अवनीश राय |
किसी भी पेशे की जन
उपयोगिता बनाए रखने के लिए उसकी आचार संहिता बनाई जाती है,
लेकिन औपचारिक प्रशिक्षण ऐसी किसी आचार संहिता के पालन
को सुनिश्चित नहीं करा सकता है। यदि ऐसा संभव होता तो संघ लोक सेवा आयोग की
परीक्षा पास करने वाले अभ्यर्थी औपचारिक प्रशिक्षण पाने के बाद भ्रष्टाचार में
लिप्त न पाये जाते। वकालत के ही पेशे को लें तो उसके कामकाज की कुछ तकनीकी जरूरतें
होती हैं, जिसके बिना काम
नहीं चल सकता है। एक वकील को कानूनी व न्यायिक प्रक्रियाओं की जानकारी होनी चाहिए, उसके बिना वह जिरह नहीं कर सकता और अपने
मुवक्किल को कानून के मानदंडो पर न्याय नहीं दिला सकता। इसीलिए वकालत में
प्रशिक्षण जरूरी है।
लेकिन ध्यान रहे कि यह प्रशिक्षण प्रक्रियाओं को सुचारू रूप
से चलाने के लिए ही जरूरी है, न
कि यह प्रशिक्षण न्याय को सुनिश्चित कराता है। न्याय के लिए न्यायाधीश कानून की
सारी जानकारियों को सबूतों पर तौलकर फैसला देने के लिए प्रशिक्षण नहीं बल्कि विवेक
का इस्तेमाल करना पड़ता है। यही वजह है कि एक ही मामलों में न्यायाधीशों के सम्मत
और विसम्मत मत आते हैं।
डाक्टरी के पेशे को
भी इसी तरीके से देखा जा सकता है। मरीज अपनी परेशानी बताता है और डाक्टर यह समझ
जाता है कि उसे किस वजह से परेशानी है।फिर वह उस वजह को खत्म करने की दवाएं देता
है। दवाओं के नाम या उनकी मात्रा की जानकारी उसे होनी जरूरी है।अपनी पढ़ाई में वह
इसी बात का प्रशिक्षण लेता है। प्रशिक्षण के दौरान उसे बताया जाता है कि किस तरह
के लक्षण कौन से रोग के कारण हो सकते हैं और ऐसे लक्षणों को पहचानने के बाद उसे
कौन सी दवा देनी चाहिए। आपरेशन करने के लिए प्रशिक्षण जरूरी होता है वरना संभव है
कि वह मरीज के सेहतमंद अंगों को ही नुकसान पहुंचा दे। यह प्रशिक्षण साइकिल चलाने
के प्रशिक्षण जैसा है, ताकि
संतुलन के साथ चलने के लिए पैडल मार सके और रास्ता भी देख सके, न कि नौसिखिए की तरह कभी पैडल चलाना भूल
जाए तो कभी रास्ता ही देखता रह जाता है। लेकिन एक बार जब आपका दिमाग अभ्यस्त हो
जाता है तो आपको पैडल चलाने और रास्ता देखने के लिए ध्यान लगाने की जरूरत नहीं
होती है, एक संतुलन कायम हो
जाता है।
लेकिन पत्रकारिता
एक बिल्कुल अलग तरह का पेशा है। इसमें औपचारिक प्रशिक्षण की जरूरत कुछ सीमित कामों
के लिए जरूरी है। जैसे सीमित स्थान में खबर लिखने का एक ढांचा विकसित गया है। यह
ढांचा पाठक की सहूलियत के हिसाब से बनाया गया है। यह प्रशिक्षण अखबार के लिए अलग, टीवी के लिए अलग और रेडियो के अलग हो सकता
है। लेकिन इसका एक और पहलू है। चूंकि खबरें, घटनाओं का प्रस्तुतीकरण हैं और किसी भी घटना को व्यक्ति अपने अनुभव आधारित
नजरिए से देखता है, पत्रकार
के रूप में व्यक्ति का नजरिया महत्वपूर्ण हो जाता है।
मीडिया प्रशिक्षण और विशेषज्ञता को लेकर इन दिनों छिट-पुट चर्चा छिड़ी है |
यही बात पत्रकारिता को अन्य
पेशों से अलग करती है। वकालत में आमतौर पर वकील का प्रभाव उसके मुवक्किल तक सीमित
रहता है, डाक्टरी में डाक्टर
का प्रभाव मरीज तक या उसके परिजनों तक सीमित रहता है लेकिन एक पत्रकार का प्रभाव
खबरों के माध्यम से उसके वृहद स्तर पर फैले पाठकों पर होता है। किसी एक घटना पर
किसी पत्रकार का दृष्टिकोण उसकी खबर बनने के बाद लाखों, करोड़ों लोगों का दृष्टिकोण बन जाती है। यह वैसे ही है जैसे एक ही पढ़ाई
करके निकले कुछ डाक्टर नैतिकता का दामन नहीं छोड़ते जबकि दूसरे अपने मरीजों को
यथासंभव लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वकालत के पेशे के बारे में भी यही बात कही
जा सकती है। किसी भी तरह के प्रशिक्षण से दृष्टिकोण तय करना नहीं सिखाया जा सकता।
यह हर आदमी अपने सामाजिक परिवेश और अपने अनुभवों से हासिल करता है।
अगर प्रशिक्षण को
ही पत्रकारिता के पेशेवर रवैये का मानक माना जाए आजादी के पहले और हाल फिलहात तक
बहुत से प्रतिष्ठित पत्रकारों को इस सूची से बाहर कर देना होगा। प्रेस परिषद के
अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू के तर्कों को मानें तो चूंकि उन पत्रकारों के पास कोई
प्रशिक्षण नहीं था इसलिए उनकी पत्रकारिता को घटिया और मानकों के विपरीत मानकर
खारिज किया जा सकता है। लेकिन क्या वाकई ऐसा कह पाना संभव है ? इसी बहस की क़ड़ी में देश के सूचना एवं
प्रसारण राज्य मंत्री मनीष तिवारी ने फिर पत्रकारिता के लिए लाइसेंस का सवाल उठाया
है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यहां पर पत्रकारिता
के पेशेवर रवैये को या पत्रकारिता के आदर्श को स्थापित करने की जरूरत है वैसे ही
जैसे वकालत में वकील का अपने मुवक्किल के प्रति और डाक्टर का अपने मरीज के प्रति
होता है। एक पत्रकार का दायित्व अपने पाठक के प्रति है कि वह उसे सही सूचनाएं, सही संदर्भों में दे ताकि पाठक उसपर अपनी
खुद की राय कायम कर सके। भ्रामक और गलत सूचनाओं का नुकसान बहुत बड़ा हो सकता है।
जब आदर्शों का सवाल
आता है तो मीडिया की स्वतंत्रता का सवाल प्रमुखता से उभरता है। अक्सर ही मीडिया के
स्वतंत्रता के सवाल को मीडिया संस्थानों या घरानों की स्वतंत्रता तक सीमित कर दिया
जाता है। और यह स्वतंत्रता, मीडिया
घरानों पर सरकारी नियंत्रण के खिलाफ होती है। लेकिन इसके साथ सबसे महत्वपूर्ण पहलू
है पत्रकार की स्वतंत्रता का सवाल। पत्रकार की स्वतंत्रता यानी खबरों को चुनने की
स्वतंत्रता और उन्हें उसी तरूप में पाठकों तक पहुंचाने की स्वतंत्रता। यह
महत्वपूर्ण है। आज जब मीडिया संस्थानों में बड़ी पूंजी लगी हुई है, उनके मालिक लगातार अपने हितों को बचाने और
अपने स्वामित्व वाले मीडिया संस्थानों के माध्यम से उसे विस्तार देने में लगे हुए
हैं।
यानी आज मीडिया बड़े पूंजीपतियों के लिए उनके हितों को साधने का साधन बन गया
है। इसका प्रयोग अपने हितों में लाबीइंग करने के लिए भी हो रहा है। यही कारण है कि
हर बड़ा उद्योगपति अब मीडिया मालिक बनना चाहता है और जो पहले से ही मीडिया मालिक
हैं वे अब अन्य माध्यमों पर एकाधिकार की होड़ में हैं। यह प्रवृत्ति सूचनाओं को
मनमाफिक मोड़ने और रोकने की तरफ इशारा करती है। यानी अगर आप किसी अखबार के मालिक
हैं और कोई खबर आपके खिलाफ है तो कम से कम अपने अखबार में तो आप उसे छपने से रोक
ही सकते हैं लेकिन अगर अखबार के अलावा टीवी पर भी आपका मालिकाना हक है तो टीवी के
दर्शकों को भी आप सूचना मिलने से रोक लेंगे।
यह साफ है कि
मीडिया की स्वतंत्रता का सवाल पत्रकार की सूचना देने की स्वतंत्रता और पाठक या
दर्शक की सूचना पाने की स्वतंत्रता से बहुत घनिष्ठ रूप से जुड़ा है। इस जुड़ाव में
और स्वतंत्रता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा माध्यम के स्वामित्व का है। आप लाख
पढ़े-लिखे हों, नैतिक हों और किसी
सूचना के संदर्भ में यह धारणा रखते हों कि इसे इसके स्वरूप में पाठकों या दर्शकों
तक जाना चाहिए, अगर आपका मालिक
नहीं चाहता है तो आप कुछ नहीं कर सकते।
मनीष तिवारी (बीच में) और जस्टिस काट्जू (खड़े) ने इस बहस को हाल में जिंदा किया है। |
यहां लंदन के न्यूज
आफ द वर्ल्ड कांड का जिक्र करना भी समीचीन होगा। रूपर्ड मर्डोक के स्वामित्व वाले
इस अखबार ने सनसनीखेज खबरों के लिए न सिर्फ लोगों को फोन टैप किए बल्कि ब्लैक मेल
भी किया। जस्टिस लेविसन आयोग के सामने दिए अपने बयानो में इसमें काम कर चुके लोगों
ने बताया कि उनके उपर एक्सक्लूसिव खबरों का दबाव हमेशा बना रहता था। “अगर आपकी बाइलाइन कम हैं तो समझिए कि आपकी
नौकरी जाने वाली है।” इसी
तरह के दबाव में एक रिपोर्टर ने एक महिला और उसके साथ कुछ लड़कियों को ब्लैकमेल
करने की कोशिश की। उस रिपोर्टर ने महिला और लड़कियों की एक ऑर्गी पार्टी की
तस्वीरें खींची थी।
उस पार्टी की खबर अखबार में तस्वीर सहित छपी लेकिन लड़कियों के
चेहरे को धुंधला कर दिया गया। इसके बाद रिपोर्टर ने उन लड़कियों से संपर्क किया और
उनका एक्सक्लूसिव इंटरव्यू अपने अखबार को देने को कहा। इस बाबत जब उन लड़कियों और
महिला ने अनिच्छा जाहिर की तो रिपोर्टर ने कहा कि चूंकि उसे फालोअप खबर छापनी ही
है तो अगर वे इंटरव्यू नहीं देती हैं तो उसके पास सिवाए इसके कोई चारा नहीं बचेगा
कि वह उनकी तस्वीरें बिना धुंधली किए अखबार में छाप दे। इस घटना के बाद न्यूज आफ द
वर्ल्ड अखबार बंद किया जा चुका है, लेकिन
क्या इस घटना का दोष सिर्फ रिपोर्टरों के उपर डाला जा सकता है? क्या यह साफ नहीं है कि यह सब काम पूंजी
के दबाव में मालिक के इशारे पर किया गया? कम से कम यहां तो नहीं कहा जा सकता कि रिपोर्टरों में प्रशिक्षण की कमी
थी।
यह साफ है कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता मूल रूप से पूंजी के ढांचे के साथ
जुड़ी हुई है। पूंजी माध्यम का इस्तेमाल अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए करती है।
उसके हितों के खिलाफ जाने वाली किसी भी बात को वो बर्दाश्त कर ही नहीं सकती। जाहिर
है ऐसे संस्थान में काम करने वाले लोग लाख चाहकर भी स्वतंत्रतापूर्व अपना पेशा
नहीं कर सकते चाहे वे कितने ही प्रशिक्षित क्यों न हों। इसलिए अगर पत्रकारिता की
स्वतंत्रता और पेशेवराना रवैये के आदर्शों को पाना है तो स्वामित्व के ढांचे पर
हमें पुनर्विचार करना होगा।
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