18 दिसंबर 2008
धर्म परिवर्तन और सांप्रदायिक तत्व
26 नवंबर 2008
तुम्हारी कहानी कही जानी चाहिये:-
24 नवंबर 2008
14 नवंबर 2008
फिलिस्तीनी जन-संघर्षों के कवि महमूद दरवीस की कविता:-
मैं एक अरब हूँ
मेरा कार्ड न. ५०,००० है
मेरे आठ बच्चे हैं
नौवा अगली गर्मी में होने जा रहा है
नाराज तो नहीं हो?
लिखो कि
मैं एक अरब हूँ
अपने साथियों के साथ पत्थर तोड़ता हूँ
पत्थर को निचोड़ देता हूँ
रोटी के एक टुकडे़ के लिये
एक किताब के लिये
अपने आठ बच्चों के खातिर
पर मैं भीख नहीं माँगता
और नाक नहीं रगड़ता
तुम्हारी ताबेदारी में
नाराज तो नहीं हो?
लिखो कि
मैं एक अरब हूँ
सिर्फ एक नाम, बगैर किसी अधिकार के
इस उन्माद धरती पर अटल
मेरी जडें गहरी गई हैं
युगों तक
समयातीत हैं वे
मैं हल चलाने वाले
किसान का बेटा हूँ
घास-फूस की झोपडी़ में रहता हूँ
मेरे बाल गहरे काले हैं
आँखें भूरी
माथे पर अरबी पगडी़ पहनता हूँ
हथेकियाँ फटी-फटी है
तेल और अजवाइन से नहाना पसंद करता हूँ
मेहरबानी कर के
सबसे ऊपर लिखो कि
मुझे किसी से नफरत नहीं है
मैं किसी को लूटता नहीं हूँ
लेकिन जब भूखा होता हूँ
अपने लूटने वालों को
नोचकर खा जाता हूँ
खबरदार
मेरी भूख से खबरदार
मेरे क्रोध से खबरदार॥
12 नवंबर 2008
संसद में मैकाले हंस रहा था :-
31 अक्टूबर 2008
लडते हैं मरते नहीं हैं दख़ल - भित्ति पत्रिका से
लोकतंत्र का एक कुरुप चेहरा:- कमला थोकचोम म. गा. अं. हि. वि. वि.
23 अक्टूबर 2008
मनसे की राजनीति वर्तमान संसदवादी गलियारे की एक खिड़की है:-
पिछले दो महीने से लगातार उत्तर भारतीयों पर जारी हमले जिसे राज ठाकरे के उग्र भाषणों के जरिरे पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूम कर भड़काने का प्रयास किया गया उसी का यह परिणाम था कि रेलवे विभाग द्वारा आयोजित परीक्षा में मुंबई आये उत्तर भारतीयों पर मनसे के कार्यकर्ताऒं द्वारा उत्तर भारतीयों की पीटा गया और इसके पश्चात राज ठाकरे की नाटकीयता पूर्वक देर रात कुछ मअमूली धाराऒं के तहत गिरफ्तारी हुई जिसके बाद उन्हें जमानत भी मिल गयी और दो महीने तक उनके भाषण और मीडिया से मिलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया सवाल उठता है कि क्या यह मामला उतना ही सरल है जितना दिख रहा है पिछले दो महीने से जब राज ठाकरे इस तरह के भड़काऊ भाषण दे रहे थे और उनके कार्यकर्ता मुंबई में जगह-जगह उपद्रव कर रहे थे तब सरकार ने क्यों नहीं चेता क्या वह किसी बडी़ घटना घटित होने के फिराक में थी राज्ठाकरे की यह बयान बाजी कि सरकार की हिम्मत हो तो पकड़ कर दिखाये इस बात का संकेत करती कि प्रांतवाद और भाषावाद की राजनीति करने वाले राज ठाकरे को राज्य सरकार की कमजोर ताकत का पता था या फिर राज्य सरकार की मिली भगत से सब कुछ चल रहा था चुनाव की नजदीकी के बढ़ते इसके पीछे कुछ और ही पेंच हैं जिसके कारण राज्य सरकार ने झारखण्ड कोर्ट के आदेश के बाद देर रात राज ठाकरे को कुछ मामूली धाराओं के तहत गिरफ्तार ्करने को मजबूर हुई और चंद बयान बाजियाँ देना भी उसकी मजबूरी थी इस आपसी राजनीतिक मसले को समझना जरूरी है कि आगामी चुनाव में शिवसेना का कमजोर होता जनाधार फिर से शिवसेना के रूप में पाया जाना मुश्किल था अतः मनसे शिवसेना के एक नये रूप में आयी जहाँ बाला साहेब ठाकरे का चेहरा बदल कर एक युवा व्यक्ति राज ठाकरे का हो गया है जो कि पहले शिवसेना में ही थे शिव सेना के प्रभाव में आया जन मान्स अब धीरे-धीरे विमुख हो रहा था क्योंकि शिव सेना के पास कोई ठोस आधार नहीं था जिस पर वह खडी़ होकर राजनीति कर सके और अपना जन मत जुटा सके अब जबकि राज ठाकरे ने मनसे के रूप में प्रांतवाद और भाषावाद को आधार बनाकर चुनाव के पहले जल्द से जल्द अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिये जुटे हैं ऎसे में घट रही ये घटनायें अंततः कांग्रेस को ही मजबूत करेगी क्योंकि प्रान्तवाद के जरिये जन मान्स को ज्यादा दिन तक नहीं बांधा जा सकता इसका एक पक्ष और है जिसका फायदा यूपी बिहार की क्षेत्रीय पार्टियाँ हिंसा हुए लोगों के साथ हमदर्दी जताकर उठायेंगी उनके लिये भी यह एक मसाला ही है जो नजदीकी चुनाव में मुद्दों के अकाल मेम मिल जा रहा है साथ में जिस रोजगार के सवाल को लेकर राजठाकरे जनता को गुमराह कर रहे हैं वह सवाल वर्तमान सत्ता व्यवस्था की समस्या है जिसका किसी भी पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं है वह जनसंख्या बढोत्तरी और रोजगार की कमी व रोजगार गारंटी जैसी असफल योजनायें चलाकर सिर्फ गुमराह कर सकती है वर्तमान सत्ता व्यवस्था के सामने सबको रोजगार सबको शिक्षा दे पाना संभव नहीं रह ग्या है पर वह प्रांतवाद भाषावाद क्षेत्रवाद को आधार बनाकर विट की राजनीति कर सकती है महाराष्ट्र मेम ही नहीं वरन पूरे राष्ट्र में एक बडा़ युवा वर्ग जिसे न शिक्षा मिल पा रही है न ही रोजगार ऎसे में उसकी उर्जा को आस्था भावना क्षेत्रवाद भाषावाद प्रान्त्वाद के आधार पर विभाजित करके ही संसदीय पार्टीयां इस शक्ति को काबू में रख सकती हैं या अपने साथ ले सकती हैं वर्ना इन पार्टीयों को सबसे बडा़ भय यह है कि ये युवा वैकल्पिक व्यवस्था की लडा़ई लड़ रहे आंदोलनों के साथ न चले जायें जो कि उन सबके लिये सबसे बडा़ खतरा हैं इन पार्टियों को पता है कि आस्था अमूर्त विकास आतंकवाद जैसे कुछ ऎसे टूल हैं चुनाव के पहले जिनका इश्तेमाल कर जनता को गुमराह किया जा सकता है और संसदीय राजनीति से मोह भंग होने की स्थिति को रोकने का प्रयास किया जा सकता है जिसे आमजन को समझने की जरूरत है और क्षेत्र भाषा व आस्था से हटकर समानता मानवता और वर्ग विहीन समाज के लिये संघर्ष करने की जरूरत है.
23 सितंबर 2008
समाज नहीं जुडेगा तो शिक्षा किसी काम की नहीं
इन स्थितियों में शिक्षा व्यवस्था के ऊपर सरकार का पूर्ण अधिकार कायम हो गया है. इसने शिक्षा व्यवस्था का केंद्रीकरण किया है. हालांकि सरकारी, गैर सरकारी, सामाजिक एवं धार्मिक शैक्षिक संस्थाएं एक साथ चल रही हैं. इससे लगता है कि शिक्षा का विकेंद्रीकरण हुआ है, लेकिन वास्तविकता इससे उलट है. इन सबके बावजूद केंद्रीकृत शिक्षा व्यवस्था बनी हुई है.
इधर बिहार के गैर सरकारी स्कूलों में पाठ्य-पुस्तकों एवं पाठ्यचर्या के माध्यम से हिंदू व मुसलिम इतिहास की बातें खुलेआम चल रही हैं. इसलिए लोगों में संप्रदायों के बारे में तुलनात्मक भाव पैदा हो रहे हैं. इससे समाज में एक किस्म का धार्मिक अलगाव भी पैदा हो रहा है. आम जन को विभाजित किया जा रहा है. संप्रदायों के बारे में गलतफहमियां पैदा हो रही हैं.
इन सबके बावजूद राज्य सरकार द्वारा इस संदर्भ में किसी तरह के हस्तक्षेप नहीं हुए हैं, जबकि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने बिहार की स्कूली पुस्तकों के इस प्रसंग को काफी गंभीरता से लिया है. इसकी खबरें राज्य के सभी अखबारों में प्रमुखता से छपी हैं. फिर भी राज्य द्वारा गठित समान स्कूल प्रणाली आयोग एवं बिहार पाठ्यचर्या रूपरेखा, २००८ में इसकी पूर्ण अनदेखी हुई है. इस तरह की शैक्षिक गतिविधियों से सांप्रदायिक मानस के निर्मित होने की आशंका है. फिर भी इस तरह के शिक्षण संस्थानों को राज्य द्वारा विभिन्न तरह से प्रोत्साहन मिल रहा है. दूसरी ओर शैक्षिक प्रक्रिया में विवेचनात्मक पहल बंद हो गयी है.
मनुष्य के अंदर कल्पना के पालन एवं संरक्षण में विचार की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन अवधारणात्मक भटकाव होने से सोचने-समझने की शक्ति का ह्रास हुआ है. इस कारण शैक्षिक कार्यक्रम की वर्तमान प्रकृति से विवेचन की शक्ति लगातार कमजोर हो रही है, क्योंकि इसमें स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने का अवसर नहीं मिलता है.
शैक्षिक कार्यक्रमों की प्रकृति के कारण समाज में नयी संस्कृति एवं परंपरा का जन्म हुआ है. इससे सोच एवं समझ के स्तर में गहराई आने के बजाय इसमें विभ्रम की स्थिति पैदा हुई है. पढे-लिखे लोगों और अनपढ लोगों के बीच स्थायी दीवार खडी हो गयी है. वर्तमान प्रणाली के कारण ज्ञान सृजन में अनुभव का औचित्य खत्म हो गया है. इससे ज्ञान और काम के बीच का रिश्ता टूट गया है. गांव-शहर, शिक्षक-छात्र, शिक्षक-समुदाय, शिक्षक-शिक्षाशास्त्री, प्राथमिक-माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के स्तर पर अलग-अलग स्वतंत्र संकाय कार्य कर रहे हैं. इन वजहों से शिक्षा के लिए पूंजी का महत्व बढ गया है. शैक्षिक कार्यक्रम पूंजीपरस्त हो गये हैं. शिक्षा की योजनाएं भी लाभ-हानि की संभावनाओं के अनुरूप तय हो रही हैं. जाहिर है कि इससे शिक्षा के मूल्य में ह्रास होगा, जो शुरू हो भी चुका है.
मनुष्य में सोचने एवं विचार करने की शक्ति नैसर्गिक रूप से विद्यमान रहती है. इसलिए अनपढ व्यक्ति भी तर्क-वितर्क करते हैं और पढने-लिखने के बाद परीक्षण तथा अनुसंधान करते हैं. लेकिन वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में यह अवसर नहीं है.
शिक्षा के खर्च की आड में अब राज्य अपने दायित्व से मुंह मोडने लगा है. जबकि जन शिक्षा के कारण आमजन की जन्म एवं मृत्यु दर में सकारात्मक बदलाव आये हैं. जीवनस्तर भी समृद्ध हुआ है. राष्ट्रीय आय के उपार्जन एवं वितरण की प्रक्रिया में संतुलन आया है, फिर भी जन शिक्षा द्वारा अर्जित इस लाभ के अंशों को उपार्जन के रूप में नहीं देखा जा रहा है, क्योंकि शिक्षा के सामाजिक सरोकार को खत्म कर दिया गया है. इस कारण मानवीय मूल्य की बातें सामाजिक मूल्य से अलग की जा रही हैं. शैक्षिक कार्यक्रम में सामाजिक मूल्य अप्रसांगिक हो गये हैं.
शैक्षिक प्रक्रिया में व्यक्ति केंद्रित पहल चल रही है. शैक्षिक कार्यक्रम के निर्माण एवं संचालन में सामाजिक दृष्टिकोण की जगह व्यक्तिवाद स्थापित हो रहा है. इस कारण शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक मूल्य का औचित्य खत्म हो गया है. शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक हस्तक्षेप में ठहराव आ गया है.
सामाजिक मूल्यों के अप्रासंगिक होने के कारण शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक प्रक्रिया बंद हो गयी है. पहले से सामुदायिक सहयोग के भाव सीमित हुए हैं. कुल मिला कर शैक्षिक प्रक्रिया कमजोर हुई है. इस कमजोरी को ठीक करने के लिए व्यक्ति केंद्रित अवधारणा (प्रधान शिक्षक, मुखिया, समिति के सचिव, अध्यक्ष) के तहत सघन काम चल रहे हैं, जिसने सामाजिक प्रक्रिया का आधार ध्वस्त हो कर दिया है. सामाजिक हस्तक्षेप भी कम हुआ है. यह कमी स्वतःस्फूर्त नहीं है, बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में जारी सामाजिक प्रक्रिया के सिद्धांतों की अवहेलना होने के कारण आया है. इसलिए सामाजिक हस्तक्षेप में ठहराव एक महत्वपूर्ण शिक्षाशास्त्रीय मसला है. लेकिन इसके पहलुओं की चर्चा पाठ्यचर्या के निर्माण एवं संचालन के स्तर पर नहीं की जाती. परिणामस्वरूप शिक्षा व्यवस्था में यथास्थिति बनाये रखनेवाले शिक्षाशास्त्र का वर्चस्व कायम है.
शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति/संस्था/संगठन के स्तर पर हुए अंकेक्षण से उजागर हुआ है कि शैक्षिक कार्यक्रम नियम विरुद्ध कार्य चल रहे हैं, क्योंकि बेकायदा कार्यपद्धति अपनायी जा रही है. इस संबंध में अधिकारी, मंत्री, मुख्यमंत्री को जानकारी देना भी उपयोगी नहीं रह गया है. उदाहरणस्वरूप एनसीइआरटी, नयी दिल्ली के अखिल भारतीय सातवें शिक्षा सर्वेक्षण के प्रतिवेदन को देखा जा सकता है, जिसमें बिहार के अरवल जिले के करपी प्रखंड के अस्तित्वहीन बदरीगढ गांव के स्कूल को सात शिक्षकों के साथ पक्के भवन के रूप में प्रदर्शित किया गया है. इस तरह की अनियमितता प्रखंड स्तर पर और भी है. इससे जिला और राज्य की शिक्षण संस्थाओं की स्थिति की विश्र्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खडा होता है.
हमलोगों ने इस संबंध में २९ मार्च, २००६ को सचिव, मानव संसाधन विकास विभाग, भारत सरकार को पत्र लिखा. लेकिन इस संबंध में अभी तक युक्तिसंगत जवाब नहीं मिला है, जबकि इस सर्वेक्षण के प्रतिवेदन के आधार पर अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय शैक्षिक कार्यक्रम के मानक बनते हैं और उसके आधार पर शैक्षिक कार्यक्रम चलते हैं. इस संदर्भ में राज्यस्तरीय कार्यों की स्थिति को समझने के लिए अरवल जिला का ही एक उदाहरण लिया जा सकता है. करपी प्रखंड में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा पूर्ण मान्यता प्राप्त उच्च विद्यालय, आनंदपुर के पास अपनी जमीन तथा प्रारंभिक भवन हैं, परंतु राज्य सरकार की अनदेखी के कारण इस विद्यालय की स्थिति काफी दयनीय बनी हुई है. इस कारण यह आनंदपुर गांव का यह विद्यालय खेदरू विगहा में चल रहा है. इस संबंध में ग्राम चौहर, मानपुर, बालागढ, पकरी आदि गांवों के १३४ ग्रामीणों के हस्ताक्षर से राकेश कुमार द्वारा १२ अप्रैल, ०६ को दिया गया आवेदन एक प्रमाण है. इससे यह उजागर होता है कि बिहार में मान्यता प्राप्त चलंत विद्यालय (एक गांव से दूसरे गांव) की भी परंपरा बनी हुई है.
२००७ में महालेखाकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान के प्रस्तुत अंकेक्षण प्रतिवेदन से व्यवस्था के अभाव, नियम रहित कार्यों के संचालन से अवहित कर्म (ङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्षङ्क्ष) उजागर हुए हैं, लेकिन शिक्षा व्यवस्था की अनियमितताओं की चिंता सामाजिक, राजनीतिक, अकादमिक एवं प्रशासनिक स्तर पर नहीं किये जाने के कारण भ्रष्टाचार के आधार का संवर्धन जारी है.
शिक्षा के क्षेत्र में जारी अनियमित पहल से संबद्ध लोगों का आचरण बिगड रहा है. इस कारण कुछ पाने या गलतियों से बचने या बचाने की प्रवृत्ति का विकास हुआ है. उदाहरणस्वरूप बिहार में गठित समान स्कूल प्रणाली आयोग की प्रक्रिया को देखा जा सकता है. इसमें अवधारणात्मक कमियों के कारण आयोग की संरचना में नौकरशाही का प्रभुत्व है. इसलिए अन्य शिक्षाकर्मियों को औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से संपर्क करने के बावजूद विमर्श का अवसर नहीं मिला. १८ नवंबर, २००६ को एक जनपक्षी मसौदा सभी सदस्यों को कार्यालय में पत्र के साथ समर्पित किया गया, लेकिन इसकी अनदेखी की गयी. १८ नवंबर, २००६ को पुनः उसी तरह बिहार की शैक्षिक पारिस्थितिकीय दस्तावेज सभी सदस्यों को प्रस्तुत किया गया था. लेकिन उसकी भी अनदेखी की गयी.
कहा गया कि समान स्कूल प्रणाली की व्यवस्था के लिए काफी धन की जरूरत है. यह बिहार जैसे पिछडे और गरीब राज्य के लिए संभव नहीं है. इसलिए आयोग की अनुशंसा में स्थानीय निकाय के साथ निर्धारित समन्वयन की प्रकृति से जनतांत्रिक प्रक्रिया नहीं उभरती है. इसमें स्कूल के पोषक क्षेत्र के निर्धारण में भी स्थानीय निकाय की भूमिका को महत्वपूर्ण नहीं माना गया है. इस संबंध में सवाल उठाने पर आयोग के एक सदस्य द्वारा कहा गया कि बिहार की पंचायती राज्य प्रणाली बहुत पिछडी हुई है. ऐसे में उसे शिक्षा की व्यवस्था में पूरी तरह शामिल नहीं कर सकते. जब इसमें सुधार होगा, तभी इसे लिया जायेगा.
आयोग की अनुशंसा में कहा गया है कि विद्यालयों के अधिग्रहण से शिक्षकों के चरित्र में रातों-रात बदलाव आये हैं. शिक्षक अब सरकारी नौकर हो गये हैं और उनमें लापरवाही के भाव पैदा हुए हैं. स्कूल व्यवस्था की दुर्दशा के लिए मुख्य रूप से शिक्षक को दोषी बताया गया है, जबकि राज्य की नीति संहिता में शिक्षकों के सृजन एवं नियंत्रण का प्रावधान है. फिर भी शिक्षकों की गरिमापूर्ण श्रृंखला को पंचायत शिक्षक, प्रखंड शिक्षक, नगर शिक्षक, व्यावसायिक शिक्षक आदि के नाम से अलग-अलग श्रेणियों में बांट दिया गया है.
इसी तरह प्राइवेट स्कूल के पक्ष में आयोग के सदस्यों द्वारा कहा गया कि आयोग की रिपोर्ट में निजी स्कूलों को नजरअंदाज नहीं किया गया है और न ही उन्हें बंद करने का निर्णय लिया गया है. सरकार के सिद्धांतों के अनुसार जो निजी स्कूल कार्य करेंगे, उन्हें सरकार की ओर से अनुदान भी दिया जायेगा. इसमें अपने दायित्व से बचने के लिए सदस्यों द्वारा यह गुहार लगायी गयी कि राज्य में प्राइवेट स्कूल की लॉबी बहुत मजबूत है. अंततः इस तरह की बातें शिक्षा को खरीद-फरोख्त की वस्तु बना देती हैं.
१९९९ में विश्र्व बैंक के सहयोग से ज्योमतियन में सबके लिए शिक्षा सम्मेलन हुआ. इसके बाद १९९५ में प्रायरिटीज एंड स्ट्रैटेजीज फॉर एजुकेशन नाम्व से विश्र्व बैंक द्वारा समीक्षा प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ. इसमें शिक्षा के सामाजिक कामों के लाभ को उजागर नहीं किया गया, लेकिन वर्ष १९९८-९९ में विश्र्व बैंक की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में विकास के लिए ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा की संस्तुति को महत्वपूर्ण सवाल बनाया गया है और २००० में विश्र्व बैंक द्वारा डकार में पुनः सबके लिए शिक्षा सम्मेलन हुआ. इससे शिक्षा सेवा एक महत्वपूर्ण धंधे के रूप में उभरी है. उच्च शिक्षा एवं प्रशिक्षण के लिए विदेश में जाकर पढने की प्रक्रिया तेज हो गयी है. २००५-०८ के विश्र्व बैंक के रिपोर्ट के अनुरूप यहां शिक्षा की नियमावली में संशोधन हुए और नये-नये कानून बनाये जा रहे हैं. विश्र्व बैंक के नॉलेज बैंक की अवधारणा के अनुरूप विद्यालय से लेकर विश्र्वविद्यालय तक शैक्षिक कार्यक्रम शुरू हैं. इससे शिक्षा के सामाजिक मूल्य की जगह उपयोग एवं इस्तेमाल का पक्ष महत्वपूर्ण बन गया. इस कारण शिक्षा में बाजारू मूल्य का विस्तार हुआ है. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक खरीद-फरोख्त का काम शुरू हो गयी है. शिक्षा की निजी दुकानों की होड मची हुई है. इसमें डोनेशन की अवधारणा को सेवा शुल्क के तर्ज पर प्रस्तुत किया जा रहा है.
शैक्षिक संस्थाओं के कार्यक्रमों के उपयोग के लिए वसूल किये जानेवाले कर को सेवा शुल्क के रूप में लिया गया है, लेकिन लाभ की दृष्टि से निर्धारित सेवा शुल्क के कारण सामान्य बच्चे छूट जा सकते हैं. इस कारण पूर्व में लाभकारी सेवा शुल्क वसूल करने के लिए शिक्षण संस्थान अधिकृत नहीं थे. इसलिए शिक्षा की नियमावली को इसके अनुकूल बनाया जा रहा है. इससे शिक्षण संस्थानों के डोनेशन की कार्यपद्धति का वैधानिकीकरण हो रहा है. उपभोक्तावादी संस्कृति को संरक्षण मिल रहा है. शिक्षा व्यवस्था में उपभोक्तावादी संस्कृति कायम हो गयी है. इससे शैक्षिक कार्यक्रम जनविरोधी हो गये हैं. इन्हें जनपक्षी बनाने के लिए अब शिक्षा व्यवस्था का सामाजिकीकरण एकमात्र रास्ता है.
उपभोक्तावादी संस्कृति से उबरने के लिए शिक्षा के बाजारू चरित्र में बदलाव जरूरी है. इसलिए शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त अनियमितता एवं भ्रष्टाचार को खत्म करना है. इसके लिए सामाजिक हस्तक्षेप जरूरी है. किंतु यह काम सामाजिक प्रक्रिया के माध्यम से ही संभव है. इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना है. वर्तमान शैक्षिक विमर्श को बदलना है. परंतु यह जटिल कार्य है. इसलिए शैक्षिक कार्यक्रमों में अवधारणात्मक बदलाव के लिए आलोचनात्मक चेतना का विकास करना है. इसलिए सभी स्तर पर आमजन की सृजनात्मक भागीदारी के अवसर पर सृजन करना जरूरी है. इससे पूंजीपरस्त सरकारीकरण की कार्यपद्धति में सामाजिक शक्ति को पुनर्स्थापित किया जा सकता है. इसलिए शिक्षा की रूपरेखा को जनपक्षी बनाने का यह एकमात्र रास्ता है.
लेखक जानेमाने शिक्षाविद हैं और ग्रामीण स्तर पर शिक्षा व्यवस्था के लंबे अध्ययन के दौरान उन्होंने यह लेख लिखा है.
17 सितंबर 2008
समाज नहीं जुडेगा तो शिक्षा किसी काम की नहीं
15 सितंबर 2008
हिन्दी दिवसः
संग्रहालय में गांधी प्रतिमा के नीचे दीमक लगी हुई लकडी़ की एक प्लेट टंगी हुई है.जिस पर ११ माह २९ दिन की गर्द जमी हुई है.पिछले १४ सितम्बर को साफ हुई थी आज फिर से साफ हो रही है. सफेद पेंट से लिखे हुए हर्फ़ मिट चुके हैं पर चश्मा लगाकर पढा़ जा सकता है कि हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है-महात्मा गांधी. हिन्दी दिवस हिन्दी के लिये रोने का दिवस है,हिन्दी का गुणगान करने का दिवस है और दिवस है ढेर सारे सवाल खडे़ करने का,हिन्दी के अशुद्धता का सवाल, हिन्दी और तकनीक का सवाल,हिन्दी प्रचार का सवाल आदि-आदि. पर इन सबके बीच एक और महत्वपूर्ण सवाल है १० राज्यों की राज्य भाषा का,या वहाँ के आधिकांश जन की भाषा का, और एक अरब से अधिक लोगों की राजभाषा का सवाल.हिन्दी को आज इस रूप में ज्यादा समझने की जरूरत है कि हिन्दी का भाषा से ही नहीं बल्कि मानवीय उत्पीड़न के भाषा की उस शैली में निहित है जिसके भीतर हम और दूसरे लोग भाषायी रूप से परिभाषित करते हैं. इस रूप में यह भाषा का वर्ग विभाजन है जहाँ भाषायी आधार पर समाज का स्तरीकरण हुआ है और वह एक स्तर पर नहीं बल्कि कई स्तर पर विखण्डित हो चुका है.अंग्रेजी के बढ़्ते प्रभाव के कारण हिन्दी के लिये खतरे देखने की जरूरत नहीं है जबकि इसका आधार भाषा की वर्गीय सवर्णता जिसे भारत जैसे बहुभाषी देश में अन्य भाषाओं व बोलियों में भी देखा जा सकता है और वे अपनी अस्मिता के लिये जूझ रही हैं. दरअसल हिन्दी के बहाने भाषा की उस प्रक्रिया को समझने की जरूरत है जो नवौदारवादी नीति लागू होने के बाद और तेजी से शुरू हुई. नव उदारवादी नीति लागू होने के बाद समाज के सभी तत्वों का केन्द्रीकरण शुरू हुआ और यहाँ से एकाधिकार की प्रक्रिया और तेज हुई जिससे भाषा को अछूता नहीं रखा जा सकता था बल्कि भाषा का संप्रेषणियता से सीधा संबन्ध है इसलिये राष्ट्रीय स्तर पर किसी एक भाषा का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी अन्य भाषा का एकाधिकार होना लाजमी था.अतः हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा तो नहीं बन सकी बल्कि राजभाषा के रूप में भी इसे लागू किया जाना कठिन काम बन गयाक्योंकि अब राष्ट्र के द्वारा किये गये काम काज को सिर्फ राष्ट्र के अंदर तक सीमित नहीं रखा जा सकता था, इसका लेखा जोखा वर्ल्ड बैंक को देना है,डब्लू.टी.ओ. को देना है, व दुनिया के उन आकाओं को जो हमारे खाने तक पर नजर रखते हैं, आर्थिक व अपरिक्ष रूप से जो देश दुनिया पर शासन कर रहे हैं उनको आप हिन्दी में लेखा जोखा नहीम दे सकते, अतः अंतर्राष्ट्रीय रूप से भाषा का भी साम्राज्यीकरण हुआ है. भारत के प्रतिनिधि व वर्चस्वशाली वर्ग को अपने अस्तित्व को बचाने व पूजी की व्यवस्था को मजबूत करने के लिये अंग्रेजी सीखना जानना जरूरी है.पिछले वर्ष हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर न्युयार्क के हिन्दी सम्मेलन में जोरदार आवाज उठी यह मांग १९७५ नागपुर में हुए प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन से उठ रही है.देर सबेर यह मांग पूरी भी कर दी जायेगी क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में वर्चस्व शाली देशों को भारतीय व अन्य हिन्दी भाषी देशों में बाजार की संभावना पता है.जिसकोलेकर अमेरिका व अन्य कई देश अपने यहाँ हिन्दी के पठन-पाठन की तरफ तत्पर हैं. ताकि वे बेहतर ढंग से न सिर्फ भारत बल्कि मारिसस,शूरीनाम, फ़िजी,गयाना आदि में प्रवेश कर सकें. आज यदि कुछ वर्चस्व शाली देश अपने विश्वविद्यालय में हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की संस्कृति को विकसित कर रहे हैं तो उनका मकसद दो सभ्यताओं के बीच संवाद स्थापित करना नहीं है बल्कि इस दूसरे या तीसरे स्थान पर सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा के जरिये उन लोगों तक पहुंचना है जहाँ हिन्दी बोलकर वे सहजता से अपना माल बेंच सकें. हिन्दी भाषा एक बडे़ समाज,संस्कृति, इतिहास, राष्ट्र, की अस्मिता और उसके भाषायी लक्ष्यों की अभिव्यक्ति का माध्यम भी है. किसी भाषा का विकास दिवस मनाने, प्रचार समिति गठित करने,विश्वविद्यालय खोलने व शिक्षण संस्थान चलाने से नहीं होती है. उसके लिये जरूरत है मौलिक शोध की और यह शोध समाज, विज्ञान, तकनीक व उन सभी क्षेत्रों में होनी चाहिये जो वर्तमान दौर में समाज में कायम हैं या होते जा रहे हैं.इस रूप में हिन्दी में मौलिक शोध व चिंतन की प्रक्रिया उतनी नहीं हुई जितनी की यह लोगों के बीच में बोली जाती है.यदि यह तीसरी या दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है तो यह दुनिया का एक बडा़ समुदाय होगा,होना यह चाहिये था कि तकनीक,चिकित्सा, विज्ञान के क्षेत्रों में इसी अनुपात में या कमोबेस मौलिक शोध व अनुसंधान होते पर इस बडे़ वर्ग ने कोई खास मौलिक शोध नहीं किया यदि किया भी तो वह हिन्दी के माध्यम से न होकर अंग्रेजी के माध्यम में हुआ. एक और मामला हिन्दी के साथ जुडा़ हुआ लगता है कि वह क्षेत्र जहाँ हिन्दी पढी़, बोली समझी जाती रही है उस क्षेत्र में चिंतन का आधार भौतिकवादी नहीं था और आज भी नहीं है.वह समाज आध्यात्मवादी चिंतन का समाज है जहाँ समस्याओं की खोज आध्यात्म में की जाती रही है.इसलिये यहाँ मौलिक शोध का विकास नहीं हि सका. पर भाषायी आधार पर जब अन्य भाषायी समाज की निर्मित चीजों का अनुवाद तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा किया गया तो उसे जनस्वीकृति उस तरह से नहीं मिल सकी भले ही वे कम्प्यूटर को संगणक व माउस को चूहा कहते रहें पर वह अपने प्रचलित शब्दावली में ही सहज ग्राह्य हो चुका था.इस रूप में यह आवश्यकता है कि हिन्दी में वैज्ञानिक चिंतन के जरिये मौलिक शोध व विमर्श को स्थापित किया जाय. १९७५ में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में जो कि नागपुर में हुआ था इस बात को लेकर एक अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की अवधारणा रखी गयी थी जहाँ पर नये मानवकी विषय व तकनीक के जरिये हिन्दी में शोध व विकास की बात सोची गयी थी. १९९७ में जो वर्धा में स्थापित हुआ और २००२ से अध्ययन-अद्यापन का कार्य भी चालू किया गया, पर वर्तमान में स्थिति ये है कि वह ५ सालों में ही मौलिक शोध और विमर्श को छोड़ चुका है भाषा प्रौद्योगिकी व मीडिया जैसे विभाग शोध व विमर्श के बजाय यहाँ के छात्रों को चैनल व अन्य संबन्धित संस्थानों का नौकर बना रहें है.
11 सितंबर 2008
मणिपुर में ५० वर्षों का अघोषित आपातकाल:
10 सितंबर 2008
समझदारॊं के लिये गीत
हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों देते हैं
हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है
हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आज़ादी का मतलब समझते हैं
टटपुजिया नौकरीयों के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोजगारी अन्याय के तेज दर से बढ़ रही हो
हम आज़ादी और बेरोजगारी
दोनों के खतरे समझते हैं
हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं
यह भी हम समझते हैं
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं
अगर वो सिर्फ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़िया धसान होती है
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं
यह भी हम समझते हैं
विरोध ही वाजिब कदम है
हम समझते हैं
हम कदम-कदम पर समझौता करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क को गोलमटोल भाषा में पेश करते हैं
हम समझते हैं
हम इस गोलमटोल भाषा का
तर्क भी समझते हैं
वैसे हम अपने को किसी से कम नहीं समझते
हम स्याह को सफेद
सफेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफान खडा़ कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमजोर
और जनता समझदार हो
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नही कर सकते हैं
हम कुछ क्यों नहीं कर सकते हैं
ये भी हम समझते हैं. गोरख पाण्डेय
09 सितंबर 2008
पुलिस के हाथ में शिक्षा:-
पुलिस के द्वारा महाविद्यालयों के प्राचार्य को दिया गया पत्र:-
गोपनीय प्रति,
माननीय आचार्य,
विषय:-छात्रॊं संबधी जानकारी पहुचाने हेतु
देखने में आया है कि नक्सल वादी संगठन(cpi माओवादी)युवा छात्र तथा बीच में पढा़ई छोड़ने वाले और आर्थिक द्रिष्टिकोण से कमजोर अपने भावी जीवन में बडी़ अपेक्षा रखने वाले युवाओं को ढूढ़्कर अपना हस्तक बनाते हैं उनके परिवार की थोडी़ सी आर्थिक जरूरत को पूर्री करके उनको दूसरों की झूठी और दूसरों कि लिविंग सर्टिफ़िकेट देकर तथा उनको आर्थिक मदद करके महाविद्यालयों में गैप सर्टिफ़िकेट के आधार पर प्रवेश लेने के लिये कहते हैं ऎसे छात्रॊ द्वारा महविद्यालयों में छात्र संगठनात्मक बनकर नक्सलवादी ध्यय धोरण उद्देश्य तथा इसके लिये पुरक विचार का छात्रों में प्रचार प्रसार करते हैं.यह छात्र जनजागरण ,नुक्कण नाटक,व बौमादद्धिक चर्चाओं के जरिये माध्यम से नक्सल वादी ध्यय तथा उनके उद्देश्यों का प्रसार एवं प्रचार करते हैं.छात्रों के अंदर सुप्त गुणों को जाग्रित कर देशविघात करने के लिये उन्हें मानसिक द्रिश्टि से तैयार करके माओवादी आंदोलन में प्रवेश करने हेहु उन्हें बाध्य करके हैं,आपके विद्यालय में अभी जून २००८ से नये सत्र की प्रवेश प्रक्रिया शुरू हो रही है इस दौरान सभी प्रकार के छात्र प्रवेश लेंगे.आपके अधीनस्थ सभी प्रवेश प्रक्रिया संबंधी प्रोफ़ेसर तथा अन्य कर्म चारी वर्ग को उपर दिये गये मुद्दों से परिचित करवाकर तथा गैप सर्टिफ़िकेट के आधार पर प्रवेश लेने वाले छात्रों की एक लिस्ट बनाकर इस कार्यालय को हर सोमवार को देने की क्रिपा करें.गैप सर्टिफ़िकेट के आधार पर प्रवेश करने वाले छात्रो के नाम गाँव पतातथा उसकी लिविंग सर्टिफ़िकेट की पूरी जाँच करने के बाद तथा उसकी पूर्व सूचना हमारे कार्यालय को देने के बाद ही उसका प्रवेश शुनिश्चित किया जाय तब तक उनको अस्थायी प्रवेश ही दिये जायें.प्रवेश के लिये आने वाले छात्रों को उनके अध्यावत फ़ोटो मांगे जायें तथा दो ऎसे प्रतिष्ठित व्यक्तिओं के नाम भी मांगे जाय जो उनको पहचानते हों.नक्सल वादी आंदोलन को रोकने के लिये और उनका प्रसार व प्रचार तथा नये नक्सलवादी समर्थक तैयार न होंइसके लिये आपका सहयोग अपेक्षित है.
पोलिस उपायुकत-विषेश शाखा नागपुर शहर
आज पाश जैसा कोई कवि नहीं जो यह लिखे कि हम नहीं चाहते पुलिस की लाठियों पर टंगी किताबों को पढ़ना.सत्ता हस्तांतरण के बाद देश ने शिक्षा को लेकर अपने प्रोफ़ाइल को जरूर सुधारा है. पर इस सुधार का जो स्वरूप रहा है वह बेहद चिंतनीय है.साझी विरासत के रूप में शिक्षा को देखने के बजाय, जो कदम उठाये गये हैं उनका संबंध वर्तमान समाज से काटकर एक ऎसी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करना रहा है जिसने मानवीय मूल्यों को ताक पर रखते हुए वर्तमान शोषण युकत समाज को पुख्ता बनाये रखने का प्रयास किया है.मूल्य आधारित शिक्षा पर दिनों दिन सिकंजे कसे गये हैं और व्यवसायिक शिक्षा को बढा़वा दिया गया है. इस कडी़ में उच्च शिक्षण संस्थानों में गैर राजनीतिकरण करके शिक्षा को समाज से काटने व साझी विरासत के रूप में देखने के बजाय एक खास समुदाय तक ही शिक्षा को सीमित करने का प्रयास भी जारी रहा है.जिसका परिणाम यह हुआ है कि शिक्षा प्राप्ति का एकमात्र उद्देश्य टटपुजिया नौकरीयों को प्राप्त करना ही रह गया है जिसके सहरे अगली पीढी़ को भी नौकर बनाया जा सके.यह एक प्रवृत्ति है जो कि शिक्षण संस्थानों में पनप चुकी है.
इसके बावजूद युवावों में देश समाज के लिये कुछ करने के जज्बे को देखते हुए देश के बडे़-बडे़ संस्थानों में एन.जी.ओ. का प्रवेश कराया गया जहाँ से अंततः वे इस व्यवस्था को पोशित कर सकें.बी.एच.यू. जैसे एशिया के सबसे बडे़ आवासीय परिसर के रूप में जाने-जाने वाले विश्वविद्यालय में वर्तमान में ३० से अधिक एन.जी.ओ. कार्य कर रहे हैं.इस रूप में देश के कई महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों में एन.जी.ओ. ने अपनी पकड़ मजबूत की है.और शिक्षण संस्थानों से देश की दशा दिशा तय करने वाला वर्ग खत्म होता जा रहा है.कई महत्वपूर्ण संस्थानों से छात्रसंघ के चुनाव की प्रक्रिया को खत्म करना व किसी भी तरह की राजनीति से छात्रों को दूर करना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि शिक्षित युवा वर्ग को देश समाज की समस्याओं पर सोचने विचारने से दूर करने का प्रयास है. शिक्षण संस्थानों में बार-बार एक राजनीति के तहत इस बात को भरा गया कि शिक्षा का राजनीति से कोई संबंध नहीं है और एक बेहतर शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र के लिये जरूरी है कि वह राजनीति से दूर रहे.दिनों दिन बदलते इस स्वरूप में आज स्थिति यह है कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये पुलिस के अनुमति की जरूरत पड़ रही है. यह सत्ताहस्तांतरण के बाद सिकंजे जाने का एक क्रम है जो यहाँ तक आ चुका है कि इस बात का निर्धारण अब पुलिस करेगी कि किसको शिक्षा दी जाय.
२००८ सत्र की शुरूआत में ही विदर्भ क्षेत्र की पुलिस ने सभी विद्यालयों कालेजों में एक गोपनीय पत्र भेजा जिसके तहत यह कहा गया कि वे क्षात्र जो किसी विषय में दुबारा प्रवेश ले रहे हैं उनकी सूचना पुलिस को दे और उनका एक फोटो भी पुलिस को उपलब्ध कराया जाय.पुलिस द्वारा यह भी सुझाव दिया गया कि प्रवेश लेते समय शहर के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति का नाम भी मांगा जाय जो उन्हें पहचानते हों. इन सारी प्रक्रियाओं को पूरा करने के बाद ही उनका प्रवेश सुनिश्चित किया जाय. ऎसा इसलिये क्योंकि इस रूप में प्रवेश लेकर नक्सलवादी राजनीति से प्रेरित युवा विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेकर छात्रों के अंदर अपनी राजनीति का प्रचार प्रसार करते हैं.जिनके द्वारा चर्चा, नाटक, गोष्ठी आदि की जाती है.मौखिक रूप से हिदायत दी गयी कि वे छात्र जो भंडारा, गड़विरौली, चन्द्रपुर से आते हैं उन पर विशेष ध्यान दिया जाय. इस रूप में शिक्षा के क्षेत्र में पुलिस की यह दखल कई सवाल उठाती है कि नक्सलवाद के नाम पर शिक्षण संस्थानों में पुलिस का यह दख़ल कितना वाजिब है. एक तो इस बहाने वे सभी तरह की चर्चा गोष्ठियों को बंद कर शिक्षण संस्थानों में सोचने समझने की परंपरा को खत्म कर रहे हैं.साथ में यह कि वे छात्र जो किसी कारण से (जिनमें आर्थिक मजबूरी अधिकांसतः होती है) पिछले वर्षों में प्रवेश से वंचित रहे हैं उन्हें शिक्षा से वंचित करने का प्रयास है या उनकी शिक्षा पर यह सीधा प्रतिबंध है.जिन जिलों को लेकर हिदायत दी गयी है वे जिले आदिवासी बहुल्य जिले हैं साथ में यहाँ पर शिक्षण संस्थानों की भी कमी है. ऎसे में इस तरह के प्रतिबंध शिक्षा व्यवस्था को पुलिस के हवाले ही करना कहा जा सकता है. जहाँ आदिवासी, अनुसूचितजाति के लोगों को शिक्षा से वंचित करने का प्रयास किया जा रहा है.एक तरफ़ सरकार आरक्षण के जरिये व विषेश सुविधायें मुहैया करा कर शिक्षा के इस गैरबराबरी को दूर करनें का प्रयास कर रही है, तो दूसरी तरफ़ सरकार के पुलिसिया अंग की यह कार्यवाही उन्हें शिक्षा से वंचित करने के प्रयास के अलावा और कुछ नहीं है भारतीय लोकतंत्र में समाज को मानवाधिकार, शिक्षा, व अन्य मूलभूत अधिकारों को प्रतिबंधित करने का यह प्रयास इसलिये किया जा रहा है ताकि नक्सलवादी समर्थकों को तैयार होने से रोका जा सके. तो क्या सरकार के पास दिनों दिन बढ़ रहे नक्सलवादी आंदोलन को रोकने के लिये मानवाधिकारों से वंचना ही बची है?
04 सितंबर 2008
नार्कॊ टेस्ट पर उठते सवाल:-
01 सितंबर 2008
बिहार में बाढ़ पर रेयाज-उल-हक की रिपोर्ट
... लोग जुट आये हैं. वे सुनाते हैं- सौ साल पहले यहां कोसी बहती थी. अब लगता है, वह फिर लौट आयी है. बेचन यादव, कारी, तेजनारायण, रामदेव, संजय व शैलेंद्र ... दर्जनों लोग, सबके पास कई-कई कहानियां. किसी के आंगन में पोरसा भर पानी है, तो किसी के घर में सांप घुस आया है. अभी लेकिन सब शांत हैं-चिंता की एक रेख तक नहीं है. कहते हैं अभी सडक तो है ही सोने के लिए. ज्यादा डूबने लगेगा तो प्लान करेंगे निकलने का.
...लेकिन बूढे जोगेंदर को यह भी चिंता नहीं. वे अपनी खैनी होठों के नीचे दाब चुके हैं-'हम अकेले आदमी, मर जायेंगे तो क्या होगा ङ्क्ष सांप भी कांट लेगा, तो क्या होगा ङ्क्ष
१० साल के कुंदन का घर सडक की दूसरी ओर है- सूखे में. वह आधे गांव को डूबते हुए देखता है-अपलक. डर ङ्क्ष 'डरेंगे क्यों ङ्क्ष सब मरेगा कि हमीं मरेंगे ङ्क्ष... सब न मरतय.
लेकिन उससे दो साल छोटा मन्नू जिदंगी को उससे ज्यादा संजीदगी से लेता है-' डरना क्या है ङ्क्ष पानी बढेगा तो जहां सब जायेंगे, वहीं हम भी जायेंगे.'
पानी बढ रहा है. अपने गांव, घर, चूल्हे, खिडकी-दरवाजों को इंच-इंच डूबते हुए देखना-एक त्रासदी है. पानी अपने एक नये रूप में मिल रहा है - इनमें से अनेक पीढियों को. वे अपने तरीकों से इसकी तैयारी में जुटे हैं.
जोगेंदर की निर्लिप्तता, कुंदन की सहजता और मन्नू की जीवटता-सुनने लायक चीजें हैं, लेकिन उन्हें सुनने को कोई तैयार नहीं... लगभग एक सदी बाढ लौटी कोसी भी नहीं.
... पानी बढ रहा है.
***
सिंहेश्र्वर मंदिर धर्मशाला से निकलती दलित औरतों के मुंह से कुछ अस्फुट से बोल फूटते हैं-सगरे समैया हे कोसी माई, सावन-भादो दहेला... पूजा गीत. औरतों के चेहरों पर उदासी मिश्रित भय है... हर मंगल को दीप जलाने-संझा दिखाने के बाद भी नहीं मानीं कोसी माई.
...परसा, हरिराहा, कवियाही, रामपुर लाही... शंकरपुर व कुमारखंड प्रखंडों के दर्जनों जलमग्न गांवों से उजडे हजारों लोग पिछले चार दिनों से धर्मशाला में डेरा डाले हुए हैं. यहां रहने के लिए पक्के कमरे हैं. मूढी, चूडा, चीनी, खिचडी व बिस्कुट सबका इंतजाम है. बच्चे चूडा-गुुड पाकर खुश हैं...बेवजह शोर मचा रहे हैं. बूढे-बुजुर्ग माथे पर जोर देकर याद करने की कोशिश करते हैं कोई पुरानी बात... बाप-दादों की स्मृतियों को भी खंगाल रहे हैं-'उंहू . ऐसी बाढ मेरे देखे में तो कभी नहीं आयी. बाप-दादे भी कुछ नहीं बता गये. ३० साल पहले पानी भरा था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि पाट की पूरी फसल डूब जाये फुनगी तक.'
...ऐसा नहीं हुआ कभी. ६० साल के परमेसरी साह हतप्रभ हैं. जिले में बाढ ने सबसे अधिक कुमारखंड और शंकरपुर प्रखंडों में नुकसान पहुंचाया है. यदुनंदन मेहता कुमारखंड की हरिराहा पंचायत के हैं. २० अगस्त की शाम को वे अपने गांव में चौक पर घूम रहे थे कि एकाएक साइफन में देखा कि पानी बढ गया है. गांववालों को पहले से अंदेशा नहीं था. जैसे-तैसे भागे सब. २३ तारीख तक यदुनंदन लोगों को अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा कर सिंहेश्र्वर लाते रहे. फिर रास्ता बंद हो गया. गांव के तीन हजार से ज्यादा लोग या तो वहीं फंसे हुए हैं या अन्य जगहों पर चले गये हैं. शंकरपुर प्रखंड के परसा गांववालों के लिए भी बाढ अचानक आयी.
२१ अगस्त की सुबह तीन बजे पानी गांव में घुस आया. गांव की पांच हजार आबादी में से अधिक वहीं फंसी हुई है. करीब सौ लोग निकल पाये हैं. गांव में चार फुट से ज्यादा पानी है अभी. रामचंद्र दास उदास हैं. वे अपनी दो बीघे में लगी धान की फसल, एक बीघे पाट और पांच मवेशियों को याद करते हैं-'सब बह गये. धान इस बार अच्छा लगा था. पांच किलो खाद हर कट्ठे में दिया था. सब खत्म.
जयकुमार साह के लिए भी यह कम नुकसानदेह नहीं रही. उनके १०० सदस्योंवाले परिवार की ५० भैंसें पानी में बह गयीं. अभी भी उनके मां-पिताजी गांव (परसा) में फंसे हुए हैं. उनकी चार बीघे में लगी धान की फसल भी डूब गयी.
...गांव में से इक्के-दुक्के लोग किसी तरह सुरक्षित जगहों पर अब भी पहुंच रहे हैं. नये आनेवाले ये लोग गांव की नयी खबरें भी साथ लाते हैं-प्रायः दुखद खबरें. ... हुकुम राम की मां मर गयीं-डूब कर. मचान पर थी, उसी पर से गिर गयीं. पानी का 'अदक' (आतंक) नहीं सह पायी ७० साल की बूढी. उसके घरवाले अभी मचान पर हैं. परसा में कल पानी घटने लगा था... आज फिर बढ गया.
...लोग चुप हो जाते हैं कुछ क्षण. उधर कोने में कोई सिसक उठता है... कारी कोसी जाने क्या लेकर मानेगी.
१८ किलोमीटर है सिंहेश्र्वर से परसा. कल तक सडक चालू थी, आज जिरवा पुल टूट गया-सो रास्ता बंद. लालपुर रोड पर भी भर घुटना भर पानी है. मतलब कि नाव के बिना अब गांववाले निकल नहीं सकते.
सबके घर का कोई -न -कोई गांव में फंसा हुआ है. सब उदास हैं. १२ साल का एक लडका धीरे से आकर बैठ जाता है-मिथुन कुमार दास. कहता है 'लिख लीजिए, मैं अकेले हूं यहां. मम्मी-पापा सहित सारे घरवाले गांव में हैं.' वह दो-तीन दिन पहले किसी काम से कवियाही आया था. इस बीच बाढ आ गयी और वह यहां रह गया. सभी अपना नाम लिखाना चाहते हैैंं. दीनबंधु साह आठ आदमी. रवींद्र कुमार दास-तीन आदमी. सत्यनारायण साह-पांच आदमी. परमेसरी साह-पांच आदमी. संतोष शर्मा-पांच आदमी. बेचन, शिबू, कमलेश्र्वरी ...नामों की अंतहीन सूची है. जो निकल आये हैं, वे चाहते हैं कि फंसे हुए लोग भी निकल आयें. देर हो रही है, तो वे धैर्य खोते जा रहे हैं. चूडा-गुुड मिल रहा है तो क्या, जब परिवार ही साथ नहीं तो...
परिवारों को फिर से साथ आने में समय लगेगा. उजडे घरों को फिर से बसने में भी और पानी को उतरने में भी.
...वह तो अभी बढ ही रहा है.
कटैया बाजार पर पंडा नगर से भैंसे हांक कर ला रहे किसानों ने बताया-वीरपुर बाजार में कमर भर पानी है. भीमनगर बाजार में सरकारी राहत शिविर के सामने आधे घंटे से रोटियों के लिए खडे विकास कुमार राम ने आग्रह करते हुए लिखाया-'वीरपुर के कुमार चौक में ५० आदमी फंसे हुए हैं.' विकास आज ही वीरपुर से निकला है किसी तरह.
कोसी ने लगभग पूरी तरह लील लिया है वीरपुर को. क्या बचा है वहां अब. जो दशा है वहां की ... एक-एक कर नयी सूचनाएं मिल रही हैं वीरपुर से-मानो एक अंधकार से परदा उठ रहा हो.
वीरपुर से कुसहा की दूरी महज छह किलोमीटर है और सोमवार को बांध टूटने के बाद भारत में पहला बडा आघात वीरपुर को झेलना पडा.
सोमवार की सुबह से ही वीरपुर बाजार में अफवाहें थीं कि बांध को खतरा है, लेकिन अधिकारिक तौर पर कोई सूचना नहीं थी. इससे लोगों ने निकलने की तैयारी भी नहीं की. बूढ-पुरनियों ने इन अफवाहों को चुटकी में उडा दिया-पानी तो आता ही रहता है. इस बार भी आया है, तो पहले की तरह ही निकल जायेगा. ...खतरे की गंभीरता का अंदेशा किसी को नहीं था.
लेकिन शाम साढे छह बजे पानी शहर में घुसा और घंटे भर में पूरा शहर तीन से चार फुट पानी से भर गया. किसी को निकलने का मौका नहीं मिला. पूरा हफ्ता निकल जाने पर भी वीरपुर में आधा से अधिक लोग फंसे हुए हैं. राहत अब कुछ जाने भी लगी है, तो वह सिर्फ वीरपुर तक सीमित है. आसपास के गांव अब भी अछूते हैं. भीमनगर में मिले परमानंदपुर के एक निवासी ने बताया कि उधर अब तक कोई पहुंचा ही नहीं. रानीपट्टी से आ रहे रंजीत पासवान ने सूचना दी-सारे आदमी फंसे हुए हैं गांव में. बसमतिया रोड पर ३०-४० फुट जगह बची है. उसी पर डेढ-दो हजार आदमी रह रहे हैं. खाने-पीने का कोई सामान नहीं. दो-तीन आदमी मर भी गये हैं. कटैया से वीरपुर आठ किलोमीटर है और भीमनगर से पांच. अब नावें वीरपुर तक पहुंचने लगी हैं, लेकिन वे बहुत महंगी हैं. एक नाव एक बार वीरपुर जाने के लिए पांच से छह हजार रुपये लेती है. उसमें भी पानी की धार देखते हुए इन छोटी नांवों से वहां जाना जोखिम भरा है.
कटैया में एक चाय दुकान पर मिलते हैं, दिलीप कुमार गुप्ता. उनके पास वीरपुर से आज सुबह तक की सूचनाएं हैं-अब भी हरेक कॉलोनी में सात फुट पानी है. वीरपुर कोसी पुल के हॉस्टल की छत पर तीन सौ आदमी हैं. फतेहपुर स्कूल पर ५०-६० आदमी हैं. कहीं कोई मदद नहीं मिल पायी है .
वे सुनाते हैं-पूरा गांव भंस गया है फतेपुर का. वीरपुर बाजार में अरबों की संपत्ति का नुकसान है. क्वार्टरों में चोरियां बढ गयी हैं. जो नाववाला दिन में वीरपुर से कटैया पहुंचाता है, वही रात में जा कर खाली घरों पर हाथ साफ करता है. तीन महला मकान गिर रहे हैं. दिलीप कटैया में वीरपुरवालों को सूचना देते हैं चिल्ला कर : चानो मिस्त्री, रमेश कुमार, अख्तर बैंड, दुक्खी बैंड, मनोज पाठक के मकान टूट गये हैं.
कुछ दूसरी सूचनाएं भी मिली हैं- वीरपुर जेल में ८७ कैदी थे. असुरक्षित. चार दिनों से उनका खाना बंद था. जेल के कर्मचारी भाग चुके थे. अंत में कैदियों ने धोतियां-चादरें जोडीं और भाग गये. उनमें से कितने बचे-कितने डूब गये, अभी कौन बता सकता हैङ्क्ष सिविल कोर्ट, अनुमंडल ऑफिस के हजारों रेकॉर्ड पानी में खत्म. धान और पाट की खेती डूब गयी. बीसियों हजार लोग बरबाद हो गये.
भीमनगर से कटैया आनेवाली सडक राहगीरों से भरी है. उजडे-बरबाद हुए परिवार छोटे ठेलों पर, कंधे पर सामान लिये जानवर हांकते आ रहे हैं. थके-हारे चेहरे-उदास आंखें. लोग हंसना भूल गये हैं. गलती से कोई बाहरी आदमी हंस दे, तो लोग चौंक उठते हैं. जानवर तक डकरना भूल गये हैं. बूढी, कमर झुकी औरतें भी, बच्चे भी गठरियां उठाये तेजी से चल रहे हैं. कहां पहुुंचना है, पता नहीं. कोसी ने उन्हें कहीं का नहीं छोडा.
... सडक के किनारे बाढ का पानी तेजी से थांप मारता है. कभी-कभी कोई गाडी भीड के बीच से गुजर जाती है सीटी बजाती हुई... एक औरत रास्ते की दूसरी ओर अपने किसी परिचित से कह रही है-वीरपुर तो अब सपना हो गया.
... कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता.
***
हफ्ते भर से वीरपुर में फंसे लोग अब निकलने लगे हैंं-लेकिन उनमें से भी वही लोग निकल पा रहे हैं, जो नाव के लिए दो से छह हजार रुपये खर्च कर पाने में सक्षम हैं.
स्वीटी फ्रांसिस उनमें से एक हैं, जो अपनी मां, दादी और बहनों के साथ मंगलवार को वीरपुर को पीछे छोड आयीं. बाहर निकल आने की आश्वस्ति उनके चेहरे पर है, लेकिन अब भी वीरपुर में उनके दो भाइयों समेत पांच परिजन फंसे हुए हैं. ये सात दिन स्वीटी के लिए किसी यातना से कम नहीं रहे. वह याद करती है-नमक तक कोई नहीं दे रहा है. एयरड्रॉपिंग का कोई खास फायदा नहीं है. पैकेट पानी में गिर जाते हैं.
वीरपुर में राशन और दवाइयों की कुछ दुकानें खुली हुई हैं, लेकिन राशन दोगुने-तिगुने दाम पर मिल रहा है. इसके अलावा उसे बनाने का संकट भी है. स्वीटी बताती है कि उसके वार्ड नंबर चार के वार्ड मेंबर की गोल चौक पर सरकारी राशन की दुकान है. उन्होंने कुछ भी देने से मना कर दिया. चावल ३० से ४० रुपये किलो तक बिक रहा है. चूडा सौ रुपये तक.
स्वीटी को याद है, सोमवार की सुबह से ही ऐसी अपुष्ट खबरें आने के बाद कि बांध टूटनेवाला है, बाजार में चीजों के दाम बढ गये थे. सोमवार के दिन मूढी ४० रुपये किलो तक बिकी. दिन में दो बजे के करीब कुछ युवकों ने खबर दी कि बांध टूट गया. लेकिन तब भी लोगों को यकीन था कि सरकारी तौर पर कोई सूचना जरूर मिलेगी. उन्होंने अफवाहों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया. उधर मधुबन जंगल में पानी भरने लगा था. शाम को राजमार्ग तोड दिया गया और इसके बाद वीरपुर में पानी भर गया.
फ्रांसिस परिवार ने जैसे-तैसे खाने का कुछ सामान बचाया और छत की शरण ली. लेकिन शहर की सारी आबादी को छतें उपलब्ध नहीं थीं, जहां वह शरण ले सकती. गरीबों के बांस-फूस के झोंपडे थे. वे डूबे भी-बहे भी. कइयों ने दूसरों की छतों पर शरण ली.
पहले तो वीरपुर के निवासियों ने सोचा कि पानी दो-तीन दिनों में निकल जायेगा, जैसा कि पहले भी हो चुका था. लेकिन उनकी उम्मीदें सही साबित नहीं हुईं. वीरपुर और टूटे हुए कुसहा बांध के बीच में पडते हैं नेपाल के गांव-लाही, हरिपुर, शिवगंज और दूधगंज. उन गांवों में तो अब घर भी नहीं दिखते. सिर्फ पेड खडे दिख रहे हैं. वीरपुर के अलावा भवानीपुर, सीतापुर, हृदयनगर और प्रखंड मुख्यालय बसंतपुर भी पूरी तरह तबाह हो चुके हैं.
बाढ से घिरे इलाकों में भूख से मौतें शुरू हो चुकी हैं. फ्रांसिस परिवार ही नहीं, वीरपुर से निकले कई अन्य लोगों ने भी सूचना दी-परमानंदपुर मदरसा में फंसे १२ लडके भूख से मर गये २३ अगस्त को. २५ को बसमतिया में २० लोग डूब गये हैं....आठ साल का एक बच्चा एयरड्रॉपिंग का पैकेट लपकने में छत से गिर कर मर गया. वीरपुर अस्पताल के प्रभारी डॉक्टर वीरेंद्र प्रसाद की इलाज के अभाव में शनिवार को मौत हो गयी.
...नक्शा फैला कर देखिए-पश्चिम में भीमनगर से पूरब बसमतिया तक का पूरा इलाका कोसी में समा चुका है. लोग जिंदा तो हैं, लेकिन हर पल जीवन उनसे दूर होता जा रहा है.
...मुसलिम टोले में २०० लोग फंसे हुए हैं. सेंट्रल बैंक कॉलोनी (वार्ड चार) में सौ से अधिक लोग फंसे हुए हैं. वीरपुर से दो किमी पूरब पटेरवा में दो हजार लोग फंसे हुए हैं. उनमें बच्चे हैं, महिलाएं हैं, बूढे हैं.
...और ऐसे में वीरपुर लहरी टोल की ज्योति पराया ने २० तारीख को एक बच्चे को जन्म दिया. चारों ओर से पानी से घिरे एक काठ के घर की छत पर शरण ली हुईं चार बहनों को भाई मिला...लेकिन वह बचेगा कैसेङ्क्ष मकान धंसा तो क्या होगाङ्क्ष कौन जानता है कि मकान धंस नहीं गया होगाङ्क्ष रोज ही शहर (!) में घर गिर रहे हैं. छतें टूट रही हैं. दीवारें धंस रही हैं.
स्वीटी को इन सात दिनों में अपने पापा की बहुत याद आयी. सिंचाई विभाग में इंजीनियर रहे और कुसहा बांध के इंच-इंच से परिचित स्वीटी के पापा कहते थे-कुसहा बांध टूटे तो कभी वीरपुर में मत रहना. कोसी इसे बरबाद कर देगी.
पापा के निधन के कई वर्षों बाद स्वीटी पाती है कि उसके पापा कितने सही थे.
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कटैया जैसे छोटे बाजार के लिए इतनी भीड बहुत अनहोनी बात है. साल में सिर्फ विश्वकर्मा पूजा के मेले में ऐसी भीड जमा होती है. लेकिन वह तो मेला होता है. बिहार स्टेट हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कारपोरेशन में कार्यरत राकेश कुमार इसके लिए एक दूसरा नाम सुझाते हैं : आफत मेला.
वास्तव में यह आफत मेला है. कटैया हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट से दक्षिण से लेकर भंटाबाडी (नेपाल) तक चले जाइए-अस्थायी तंबुओं (इन्हें अगर आप तंबू कह सकते हों) में रह रही हजारों की आबादी आफत में फंसी हुई है. कटैया की हर इंच पर उजडे परिवार बसे हुए हैं. हर तरफ, बांस-फूस से बनी दुकानों से बची खाली जगह से लेकर मंदिर परिसर, धर्मशाला और दूसरी सभी जगहों पर विस्थापितों के तंबू गिरे हुए हैं-छोटे से घेरे में घर का बचा-खुचा सामान और बहने से बच गये लोग. वीरपुर, बैजनाथपुर, लालपुर खंटाहा, भवानीपुर, बलुआ, भारदह से आये हुए लोग अपने जानवरों के साथ बोरे और चादरें आदि टांग कर रह रहे हैं. हर समय कुछ नये परिवार आ रहे हैं और खाली जगहों पर कुछ नये तंबूनुमा डेरे खडे हो जाते हैं. राज्य के आपदा प्रबंधन मंत्री नीतीश मिश्रा बलुआ के निवासी हैं. बलुआ से आये लोग बताते हैं कि वहां न कोई नाव है, न राहत. बलुआ हाइ स्कूल पर २०० लोगों ने शरण ली थी. शुक्रवार २२ अगस्त को छत गिर गयी. उनमें से कम ही होंगे, जो बच पाये होंगे.
लेकिन जो जीवित हैं, वे भी हताश हो रहे हैं. एक टेंट में सूखा चूडा फांक रहे उपेंद्र प्रसाद कहते हैं-'और दो चार दिन कुछ नहीं मिला तो लोग भूखे मर जायेंगे. अभी तो जिंदा देख रहे हैं न, चार दिन बाद लाश देखियेगा लोगों की.'
भीमनगर के पुराना बाजार चौराहे पर बाढ राहत शिविर में कुछ लोग जमा हो गये हैं-दवा काउंटर के पास. शिविर में बैठा एक नेतानुमा व्यक्ति स्थानीय लोगों और अधिकारियों को बता रहा है-'मेरा तो एक बयान ऐसा आया है कि उसे हिंदुस्तान टाइम्स तक को छापना पडा है.'...ऐसी आफत में भी इतना हृदयहीन हो सकता है कोईङ्क्ष
हाथ में नोटबुक देख कर पास ही में बैठे पुलिस के एक अधिकारी ने अखबारों पर टिप्पणी की-'कुछ छाप नहीं रहे हो तुमलोग जी. जनता मर रही है यहां.' लेकिन वहीं बैठे बाढ राहत के एक प्रभारी अधिकारी कोई रिस्क लेना नहीं चाहते. उतने बोल्ड नहीं हैं. राहत कार्यों के बारे में पूछने भर से वे खडे हो जाते हैं-'जो पूछना है, डीएम से पूछिए जाकर. हमारी नौकरी मत लीजिए भाई.'
सडक की दूसरी ओर एक चाय दुकान पर चाय 'सर्व' करनेवाला बच्चा पानी का गिलास रखते हुए लगभग इशारे में बताता है-'यहां लोग पांच दिन बिना खाये रहा है. तीन दिन से पूडी बन रहा है, तब जिंदा देख रहे हैं इनको.' वह अपने दोनों हाथों की अंगुलियां फैलाता है-दस हजार लोग मरा है.
शिविर के सामने पंक्तियों में बैठे कुछ बच्चे और महिलाएं भोजन का पौन घंटे तक इंतजार करने के बाद उठने लगे हैं. हालांकि इस पूरी अवधि में तेजी से पूडियां तली जाती रही हैं. वे बंटेंगी, लेकिन कब, पता नहीं.
उन्हीं के बीच से गुजरती हुई, अपने मल्लाह पति को खाना ले जाती हुई और बाढ के प्रकोप से बची हुई एक नेपाली महिला कोसी को गोहारती है, अपनी भाषा में :
कौने नइया डूबेइगो कोसी माई
कौने नइया उगइबो कोसी माई,
मईया गो उतरइबी पार...
पापे नइया डूबेइगो कोसी माई,
धरमे नइया उगइबो कोसी माई,
मईया गो उतरइबी पार...
26 अगस्त 2008
समाजवाद का भविष्य अन्तिम
जैसा कि पहले ही इशारा किया गया है कि इस दो असफलताओं के बीच एक अंतर है जिसे विशेष तौर पर ध्यान देना चहिए. समाजवाद कुछ समय के लिए असफल हुआ है लेकिन फिर भी मानवता को बचाए रखने तथा एक सुरक्षित दुनिया की आशा में तथा मानव जाति के जीवन मूल्य के लिए एक विकल्प के रूप में यह बचा हुआ है. इसे दोहराने की जरूरत है कि पूंजीवाद के अस्वीकार्य आर्थिक, नैतिक तथा पर्यावरणीय परिणाम, अपने यहां तथा विदेशों मे भी बर्बरता की ओर ले जाने वाली बेरोजगारी, गरीबी, असमानता को रोकने में असफलता, व्यवस्था का भटकाव या विशेष परिस्थितियों अथवा 'गलत' नीतियों द्वारा उत्पन्न 'नकारात्मक' प्रभाव नहीं है. यह सब पूंजीवाद के न सुधरने वाले तथा अनियंत्रित तंत्रजनित अथवा ढांचागत तर्क खुद व्यवस्था में निहीत शोषण तथा ध्रुवीकरण के तर्क के उत्पाद हैं. अतः ये प्रभाव, यद्यपि एक निश्चित दौर में कम होने तथा अन्य में बढ़ने के बावजूद, स्थायी हैं. इसलिए ये जरूरी रूप से ही असाध्य हैं. दुसरे शब्दों में हमारे समय में पूंजीवाद का पतन अपने लिए एक व्यवस्थित या संरचनागत जरूरत अथवा अपरिहार्यता लिए हुए है. बदले में, सोवियत संघ में समाजवाद की असफलता कोई व्यवस्थाजनित य संरचनागत मजबूरी नहीं लिए हुए थी. राजनीति निर्देशित अर्थव्यवस्था के कारण समाजवाद में, साधारणतया बाजार आधारित पूंजीवाद जैसे कोई ढांचागत तर्क अथवा 'कानून' नहीं होते. समाजवाद प्राथमिक रूप से सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच त्रुटियों, सत्ता में रहते हुए कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा गलत चुनाव कॆ कारण असफल हुआ. कम्युनिस्ट सत्ताओं (तथा यूरोप में सामजिक जनवादियों) की असफलता के प्रसंग में गैब्रियल कोल्को ने लिखा है कि "ऐसी स्थितियों में होते हुए भी समाज को मुक्त करने तथा उसके महत्वपूर्ण (साथ ही साथ स्थायी) ढंग से रूपांतरण करने में असफलता, उनकी विश्लेषणात्मक अक्षमता तथा ठहराव; उनके नेताओं तथा संगठन की सतत कमजोरी का प्रमाण है. यह वह यथार्थ है जिसने १९१४ के बाद अनगिनत देशों में सामाजिक जनवादी तथा साम्यावाद दोनों का सीमांतीकरण कर दिया जिसने पूंजीपति वर्ग तथा उसके सहयोगियों को, जो समाजवादी सत्ता द्वारा अपने कार्यक्रमों में सुधारों के छोटे हिस्सों के क्रियान्वयन के बगैर कभी भी जीवित नहीं रह सकते थे, सदियों की समस्या से मोहलत प्रदान कर दिया. जबकि इसने दूसरी तरह से लाठी को बहुत दूर झुका दिया लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि समाजवाद की असफलता निश्चित तौर पर एक मानवीय असफलता थी जो कि इसके बारे में कुछ भी अपरिहार्य नहीं था. अगली बार जब कहीं और जब कभी कोई प्रयास किया जायेगा इस असफलता द्वारा सीखे गए सबक मदद करेंगे. इसलिए समाजवाद पूंजीवाद का न सिर्फ एक मात्र विकल्प है बल्कि मानवता के लिए यह एक वास्तविक पसंद हैं......
सोवियत संघ में जैसा समाजवाद निर्मित किया गया था वह असफल हो गया. अन्य जगहों पर पूंजीवाद भी पतित हो गया है. समाजवाद, जिसको कि हम जानते हैं तथा पूंजीवाद ,जिस तरह आस्तित्वमान है दोनों कि हमारे समय में असफलता स्पष्ट करती है कि पूंजीवाद से समाजवाद/साम्यवाद में संक्रमण के मामले में महायुगीन संक्रमण की समस्या और समाजवाद के भविष्य के सवाल को हम अच्छी तरह समझ सकते हैं. दूसरे शब्दों में, हम ऐसी स्थिति में हैं जहां पुराना अपनी सकारात्मक संभावनाओं को समेटे है तह्ता नए में जन्म से ही कुछ समस्याएं होगीं. एक दूसरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ग्राम्शी ने लिखा है कि 'पुराना अपनी मौत मर रहा है और नवीन जन्म नहीं ले रहा है; इस अराजक काल में बडे़ विकृत किस्म के लक्षण दिखाई दे रहे हैं'. यह विकृत लक्षण हैं, आज के सभी उन्नत तथा कम उन्नत पूंजीवादी देशों में, पूंजीवादी सभ्यता के किसी गहरे संकट से ज्यादा, आज हमारे समय में पूंजीवाद के अनिवार्य पतन के, कम या आधिक मात्रा में, लक्षण दिखाई दे रहे हैं.......
आज हम जो कुछ देख रहे हैं वह एक युग का अंत है, पूंजीवाद से संक्रमण का युग. एक असमान दुनिया के गठन और पुनर्गठन के केंद्र के रूप में पूंजीवाद के विस्तार के इन पांच सौ विषम वर्षों में, आर्थिक मजबूती और लाभ कि परिधि तथा अर्धपरिधि के संदर्भ में पूंजीवाद अपने स्थायी अंतर्विरोधों को दबाने में सक्षम था लेकिन यह सब भविष्य में अपनी जीत के लिए स्थितियों को बदतर बनाए बिना नहीं हो सकता था. अब आगे की विस्तार की संभावना के धीरे धीरे खतम होने के साथ ही इस अंतर्विरोधों को पहले जैसे दबाना कठिन है. लोगों के लिए वास्तविक विध्वंसक परिणामों के साथ अधिक आक्रामक हो कर वे जो घोषणाएं कर रहे हैं वह खुद पूंजीवाद के वर्चस्व के युग को दर्शाती हैं. अपने सबसे अच्छे दिनों में भी पूंजीवाद, शुम्पीटर के प्रसिद्ध मुहावरे का प्रयोग करें तो 'रचनात्मक विध्वंस' की एक प्रक्रिया है.जैए ही पूंजी में बढो़त्तरी होती है, प्रतियोगी शक्तियों को जीवित रहने के लिए प्रतियोगी होना पड़ता है तथा जो रचनात्मक नहीं हो पाते विध्वंस को अंजाम देते हैं. बाजार तथा प्रतियोगिता की दुकान में विजेता, पराजितों से प्रतिद्वंदिता करते हैं तथा रचना तथा विध्वंस एक तथा एक समान हो जाते हैं. पराजित, यद्यपि वैयक्तिक इकाई या निरपेक्षतः अकुशल नहीं होते. वास्तविक दुनिया में पराजित जनता होती है और कई बार पूंजीपति भी हो सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत और सामुदायिक तौर पर अक्सर श्रमिक लोग ही होते हैं. 'रचनात्मक विध्वंस' का मतलब है- वास्तविक श्रमिकों की बेरोजगारी,समुदायों की निराश्रयता, पर्यावरण का विनाश तथा जनता की शक्तिहीनता. पूंजीवाद के रचनात्मक विध्वंस का का विनाशकारी पहलू अब ऐसे बिंदु पर पहुंच गया है ऐतिहासिक 'रेजन दि एत्रे' तथा बतौर उत्पादन प्रणाली के पूंजीवाद की न्यायसंगतता एकबारगी खत्म हो गई है तथा अब हम वैधानिक तौर पर यह कह सकते हैं कि पूंजीवाद अपने समय से ज्यादा, अपनी ऐतिहासिक वैधानिकता के काल से ज्यादा समय तक जीवित है.
पूंजीवाद की उपलब्धियां अब पूरी तरह से अतीत की हो चुकी हैं और इसका भविष्य सिर्फ मानवता के विध्वंस का ही वादा करता है. कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा है कि वर्ग संघर्ष 'या तो व्यापक तौर पर सामाजिक क्रांतिकारी पुनर्स्थापना में या फिर संघर्षरत वर्गों की आपसी बर्बादी से समाप्त होता है. बीसवीं सदी के महान वर्ग संघर्ष का परिणाम निश्चित तौर पर 'समाज की क्रांतिकारी पुनर्स्थापना' नहीं है. मार्क्स और एंगेल्स ने जिसे 'संघर्षरत वर्गों की सामान्य बर्बादी' कहा है वह पहले से ही समाज में हो रही है. अर्थव्यवस्थाएं हर जगह कसाईखाना बन गई हैं; लाचारी, गरीबी, धन की कमीं तथा संसाधनों की विलासितापूर्ण बर्बादी; कानून तथा व्यवस्था के व्यापक विध्वंस, मूर्खतापूर्ण क्षेत्रीयता तथा नस्लीय विवाद, देशों के बीच अथवा देशों के भीतर रोजमर्रा के नए युद्ध, जनसंहारक हथियारों के प्रसार तथा वैश्विक पैमाने पर आतंकवाद का खतरा, सब कुछ निगल जाने वाले पर्यावरणीय संकट, निकट भविष्य में ऐतिहासिक तौर पर बहुत वास्तविक संदर्भों में यह सब संघर्षरत वर्गों से ज्यादा 'समान बर्बादी के बिंदु हैं. पूंजीवाद का युग शायद अच्छी तरह से 'मानवता के संपूर्ण उन्मूलन' में ही खत्म हो जैसा कि मार्क्स द्वारा १८४५ में ही संभावना व्यक्त की गई थी. जिस परिप्रेक्ष्य को बाद मे रोजा लुक्जमबर्ग ने 'समाजवाद या बर्बरता' नामक उक्ति में व्यक्त किया. जिस खतरे को हम महसूस कर रहे हैं उसके संदर्भ में रोजा लुक्जमबर्ग के कथन को सुधारकर मेस्ज़रोज़ ने कुछ जोड़ते हुए कहा कि 'समाजवाद या बर्बरता', "अगर हम भाग्यवान हैं तो बर्बरता"--पूंजी के विनाशकारी विकास का अंतिम समायोजन मानवता का उन्मूलन है. ऐसी नियति 'मानवता का उन्मूलन' पूंजीवाद के अनियंत्रित धन बटोरने के तर्क में ही अंर्तनिहीत है. यह बिल्कुल ठीक कहा गया है कि पूंजीवाद के बारे में यह सच नही है कि 'इतिहास का अंत' हो गया है, जैसा कि बुर्जुवा विचारक हमें मानने के लिए कहते हैं, बल्कि इसका निरंतर आस्तित्व 'मनुष्य के इतिहास का' वास्तव में अंत कर देगा.....
पहले जैसा बताया गया है कि, चीजों के विस्तृत दृष्टि को लेकर, वर्तमान समय की पराजय तथा समाजवाद की वापसी उस उतार चढा़व की उपयुक्त दृष्टि है जो पूंजीवाद से समाजवाद में महायुगीन संक्रमण से अपरिहार्य तौर पर जुडी़ है......बीसवीं शताब्दी वैश्विक पूंजीवाद द्वारा दुनिया भर में संपूर्ण वर्चस्व के साथ शुरु हुई थी. तब मार्क्सवादी विश्लेषण के, और खुद मार्क्स के पूर्वानुमान के मुताबिक बीसवीं सदी में - प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत यूरोपीय क्रांति (जिसमें सिर्फ रूस की क्रांति ही कायम रह पाई), द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप में और फिर चीन, कोरिया, क्यूबा, वियतनाम, और हर जगह पूंजीवादी व्यवस्था के लगभग एक तिहाई आबादी और परिक्षेत्र में समाजवादी क्रांतियां संपन्न हुईं. पूंजीवाद की परिसीमा में समाजवाद जड़ें नहीं जमा सकता था जैसा कि पूंजीवाद ने सामंतवाद के भीतर किया. पूंजीवाद द्वारा प्रदत्त भौतिक आधारों पर बेहतर ढंग से निर्मित यह समाज की एकदम एक नई शुरुआत है, लेकिन जिन गरीब तथा पिछडे़ देशों में समाजवाद के निर्माण की ये कोशिशें हुई वहां ये आधार मुश्किल से ही मौजूद थे.. जो सबसे कमजोर तैयारी मे थे यह उनका कार्यभार था फिर भी इन देशों ने इस निर्माण के लिए संघर्ष किया तथा अफ्रीका व अन्य जगहों पर भी मार्क्सवाद व समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध आंदोलनों तथा क्रांतिकारी सत्ताओं का उदय हुआ. तथा पूंजीवाद तथा क्रांति के बाद समाजवाद की स्थापना के बीच लंबे समय तक जो प्रतिद्वंदिता रही वह अब बंद हो गई तथा उसका अचानक अंत हो गया. पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं के बाद, आने वाला भविष्य पूंजीवाद से संबंधित लगने लगा था लेकिन ऐसे परिप्रेक्ष्य सापेक्षतया नए हैं. कई सदियों से यह धारणा बहुत दूर थी कि पूंजीवाद तीसरी सहस्त्राब्दी तक बना रहेगा. लेकिन क्रांति पश्चात की प्रतिस्थापनाएं दिखाती हैं कि समाजवाड दूसरी सहस्त्राब्दी मे अंतिम दिनों में ही असफल हो गया. यद्यपि यह पहले दृष्टिकोण की समाप्ति नहीं है. समाजवाद का सोवियत प्रयोग असफल हो गया क्यूंकि वस्तुगत तथा आत्मगत दोनों तरह की स्थितियां इसके प्रतिकूल थीं. प्रारंभ में आर्थिक पिछडा़पन, फिर आंतरिक वर्गयुद्ध तथा सशस्त्र और निरस्त्र विदेशी हस्तक्षेप तथा वैश्विक पूंजीवाद के निरंतर प्रयासों ने समाजवाद के निर्माण में हर सफलता को बाधा पहुंचाया. इस राह के निर्धारक तत्व, अपर्याप्त तथा अक्सर ही गलत सिद्धांत थे जिन्होंने इस प्रयोग तथा कमजोर राजनीतिक नेतृत्व को दिशा निर्देश अथवा गलत दिशा निर्देश दिया. लेकिन जो जानना सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि जिस के लिए भी प्रयास हुए और जो भी कुछ असफल हुआ वह समाजवाद नहीं था बल्कि समाजवाद निर्माण के लिए पहला गंभीर प्रयास था. समाजवाद तथा साथ ही साथ क्रांति की उपलब्धियों के उद्देश्यों का जिन कारणों से जन्म हुआ वह अभी भी पहले से ज्यादा मौजूद हैं. इसे मानने का कोई कारण नही है कि प्रभुत्वशाली पूंजीवाद को हमेशा की ही तरह आश्चर्यचकित कर देने वाली नई क्रांतियां लंबे दिनों तक नहीं होंगी तथा समाजवाद के निर्मान के नए प्रयास नहीं किए जायेंगे. और इस बात को मानने के कई कारण हैं कि अनूकूल परिस्थितियों, ज्यादा समृद्ध सिद्धांत तथा बेहतर राजनीतिक नेतृत्व में भी ऐसे प्रयास सफल नही होगें......
यहां पूंजीवाद के उद्भव और विकास पर एक निगाह डालना काफी शिक्षाप्रद होगा. विद्वानों का मत है कि मध्यकाल के दिनों में पूंजीवाद अपनी गलत शुरुआत के बावजूद एक नहीं बल्कि कई घोषणाओं/उम्मीदों को समेटे हुए था. लेकिन विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रहने की ताकत की कमीं के कारण तथा उस दौरान मुख्यतः सामंती वातावरण के कारण कमजोर तथा विभाजित था. सामंती वातावरण से घिरा, आकार लेता पूंजीवाद आगे बढ़ने में असफल रहा. यह तब तक नहीं था जब तक कि बाद की सदियों में एक नया संयोग नहीं आया कि फुटकता पूंजीवाद, जिसने अपने पहले के विफल प्रयासों से लाभान्वित होकर जडे़ जमाया तथा अपने शत्रुओं को धराशायी करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली बनकर उभरे तथा आगे बढ़ सके, और अंततः यह प्रकट हुआ जैसे कि इग्लैंड तथा अन्य अटालांटिक समाजों में हुआ. एक बार उदीयमान होने के बाद सामंतवाद से संघर्ष लगातार जारी था, एक ऐसा संघर्ष जो प्रभुत्व के लिए दो वास्तविक आस्तित्वमान सामाजिक संरचनाओं के बीच था. यह संघर्ष राज्य सत्ता (उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार) तथा अपने हितों तथा विचारों के अनुसार समाज को संगठित करने के अधिकार के लिए था. इससे भी ज्यादा यह एक ऐसी प्रक्रिया का विस्तार था जिसमें एक नए सामाजिक ढांचे ने वैचारिक तथा आर्थिक दोनों तरह के अविवादित प्रभुत्व के लिए खुद को तैयार करने में पर्याप्त समय लिया. इसीलिए पूंजीवा हमारे समय में वैश्विक वर्चस्व के तंत्र के रूप में उपज सका तथा विकसित हुआ. जब तक कि इसमें छेद करने के लिए समाजवाद ने अपना पहला प्रयत्न नहीं किया, एक ऐसा प्रयत्न जो अभी असफल हो गया.....