किसी का भी धर्म परिवर्तन अपने धर्म को श्रेष्ठ मानकर करना या कराना निंदनीय है। धर्म परिवर्तन का मुद्दा कंधमाल और बंगलुरू में जारी हिंसा के मद्देनजर फिर विचारणीय हो उठा है। दूसरों के धर्म को दोयम दर्जे का या अपने धर्म से हीन मानना ओछी मानसिकता है। वर्तमान में धर्म परिवर्तन मोक्ष या प्रभु प्राप्ति के उद्देश्य से नहीं वरन संख्या बल बढ़ाने के उद्देश्य से किया जाता है। संख्या बल बढ़ाने के राजनीतिक निहितार्थ होते हैं और इसका लाभ भी संबंिधत पक्षों को मिलता है। गांधी इन बातों को अच्छी तरह समझते थे इसलिए उन्होंने धर्म-परिवर्तन और पुन: परिवर्तन जैसे प्रयासों की निंदा की थी। सच तो ये है कि धर्म किसी को भी सही मायने में इंसान नहीं बना सका। जिन्हें धार्मिक लोग कहा जाता है वो दरअसल असहिष्णुओं की फौज हैं। आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों में इनकी भरमार देखी जा सकती है। इन संगठनों का मुख्य कार्य है तथ्यों को तोड़-मरोड़कर या गोलमाल भाषा में पेश करना। तथ्य कुछ भी हो संदर्भ से काटकर विद्रूप रूप से परोसना। इसमें इन्हें महारत हासिल है। भाजपा अच्छी तरह जानती है कि वह विकास के मुद्दे पर असफल हो चुकी है। इसका मोदी मॉडल विकास को लेकर कितना प्रासंगिक है यह समय बताएगा। सत्ता के लिए भाजपा के पास ले-देकर एक ही अस्त्रा है और वो है सांप्रदायिक धु्रवीकरण। क्रिश्चियनों और मुस्लिमों पर हमले इसी खेल का हिस्सा हैं।धर्म परिवर्तन बहुआयामी मुद्दा है। ये व्यापक चर्चा का विषय होना चाहिए। जहां भी धर्म परिवर्तन होता है एकांगी नहीं होता। दोनों तरफ से पहल होती है। कुछ लोग एक धर्म से निकलते हैं तो कुछ नए भी उसमें शामिल होते हैं। हिंदुओं में से कुछ लोग धर्म छोड़कर ईसाई या मुस्लिम बन जाते हैं तो उनमें से भी कुछ लोग हिंदू धर्म में शामिल हो जाते हैं। ये सतत प्रक्रिया है जो चलती रहती है। विशेष रूप से हिंदू धर्म की बात की जाए तो ज्यादातर धर्म परिवर्तन निम्न निधZन तबके में होता है। ये वे लोग हैं जो हिंदू धर्म समाज की परििध पर हैं। पहचान के संकट और न्यूनतम सुविधाओं के अभाव में कष्टकर जीवन जीने को मजबूर हैं। इन परिस्थितियों में ये लोग अन्य धर्म प्रचारकों के लपेटे में आ जाते हैं। यहां यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि बलात् धर्म-परिवर्तन संभव नहीं है। धर्म परिवर्तन का प्रत्याशी जब तक स्वयं न चाहे कोई भी जोर जबर्दस्ती से उसका धर्म परिवर्तन नहीं कर सकता। मगर संघ परिवार इन्हीं स्वाभाविक प्रवृत्तियों को तूल देकर बहुसंख्यक हिंदुओं में भय उत्पन्न कर धु्रवीकरण करके उसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं। यहां विशेष ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि 1947 से पूर्व और पश्चात भी रा.स्व.सं, हिंदू महासभा द्वारा निरंतर कहा जाता रहा है कि पचास वर्ष बाद भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। साठ वर्ष बीत गए। इतिहास और आंकड़े गवाह हैं कि हिंदू भारत में 80 प्रतिशत हैं। जहां तक धर्म परिवर्तन का सवाल है सांप्रदायिक संगठन ये कभी नहीं बतलाते कि इन साठ वषो± में अन्य धमो± से कितने लोग हिंदू धर्म में आए। यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि हिंदू धर्म की सतत बड़ाई हांकने वाले मठाधीश हिंदू धर्म में किसी भी प्रकार का सामाजिक विमर्श पेश करने में असफल हैं। सभी संप्रदायों के मठाधीश जातिवादी मानसिकता के प्रेरक और पोषक हैं। चाहे वह ब्रह्म कुमारी मिशन हो, इस्कॉन हो, स्वामी नारायण हो या राधास्वामी या अन्य संप्रदाय। इनके पास अकूत संपत्ति है, विलासितापूर्ण जीवनशैली है। आडंबर और पाखंड है। जिसे धर्म मीमांसा प्रचारित किया जाता है वह दरअसल मिथ्या मीमांसा है। इन मठों और मठाधीशों को हिंदू समाज के वंचित, शोषित तबके से कुछ भी लेना-देना नहीं है, हां इनकी भयंकर उपेक्षा से अलग-थलग पड़े लोग जब अन्य धमो± की ओर रूख करते हैं तो धर्म परिवर्तन का हल्ला मचाने के लिए मठों की थैलियां खुल जाती हैं। जिनका धर्म परिवर्तन हो जाता है उनका हाल-चाल पूछने उक्त संगठनों के गुगेZ कभी उनके पास नहीं जाते। उन कारणों और विपत्तियों को समझने की कभी कोशिश नहीं करते जिसके चलते धर्म परिवर्तन हुआ। उन्हें सांप्रदायिक राजनीति करनी है इसलिए चचो± और मिस्जदों पर हमले कर अपनी ओछी मानसिकता का प्रदर्शन करते रहते हैं। समझदार हिंदू इनके झांसे में नहीं आते पर मूढ़ इनकी मिथ्या अवधारणाओं और प्रचार में उलझ जाते हैं। यह भी विचारणीय है कि क्या अपनी जाति को सुरक्षित कर लेने से धर्म सुरक्षित हो जाता है। सांप्रदायिक संगठन कभी क्यों चाहेंगे कि धर्म परिवर्तन जैसी विकृतियां बंद हो जाएं। इसलिए धर्म परिवर्तन पर वैज्ञानिक विचार जरूरी है। खुले दिल, साफ नीयत और धर्म निरपेक्षता की दृष्टि से सार्वजनिक विचार हो तो समस्या का समाधान आसानी से निकल सकता है। साभार -समयांतर
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