26 सितंबर 2013

फांसी की सजा क्यों ?

सुनील कुमार

16 दिसम्बर, 2012 के सामूहिक बलात्कार के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था। खासकर मध्यमवर्गीय महिलायें, जो ऑफिस, स्कूलों और कॉलेजों में जाती हैं, काफी संख्या में सड़क पर आकर विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया। वर्मा कमेटी को सुझाव देने में पक्ष-विपक्ष एकमत था कि बलात्कार की घटना में फांसी की सजा होनी चाहिए। यह मीडिया पर दिन-रात चर्चा का विषय बना हुआ था। लोगों के गुस्से पर सरकार ने लाठी के बल पर काबू किया। एक पुलिसकर्मी की मौत में झूठे बेगुनाह युवकों को फंसाया गया। लोगों के गुस्से को देखते हुए वर्मा कमिटी का गठन किया गया और वर्मा कमेटी ने बलात्कार कानून में काफी कुछ बदलाव किया और बलात्कार की परिभाषा को भी बदला। 10 सितम्बर, 2013 को जब इस केस का फैसला आना था, मीडिया में यह मुद्दा गर्म हो गया और मीडिया द्वारा लोगों का ओपीनियन (फैसला) दिखाया जाने लगा। मीडिया पार्क में, चौराहों पर, ऑफिस के बाहर जाकर लोगों की बाइट ले रही थी, जिसमें अधिकांश लोगों का मत था कि फांसी की सजा दी जानी चाहिये। कुछ का तो यह भी मानना था कि इन्हें बीच चौराहे पर फांसी दी जानी चाहिए जिससे कि लोगों में भय पैदा हो। पीड़ित परिवार के बार-बार बयान दिखाये जा रहे थे कि बलात्कारियों को फांसी की सजा हो ताकि उनको न्याय मिल पाये।
16 दिसम्बर के बाद जब लोग दिल्ली के इंडिया गेट और रायसिना हिल पर जमे हुए थे उसी 72 घंटे के दौरान देश में 150 बलात्कार की घटनाएं हुईं (दैनिक भास्कर, 25 दिसम्बर 2012)। इस घटना के बाद भी लगातार देश में बलात्कार की घटनाएं हुई हैं और हो रही हैं। दिल्ली में ही एक छोटी बच्ची के साथ गैंग रेप हुआ। मुम्बई में एक फोटोग्राफर  लड़की के साथ गैंग रेप हुआ। ज्यादातर केसों में आरोपी 24 घंटे में पकड़ लिये गये और केस को सुलझा लिया गया। फिर भी उनको कई दिनों तक पुलिस रिमांड पर रखा गया। प्रभावशाली लोग, जो कि एक संगठित गिरोह की तरह काम करते हैं, जब किसी के साथ बलात्कार करते हैं तो उन पर केस दर्ज नहीं होता, और होता भी है तो उनको बचाव का पूरा समय दिया जाता है। आसाराम के केस में देखा जा सकता है कि एक नाबालिग लड़की से सोच-समझकर षड़यंत्रपूर्वक बलात्कार किया जाता है और केस दर्ज होने के बाद भी आसाराम को बचाव का पूरा समय दिया जाता है। पूछ-ताछ के लिये उनके दरवाजे पर पुलिस जाकर नोटिस देने के लिये घंटों इंतजार करती रहती है और आदरपूर्वक उनको नोटिस देकर आती है। विपक्ष की नेता, जो चिल्ला-चिल्ला कर बलात्कारियों की फांसी की मांग करती हैं, उन्हीं की पार्टी के लोग आसाराम को निर्दोष बताने में लगे हुए थे। म.प्र. के एक बीजेपी नेता ने तो यहां तक मांग कर दी कि लड़की के घर वालों पर केस दर्ज होना चाहिए क्योंकि वे आसाराम बापू को झूठे फंसा रहे हैं। पुलिस आसाराम को पकड़ती है और एक दिन की पुलिस के रिमांड में ही पूछ-ताछ पूरी कर लेती है! जो मीडिया 16 दिसम्बर के सामूहिक बलात्कार के केस की अदालती कार्रवाई को इतनी रूचि से दिखा रही है और पहले भी दिखा रही थी; उस मीडिया का (दो-तीन चैनल को छोड़कर) आसाराम केस में उतनी दिलचस्पी नहीं है। सामूहिक बलात्कार केस में फांसी की मांग करने वाली भीड़ में आसाराम के कई भक्त भी होंगे जो कि आसाराम को निर्दोष बता रहे थे।
10 दिसम्बर, 2013 को दोषियों (मुकेश (26), पवन (19), विनय (20) व अक्षय (28)) को फांसी की सजा देते हुए जज योगेश खन्ना ने कहा ‘‘अदालत ऐसे अपराधों की तरफ आंख नहीं मूंद सकता। इस हमले ने समाज की अंतरात्मा की आवाज को स्तब्ध कर दिया था। ये मामला सचमुच अपवाद का है और इसमें मृत्युदंड ही दिया जाना चाहिए।’’  क्या जज साहब की इन बातों से उन सभी महिलाओं को न्याय मिल जायेगा जो सामाजिक संरचना की भय से बालात्कार जैसी घटना को छुपाती हैं? क्या इस फांसी की सजा से जेल मंे बंद सोनी-सोरी को न्याय मिल गया, जिनके गुप्तांगों में पत्थर डालने वाले पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग को सजा देने के बदले राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया? मनोरमा और शोपिया के बलात्कारियों का क्या हुआ? गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा है कि ‘‘दामिनी और उसके परिवार को न्याय मिला है। न्यायदेवता ने एक नया उदाहरण रखा है कि इस तरह के अपराध करोगे तो इसके सिवा दूसरी सजा नहीं हो सकती है। मैं इसका स्वागत करता हूं।’’ गृहमंत्री जी उन महिलाओं को कब न्याय मिलेगा जो कि राष्ट्रीयता व अपनी जीविका के संसाधनों, जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष कर रही हैं और आपके ‘बाहदूर सिपाही/अधिकारी’ उनके साथ बालात्कार करते आ रहे हैं? आपके ही पार्टी के राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन पर सूर्यनेल्ली नामक लड़की ने जो आरोप लगाये थे क्या उस लड़की को न्याय मिल गया? प्रियदर्शनी मट्टू, रूचिका गिरहोत्रा जैसे कांड का क्या हुआ? जनदबाव के कारण अगर कोई बड़ा बलात्कारी पकड़ा भी जाये तो आप ऐसे बलात्कारियों को तो जेल में अतिथि बनाकर रखते हैं, जैसा कि अभी-अभी आसाराम को घर का बना हुआ दलिया खिलाया। इससे आसाराम का मनोबल इतना बढ़ गया कि वे जेल में महिला वैद्य से इलाज कराने की मांग करने लगे।
दिल्ली सामूहिक बलात्कार के दोषियों को 9 माह में फांसी की सजा सुना दी गई क्योंकि इन दोषियांे में कोई भी अरबपति, राजनेता, नौकरशाह या शासक वर्ग से ताल्लुक रखने वाले नहीं थे। ये सभी समाज के उस निचले पायदान से थे जिसको हम चलती-फिरती भाषा में ‘नाली के कीड़े’ की संज्ञा देते हैं। इन दोषियों को सजा देकर भारत का शासक वर्ग यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि भारत में न्याय जिन्दा है। वह लोगों की भावनाओं को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहा है, जैसा कि गृहमंत्री का बयान है। वहीं बचाव पक्ष के वकील ए.पी. सिंह ने इस फैसले को पक्षपातपूर्ण निर्णय बताया है और राजनीति से प्रेरित बताया। उन्होंने कहा है कि ‘‘अगर फांसी देने से बलात्कार रूक जाएगा तो हम इस फैसले के खिलाफ अपील नहीं करेंगे। गृह मंत्री ने इस मामले में दखल दिया है। अगर इस फैसले के बाद दो महीने के अंदर कोई बलात्कार या हत्या नहीं होती है तो हम अभियुक्त के लिए ऊपरी अदालत में नहीं जांएगे।’’
बलात्कार सामंती युग की बर्बरता है। किसी से बदला लेना हो, किसी को नीचा दिखाना हो तो उसके घर की महिलाओं के साथ बलात्कार करो। सामंती युग की इस बर्बरता को पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति और बढ़ावा देती है। गुजरात के दंगों में विशेष समुदाय के महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, उनके पेट को चीर कर भ्रूण को काट दिया गया- यह किस सभ्य समाज की निशानी है? हमें शासक वर्ग को सरलीकरण का रास्ता दिखाते हुए उसे और दमनकारी बनाने की मांग नहीं करनी चाहिए। बलात्कार पुरुषवादी मानसिकता में है जो इस समाज के जड़ में निहित है। सत्ता के शीर्ष पर हों या कानून के रखवाले हों, उनकी सोच में यह रची-बसी है कि महिला उपभोग की वस्तु है। पंजाब के पुलिस महानिदेशक के.पी.एस. गिल द्वारा भारतीय महिला प्रशासनिक अधिकारी को एक पार्टी में छेड़ना हो या राजस्थान में महिला पुलिस का उसके सहकर्मियों द्वारा थाने में बलात्कार किया जाना बाप द्वारा अपनी बेटी का बलात्कार या भाई द्वारा बहन का बलात्कार। सभी इस पुरुषवादी मानसिकता को दर्शाते हैं। भाजपा शासित गुजरात हो या सपा-बसपा शासित उत्तर प्रदेश या कांग्रेस शासित प्रदेश हो, हर राज्य में बलात्कार जैसा संगठित अपराध नौकरशाहों, सत्ताधीशों या उनके संरक्षण में पलने वाले लोगों द्वारा किया जाता है। अपने को सर्वहारा का हितैषी बताने वाली सीपीएम के राज्य बंगाल के सिंगूर में सीपीएम के कार्यकर्ताओं द्वारा सिंगूर आन्दोलन की नेत्री तापसी मलिक का बलात्कार, फिर उसकी हत्या हो या नन्दीग्राम में सीपीएम नेताओं, कार्यकर्ताओं द्वारा महिलाओं के बलात्कार, सभी इसी श्रेणी में आते हैं।
बहुसंख्यक महिलाओं की मानसिकता भी पुरुषवादी सोच से कोई अलग नहीं है जैसा कि म.प्र. के सेमिनार में एक महिला वैज्ञानिक डॉ. अनिता शुक्ला द्वारा ये कहा जाना कि ‘‘लड़की आधी रात में ब्वाय फ्रेंड के साथ क्या कर रही थी, क्यों घूम रही थी।’’ यहां तक कि उन्होंने लड़की को आत्मसमर्पण कर देने की बात भी कह डाली। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित द्वारा महिलाओं को अकेले न निकलने और कपड़े ठीक से पहनने की नसीहत दी जाती है। यहां तक की सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात द्वारा नन्दीग्राम बलात्कार में पीड़िता की मद्द करने के बजाय अपने पार्टी को बचाने वाला बयान दिया गया कि दस के साथ नहीं चार औरतों के साथ बलात्कार हुआ है।
बलात्कार के कारण के रूप में लड़कियों के भड़काऊ कपड़े पहनना, ब्वाय फ्रेंड या दोस्तों के साथ घूमना, लड़कों से हंस-हंस कर बात करना (जैसा कि हंसने पर केवल पुरुष का ही एकक्षत्र राज्य हो) इत्यादि माना जाता है। ऐसे में यह कैसे माना जा सकता है कि फांसी देने से बलात्कार कम होगा। 132 देशों में फांसी की सजा नहीं है। क्या वहां पर ज्यादा अपराध होते हैं? आंकड़े तो यह बताते हैं कि जिस देश में फांसी की सजा नहीं है वहां पर बलात्कार और अपराध के मामले मृत्यु की सजा देने वाले देशों से कम होते हैं।
हमारे देश में अलग-अलग वर्ग हैं। एक ही तरह के अपराध के लिए यहां सजा भी अलग-अलग होती है। 16 दिसम्बर की बलात्कार की घटना में फांसी की सजा प्राप्त विनय के पड़ोस में रहने वाली एक महिला ने बीबीसी संवादाता से कहा ‘‘सजा तो जितने भी बलात्कारी हैं, सबको मिलनी चाहिए। जो भी सजा इन गरीब बच्चों को अदालत देगी वो सभी को मिलनी चाहिए। चाहे वे कोई बाबा हो या फिर नेता या अमीरों के बच्चें हों।’’ क्या यह वर्गीय समाज में मुमकिन है?
जब किसी अरबपति-खरबपति, माफिया सरगना, अफसरशाह, नेता या उसके परिवार के किसी भी पुरुष सदस्य द्वारा ऐसी काली करतूत की जाती है तो पीड़िता के ही चरित्र पर सवाल उठाये जाते हैं। प्रताड़ित लड़की या महिला  का चरित्र ही गलत है, वह पैसा चाहती है, सुर्खियां बटोरने के लिए यह सब कर रही है, डॉक्टरी रिपोर्ट का इंतजार करो, मीडिया पर ध्यान मत दो, बेचारे को झूठा फंसा रही है, आदि, आदि कह कर लोगों को दिगभ्रमित किया जाता है ताकि आम जनता पीड़िता को ही दोषी मानने लगे।
जिस देश में लोगों के अपने मौलिक-कानूनी अधिकारों को पाने के लिये संघर्ष करना पड़ता है; शासक वर्ग जेलों-लाठियों-गोलियों के बल पर इन संघर्षों को क्रूर तरीके से दमन करता है क्या किसी की जान लेने का वैधानिक अधिकार देना शासक वर्ग को और क्रूर नहीं बनाता है? क्या किसी भी सभ्य-जनवादी-लोकतांत्रिक समाज में फांसी की सजा होनी चाहिए?
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