राप्त सूचनाओं और संदेशों पर भरोसा करता है. ऐसे में उसका दायित्व और बढ जाता है कि वह प्राप्त साधनों का इस्तेमाल सावधानी से करे. अगर यही स्थिति रही तो लोकतंत्र की पहरेदारी का दावा करनेवाले मीडिया पर से लोगों का भरोसा उठ जायेगा. आज मीडिया की जो स्थिति सोचनीय बनी हुई है, वह अवश्य बदल सकती है, बशर्ते कुछ लोग सन्नद्ध हों. मीडिया का एक वर्ग जो इन परिस्थितियों की मार खाकर चुपचाप कोने में खडा है, सामने आयेगा. किंतु जरूरत है कि प्रबुद्ध वर्ग जागरूक हो और वह चिंता के बजाय चिंतन करे.

1 टिप्पणी: