निराला
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उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश की सीमा पर बसे चित्रकूट में प्रवेश करने के पहले जिला मुख्यालय करबी से ही ऐसे बोर्ड सडक किनारे दिखने लगेंगे. पत्रकारिता की ऐसी दुकानदारी शायद हर जगह में देखने को मिले. यहां पर बताया गया था, पत्रकारिता ऐसे ही चलती है. चित्रकूट बुंदेलखंड का वही इलाका है, जहां अल्टरनेटिव मीडिया के रूप में 'खबर लहरिया' ने एक कीर्तिमान कायम किया. तो क्या चित्रकूट एक मॉडल है पत्रकारिता की दुकानकारी का. शायद नहीं. बिहार-झारखंड में यही स्वरूप देखने को मिलेगा, अंतर बस इतना होगा कि चित्रकूटवाले डंके की चोट पर यह दुकानदारी करते हैं और अपने यहां चाल,चेहरा, चरित्र जरा बदला हुआ होता है. पत्रकारिता से संबंधित कई किस्से बडे रोचक अंदाज में बयां किये जाते हैं.
झारखंड में एक पत्रकार के किस्से रोचक अंदाज में बताये जाते हैं. कुछ साल पहले वह निजी वाहन से संपूर्ण झारखंड यात्रा पर निकले और न जाने कितनों को पत्रकार बनाने का मिशन पूरा कर वापस रांची लौटे थे. पत्रकारिता का लाइसेंस यानी आइ-कार्ड देने के लिए उन्होंने एक शुल्क सीमा तय की थी २५ से ५० हजार रुपये तक. तरह-तरह के धंधे में लगे धंधेबाजों, कालाबाजारियों, ठेकेदारों को उन्होंने इस निर्धारित शुल्क में आइ-कार्ड की रेवडियां बांटी. उन्होंने एक शिष्यमंडली बनायी, जो बीडीओ से लेकर सरकारी अस्पताल के शिक्षकों तक की पहरेदारी करने लगा. कौन कितना लेट आया और कितने देर तक अपनी डूटी में रहा. यह कैमरे में कैद होने लगा और फिर इसी आधार पर वसूली का रेट भी तय हुआ.
तब झारखंड में पत्रकारिता की दुकानदारी का एक नया मॉडल इजाद हुआ. हर छोटे-बडे शहर में केबल न्यूज चैनल की शुरुआत हुई और उसी के साथ पहरेदारी का धंधा भी. हर जगह अपने को तरुण तेजपाल, अनिरुद्ध बहल कहनेवाले पत्रकार दिखने लगें. तकनीक का सस्ता होना ऐसे केबल चैनलों के लिए तो वरदान साबित हुआ ही है, इसका एक प्रभाव प्रिंट मीडिया के उन कस्बाई पत्रकारों पर भी पडा. बदलाव यह हुआ कि कई कस्बाई पत्रकार ऐसे निकले, जिनके पास एक वीडियो कैमरा जरूर रहने लगा. इसके पीछे एक तर्क यह भी दिया जाता है कि चूंकि अब नेशनल मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कस्बाई मीडिया पर ही केंद्रित होते जा रही है. तरह-तरह के नाग-नागिन, भूत-पिशाच और अद्भुत कारनामे आसानी से गांवों में शूट कर लिये जाते हैं और फिर उसकी कलरिंग कर बडे फलक पर विशेष कार्यक्रम के तहत प्रस्तुत कर दिया जाता है. ऐसे में प्रिंट मीडिया के कस्बाई पत्रकारों का भी मोह वीडियो कैमरा की ओर तेजी से हुआ है.
इन सबसे जो भिन्न है, वह है अपराध पत्रकारिता. एक नया फॉर्मूला विकसित हुआ. अपराध जगत के नायकों को खडा करने का ठेका लिया जाने लगा. यदि कोई अपराधी एक हत्या करे, तो उसे दहशत का ऐसा पर्याय बना कर पेश किया जाने लगा कि उसके नाम का खौफ आम आदमी के जेहन में पूरी तरह बैठ जाये. यह खौफ तब तक कायम रहे, जब तक कि उस अपराधी की दुकानदारी चल न निकले. बताया जाता है कि ऐसे पत्रकार सिर्फ पत्रकारिता के वर्तमान दौर में क्राइम, क्रिकेट,सिनेमा और सेक्स वाले मुहावरे के हिसाब से नहीं करते, बल्कि इसके लिए बजाप्ता अपराधियों से उनकी बातचीत होती है कि आखिर उनकी मंशा क्या है.(साभार प्रभात खबर)
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