05 जून 2008

मीडियाकर्मियों पर लानत लगाने से बेहतर उनकी स्थिति पर संवेदनशील तरीके से विचार करने की जरूरत है:-


विवेक कुमार सिंह
मीडिया के मूल्यों में गिरावट आयी है. इस बात को लेकर बौद्धिक वर्ग में आम सहमति है. मूल्यों के पतन के लिए मीडिया को कटघरे में खडा किया जाता है. लेकिन एक सवाल अनुत्तरित है कि ऐसा हो क्यों हो रहा है!
मीडियाकर्मियों के मूल्यबोध भी समाज सापेक्ष होते हैं. उनकी आकांक्षाएं और आवश्यकताएं भी वैसी होती हैं, जैसी समाज के अन्य मध्यवर्गीय लोगों की. आजादी के बाद खास कर उदारीकरण से मध्यवर्गीय मानस में उपभोक्तावादी संस्कृति ने अपना स्थायी घर बना लिया है. उपभोक्तावाद की अंधी दौड में समाज, संस्था, सरकार के प्रति वैसी प्रतिबद्धता नहीं पायी जाती, जैसी कुछ दशक पहले थी. आज समाज के प्रति मीडिया की जितनी जिम्मेदारी है, उससे कम जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं की नहीं है. प्रमाणिक रूप से भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे राजनेताओं का समाज बहिष्कार नहीं करता. झारखंड इसका सबसे अच्छा उदाहरण है. राजनीतिक पार्टियां बाहुबलियों को टिकट देने से परहेज नहीं करती. इस प्रवृत्ति को आप सही मानें या गलत, लेकिन इतना तो साफ है कि भ्रष्टाचार को समाज पूरी तरह अछूत नहीं मानता. बल्कि पैसे के बल पर प्रतिष्ठा पाने की परंपरा भी विकसित हुई है. यह अकारण नहीं है कि हर्षद मेहता किसी समय युवाओं की पहली पसंद में शुमार थे. ऐसे माहौल में केवल मीडियाकर्मियों पर लानत लगाने से बेहतर उनकी स्थिति पर संवेदनशील तरीके से विचार करना भी जरूरी है.
हर सवाल को लौट कर अंततः घर तक ही आना है. क्षेत्रीय भाषाओं में काम करनेवाले एमए पास पत्रकारों की तनख्वाह कई बार दिहाडी मजदूरों से भी कम होती है.वे इस आस में कैरियर की शुरुआत करते हैं कि १८०० रुपये प्रतिमाह की तनख्वाह कभी उस आंकडे में बदल जायेगी, जो जीविका निर्वाह के लिए पर्याप्त होगा. विज्ञापनों और चौंकानेवाली खबरें प्राप्त करने की होड में उसके अपने आदर्श व मूल्य दबते चले जाते हैं, जिसकी ओर पेज-थ्री फिल्म इशारा करती है. फिर उसका पतन अंधेरे कुएं में कहां तक होगा, कहा नहीं जा सकता. उदाहरण के लिए प्रसिद्ध पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने बडे मनोयोग से समाज के सच को दिखाने के लिए एक मुहिम के तहत चैनल शुरू किया. लेकिन उनके जाने के चंद दिनों के बाद ही उनकी मुहिम मनोहर कहानियों के शक्ल में तब्दील हो गयी. हम वही दिखाते हैं, जो चलता है की अवधारणा दरअसल मीडिया की नहीं बल्कि भूमंडलीकरण के समाज की सोच है. मीडिया के मूल्यों में आज भी उतनी गिरावट नहीं आयी है, जितनी की राजनीति और शासन की. महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के नेता समाज के एक तबके के खिलाफ विष वमन करते रहते हैं. फिर भी आला पुलिस अधिकारियों के घर में इसके नेता मुख्य अतिथि बनते फिरते हैं. कुख्यात अपराधी नेताओं को सिक्के से तौलते हैं, जनता ताली बजाती है लेकिन मीडिया इनमें कहां है! सच दिखाने पर राजनेताओं से लात खायेंगे, झूठ लिखेंगे तो जनता और मीडिया स्वयं कटघरे में खडा करेगी. ऐसे माहौल में करे, तो क्या करें! फिर कोई मीडिया कभी-कभी राजनीति से सांठ-गांठ कर राज्य सभा की राह पकड ही ले तो क्या बुरा है! विज्ञापन हासिल करने के लिए सरकारी अफसरों के कार्यक्रमों की थोडी तसवीर छप ही जाये, तो क्या बुरा है!
मीडिया लोकतंत्र के आधार स्तंभों में है. इस बात का खयाल द हिंदू और प्रभात खबर जैसे अखबारों को है, लेकिन प्रतिबद्ध पत्रकारिता की मिसाल लगातार कम होती जा रही है. इसमें बाहरी दबावों की भूमिका ज्यादा है. विश्वयुद्ध के समय ब्रेख्त ने लिखा था कि हमारा जब मूल्यांकन करना, तो उस अंधेरे को भी शामिल करना, जिसका सामना करने से तुम बच गये थे. आज मीडिया के मूल्य बदले जरूर हैं,किंतु इसका मूल्यांकन करते समय ब्रेख्त की बातों को जरूर याद करना चाहिए. मूल्यों की आवश्यकता राजनीति, शासन और समाज में भी उतनी ही है, जितनी कि मीडिया के लिए.
(लेखक भारतीय स्टेट बैंक, सिलीगुडी
में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं)

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