अभिनव श्रीवास्तव
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हेम मिश्रा की पांडु नरोटे और महेश टिर्की के साथ कथित तौर पर माओवादियों की मदद करने के आरोप में गिरफ्तारी की खबर अब सोशल साइटों से होती हुयी मुख्य धारा मीडिया में भी जगह बना चुकी है। खबरों के अनुसार गढ़चिरौली पुलिस ने हेम सहित पांडु नरोटे और महेश टिर्की को ‘नक्सल कुरियर’ होने के आरोप में अहेरी बस स्टेशन से गिरफ्तार किया। वहीं हेम की गिरफ्तारी पर पहले-पहल सोशल साइटों पर चल रहा विरोध कमोबेश अब एक अभियान की शक्ल ले चुका है। बीते 24 अगस्त को राजधानी दिल्ली के वाम संगठनों और संस्कृतकर्मियों ने महाराष्ट्र सदन के सामने हेम की गिरफ्तारी के विरोध में प्रदर्शन किया। देश भर के कई वाम संगठनों ने भी हेम, पांडु और महेश की गिरफ्तारी की कड़े शब्दों में निंदा की है। दिल्ली और देश के अन्य वाम संगठनों में हेम की गिरफ्तारी को लेकर जिस बेचैनी और विरोध का माहौल है, वो सिर्फ इसलिये नहीं है कि हेम ‘जेएनयू’ का छात्र था। निस्संदेह, हेम की पहचान जेएनयू में चाइनीज स्टडीज के छात्र और वाम छात्र संगठन डीएसयू के सक्रिय संस्कृतकर्मी की तरह थी, लेकिन सिर्फ इस पहचान के आस-पास बुने गये विश्लेषण और रिपोर्टों से हेम की गिरफ्तारी के विरोध में उठ रही आवाजों की वास्तविक वजहों को नहीं समझा जा सकता। सिर्फ इस पहचान के आधार पर हेम की गिरफ्तारी को नाजायज बताने वाली आवाजों को हमें सहानुभूति से नहीं, बल्कि संदेह की नजर देखना होगा। दरअसल हम हेम की गिरफ्तारी को एक प्रतीक मान सकते हैं, अनवरत चलने वाली उन गिरफ्तारियों का प्रतीक जिनको अंजाम देते समय अक्सर पुलिस द्वारा माओवाद, नक्सलवाद और मुस्लिम आतंकवाद के फैलने का डर और भय खड़ा किया जाता है। जिसके दायरे में कभी जीतन मरांडी, सुधीर ढवले, सीमा आजाद और विनायक सेन आते हैं तो कभी राज्य दमन के खिलाफ आवाज उठाने वाले वे निर्दोष और अनाम चेहरे आते हैं जिनकी जिंदगी और कभी-कभी तो मौत तक चर्चा का विषय नहीं बन पाते। ये सभी मामले अपने आप में। कहा जा सकता है कि हेम की गिरफ्तारी के मामले में भी जो बेचैनी दिखायी पड़ रही है उसका आधार भी ये पुराने अनुभव ही हैं। इन सभी मामलों में पुलिस की गिरफ्तारी प्रक्रिया, उसके आरोपों और उसके तमाम दावों में जो गहरे सुराख दिखायी पड़े, उससे यह शक और संदेह और गहरा जाता है कि हेम की गिरफ्तारी के मामले में भी यही सब कुछ दोहराया जा रहा हो। बल्कि हेम की गिरफ्तारी की आधिकारिक सूचना जिस अंदाज और जितनी अस्पष्टता के साथ शुरुआत में सार्वजनिक हुयी, उसने बहुत हद तक इस संदेह पर मुहर लगाने का ही काम किया है। गढ़चिरौली पुलिस की ओर से पहली बार 24 अगस्त को आधिकारिक रूप से प्रेस नोट जारी कर बताया गया कि उसने हेम मिश्रा, पांडु नरोटे
और महेश टिर्की को 23 अगस्त को अहेरी बस स्टाप से देर शाम गिरफ्तार किया। इसी नोट में पुलिस ने यह भी दावा किया है कि तीनों के पास से एक माइक्रो चिप और खुफिया दस्तावेज मिले हैं जिन्हें वे माओवादी नेता नर्मदा को सौंपने जा रहे थे। हालांकि इस पूरे नोट में पुलिस की ओर से कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि उसने किन धाराओं के अंतर्गत इन तीनों को गिरफ्तार किया है? अगर पुलिस के पास माओवादियों से मदद के असंदिग्ध और प्रामाणिक सबूत हैं तो उसे ये बताने या जाहिर करने से परहेज क्यों होना चाहिये कि उसने किन धाराओं के अंतर्गत तीनों को अदालत में पेश किया है? ऐसे और भी कई सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं और जिनके अनुत्तरित रहने का तात्पर्य है कि गढ़चिरौली पुलिस ने संभवतः आधे-अधूरे साक्ष्यों और जांच-पड़ताल के आधार पर हेम, पांडु और महेश को गिरफ्तार किया। दरअसल माओवादियों की मदद का आरोप इतना सपाट और सतही तरीके से लगाया जाता है कि इसके बाद गिरफ्तारी की जनतांत्रिक प्रक्रिया और उससे जुड़े सवाल पूछने की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। अपने वर्गीय और कारोबारी हितों के चलते मुख्य धारा मीडिया भी पलटकर पुलिस से ऐसे सवाल पूछने से हिचकता है। नतीजा ये होता है कि ऐसे मामलों में पुलिस किसी भी स्तर पर जवाबदेह नहीं रह जाती और उसके पास जांच-पड़ताल के नाम पर ऐसे असीमित अधिकार आ जाते हैं जिनका उपयोग वह पूरी वैधता के साथ करती है। लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। जनतांत्रिक प्रक्रियाओं की अनदेखी कर पुलिस को असीमित अधिकार देने जैसे स्थिति एक राज्य व्यवस्था के लिये तब आती है जब वह हर हाल में जनता से अपना आज्ञापालक होने की उम्मीद करती है। यह स्थिति तब आती है जब राज्य व्यवस्था के प्रतिनिधियों के पास जनता का भरोसा जीतने के लिये आवश्यक प्राधिकार और युक्तियों की कमी हो जाती है। ऐसी ही सूरत में एक व्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा दमनात्मक होना पड़ता है। जल, जंगल, जमीन के आंदोलनों के साथ भारतीय राज्य व्यवस्था के टकराव की परिणीति ऐसी ही दमनात्मक कारर्वाइयों के रूप में हो रही है और इन कार्रवाइयों को अंजाम देने के लिये माओवाद और नक्सलवाद का भय पैदा करना एक ‘जरुरत’ सी बन गयी है। हेम, पांडु और महेश की गिरफ्तारियों से पहले भी ऐसी कई गिरफ्तारियां इस जरुरत को पूरा करने के लिये ही की जाती रही हैं। इसलिये तीनों की गिरफ्तारी को इन बड़े सन्दर्भों से अलग कर देखना मुश्किल है। अंत में ये दोहराना फिर जरूरी होगा कि सवाल ये नहीं है कि जेएनयू का छात्र होते हुये भी हेम गिरफ्तार हुआ, सवाल ये है कि गढ़चिरौली पुलिस ने हेम को जिन आरोपों में हिरासत में लिया है, क्या पुलिस के पास उन आरोपों में हेम को गिरफ्तार करने का ठोस और पर्याप्त आधार था या पुलिस किसी खास ‘मकसद’ के साथ उन सभी लोगों को कोई संदेश देना चाहती है जो विकास की बनी-बनायी, समझदारी पर सवाल उठाने को तत्पर और तैयार दिखायी देते हैं?
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