एक लम्बे अर्से बाद छः से चौदह वर्ष के बच्चों को अनिवर्य रूप से शिक्षा मुहैया करवाने वाले शिक्षा के अधिकार विधेयक को केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने कानूनी रूप से स्वीकृति दे दी है.संविधान के नीतिनिर्देशक तत्व में अनुच्छेद ४५ के तहत यह यह अनिवार्यता दी गयी है नीतिनिर्देशक तत्व की यह एक मात्र धारा थी जिसमे १० वर्ष के समय की बचन बद्धता थी. बचन बद्धता के पचास साल बाद शिक्षा के अधिकार की मंजूरी को कुछ विफल एतिहासिक दावों और भविष्य में प्राथमिक शिक्षा से निर्मित होने वाले समाज के आलोक में देखने की जरूरत है. १९५५ मेम जब प्रायमरी स्कूलों को आरम्भ करने का निर्णय लिया गया था तब से एक सुधारवादी अवधारणा के साथ यह बात सामने आनी शुरू हुई कि प्राथमिक शिक्षा का उत्तरोत्तर विकास होगा. जिसको लेकर समय समय पर कई समितियां बनायी गयी, और कुछ नये तरह के बदलाव भी किये गये. पर इन ५० वर्ष के दौरान प्राथमिक शिक्षा की जो स्थिति रही और वर्तमान में जो है वह एक निराशाजनक ही कही जा सकती है.. प्राथमिक स्कूलों की स्थिति, पाठ्यपुस्तकें, और शिक्षण की प्रक्रिया के साथ ५७.६१ प्रतिशत छात्र आज भी प्राथमिक शिक्षा को बीच में ही छोड़ देते हैं. ऎसे में इस अधिकार को मंजूरी मिलना आम जन जो अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल या महगे शिक्षण संस्थानों की शिक्षा को नहीं खरीद पा रहा है व असमानता की इस खाई में उसका आक्रोश वर्गीय आधार पर बढ़ता जा रहा है कही यह विधेयक उनके सब्र का झुनजुना तो नहीं है. १९८६ मेम नई शिक्षा नीति लागू होने के साथ तत्कालीन शिक्षा मंत्री कृष्ण चंद पंत ने शिक्षा स्थायी समिति के सामने यह बयान दिया था कि १९९० तक सभी को प्राथमिक शिक्षा प्राप्त हो जायेगी पर २२ वर्ष बाद आज जो आंकडे़ हमारे सामने हैं वो इन दावों को खोखला ही साबित करते हैं. प्राथमिक शिक्षा को लेकर १९६४ में डा. डी. एस. कोठारी की अध्यक्षता में गठित आयोग ने शिक्षा दिये जाने की अवधारणा पर सवाल उठाते हुए कहा था कि शिक्षा प्रणाली बच्चों को मूल्य युक्त शिक्षा देने के बजाय उसे एक छोटे से अल्प मत के लिये उपलब्ध करा पाती है जो योग्यता से नहीं बल्कि फीस देने की क्षमता से बनता है. समतावादी आदर्श समाज के विपरीत यह एक अलोकतांत्रिक स्थिति है जिससे आम जन के बच्चे निम्न स्तर की शिक्षा पाने या न पाने को मजबूर हैं. जबकि सम्पन्न वर्ग अच्छी शिक्षा खरीदने में समर्थ है. ऎसी स्थिति में शिक्षा की समता के लिये जन शिक्षा को सर्वमान्य प्रणालि की ओर बढ़्ना होगा. बावजूद इसके कि इसका कार्यान्वयन इमानदारी से किया जाता यह पूरी तरह से रद्दी की टोकरी में पडी़ रही.और १९८६ में नई शिक्षा नीति की समीक्षा के लिये राममूर्ति कमेटी गठित की गयी जिसने मूल्य आधारित शिक्षा के नाम पर धर्म और अवैग्यानिक शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया. जब इस पर सवाल उठा तो कोर्ट ने धर्म को उदारवादी अवधारणा के रूप में देखने की बात कही. इस लिहाज से पुस्तकों के लेखकों और सत्ता में आसीन विभिन्न विचारधारा की पार्टीयों को अपने मुताबिक इसे व्याख्यायित करने का मौका मिला. और जब भाजपा केन्द्र में आयी या जिन राज्यों में सत्ता सीन हुई अपने विचारों के अनुरूप किताबों का धार्मिकीकरण और साम्प्रदायिकी करण किया. अब बच्चों को ग से गमला की जगह ग से गणेश हो गया. सवाल यह उठता है कि जब प्राथमिक शिक्षा के अधिकार का विधेयक पास हो चुका है तो उसका आम जन को और सम्पूर्णता मेम समाज को क्या लाभ होने जा रहा है. लोग अंगूठा लगाने के बजाय हस्ताक्षर करना सीख जायेंगे और और साक्षरता का प्रतिशत थोडा़ बढ़ जायेगा जिसे सरकारें विकसित होने की प्रक्रिया में एक उपलब्धि के तौर पर गिनायेंगी पर अगूठा लगाने और हस्ताक्षर करने के बीच कोई खास फर्क नहीं दिखता. और सरकारे उस समझ तक आम जन को नहीं जानें देना चाहती जहा वे अपने हक अधिकार को समझ सकें अपने शोषण के विरुद्ध लड़ सकें. अन्ततः यह शिक्षा अधिकार का कानून किनके हितों की पूर्ति करेगा इस बात को समझने की जरूरत है. शिक्षा की अवधारणा मानवीय विकास के पीढी़ गत हस्तांतरण को लेकर होनी चाहिये थी. अपने देश के लोगों सहित विश्व की संचित संस्कृतियों के सर्वोत्तम त्त्वों से बच्चों का परिचय सीखने की उत्सुकता व चाहत जगाना अप्ने ग्यान को वे खुद बढा़यें बच्चों में इस तरह की क्षमता पैदा करना होना चाहिये . पर वर्गीय आधार पर स्कूलों का विभाजन जहाँ जिस वर्ग के पास पब्लिक स्कूल में अपने ब्च्चों को भेजने और महंगी शिक्षा को खरीदने की क्षमता है वह अपने मनमाफिक पाठ्यपुस्तकों को खरीदने के लिये आजाद है. सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले वर्ग के बच्चों को एक ही तरह की पाठ्यपुस्तकें थोप दी गयी हैं. पाठ्यपुस्तकों के सातह जो सबसे बडी़ समस्या दिखती है वह यह कि घटनाओं, व समाज के विकास, इतिहास, को एक कहानी के रूप में चित्रित कर दिया गया है जहाँ बच्चे को यह नही बताया जाता कि यह इतिहास कैसे निकाला गया इसके सही होने के क्या प्रमाण हैं पुस्तकें विवरणों का ढेर बनकर रह गयी हैं जो जिग्यासा को ग्यान की प्रक्रिया नहीं मानती . अतः बच्चों के मनोविग्यान मेम आस्थावादी भावना को विकसित किया जाता है . दूसरी तरफ पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को एक ऎसी संस्कृति में ढाला जाता है जहाँ वे टाइ जूते के साथ साफ सफाई युक्त एक खास तरह की संस्कृति में पलत्व हैं और समाज के यथार्थ से दूर रहते हुए समाज की गरीबी भूख बेरोजगारी अन्याय के संघर्षों को जानने से महरूम रह जाते हैं यह मध्यम वर्ग की मानसिकता को विकसित करने का पहला चरण होता है ऎसे में समान शिक्षा की अवधारणा को लागू करना ही समता की तरफ बढ़ना हो सकता है. शिक्षा का पतन राजनैतिक व सांस्कृतिक पतन है प्राथमिक शिक्षा को सभी के लिये जरूरी है पर यह न तो वर्गीय विभाजन के आधार पर होनी चाहिये न ही थोपी गयी हो बल्कि एक ऎसी व्यवस्था को इजाद करना होगा जहाँ बच्चे ग्यान को खुद से बढा़ने कि क्षमता पैदा कर सकें और आम जन के संघर्षों से जुड़ सकें.
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