01 जून 2008

... तो पत्रकारिता में हीरो कहां से आयेंगे:-

कुमार नित्यगोपाल:-
वर्तमान समय में पत्रकारिता में अनोखा स्लोगन सबकी जुबां पर है- ५० से २०० कॉपी खरीदो और पाओ दो तीन कॉलम की खबरें...! यह कौन सी परंपरा है क्या वाकई इससे अखबारों के प्रसार में वृद्धि होती है! विज्ञापन पर जो असर पडता होगा, वह अलग बात. लेकिन इससे इसके बहाने पत्रकारिता के आदर्श को भी ताक पर रख दिया गया है.
अब जरा अखबार में काम करनेवाले पत्रकारों पर नजर डालें. यहां मैं शहरी क्षेत्र के ऊंचे ओहदेवाले पत्रकारों की बात नहीं करना चाहता. मैं तो मुफस्सिल पत्रकारों की बात कर रहा हूं. प्रबंधन या संपादक द्वारा इनकी चयन की प्रक्रिया पर बात करना चाहता हूं.पत्रकारिता के क्षेत्र में संपादक सर्वोपरी होता है. संपादक या प्रबंधक की विश्र्वासपात्रता ही पत्रकारों की योग्यता होती जा रही है. डिग्री, सर्टिफिकेट या शिक्षा कोई मायने नहीं रखता. यहां तो साक्षर नौजवान ही पत्रकार बन बैठे हैं. शायद यही वजह है कि अब समाचार का स्रोत गुप्त नहीं रहता, उसका डंका पीटा जाता है. वजह शुद्ध लाभ का है. चाटुकारिता से समाचार गढे जा रहे हैं.
१९८० से पूर्व तक चार लाइनों की खबर छपने पर अधिकारी चक्कर लगाया करते थे, लेकिन अब पूरा पृष्ठ छपने पर भी चैन की नींद सोते हैं. तब प्रसार संख्या भले कम हो, लेकिन प्रभाव गहरा था. वर्तमान समय के स्थानीय संस्करणों की खबरों में अपरिपक्वता स्पष्ट रूप से झलकती है. प्रबंधन एवं संपादकों को इस पर विचार करने की जरूरत है कि पत्रकारों के चयन के लिए कोई निर्धारित पैमाना होगा या नहीं. क्षेत्र भागदौड का है, इसलिए रोटी के बगैर कोई भी पत्रकार प्रतिबद्धता के साथ संस्थान के लिए काम नहीं कर सकता. यह जरूरी नहीं कि पत्रकारों की संख्या में काफी बढोत्तरी कर खबरों को छुटने से बचाया जा सके. सिमित पत्रकारों को प्रबंधन द्वारा सुविधाएं उपलब्ध कराने में भी आसानी होगी.
हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस के एक्सीलेंस इन जर्नलिज्म अवार्ड समारोह के दौरान मीडिया जगत की जानी-मानी हस्तियों के बीच इस बात पर विचार किया गया कि क्या अच्छी पत्रकारिता का अर्थ बुरा व्यापार हैङ्क्ष इस दृष्टिकोण से मुझे लगता है कि पारंपरिक रूप से पत्रकारिता जिस उेश्य को लेकर खडी हुई थी, आज स्थिति ठीक उसके उलट है. २००७ के प्रतिष्ठित मैग्सेसे पुरस्कार विजेता पी साईंनाथ के शब्दों में पत्रकार बडे व्यापार, सरकार, अमीरों और शक्तिशाली लोगों के लिए काम करनेवाला क्लर्क बन कर रह गया है. यहां तक कि एक पत्रकार की कसौटी मापने के लिए उसके द्वारा दी गयी रिपोर्टों की संख्या को आधार बनाया जाता है.
आज के मीडिया जगत में जनसांख्यिकी और मार्केटिंग जैसे शब्द को भी जन विश्र्वास का नाम दे दिया गया है. जबकि अफवाहों तथा गॉशिप ने समाचार की जगह ले ली है. सनसनी ने वास्तविकता पर जीत दर्ज कर ली है. अब तक छिपे रहनेवाले मीडियाकर्मी एक बेहद प्रभावकारी युवा पीढी के लिए सेलिबे्रटी और जाने-पहचाने रोल-मॉडल बन गये हैं. वे भले ही रोल मॉडल बन गये हैं, लेकिन आज पत्रकारिता के पास हीरो की कमी है. मीडिया के स्वास्थ्य का तकाजा है कि वह सरकारी और व्यावसायिक, दोनों प्रकार की मानसिकता से ऊपर उठ कर काम करने की आवश्यकता और महत्ता को समझे. व्यवसायिक हितों को वरण करते हुए भी सामाजिक दायित्व की पूर्ति संभव है. यह संतुलन हमारे मीडिया को बनाना होगा. आज तो अंधी दौड चल रही है. यह नीचे जानेवाली दौड है, इसलिए आसान भी लगती है. इसके बारे में सोचना बहुत ही जरूरी है, कल बहुत देर हो सकती है.
(लेखक तिलकामांझी विश्र्वविद्यालय, भागलपुर के शोध छात्र हैं.)

1 टिप्पणी:

  1. मिडिया पर जारी यह बहस निश्चित ही एक सार्थक बहस है. बाजार और पत्रकारिता के सम्बंधों की पडताल अभी तक के आलेखों में अच्छे से हुई है.

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