अभिषेक श्रीवास्तव
भाग-2 daiuh dh Nkao esa
डोंगरियों की दुश्मन कंपनी वेदांता का लांजीगढ़ में मुख्य गेट |
जब 15 अगस्त को देश भर में मनाई जा रही आज़ादी की सालगिरह का जश्न भी राजुलगुड़ा की चुप्पी को नहीं तोड़ सका, तो हम चल दिए कंपनी की ओर लांजीगढ़। भवानीपटना हाइवे पर लांजीगढ़ नाम का कस्बा यहां से कोई 20 किलोमीटर दूर है। लांजीगढ़ कालाहांडी जिले में पड़ता है। स्कूलों में झंडारोहण का कार्यक्रम खत्म ही हुआ था और हाइवे पर दौड़ रही हर टाटा मैजिक और मोटरसाइकिलों पर भारत का तिरंगा लहरा रहा था। नीली सरकारी निकर में कुछ बच्चे थे, जो तुरंत स्कूल से निकले थे और जाने क्या सोचकर सड़क पर हर गाड़ी को देखते ही हवा में मुट्ठियां लहराकर ‘‘हमारा देश प्यारा है’’ का नारा दे रहे थे। लांजीगढ़ के आसपास का माहौल वहां की आबादी के विशेष देशभक्त होने का पता दे रहा था। हम वेदांता अलुमिनियम लिमिटेड के गेट नंबर दो पर एक पल को रुके, और फिर जहां तक बढ़े वहां तक सड़क के किनारे गड़े छोटे-छोटे खंबों पर वेदांता लिखा देखते रहे। एक विशाल कनवेयर बेल्ट से हमारा सामना हुआ। इसी से बॉक्साइट रिफाइनरी तक लाया जाना है। इस बेल्ट का दूसरा सिरा पहाड़ों के भीतर कहां तक गया है, बाहर से देखकर इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। लांजीगढ़ का बाज़ार बहुत छोटा है। इससे कुछ ही आगे लांजीगढ़ गांव पड़ता है जहां नियमगिरि सुरक्षा समिति के संयोजक कुमटी मांझी रहते हैं। वे घर पर अपने दो पोतों के साथ मिले।
नियमगिरि आंदोलन में कुमटी मांझी एक परिचित चेहरा हैं। आज से कुछ साल पहले जब इस आंदोलन में राजनीतिक संगठनों के साथ एनजीओ की समान भागीदारी थी, तब ऐक्शन एड नाम की संस्था मांझी समेत कुछ और आदिवासियों को लेकर लंदन गई थी। वहां नियमगिरि पर हुई एक बैठक में अचानक वेदांता कंपनी के मालिक अनिल अग्रवाल भी आ गए थे, जिस पर कहते हैं कि इन लोगों ने काफी रोष जताया था। मांझी इस घटना का जिक्र करते ही उदास हो जाते हैं, ‘‘हम दो बार लंदन गए थे। एक बार 2003 में दो दिन के लिए और फिर 2004 में तीन दिन के लिए।’’ वे बताते हैं कि उन लोगों को वहां कहा गया था कि वे आंदोलन को छोड़ दें, विरोध करना छोड़ दें। वे कहते हैं, ‘‘उनके कहने से आंदोलन खत्म थोड़े हो जाएगा। अब तो सब ग्रामसभा ने वेदांता को खारिज कर दिया है, तो कंपनी को भागना ही पड़ेगा।’’अगर कंपनी नहीं भागी तो? ‘‘हम मार कर भगाएंगे’’, यह कहते ही वे हंस पड़ते हैं। क्या पूरा लांजीगढ़ गांव कंपनी के विरोध में है? इस सवाल के जवाब में वे बताते हैं कि शुरू में जिन लोगों को कंपनी ने यहां पैसे देकर खरीद लिया था, वो सब बियर और मुर्गा खा पी कर पैसा उड़ा दिए हैं। आज की तारीख में उन्हें कंपनी से पैसा मिलना बंद हो गया है और वे सब खाली हैं। ऐसे में उनकी मजबूरी है कि वे आंदोलन के साथ आएं।
यहां कस्बे में वेदांता का एक स्कूल भी चलता है। एक मुफ्त अस्पताल भी है। कुमटी मांझी के नाती-पोते पहले वेदांता के स्कूल में ही पढ़ते थे। उन्हें इसे लेकर कोई वैचारिक विरोध नहीं है, ‘‘पहले हम नाती-पोते को वहां पढ़ाते थे लेकिन उसका पैसा इतना ज्यादा है कि वहां से नाम कटवा दिए। अब वहां दलालों के बच्चे पढ़ते हैं।’’ कुमटी मांझी के दो बेटे हैं। एक यहीं खेती-बाड़ी के काम में लगा है और दूसरा बेटा राज्य सरकार की पुलिस में एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) है। वे सारी बातचीत में छोटे बेटे का जिक्र नहीं करते। बाद में हमने आंदोलन के ही एक नेता से इस बारे में पूछा तो उन्होंने मुस्कराते हुए टका सा जवाब दिया, ‘‘ये अंदर की बात है।’’
बहरहाल, कालाहांडी में जिन गांवों में पल्लीसभा हुई थी, उनमें दो ऐसे गांव हैं जो सड़क मार्ग से सीधे जुड़े हैं। वहां तक चारपहिया गाड़ी पहुंच सकती है। ऐसे ही एक गांव फुलडोमेर में हम पहुंचे जो लांजीगढ़ से करीब दस किलोमीटर की दूरी पर होगा। इस गांव में वेदांता ने एक नल लगवाया है जिससे लगातार पानी बहता है। यहां कंपनी ने औरतों को पत्ते सिलने के लिए सिलाई मशीन दी थी और छतों पर सोलर पैनल लगवाया था। सिलाई मशीनों का आलम ये है कि गांव में घुसते ही आपको टूटी-फूटी अवस्था में ये मशीनें बिखरी दिख जाएंगी। कहीं-कहीं सोलर पैनल भी टूटे हुए पड़े थे। दिन के उजाले में जब सारे पुरुष काम पर गए होते हैं, इस गांव के घरों की छत पर गरीबी और पिछड़ेपन के निशान भैंस के सूखते मांस में देखे जा सकते हैं। कुछ औरतें हैं, जो घरों में महदूद किसी से बात नहीं करना चाहतीं। एकाध बच्चे हैं, जिनके निकर और शर्ट इस बात का पता देते हैं कि उन पर शहर का रंग चढ़ चुका है। लेकिन यही वह गांव है जिसने सातवीं पल्लीसभा में सबसे ज्यादा 49 वोटरों की मौजूदगी दर्ज कराई (कुल 65 वोटरों में से) और खम्बेसी गांव से यहां आ रहे आदिवासियों के एक समूह को रास्ते में आईआरबी के जवानों द्वारा रोके जाने पर अपना गुस्सा भी जताया था। पल्लीसभा के दिन वहां मौजूद ‘‘डाउन टु अर्थ’’ पत्रिका के संवाददाता सयांतन बेहरा लिखते हैं कि जैसे ही सभा के बीच यह खबर आई कि कुछ लोगों को जवानों ने यहां आने से रोक दिया है, करीब पचास डोंगरिया कोंध बीच में से ही उठकर निकल लिए। इंडियन रिजर्व बटालियन के एक जवान को कुल्हाड़ी दिखाते हुए एक आदिवासी ने कहा, ‘‘तुम्हारे पास बंदूक है तो मेरे पास टांगिया है।’’ प्रशासन ने मामले को गरमाता देख उस समूह को वहां आने दिया, लेकिन तब तक पल्लीसभा की कार्यवाही पूरी हो चुकी थी।
फुलडोमेर से करीब दो किलोमीटर नीचे उतरते ही एक और रास्ता घने जंगलों की ओर कटता है। यह रास्ता कम है, लीक ज्यादा है। झुरमुटों के अंत में एक साफ मैदानखुलता है जहां दो झोपड़ियां दिखती हैं। कहने को ये दो हैं, लेकिन परिवार सिर्फ एक। यह इजिरुपा गांव है, जहां से नियमगिरि का शिखर महज डेढ़ किलोमीटर दूर है। इस गांव में एक ही परिवार है। इस परिवार में चार लोग हैं। और इससे बड़ी विडम्बना क्या कहेंगे कि चार लोगों के इस इकलौते परिवार वाले गांव में भी वेदांता के प्रोजेक्ट पर राज्य सरकार ने पल्लीसभा रखी थी। जिंदगी में इससे पहले कभी भी परिवार के मुखिया अस्सी पार लाबण्या गौड़ा ने इतनी गाड़ियां, इतने पत्रकार, इतना पुलिस बल, सरकारी मशीनरी और सुरक्षा बल नहीं देखे। फुलडोमेर के बाद आठवीं पल्लीसभा यहीं हुई थी और चार वोटरों वाले इस गांव ने कंपनी को खारिज कर दिया था। ध्यान देने वाली बात है कि यह गांव आदिवासी गांव नहीं है। गौड़ा यहां ओबीसी में आते हैं। जिन 12 गांवों को पल्लीसभा के लिए चुना गया था, उनमें यही इकलौता गैर-आदिवासी गांव था। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि 2010 में राहुल गांधी आदिवासियों की लड़ाई का हरकारा बनकर जब नियमगिरि का दौरा करने आए थे तो वे इसी गैर-आदिवासी गांव में रुके थे और उन्होंने मशहूर बयान दिया था, ‘‘दिल्ली में आपकी लड़ाई मैं लड़ूंगा।’’ यहां राहुल गांधी के लिए एक अस्थायी शौचालय प्रशासन ने बनवाया था। एक ट्यूबवेल भी खोदा गया था जो अब मिट्टी से पट चुका है। इन कड़ियों को जोड़ना हो तो सबसे दिलचस्प तथ्य यह जानने को है कि गौड़ा का पोता आज लांजीगढ़ के आईटीआई में पढ़ाई कर रहा है ताकि विस्थापन के बाद शहर में आजीविका का एक ठौर तो बन सके। इन तथ्यों के जो भी अर्थ निकलें, लेकिन इजिरुपा ने तो कंपनी को ना कह ही दिया है।
सिर्फ एक परिवार वाले गांव इजिरुपा का ग्रामसभा के लिए चयन अपने आप में सरकारी भ्रष्टाचार का एक बेहतरीन उदाहरण है। दरअसल, ग्रामसभा के लिए गांवों के चयन की प्रक्रिया में ही राज्य सरकार ने घपला किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 18 अप्रैल के अपने फैसले में कहा था कि नियमगिरि में खनन से पहले यहां के समस्त आदिवासियों से राय ली जाए कि कहीं वेदांता का यह प्रोजेक्ट उनके धार्मिक, सामुदायिक, निजी अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा। नियमगिरि की गोद में ऐसे कुल 112 गांव हैं जिनकी राय ली जानी थी। आदिवासी मामलों का केंद्रीय मंत्रालय और कानून मंत्रालय भी इसी पक्ष में थे, लेकिन ओडिशा सरकार ने सिर्फ 12 गांव चुने। ये वे 12 गांव थे जिन्हें वेदांता ने सुप्रीम कोर्ट में जमा किए अपने हलफनामे में सीधे तौर पर प्रभावित बताया था। इन्हीं में इजिरुपा भी था, जहां राहुल गांधी आकर जा चुके थे। नियमगिरि सुरक्षा समिति के सदस्य और इस इलाके में मजबूत संगठन अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के भालचंद्र षड़ंगी कहते हैं, ‘‘प्रशासन और कंपनी को पूरी उम्मीद थी कि शुरुआती छह गांवों को तो वे ‘मैनिपुलेट’ कर ही लेंगे और उसके बाद जो मूवमेंट के असर वाले बाकी छह गांव होंगे उनमें भी ‘सेंटिमेंट’ का असर हो सकेगा। पासा उलटा पड़ गया।’’ नियमगिरि सुरक्षा समिति के लोकप्रिय नेता लिंगराज आज़ाद कहते हैं, ‘‘सरकार को यहां की ग्राउंड रियलिटी का पता ही नहीं है। यहां पैसा नहीं चलता है। आप आदिवासियों को खरीद नहीं सकते।’’ स्थानीय पत्रकार हालांकि इस ‘‘पासा पलटने’’ को कांग्रेस बनाम बीजेडी की राजनीति के रूप में देखते हैं।
डोंगरियों-झरनियोंकी दुनिया
हमें 16 अगस्त की सुबह‘‘ऊपर’’ जाना था और हमें भी अंगद ने यही बताया था कि वहां पैसा, मोबाइल, एटीएम, संपर्क, कुछ नहीं चलता। यह ‘‘ऊपर’’ उत्तराखंड या हिमाचल वाले ऊपर से गुणात्मक तौर पर भिन्न है। यहां इसका मतलब हैं डोंगर यानी पहाड़ के गांवों में जाना, जहां एक बार जाने के बाद आप तभी नीचे आते हैं जब आपको इरादतन नीचे आना होता है। हमें चूंकि 19 तारीख की आखिरी ग्रामसभा में शरीक होना था जो जरपा नाम के डोंगरियों के गांव में होनी थी, लिहाजा एक बार ऊपर जाकर 19 से पहले नीचे आने की कोई तुक नहीं बनती थी। इसका मतलब यह था कि हमें कम से कम तीन रातें और चार दिन डोंगरिया कोंध आदिवासियों के साथ उन्हीं के गांवों में बिताने थे। झारखंड-छत्तीसगढ़ आदि के पहाड़ों पर बसे गांवों में तो साप्ताहिक हाट बाज़ार भी लगने की परंपरा है, यहां हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं है। ऐसी हिदायत के बाद हमने अपनी समझ से कुछ बिस्कुट, चाय की पत्ती, चीनी, नींबू और मैगी के पैकेट रख लिए। बटुए और मोबाइल को स्थायी रूप से अपने झोले में डाल दिया और तड़के निकल पड़े ‘‘ऊपर’’, जहां हमारा पहला पड़ाव था बातुड़ी गांव। राजुलगुड़ा से करीब दस किलोमीटर ऊपर की ओर बसे कुल 22 घरों के इस गांव में छठवीं पल्लीसभा हुई थी जहां के कुल 40 में से उपस्थित 31 वोटरों ने वेदांता की परियोजना को खारिज कर दिया था।
बातुड़ी डोंगरिया कोंध का गांव है, लेकिन यहां आबादी का पहनावा मिश्रित है। अपने पारंपरिक एक सूत के सफेद कपड़े में लिपटी आदिवासी औरतों के अलावा साड़ी पहनी और सिंदूर लगाए औरतें भी यहां दिख जाएंगी। नौजवान भी पारंपरिक पहनावे में कम ही दिखे। गांव में एक सोलर पैनल लगा है जिससे बिजली के दो खंबे चलते हैं। कुल 22 घर हैं और समूचे गांव में सिर्फ चार बुजुर्ग। यहां आकर आपको पहली बार और पहली ही नज़र में डोंगरिया आदिवासी गांवों की एक विशिष्टता पता चलती है। वो यह, कि यहां इंसानों से ज्यादा आबादी पालतू जानवरों की होती है। कुत्ता, बिल्ली, बकरी, सुअर, मुर्गा-मुर्गी, गाय, भैंस सब आबादी के बीच इस तरह घुलमिल कर रहते हैं कि शाम को जब पूरा गांव दो तरफ बने घरों के बीच की पगडंडी पर नुमाया होता है तो एकबारगी इनके बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है। बातुड़ी जिंदा प्राणियों का एक ऐसा जिंदा समाजवाद पेश करता है जिससे मनुष्यता के नाते एकबारगी जुगुप्सा होती है तो अगले ही पल आप खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं और इसका पता नहीं लगता। बारिश हो जाने पर हालांकि जुगुप्सा का भाव सारी उदारता पर भारी पड़ जाता है। उस शाम जम कर पानी बरसा था और हम एक बरसाती में खटिया डाले सकुचाती लड़कियों की तस्वीरें उतार रहे थे, कि अचानक किसी के मोबाइल से मैथिली गीत बजा। ‘‘यहां भी मोबाइल!’’ पहली प्रतिक्रिया यही थी। हमारे पीछे तीन नौजवान कैमरे की व्यूस्क्रीन में ताकझांक करते पाए गए। एक हिंदी बेहतर समझता था। वह मुस्करा दिया। उसका नाम मंटू मासू था। फिर उड़िया और कुई मिश्रित टूटी-फूटी हिंदी में बातचीत का सिलसिला चल निकला।
इस गांव में पांच लड़के मुनिगुड़ा तक लकड़ी बेचने जाते हैं। जिस सखुआ की लकड़ी को शहरों में इमारतसाज़ी के लिए आदर्श माना जाता है, वह यहां इफरात में है। एक साइकिल लकड़ी के बदले इन्हें सिर्फ 200 रुपये मिलते हैं। एक साइकिल का मतलब साइकिल के त्रिकोणीय ढांचे में जितने भी लकड़ी के टुकड़े समा सकें, सब! रोज़ सुबह चार बजे मंटू अपने चार साथियों को लेकर यहां से 25 किलोमीटर दूर मुनिगुड़ा के बाजार तक साइकिल ढलकाता हुआ ले जाता है और दिन में 10 बजे तक लौट आता है। इन पांच में से तीन युवकों के पास मोबाइल हैं और इनका भी उपयोग मूल्य नीचे की ही तरह बदल चुका है। इस पर गाने सुने जाते हैं और वीडियो देखे जाते हैं। मनोरंजन की पूरी दुनिया 100 रुपये के चिप में आती है जिसका मतलब इन्हें समझ नहीं आता, लेकिन इस वीराने में शाम उसके भरोसे कट जाती है। एक घर में साउंड बॉक्स भी है। टीवी यहां नहीं है। मोबाइल सोलर पैनल से चार्ज होता है। ये नौजवान भी नियमगिरि के अलावा बहुत कुछ अपनी परंपरा के बारे में नहीं जानते हैं। कुछ विरोधाभासी बातें भी इनसे संवाद कर के समझ में आती हैं। मसलन, ये मुर्गे-मुर्गियों को तो बेचते नहीं क्योंकि साल में एक बार पड़ने वाले उत्सव में ही इनकी बलि चढ़ाने की परंपरा है, लेकिन इन्हें मुर्गों का दाम जरूर मालूम है। मंटू बताता है, ‘‘एक मुर्गा 500 रुपये के बराबर है।’’ यानी लकड़ी बेचकर मौद्रिक चेतना यहां पर्याप्त आ चुकी है।
रात में गांव की कुंवारी लड़कियां मिलकर हमारे लिए बड़े स्नेह से भात और बांस के मशरूम की सब्ज़ी पकाती हैं। साउंड बॉक्स वाले घर में हमारे सोने की व्यवस्था है। भोजन के काफी बाद तक हिंदी के गाने बजते रहते हैं। सवेरे उठने पर गांव पुरुषों से खाली मिलता है। धीरे-धीरे औरतें भी काम पर चली जाती हैं और हम निकल पड़ते हैं अपने दूसरे पड़ाव केसरपाड़ी गांव की ओर, जहां हुई दूसरी ग्रामसभा में कुल 36 वोटरों के बीच उपस्थित 33 ने वेदांता को खारिज कर दिया था। इन 33 में से 23 महिलाएं और 10 पुरुष थे। बातुड़ी से केसरपाड़ी का रास्ता बेहद खतरनाक है क्योंकि एक पहाड़ से नीचे उतर कर तकरीबन सीधी चढ़ाई पर दूसरे पहाड़़ के पार जाना होता है। यह दूरी छह किलोमीटर के आसपास है। अपेक्षाकृत साफ-सुथरे से दिखने वाले इस गांव में भरी दोपहर आबादी के नाम पर सिर्फ दो औरतें और एकाध बच्चे दिखते हैं। गांव से मुनिगुड़ा का एक सीधा रास्ता है जो 15 किलोमीटर दूर है। गांव की शुरुआत में नीले रंग का एक मकान है। इस पर ताला लगा है। अंगद बताते हैं कि यह एक ईसाई मिशनरी का मकान है जो यहां धर्म परिवर्तन के वास्ते काफी पहले आया था लेकिन अपनी पहल में नाकाम रहने के बाद गांव छोड़कर चला गया। अब इसमें मूवमेंट के लोग आकर रहते हैं। इस गांव में कुल 16 घर हैं।
आदिवासी इलाकों में मिशनरियों का काम नया नहीं है। खासकर ओड़िशा के इस इलाके में साठ के दशक में ही ऑस्ट्रेलियाई मिशनरियों का आगमन हो गया था। रायगढ़ा के करीब बिसमकटक में बाकायदे ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी अब भी कार्यरत हैं। लांजीगढ़ रोड पर एक मिशनरी ने कुष्ठ आश्रम बना रखा है लेकिन उसका आसपास के इलाकों में खास असर नहीं है। हिंदू धर्म प्रचारकों का काम यहां न के बराबर है। अब तक हिंदू प्रतीक के रूप में हमें इकलौती चीज़ अगर कोई दिखी है तो वो है ‘‘जय हनुमान’’ खैनी, जिसे बिना चूके यहां के मर्द-औरत सब बड़े चाव से खाते हैं। सबकी लुंगी या लुगदी में खैनी का लाल पाउच खोंसा हुआ दिख जाएगा। शहर जाने वाले मर्द सबके लिए यह खैनी लेकर आते हैं। कुछ देर इस गांव में सुस्ताने के बाद हम निकल पड़े यहां से करीब पांच किलोमीटर दूर स्थित सिरकेपाड़ी गांव की ओर, जिसे 19 की ग्रामसभा के लिए हमारा बेस कैम्प होना था।
लगातार चालू इस सफर में अब तक अंगद की तबियत काफी बिगड़ चुकी थी। उसे लगातार हिचकियां आ रही थीं और वह जो कुछ खा रहा था, सब उलट दे रहा था। उसे ते़ज़ बुखार हो चला था। सिरकेपाड़ी पहुंचते ही उसने हिम्मत छोड़ दी। उसका शरीर टूट चुका था। यह लड़का पिछली ग्यारह ग्रामसभाओं में लगातार तैनात रहा था लेकिन आखिरी ग्रामसभा में जश्न मनाना इसकी सेहत को गवारा नहीं था। यह तय हुआ कि अगले दिन यानी 18 अगस्त को जो लोग शहर से आएंगे, उन्हीं की गाड़ी से लौटती में अंगद को भिजवा दिया जाएगा। दरअसल, 19 की ग्रामसभा जरपा में होनी थी जहां करीब सात किलोमीटर चलकर दुर्गम रास्तों से सिरकेपाड़ी से ही पहुंचा जा सकता था। सिरकेपाड़ी तक चारपहिया वाहनों के आने का रास्ता बना हुआ है, इसलिए पत्रकार से लेकर न्यायाधीश और सुरक्षाबल तक सबको इसी गांव से होकर गुजरना था। अंगद पर दवाओं का असर अब नहीं हो रहा था। तेज़ बारिश, कंपकंपाती हवाओं और अंगद की दहलाती हिचकियों के बीच खुले ओसारे में 17 अगस्त की रात यहां गुजारने के बाद हमें शहर से आने वाली पहली गाड़ी का बेसब्री से इंतज़ार था ताकि किसी तरह अंगद को रवाना किया जा सके।
‘‘एथिक्स’’ की एक रात
यह संयोग नहीं था कि अगले 12 घंटे में सारा जमावड़ा एक बार फिर सिरकेपाड़ी में ही होने जा रहा था। इस गांव में महीना भर पहले सबसे पहली पल्लीसभा हुई थी। अब तक 11 गांवों ने जो वेदांता को ना कहा था, उसकी शुरुआत यहीं से हुई थी। यह इकलौता गांव था जिसने अपनी भाषा कुई में ग्रामसभा आयोजित किए जाने का दबाव प्रशासन पर डाला था, जिसके बाद यह नज़ीर बन गया और अब तक की हर ग्रामसभा में कुई भाषा का एक अनुवादक मौजूद रहा था। लिहा़ज़ा, डोंगरियों का यह मोबाइलरहित गांव मूवमेंट के हर चेहरे को पहचानता था। ऐसे ही कुछ चेहरों का आगमन 18 की सुबह 11 बजे के आसपास यहां हुआ। एक जीप रुकी जिसमें से ढपली-नगाड़े और चावल-आलू व सब्जियां लिए हुए एक सांस्कृतिक टीम उतरी। इसमें अधिकतर किशोर उम्र की लड़कियां थीं, जिन्होंने आते-आते अनपेक्षित रूप से सबसे पहले हमारा पैर छुआ। अब तक हम हाथ मिलाते आ रहे थे, जिंदाबाद कहते आ रहे थे। बेशक, यह सांस्कृतिक टीम कुछ ज्यादा ‘‘विकसित’’ और ‘‘सभ्य’’ रही होगी। उनकी गाड़ी से वापसी में अंगद नीचे चला गया और हमने चैन की सांस ली। इसके बाद इस गांव में जो कुछ हुआ, वह इतिहास है।
दिल ढल चुका था, कार्यकर्ताओं की कई टीमें आ चुकी थीं, कि एक स्कॉर्पियो अचानक गांव के बाहर आकर रुकी। उसमें से एक कैमरामैन, एक असिस्टेंट और शर्ट-पैंट पहने एक आधुनिक दिखने वाली महिला उतरी। पता चला कि यह एनडीटीवी की टीम थी। यहां पहले से पहुंच चुके एआईकेएमएस के नेता भालचंद्र षड़ंगी से उस महिला ने हाथ मिलाया और पूछा, ‘‘आप लाल सलाम नहीं बोलते?’’ षड़ंगी ने सकुचाते हुए
जवाब दिया, ‘‘अपने साथियों के बीच बोलते हैं। आप तो बाहर की हैं...।’’ एक व्यंग्य भरी मुस्कराहट के साथ महिला ने हमारी तरफ इशारा करते हुए प्राथमिक विद्यालय के किसी मास्टर द्वारा उपस्थिति जांचने के अंदाज़ में उंगली उठाकर पूछा, ‘‘आर देयर एनीओज़? जर्नलिस्ट्स? ऐक्टिविस्ट्स?’’ हमारी ओर से जवाब नहीं आने पर उसने दोबारा वही सवाल किया। मैंने हाथ उठाकर जवाब दिया ‘‘जर्नलिस्ट्स’’, और ऐसा लगा कि वो संतुष्ट हो गई हो। वहां हम कुल पांच पत्रकार थे- मेरे अलावा एक मेरे हमनाम साथी और दूरदर्शन के दो पत्रकार, जो कुछ देर पहले ही पहुंचे थे। इसके अलावा हमारे साथ उड़िया पत्रिका ‘‘समदृष्टि’’ के एक पत्रकार तरुण भी थे। साथ में दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र सौरभ भी थाजो वहां की जनसुनवाइयों का दस्तावेजीकरण करने के लिए महीने भर से डेरा डाले हुए था। इन दोनों का परिचित एक संभ्रांत नौजवान पेरिस से वहां पहुंचा था, जिसका कहना था कि वह एफडीआई के खिलाफ भारत में चल रहे आंदोलनों पर शोध के सिलसिले में आया हुआ है।
एनडीटीवी के आने से गांव की रंगत बदल चुकी थी। पूरे गांव में अचानक अफरातफरी का माहौल बन गया था। ऐसा लग रहा था गोया कैमरामैन को कुछ अजूबे हाथ लग गए हों और वो एक के बाद एक झोपड़ियों के घुस-घुस कर शूट करते जा रहा था। उधर दिल्ली से आई रिपोर्टर, जिनका नाम आंचल वोहरा था, सांस्कृतिक टीम से बार-बार अनुरोध कर रही थीं कि उनके सामने एक बार आदिवासी नृत्य का प्रदर्शन किया जाए ताकि वे शूट कर सकें। कुछ देर पहले ही टीम ने अपना रिहर्सल पूरा किया था और वह बिल्कुल इसे दुहराने के मूड में नहीं थी। कैमरे की महिमा और कुछ नेताओं का ज़ोर था कि दोबारा इस रिहर्सल को पेश करने की सहमति बन गई। शाम धुंधला रही थी और झीनी-झीनी बारिश के साथ ठंडी हवा चलनी शुरू हो गई थी। किसी खाद्य इंस्पेक्टर कीतरह अंग्रेज़ी में पूरे गांव का मुआयना करने के बाद आंचल हमारी ओर आईं और सबसे औपचारिक परिचय हुआ। ‘‘वाइ डोंट वी हैव द बॉनफायर हियर?’’ और देखते ही देखते सिरकेपाड़ी गांव पिकनिक के लिए तैयार हो गया। अंधेरे में अलाव जला दिया गया और कैमरों के सामने सांस्कृतिक टीम ने एक बार फिर ढपली की ताल पर आग के इर्द-गिर्द नाचना शुरू कर दिया। कैमरों को यही चाहिए था, सो मिल गया। पूरा गांव सहमा सा इस मंज़र का गवाह बना हुआ था और रिपोर्टर एक के बाद एक पीस टु कैमरा दागे जा रही थी, ‘‘वी आर हियर इन सिरकेपाड़ी विलेज एंड टुनाइट इज़ दि रन अप टु द फाइनल मैच बींग हेल्ड टुमॉरो...।’’
इस रन अप मैच का छक्का अभी बाकी था। खाने का वक्त हुआ और सबको बुलाया गया। मैडम ने पूछा, ‘‘क्या हम इन गरीब लोगों का पीडीएस का चावल खाएंगे?’’ भालचंद्र जी ने मुस्करा कर हां में जवाब दिया। फिर आंचल ने कहा, ‘‘तब तो हमारे सिर पर इनका कर्ज चढ़ जाएगा।’’ ‘‘बेशक!’’, भालचंद्र ने कहा, ‘‘तो कर्ज उतार दीजिएगा इनके पक्ष में लिखकर।’’ छूटते ही मैडम ने जवाब दिया, ‘‘नो, नो... इनके पक्ष में लिखना तो अनएथिकल हो जाएगा।’’ मुझे असहता सी महसूस हुई, सो मैंने बीच में टोका, ‘‘अनएथिकल क्यों?’’‘‘मतलब, ये जो कहेंगे मैं तो उसे ही दिखाऊंगी’’, उन्होंने बात को संभाला। शायद उन्हें अब तक नहीं पता चला था कि वे जो कहेंगे, वह उनके समेत किसी की भी समझ में नहीं आने वालाक्योंकि उनकी भाषा अलग है।
आदिवासियों के पक्ष में खबर दिखाना एनडीटीवी के लिए ‘‘अनएथिकल’’ क्यों था, इसका आशय खंगालने की बहुत जरूरत नहीं पड़ी। अगले ही दिन यानी 19 अगस्त को जब आखिरी ग्रामसभा में हुई जीत का जश्न कुदरत मना रही थी और आदिवासियों के नियम राजा मुसल्सल बरसे जा रहे थे, दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित लीला होटल में एनडीटीवी के मालिक डॉ. प्रणय रॉय और वेदांता के मालिक अनिल अग्रवाल एक मंच से कन्या शिशु को बचाने के लिए एक साझा प्रचार अभियान का उद्घाटन कर रहे थे। ‘‘एनडीटीवी वेदांताः आवर गर्ल्स आवर प्राइड’’ नाम के इस अभियान का ब्रांड एम्बेसडर फिल्म अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा को घोषित किया गया है और दोनों कंपनियों की यह भागीदारी वेदांता के कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी कार्यक्रम ‘‘खुशी’’ का एक विस्तार है। बहरहाल, एनडीटीवी की रिपोर्टर ने इकलौता ‘‘एथिकल’’ काम यह किया कि अपने सिर पर आदिवासियों का कर्ज नहीं चढ़ने दिया। उन्होंने 18 की रात और 19 की सुबह दोनों वक्त गांव का बना खाना नहीं खाया। उनके पास मेरीगोल्ड बिस्कुट की पर्याप्त रसद जो थी।
नियमगिरि आंदोलन में कुमटी मांझी एक परिचित चेहरा हैं। आज से कुछ साल पहले जब इस आंदोलन में राजनीतिक संगठनों के साथ एनजीओ की समान भागीदारी थी, तब ऐक्शन एड नाम की संस्था मांझी समेत कुछ और आदिवासियों को लेकर लंदन गई थी। वहां नियमगिरि पर हुई एक बैठक में अचानक वेदांता कंपनी के मालिक अनिल अग्रवाल भी आ गए थे, जिस पर कहते हैं कि इन लोगों ने काफी रोष जताया था। मांझी इस घटना का जिक्र करते ही उदास हो जाते हैं, ‘‘हम दो बार लंदन गए थे। एक बार 2003 में दो दिन के लिए और फिर 2004 में तीन दिन के लिए।’’ वे बताते हैं कि उन लोगों को वहां कहा गया था कि वे आंदोलन को छोड़ दें, विरोध करना छोड़ दें। वे कहते हैं, ‘‘उनके कहने से आंदोलन खत्म थोड़े हो जाएगा। अब तो सब ग्रामसभा ने वेदांता को खारिज कर दिया है, तो कंपनी को भागना ही पड़ेगा।’’अगर कंपनी नहीं भागी तो? ‘‘हम मार कर भगाएंगे’’, यह कहते ही वे हंस पड़ते हैं। क्या पूरा लांजीगढ़ गांव कंपनी के विरोध में है? इस सवाल के जवाब में वे बताते हैं कि शुरू में जिन लोगों को कंपनी ने यहां पैसे देकर खरीद लिया था, वो सब बियर और मुर्गा खा पी कर पैसा उड़ा दिए हैं। आज की तारीख में उन्हें कंपनी से पैसा मिलना बंद हो गया है और वे सब खाली हैं। ऐसे में उनकी मजबूरी है कि वे आंदोलन के साथ आएं।
यहां कस्बे में वेदांता का एक स्कूल भी चलता है। एक मुफ्त अस्पताल भी है। कुमटी मांझी के नाती-पोते पहले वेदांता के स्कूल में ही पढ़ते थे। उन्हें इसे लेकर कोई वैचारिक विरोध नहीं है, ‘‘पहले हम नाती-पोते को वहां पढ़ाते थे लेकिन उसका पैसा इतना ज्यादा है कि वहां से नाम कटवा दिए। अब वहां दलालों के बच्चे पढ़ते हैं।’’ कुमटी मांझी के दो बेटे हैं। एक यहीं खेती-बाड़ी के काम में लगा है और दूसरा बेटा राज्य सरकार की पुलिस में एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) है। वे सारी बातचीत में छोटे बेटे का जिक्र नहीं करते। बाद में हमने आंदोलन के ही एक नेता से इस बारे में पूछा तो उन्होंने मुस्कराते हुए टका सा जवाब दिया, ‘‘ये अंदर की बात है।’’
बहरहाल, कालाहांडी में जिन गांवों में पल्लीसभा हुई थी, उनमें दो ऐसे गांव हैं जो सड़क मार्ग से सीधे जुड़े हैं। वहां तक चारपहिया गाड़ी पहुंच सकती है। ऐसे ही एक गांव फुलडोमेर में हम पहुंचे जो लांजीगढ़ से करीब दस किलोमीटर की दूरी पर होगा। इस गांव में वेदांता ने एक नल लगवाया है जिससे लगातार पानी बहता है। यहां कंपनी ने औरतों को पत्ते सिलने के लिए सिलाई मशीन दी थी और छतों पर सोलर पैनल लगवाया था। सिलाई मशीनों का आलम ये है कि गांव में घुसते ही आपको टूटी-फूटी अवस्था में ये मशीनें बिखरी दिख जाएंगी। कहीं-कहीं सोलर पैनल भी टूटे हुए पड़े थे। दिन के उजाले में जब सारे पुरुष काम पर गए होते हैं, इस गांव के घरों की छत पर गरीबी और पिछड़ेपन के निशान भैंस के सूखते मांस में देखे जा सकते हैं। कुछ औरतें हैं, जो घरों में महदूद किसी से बात नहीं करना चाहतीं। एकाध बच्चे हैं, जिनके निकर और शर्ट इस बात का पता देते हैं कि उन पर शहर का रंग चढ़ चुका है। लेकिन यही वह गांव है जिसने सातवीं पल्लीसभा में सबसे ज्यादा 49 वोटरों की मौजूदगी दर्ज कराई (कुल 65 वोटरों में से) और खम्बेसी गांव से यहां आ रहे आदिवासियों के एक समूह को रास्ते में आईआरबी के जवानों द्वारा रोके जाने पर अपना गुस्सा भी जताया था। पल्लीसभा के दिन वहां मौजूद ‘‘डाउन टु अर्थ’’ पत्रिका के संवाददाता सयांतन बेहरा लिखते हैं कि जैसे ही सभा के बीच यह खबर आई कि कुछ लोगों को जवानों ने यहां आने से रोक दिया है, करीब पचास डोंगरिया कोंध बीच में से ही उठकर निकल लिए। इंडियन रिजर्व बटालियन के एक जवान को कुल्हाड़ी दिखाते हुए एक आदिवासी ने कहा, ‘‘तुम्हारे पास बंदूक है तो मेरे पास टांगिया है।’’ प्रशासन ने मामले को गरमाता देख उस समूह को वहां आने दिया, लेकिन तब तक पल्लीसभा की कार्यवाही पूरी हो चुकी थी।
फुलडोमेर से करीब दो किलोमीटर नीचे उतरते ही एक और रास्ता घने जंगलों की ओर कटता है। यह रास्ता कम है, लीक ज्यादा है। झुरमुटों के अंत में एक साफ मैदानखुलता है जहां दो झोपड़ियां दिखती हैं। कहने को ये दो हैं, लेकिन परिवार सिर्फ एक। यह इजिरुपा गांव है, जहां से नियमगिरि का शिखर महज डेढ़ किलोमीटर दूर है। इस गांव में एक ही परिवार है। इस परिवार में चार लोग हैं। और इससे बड़ी विडम्बना क्या कहेंगे कि चार लोगों के इस इकलौते परिवार वाले गांव में भी वेदांता के प्रोजेक्ट पर राज्य सरकार ने पल्लीसभा रखी थी। जिंदगी में इससे पहले कभी भी परिवार के मुखिया अस्सी पार लाबण्या गौड़ा ने इतनी गाड़ियां, इतने पत्रकार, इतना पुलिस बल, सरकारी मशीनरी और सुरक्षा बल नहीं देखे। फुलडोमेर के बाद आठवीं पल्लीसभा यहीं हुई थी और चार वोटरों वाले इस गांव ने कंपनी को खारिज कर दिया था। ध्यान देने वाली बात है कि यह गांव आदिवासी गांव नहीं है। गौड़ा यहां ओबीसी में आते हैं। जिन 12 गांवों को पल्लीसभा के लिए चुना गया था, उनमें यही इकलौता गैर-आदिवासी गांव था। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि 2010 में राहुल गांधी आदिवासियों की लड़ाई का हरकारा बनकर जब नियमगिरि का दौरा करने आए थे तो वे इसी गैर-आदिवासी गांव में रुके थे और उन्होंने मशहूर बयान दिया था, ‘‘दिल्ली में आपकी लड़ाई मैं लड़ूंगा।’’ यहां राहुल गांधी के लिए एक अस्थायी शौचालय प्रशासन ने बनवाया था। एक ट्यूबवेल भी खोदा गया था जो अब मिट्टी से पट चुका है। इन कड़ियों को जोड़ना हो तो सबसे दिलचस्प तथ्य यह जानने को है कि गौड़ा का पोता आज लांजीगढ़ के आईटीआई में पढ़ाई कर रहा है ताकि विस्थापन के बाद शहर में आजीविका का एक ठौर तो बन सके। इन तथ्यों के जो भी अर्थ निकलें, लेकिन इजिरुपा ने तो कंपनी को ना कह ही दिया है।
सिर्फ एक परिवार वाले गांव इजिरुपा का ग्रामसभा के लिए चयन अपने आप में सरकारी भ्रष्टाचार का एक बेहतरीन उदाहरण है। दरअसल, ग्रामसभा के लिए गांवों के चयन की प्रक्रिया में ही राज्य सरकार ने घपला किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 18 अप्रैल के अपने फैसले में कहा था कि नियमगिरि में खनन से पहले यहां के समस्त आदिवासियों से राय ली जाए कि कहीं वेदांता का यह प्रोजेक्ट उनके धार्मिक, सामुदायिक, निजी अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा। नियमगिरि की गोद में ऐसे कुल 112 गांव हैं जिनकी राय ली जानी थी। आदिवासी मामलों का केंद्रीय मंत्रालय और कानून मंत्रालय भी इसी पक्ष में थे, लेकिन ओडिशा सरकार ने सिर्फ 12 गांव चुने। ये वे 12 गांव थे जिन्हें वेदांता ने सुप्रीम कोर्ट में जमा किए अपने हलफनामे में सीधे तौर पर प्रभावित बताया था। इन्हीं में इजिरुपा भी था, जहां राहुल गांधी आकर जा चुके थे। नियमगिरि सुरक्षा समिति के सदस्य और इस इलाके में मजबूत संगठन अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के भालचंद्र षड़ंगी कहते हैं, ‘‘प्रशासन और कंपनी को पूरी उम्मीद थी कि शुरुआती छह गांवों को तो वे ‘मैनिपुलेट’ कर ही लेंगे और उसके बाद जो मूवमेंट के असर वाले बाकी छह गांव होंगे उनमें भी ‘सेंटिमेंट’ का असर हो सकेगा। पासा उलटा पड़ गया।’’ नियमगिरि सुरक्षा समिति के लोकप्रिय नेता लिंगराज आज़ाद कहते हैं, ‘‘सरकार को यहां की ग्राउंड रियलिटी का पता ही नहीं है। यहां पैसा नहीं चलता है। आप आदिवासियों को खरीद नहीं सकते।’’ स्थानीय पत्रकार हालांकि इस ‘‘पासा पलटने’’ को कांग्रेस बनाम बीजेडी की राजनीति के रूप में देखते हैं।
डोंगरियों-झरनियोंकी दुनिया
हमें 16 अगस्त की सुबह‘‘ऊपर’’ जाना था और हमें भी अंगद ने यही बताया था कि वहां पैसा, मोबाइल, एटीएम, संपर्क, कुछ नहीं चलता। यह ‘‘ऊपर’’ उत्तराखंड या हिमाचल वाले ऊपर से गुणात्मक तौर पर भिन्न है। यहां इसका मतलब हैं डोंगर यानी पहाड़ के गांवों में जाना, जहां एक बार जाने के बाद आप तभी नीचे आते हैं जब आपको इरादतन नीचे आना होता है। हमें चूंकि 19 तारीख की आखिरी ग्रामसभा में शरीक होना था जो जरपा नाम के डोंगरियों के गांव में होनी थी, लिहाजा एक बार ऊपर जाकर 19 से पहले नीचे आने की कोई तुक नहीं बनती थी। इसका मतलब यह था कि हमें कम से कम तीन रातें और चार दिन डोंगरिया कोंध आदिवासियों के साथ उन्हीं के गांवों में बिताने थे। झारखंड-छत्तीसगढ़ आदि के पहाड़ों पर बसे गांवों में तो साप्ताहिक हाट बाज़ार भी लगने की परंपरा है, यहां हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं है। ऐसी हिदायत के बाद हमने अपनी समझ से कुछ बिस्कुट, चाय की पत्ती, चीनी, नींबू और मैगी के पैकेट रख लिए। बटुए और मोबाइल को स्थायी रूप से अपने झोले में डाल दिया और तड़के निकल पड़े ‘‘ऊपर’’, जहां हमारा पहला पड़ाव था बातुड़ी गांव। राजुलगुड़ा से करीब दस किलोमीटर ऊपर की ओर बसे कुल 22 घरों के इस गांव में छठवीं पल्लीसभा हुई थी जहां के कुल 40 में से उपस्थित 31 वोटरों ने वेदांता की परियोजना को खारिज कर दिया था।
बातुड़ी डोंगरिया कोंध का गांव है, लेकिन यहां आबादी का पहनावा मिश्रित है। अपने पारंपरिक एक सूत के सफेद कपड़े में लिपटी आदिवासी औरतों के अलावा साड़ी पहनी और सिंदूर लगाए औरतें भी यहां दिख जाएंगी। नौजवान भी पारंपरिक पहनावे में कम ही दिखे। गांव में एक सोलर पैनल लगा है जिससे बिजली के दो खंबे चलते हैं। कुल 22 घर हैं और समूचे गांव में सिर्फ चार बुजुर्ग। यहां आकर आपको पहली बार और पहली ही नज़र में डोंगरिया आदिवासी गांवों की एक विशिष्टता पता चलती है। वो यह, कि यहां इंसानों से ज्यादा आबादी पालतू जानवरों की होती है। कुत्ता, बिल्ली, बकरी, सुअर, मुर्गा-मुर्गी, गाय, भैंस सब आबादी के बीच इस तरह घुलमिल कर रहते हैं कि शाम को जब पूरा गांव दो तरफ बने घरों के बीच की पगडंडी पर नुमाया होता है तो एकबारगी इनके बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है। बातुड़ी जिंदा प्राणियों का एक ऐसा जिंदा समाजवाद पेश करता है जिससे मनुष्यता के नाते एकबारगी जुगुप्सा होती है तो अगले ही पल आप खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं और इसका पता नहीं लगता। बारिश हो जाने पर हालांकि जुगुप्सा का भाव सारी उदारता पर भारी पड़ जाता है। उस शाम जम कर पानी बरसा था और हम एक बरसाती में खटिया डाले सकुचाती लड़कियों की तस्वीरें उतार रहे थे, कि अचानक किसी के मोबाइल से मैथिली गीत बजा। ‘‘यहां भी मोबाइल!’’ पहली प्रतिक्रिया यही थी। हमारे पीछे तीन नौजवान कैमरे की व्यूस्क्रीन में ताकझांक करते पाए गए। एक हिंदी बेहतर समझता था। वह मुस्करा दिया। उसका नाम मंटू मासू था। फिर उड़िया और कुई मिश्रित टूटी-फूटी हिंदी में बातचीत का सिलसिला चल निकला।
इस गांव में पांच लड़के मुनिगुड़ा तक लकड़ी बेचने जाते हैं। जिस सखुआ की लकड़ी को शहरों में इमारतसाज़ी के लिए आदर्श माना जाता है, वह यहां इफरात में है। एक साइकिल लकड़ी के बदले इन्हें सिर्फ 200 रुपये मिलते हैं। एक साइकिल का मतलब साइकिल के त्रिकोणीय ढांचे में जितने भी लकड़ी के टुकड़े समा सकें, सब! रोज़ सुबह चार बजे मंटू अपने चार साथियों को लेकर यहां से 25 किलोमीटर दूर मुनिगुड़ा के बाजार तक साइकिल ढलकाता हुआ ले जाता है और दिन में 10 बजे तक लौट आता है। इन पांच में से तीन युवकों के पास मोबाइल हैं और इनका भी उपयोग मूल्य नीचे की ही तरह बदल चुका है। इस पर गाने सुने जाते हैं और वीडियो देखे जाते हैं। मनोरंजन की पूरी दुनिया 100 रुपये के चिप में आती है जिसका मतलब इन्हें समझ नहीं आता, लेकिन इस वीराने में शाम उसके भरोसे कट जाती है। एक घर में साउंड बॉक्स भी है। टीवी यहां नहीं है। मोबाइल सोलर पैनल से चार्ज होता है। ये नौजवान भी नियमगिरि के अलावा बहुत कुछ अपनी परंपरा के बारे में नहीं जानते हैं। कुछ विरोधाभासी बातें भी इनसे संवाद कर के समझ में आती हैं। मसलन, ये मुर्गे-मुर्गियों को तो बेचते नहीं क्योंकि साल में एक बार पड़ने वाले उत्सव में ही इनकी बलि चढ़ाने की परंपरा है, लेकिन इन्हें मुर्गों का दाम जरूर मालूम है। मंटू बताता है, ‘‘एक मुर्गा 500 रुपये के बराबर है।’’ यानी लकड़ी बेचकर मौद्रिक चेतना यहां पर्याप्त आ चुकी है।
रात में गांव की कुंवारी लड़कियां मिलकर हमारे लिए बड़े स्नेह से भात और बांस के मशरूम की सब्ज़ी पकाती हैं। साउंड बॉक्स वाले घर में हमारे सोने की व्यवस्था है। भोजन के काफी बाद तक हिंदी के गाने बजते रहते हैं। सवेरे उठने पर गांव पुरुषों से खाली मिलता है। धीरे-धीरे औरतें भी काम पर चली जाती हैं और हम निकल पड़ते हैं अपने दूसरे पड़ाव केसरपाड़ी गांव की ओर, जहां हुई दूसरी ग्रामसभा में कुल 36 वोटरों के बीच उपस्थित 33 ने वेदांता को खारिज कर दिया था। इन 33 में से 23 महिलाएं और 10 पुरुष थे। बातुड़ी से केसरपाड़ी का रास्ता बेहद खतरनाक है क्योंकि एक पहाड़ से नीचे उतर कर तकरीबन सीधी चढ़ाई पर दूसरे पहाड़़ के पार जाना होता है। यह दूरी छह किलोमीटर के आसपास है। अपेक्षाकृत साफ-सुथरे से दिखने वाले इस गांव में भरी दोपहर आबादी के नाम पर सिर्फ दो औरतें और एकाध बच्चे दिखते हैं। गांव से मुनिगुड़ा का एक सीधा रास्ता है जो 15 किलोमीटर दूर है। गांव की शुरुआत में नीले रंग का एक मकान है। इस पर ताला लगा है। अंगद बताते हैं कि यह एक ईसाई मिशनरी का मकान है जो यहां धर्म परिवर्तन के वास्ते काफी पहले आया था लेकिन अपनी पहल में नाकाम रहने के बाद गांव छोड़कर चला गया। अब इसमें मूवमेंट के लोग आकर रहते हैं। इस गांव में कुल 16 घर हैं।
आदिवासी इलाकों में मिशनरियों का काम नया नहीं है। खासकर ओड़िशा के इस इलाके में साठ के दशक में ही ऑस्ट्रेलियाई मिशनरियों का आगमन हो गया था। रायगढ़ा के करीब बिसमकटक में बाकायदे ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी अब भी कार्यरत हैं। लांजीगढ़ रोड पर एक मिशनरी ने कुष्ठ आश्रम बना रखा है लेकिन उसका आसपास के इलाकों में खास असर नहीं है। हिंदू धर्म प्रचारकों का काम यहां न के बराबर है। अब तक हिंदू प्रतीक के रूप में हमें इकलौती चीज़ अगर कोई दिखी है तो वो है ‘‘जय हनुमान’’ खैनी, जिसे बिना चूके यहां के मर्द-औरत सब बड़े चाव से खाते हैं। सबकी लुंगी या लुगदी में खैनी का लाल पाउच खोंसा हुआ दिख जाएगा। शहर जाने वाले मर्द सबके लिए यह खैनी लेकर आते हैं। कुछ देर इस गांव में सुस्ताने के बाद हम निकल पड़े यहां से करीब पांच किलोमीटर दूर स्थित सिरकेपाड़ी गांव की ओर, जिसे 19 की ग्रामसभा के लिए हमारा बेस कैम्प होना था।
लगातार चालू इस सफर में अब तक अंगद की तबियत काफी बिगड़ चुकी थी। उसे लगातार हिचकियां आ रही थीं और वह जो कुछ खा रहा था, सब उलट दे रहा था। उसे ते़ज़ बुखार हो चला था। सिरकेपाड़ी पहुंचते ही उसने हिम्मत छोड़ दी। उसका शरीर टूट चुका था। यह लड़का पिछली ग्यारह ग्रामसभाओं में लगातार तैनात रहा था लेकिन आखिरी ग्रामसभा में जश्न मनाना इसकी सेहत को गवारा नहीं था। यह तय हुआ कि अगले दिन यानी 18 अगस्त को जो लोग शहर से आएंगे, उन्हीं की गाड़ी से लौटती में अंगद को भिजवा दिया जाएगा। दरअसल, 19 की ग्रामसभा जरपा में होनी थी जहां करीब सात किलोमीटर चलकर दुर्गम रास्तों से सिरकेपाड़ी से ही पहुंचा जा सकता था। सिरकेपाड़ी तक चारपहिया वाहनों के आने का रास्ता बना हुआ है, इसलिए पत्रकार से लेकर न्यायाधीश और सुरक्षाबल तक सबको इसी गांव से होकर गुजरना था। अंगद पर दवाओं का असर अब नहीं हो रहा था। तेज़ बारिश, कंपकंपाती हवाओं और अंगद की दहलाती हिचकियों के बीच खुले ओसारे में 17 अगस्त की रात यहां गुजारने के बाद हमें शहर से आने वाली पहली गाड़ी का बेसब्री से इंतज़ार था ताकि किसी तरह अंगद को रवाना किया जा सके।
‘‘एथिक्स’’ की एक रात
यह संयोग नहीं था कि अगले 12 घंटे में सारा जमावड़ा एक बार फिर सिरकेपाड़ी में ही होने जा रहा था। इस गांव में महीना भर पहले सबसे पहली पल्लीसभा हुई थी। अब तक 11 गांवों ने जो वेदांता को ना कहा था, उसकी शुरुआत यहीं से हुई थी। यह इकलौता गांव था जिसने अपनी भाषा कुई में ग्रामसभा आयोजित किए जाने का दबाव प्रशासन पर डाला था, जिसके बाद यह नज़ीर बन गया और अब तक की हर ग्रामसभा में कुई भाषा का एक अनुवादक मौजूद रहा था। लिहा़ज़ा, डोंगरियों का यह मोबाइलरहित गांव मूवमेंट के हर चेहरे को पहचानता था। ऐसे ही कुछ चेहरों का आगमन 18 की सुबह 11 बजे के आसपास यहां हुआ। एक जीप रुकी जिसमें से ढपली-नगाड़े और चावल-आलू व सब्जियां लिए हुए एक सांस्कृतिक टीम उतरी। इसमें अधिकतर किशोर उम्र की लड़कियां थीं, जिन्होंने आते-आते अनपेक्षित रूप से सबसे पहले हमारा पैर छुआ। अब तक हम हाथ मिलाते आ रहे थे, जिंदाबाद कहते आ रहे थे। बेशक, यह सांस्कृतिक टीम कुछ ज्यादा ‘‘विकसित’’ और ‘‘सभ्य’’ रही होगी। उनकी गाड़ी से वापसी में अंगद नीचे चला गया और हमने चैन की सांस ली। इसके बाद इस गांव में जो कुछ हुआ, वह इतिहास है।
दिल ढल चुका था, कार्यकर्ताओं की कई टीमें आ चुकी थीं, कि एक स्कॉर्पियो अचानक गांव के बाहर आकर रुकी। उसमें से एक कैमरामैन, एक असिस्टेंट और शर्ट-पैंट पहने एक आधुनिक दिखने वाली महिला उतरी। पता चला कि यह एनडीटीवी की टीम थी। यहां पहले से पहुंच चुके एआईकेएमएस के नेता भालचंद्र षड़ंगी से उस महिला ने हाथ मिलाया और पूछा, ‘‘आप लाल सलाम नहीं बोलते?’’ षड़ंगी ने सकुचाते हुए
जवाब दिया, ‘‘अपने साथियों के बीच बोलते हैं। आप तो बाहर की हैं...।’’ एक व्यंग्य भरी मुस्कराहट के साथ महिला ने हमारी तरफ इशारा करते हुए प्राथमिक विद्यालय के किसी मास्टर द्वारा उपस्थिति जांचने के अंदाज़ में उंगली उठाकर पूछा, ‘‘आर देयर एनीओज़? जर्नलिस्ट्स? ऐक्टिविस्ट्स?’’ हमारी ओर से जवाब नहीं आने पर उसने दोबारा वही सवाल किया। मैंने हाथ उठाकर जवाब दिया ‘‘जर्नलिस्ट्स’’, और ऐसा लगा कि वो संतुष्ट हो गई हो। वहां हम कुल पांच पत्रकार थे- मेरे अलावा एक मेरे हमनाम साथी और दूरदर्शन के दो पत्रकार, जो कुछ देर पहले ही पहुंचे थे। इसके अलावा हमारे साथ उड़िया पत्रिका ‘‘समदृष्टि’’ के एक पत्रकार तरुण भी थे। साथ में दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र सौरभ भी थाजो वहां की जनसुनवाइयों का दस्तावेजीकरण करने के लिए महीने भर से डेरा डाले हुए था। इन दोनों का परिचित एक संभ्रांत नौजवान पेरिस से वहां पहुंचा था, जिसका कहना था कि वह एफडीआई के खिलाफ भारत में चल रहे आंदोलनों पर शोध के सिलसिले में आया हुआ है।
एनडीटीवी के आने से गांव की रंगत बदल चुकी थी। पूरे गांव में अचानक अफरातफरी का माहौल बन गया था। ऐसा लग रहा था गोया कैमरामैन को कुछ अजूबे हाथ लग गए हों और वो एक के बाद एक झोपड़ियों के घुस-घुस कर शूट करते जा रहा था। उधर दिल्ली से आई रिपोर्टर, जिनका नाम आंचल वोहरा था, सांस्कृतिक टीम से बार-बार अनुरोध कर रही थीं कि उनके सामने एक बार आदिवासी नृत्य का प्रदर्शन किया जाए ताकि वे शूट कर सकें। कुछ देर पहले ही टीम ने अपना रिहर्सल पूरा किया था और वह बिल्कुल इसे दुहराने के मूड में नहीं थी। कैमरे की महिमा और कुछ नेताओं का ज़ोर था कि दोबारा इस रिहर्सल को पेश करने की सहमति बन गई। शाम धुंधला रही थी और झीनी-झीनी बारिश के साथ ठंडी हवा चलनी शुरू हो गई थी। किसी खाद्य इंस्पेक्टर कीतरह अंग्रेज़ी में पूरे गांव का मुआयना करने के बाद आंचल हमारी ओर आईं और सबसे औपचारिक परिचय हुआ। ‘‘वाइ डोंट वी हैव द बॉनफायर हियर?’’ और देखते ही देखते सिरकेपाड़ी गांव पिकनिक के लिए तैयार हो गया। अंधेरे में अलाव जला दिया गया और कैमरों के सामने सांस्कृतिक टीम ने एक बार फिर ढपली की ताल पर आग के इर्द-गिर्द नाचना शुरू कर दिया। कैमरों को यही चाहिए था, सो मिल गया। पूरा गांव सहमा सा इस मंज़र का गवाह बना हुआ था और रिपोर्टर एक के बाद एक पीस टु कैमरा दागे जा रही थी, ‘‘वी आर हियर इन सिरकेपाड़ी विलेज एंड टुनाइट इज़ दि रन अप टु द फाइनल मैच बींग हेल्ड टुमॉरो...।’’
इस रन अप मैच का छक्का अभी बाकी था। खाने का वक्त हुआ और सबको बुलाया गया। मैडम ने पूछा, ‘‘क्या हम इन गरीब लोगों का पीडीएस का चावल खाएंगे?’’ भालचंद्र जी ने मुस्करा कर हां में जवाब दिया। फिर आंचल ने कहा, ‘‘तब तो हमारे सिर पर इनका कर्ज चढ़ जाएगा।’’ ‘‘बेशक!’’, भालचंद्र ने कहा, ‘‘तो कर्ज उतार दीजिएगा इनके पक्ष में लिखकर।’’ छूटते ही मैडम ने जवाब दिया, ‘‘नो, नो... इनके पक्ष में लिखना तो अनएथिकल हो जाएगा।’’ मुझे असहता सी महसूस हुई, सो मैंने बीच में टोका, ‘‘अनएथिकल क्यों?’’‘‘मतलब, ये जो कहेंगे मैं तो उसे ही दिखाऊंगी’’, उन्होंने बात को संभाला। शायद उन्हें अब तक नहीं पता चला था कि वे जो कहेंगे, वह उनके समेत किसी की भी समझ में नहीं आने वालाक्योंकि उनकी भाषा अलग है।
आदिवासियों के पक्ष में खबर दिखाना एनडीटीवी के लिए ‘‘अनएथिकल’’ क्यों था, इसका आशय खंगालने की बहुत जरूरत नहीं पड़ी। अगले ही दिन यानी 19 अगस्त को जब आखिरी ग्रामसभा में हुई जीत का जश्न कुदरत मना रही थी और आदिवासियों के नियम राजा मुसल्सल बरसे जा रहे थे, दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित लीला होटल में एनडीटीवी के मालिक डॉ. प्रणय रॉय और वेदांता के मालिक अनिल अग्रवाल एक मंच से कन्या शिशु को बचाने के लिए एक साझा प्रचार अभियान का उद्घाटन कर रहे थे। ‘‘एनडीटीवी वेदांताः आवर गर्ल्स आवर प्राइड’’ नाम के इस अभियान का ब्रांड एम्बेसडर फिल्म अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा को घोषित किया गया है और दोनों कंपनियों की यह भागीदारी वेदांता के कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी कार्यक्रम ‘‘खुशी’’ का एक विस्तार है। बहरहाल, एनडीटीवी की रिपोर्टर ने इकलौता ‘‘एथिकल’’ काम यह किया कि अपने सिर पर आदिवासियों का कर्ज नहीं चढ़ने दिया। उन्होंने 18 की रात और 19 की सुबह दोनों वक्त गांव का बना खाना नहीं खाया। उनके पास मेरीगोल्ड बिस्कुट की पर्याप्त रसद जो थी।
चासी मुलिया के
सबक
स्थानीय अखबारों पर
नज़र दौड़ाएं तो हम
पाएंगे कि
पिछले कुछ
महीनों के
दौरान अचानक
कोरापुट जिले
से चासी
मुलिया आदिवासी संघ (किसानों, बंधुआ मजदूरों और आदिवासियों के संघ)
के सदस्यों के सामूहिक आत्मसमर्पण संबंधी खबरों में
काफी तेज़ी
आई है।
मीडिया की
रिपोर्टों के
मुताबिक जनवरी
2013 के बाद
संघ के
1600 से ज्यादा सदस्यों ने
आत्मसमर्पण किया
है। ये
सभी कोरापुट जिले के
नारायणपटना ब्लॉक
के निवासी हैं। संघ
के मुखिया नचिकालिंगा के
सिर पर
ईनाम है।
उनके नाम
के ‘‘मोस्ट वॉन्टेड’’ पोस्टर भुवनेश्वर में
लगे हैं।
पिछले साल
24 मार्च को
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने कोरापुट के टोयापुट गांव से
एक विधायक झिना हिकोका को अगवा
कर लिया
था और
उनकी रिहाई
के बदले
चासी मुलिया के 25 सदस्यों को रिहा
करने की
मांग कर
डाली थी।
इसके बाद
अचानक यह
संदेश गया
था कि
चासी मुलिया को माओवादियों का समर्थन है। उसके
बाद से
आत्मसमर्पणों का
सिलसिला शुरू
हुआ, जिससे आम धारणा
बनी कि
यहां माओवादियों का आधार
सरक रहा
है। नियमगिरि आंदोलन के
नेता इसी
परिघटना के
पीछे माओवादियों द्वारा ग्रामसभाओं के बहिष्कार के आह्वान का हवाला
देते हैं,
जो अपनी
तात्कालिकता में
भले सच
हो लेकिन
करीबी अतीत
में चली
प्रक्रिया से
बेमेल है।
असल में चासी
मुलिया आदिवासी संघ ओड़िशा
में कोई
प्रतिबंधित संगठन
नहीं है,
इसलिए इसके
सदस्यों की
गिरफ्तारी और
आत्मसमर्पण का
मुद्दा चौंकाने वाला है।
पुलिस मानती
है कि
चासी मुलिया माओवादी पार्टी का जनसंगठन है और
माओवादी इसी
के सहारे
कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ा जिले के
कुछ हिस्सों में अपनी
राजनीतिक गतिविधियों को आगे
बढ़ा रहे
हैं। चूंकि
रायगढ़ा के
सात गांवों में पल्लीसभा हुई है,
इसलिए यहां
सीआरपीएफ और
पुलिस को
भारी संख्या में उतारना सरकारी नज़रिये का ही
स्वाभाविक परिणाम था। दूसरी
ओर संघ
के मुखिया नचिकालिंगा जो
आजकल भूमिगत हैं, माओवादियों के साथ
अपने रिश्ते की बात
को खुले
तौर पर
नकारते हैं।
पिछले साल
‘‘तहलका’’ को एक गुप्त
स्थान से
दिए अपने
साक्षात्कार में
उन्होंने यह
कहा था।
इस पृष्ठभूमि में यह
पड़ताल करना
आवश्यक हो
जाता है
कि क्या
चासी मुलिया आदिवासी हितों
के लिए
काम करने
वाला एक
स्वतंत्र संगठन
है या
फिर इसके
माओवादियों से
वाकई कुछ
रिश्ते हैं।
इसी आलोक
में हम
जान पाएंगे कि चासी
मुलिया के
प्रति नियमगिरि आंदोलन के
नेतृत्व का
उभयपक्षी नजरिया नियमगिरि के
भविष्य में
कौन सी
राजनीतिक इबारत
लिख रहा
है।
चासी मुलिया आदिवासी संघ का
जन्म आंध्र
प्रदेश के
किसान संगठन
राइतु कुली
संगम (आरसीएस) से हुआ
था जिसे
माओवादी समर्थक नेताओं ने
विजयानगरम में
गठित किया
था। आरसीएस की एक
शाखा 1995 में ओड़िशा के
कोरापुट जिले
के बंधुगांव ब्लॉक में
भास्कर राव
ने शुरू
की। शुरुआत में बंधुगांव और नारायणपटना ब्लॉक के
किसानों और
बंधुआ मजदूरों का इसे
काफी समर्थन हासिल हुआ।
भाकपा
(माले-कानू सान्याल गुट) (यह खुद को
भाकपा
(माले) ही कहता
है) के कुछ अहम
नेता जैसे
गणपत पात्रा आरसीएस के
साथ काफी
करीबी से
जुड़े रहे
हैं। आरसीएस-कोरापुट ने
भाकपा(माले)
के नेताओं के सहयोग
से ही
यहां जल,
जंगल और
जमीन का
आंदोलन चलाया
था। जब
आंध्र प्रदेश में भाकपा(माओवादी) और उसके जनसंगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया
था, उसके ठीक बाद
17 अगस्त, 2005 को आरसीएस को
भी वहां
प्रतिबंधित कर
दिया गया।
ओड़िशा में
भी आरसीएस को ऐसे
ही प्रतिबंध का अंदेशा था, सो उसने 2006 में अपना नाम
बदल कर
चासी मुलिया आदिवासी संघ
रख लिया।
संघ ने
2006 से 2008 के बीच खासकर
नारायणपटना और
बंधुगांव ब्लॉकों में गैर-आदिवासी जमींदारों से जमीनें छीन कर
गरीब आदिवासियों में बांटने का काफी
काम किया,
शराबबंदी के
लिए रैलियां कीं और
भ्रष्ट सरकारी अफसरों के
खिलाफ अभियान चलाया। 2008 आते-आते संघ
की नेता
कांेडागिरि पैदम्मा को दरकिनार कर के
बंधुगांव के
अर्जुन केंद्रक्का और नारायणपटना के नचिकालिंगा ने संगठन
की कमान
संभाल ली,
लेकिन इसका
नतीजा यह
हुआ कि
संगठन के
भीतर अपने
आप दो
धड़े भी
बन गए।
अर्जुन केंद्रक्का बड़े जमींदारों से भूदान
के पक्ष
में थे
जबकि नचिकालिंगा उनसे जमीनें छीनने में
विश्वास रखते
थे। इस
तरह दोनों
धड़ों के
बीच मतभेद
बढ़ते गए।
इसकी परिणति इस रूप
में हुई
कि केंद्रक्का ने 2009 के चुनाव में
खड़े होने
का मन
बना लिया
और संसदीय लोकतंत्र. में अपनी आस्था
जता दी।
नचिकालिंगा ने
इसका विरोध
किया। माना
जाता है
कि इसकी
दो वजहें
रहीं। पहली
यह कि
नचिकालिंगा माओवादी विचारधारा से
प्रभावित थे।
दूसरी वजह
यह थी
कि वे
खुद भाकपा(माले) के टिकट पर
कोरापुट की
लक्ष्मीपुर संसदीय सीट से
लड़ना चाहते
थे। हुआ
यह कि
अर्जुन केंद्रक्का को भाकपा(माले) से टिकट मिल
गया, हालांकि वे बीजू
जनता दल
के झिना
हिकोका से
हार गए।
इसके बाद
चासी मुलिया के दो
फाड़ हो
गए। वरिष्ठ नेताओं और
सलाहकारों ने
भी अपना-अपना पक्ष
तय कर
लिया। मसलन,
कोंडागिरि पैदम्मा ने अर्जुन धड़े को
चुना तो
भाकपा(माले)
के पात्रा ने नचिकालिंगा के गुट
में आस्था
जताई।
यही वह समय
था जब
कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ा में माओवादियों का एक
जत्था बाहर
से आया
और यहां
की राजनीति में उसने
पैठ बनानी
शुरू की।
20 नवंबर, 2009 को नारायणपटना पुलिस
थाने पर
नचिकालिंगा ने
सुरक्षा बलों
द्वारा आदिवासियों के दमन
के खिलाफ
धावा बोला
और गोलीबारी हुई जिसमें संघ के
दो नेताओं की मौत
हो गई,
कई ज़ख्मी
हुए और
पुलिस ने
37 को गिरफ्तार कर लिया।
इसके बाद
से नचिकालिंगा भूमिगत हैं।
इसी मौके
का लाभ
माओवादियों ने
इस गुट
में अपनी
उपस्थिति को
मजबूत करने
में उठाया।एक सरकारी संस्था इंस्टीट्यूट फॉर
डिफेंस स्टडीज अनालिसिस (आईडीएसए) की एक
रिपोर्ट के
मुताबिक माओवादियों ने नचिकालिंगा को अपने
साये तले
पुलिस से
संरक्षण दे
दिया और
बदले में
समूचे गुट
को अपने
नियंत्रण में
ले लिया।
इस बात
को लिंगराज प्रधान भी
मानते हैं
कि दक्षिणी ओड़िशा के
इस इलाके
में चासी
मुलिया के
नेतृत्व में
चल रहे
जमीन के
आंदोलनों को
माओवादियों ने
‘‘हाइजैक’’ कर लिया। नचिकालिंगा ने हमेशा
माओवादियों के
साथ अपने
रिश्ते को
नकारा है,
लेकिन नियमगिरि आंदोलन के
नेता इस
बात की
पुष्टि करते
हैं। इसके
अलावा, चुनाव हारकर सरकारी मशीनरी के
विश्वासपात्र बन
चुके अर्जुन केंद्रक्का की
9 अगस्त, 2010 को भाकपा(माओवादी) की श्रीकाकुलम इकाई द्वारा की गई
हत्या भी
इस बात
को साबित
करती है
कि चासी
मुलिया (नचिकालिंगा) में माओवादियों की पैठ
बन चुकी
थी। इस
हत्या के
बाद संघ
की बंधुगांव इकाई निष्क्रिय हो गई
और माओवादियों की मदद
से नचिकालिंगा गुट ने
वहां और
नारायणपटना ब्लॉक
में 6000 एकड़ ज़मीनें कब्जाईं।
इस साल चासी
मुलिया से
काडरों के
बड़े पैमाने पर हो
रहे आत्मसमर्पण एकबारगी यह
संकेत देते
हैं कि
इस इलाके
में माओवादियों की पकड़
कमजोर पड़
रही है,
लेकिन कुछ
जानकारों का
मानना है
कि यह
नचिकालिंगा गुट
और भाकपा(माओवादी) की एक रणनीति भी हो
सकती है।
कुछ स्थानीय लोगों के
मुताबिक नचिकालिंगा ने अगर
संसदीय राजनीति की राह
पकड़ ली,
तब भी
माओवादियों के
अभियान पर
यहां कोई
खास असर
नहीं पड़ने
वाला क्योंकि उन्होंने मिनो
हिकोका के
रूप में
चासी मुलिया संघ में
नेतृत्व की
दूसरी कतार
पहले से
तैयार की
हुई है।
इसके अलावा
एक उभरता
हुआ गुट
सब्यसाची पंडा
का है
जिन्होंने पिछले
दिनों भाकपा(माओवादी) को छोड़ कर
उड़ीसा माओवादी पार्टी बना
ली है।
प्रधान इसे
लेकर हालांकि चिंतित नहीं
दिखते, ‘‘यह तो सरवाइवल के लिए
बना समूह
है। पंडा
या तो
सरेंडर कर
देंगे या
फिर एनकाउंटर में मारे
जाएंगे। उनका
इस इलाके
की राजनीति पर कोई
असर नहीं
होने वाला।’’
इस पूरी कहानी
में सबसे
दिलचस्प बात
यह है
कि सारी
लड़ाई आदिवासियों, किसानों और
बंधुआ मजदूरों के हितों
के लिए
जमीन कब्जाने से शुरू
हुई थी।
विडंबना यह
है कि
नचिकालिंगा खुद
एक बंधुआ
मजदूर था
जिसके मालिक
के घर
में आज
सीमा सुरक्षा बल की
चौकी बनी
हुई है।
यह लड़ाई
महज चार
साल के
भीतर माओवादियों के कब्जे
में आ चुकी है
और मोटे
तौर पर
तीन जिलों
कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ा में उनका
असर पहले
से कहीं
ज्यादा बढ़ा
है। मजेदार यह है
कि जमीन
की बिल्कुल समान लड़ाई
नियमगिरि की
तलहटी वाले
गांवों में
चल रही
है जहां
माले का
न्यू डेमोक्रेसी धड़ा और
खुद लिबरेशन भी अलग-अलग इलाकों में सक्रिय हैं। लड़ाई
का मुद्दा एक है
और जमीन
कब्जाने की
रणनीति भी
समान, लेकिन इलाके अलग-अलग हैं
और ‘‘मोस्ट वांटेड’’ संगठन चासी मुलिया के प्रति
माले के
धड़ों का
नजरिया भी
अलग-अलग
है। लिंगराज प्रधान इसे
‘‘पर्सनालिटी कल्ट’’
का संकट
बताते हैं
जहां नेतृत्व संगठन से
बड़ा हो
जाता है।
इस जटिल
इंकलाबी राजनीति के आलोक
में नियमगिरि का आंदोलन, जो आज
की तारीख
में वैश्विक प्रचार हासिल
कर चुका
है, माओवाद से अछूता
रह जाए
(या रह
गया हो)
यह संभव
नहीं दिखता। लिंगराज प्रधान इसे ‘‘रूल आउट’’ नहीं करते, ‘‘हमारे नेता आज़ाद
के पास
माओवादियों के
फोन आते
हैं। वे
कहते हैं
कि तुम
चिंता मत
करो, हम तुम्हारे साथ
हैं।’’ फिर वे कहते
हैं, ‘‘दरअसल, अभी तक
नियमगिरि में
प्रतिरोध का
सिलसिला सुप्रीम कोर्ट के
आदेशों के
सहारे और
छिटपुट आंदोलनों के बल
पर ही
चलता रहा
है जो
गंदमारदन जैसी
भीषण शक्ल
नहीं ले
सका है
और अपेक्षाकृत सौम्य है,
इसमें कामयाबी भी मिलती
ही रही
है, इसीलिए माओवादियों को
यहां घुसने
की स्पेस
नहीं बन
पा रही
है। जनवादी राजनीति की
यही कामयाबी है।’’
जहां बड़े आंदोलन होते हैं,
वहां अफवाहें भी बड़ी
होती हैं।
कहते हैं
कि नियमगिरि के कुछ
डोंगरिया गांवों में राइफलें भी हैं।
यह बात
गलत हो
या सही,
इससे फर्क
नहीं पड़ता।
असल फर्क
यह समझने
से पड़ता
है कि
नियमगिरि की
लड़ाई किसी
कोने में
अलग से
नहीं लड़ी
जा रही
है। यह
कोई पवित्र गाय नहीं
है जहां
लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संवैधानिक प्रावधानों के
आधार पर
ही बड़ी
पूंजी के
खिलाफ जीत
हासिल की
जा सके।
सवाल यहां
भी जल,
जंगल और
जमीन का
ही है।
विरोधाभास यहां
भी लोकल
बनाम ग्लोबल का है
और अब
तक तो
कोई ऐसी
नज़ीर इस
देश में
पेश नहीं
हुई जहां
न्यायिक सक्रियता के चलते
बड़ी पूंजी
की स्थायी वापसी संभव
हुई हो।
नियम की तासीर
ऐसा नहीं कि
आंदोलन के
नेताओं लिंगराज आज़ाद या
लोदो सिकाका को जन्नत
की हकीकत
नहीं मालूम। संजय काक
की फिल्म
में लोदो
सिकाका की
एक बाइट
हैः ‘‘सरकार हमें माहबादी (माओवादी) कहती है। अगर
हमारा नेता
लिंगराजा माहबादी है, तो हम भी
माहबादी हैं।’’
यह चेतना
का उन्नत
स्तर ही
है जो
दुनिया की
दुर्लभ आदिवासी प्रजाति डोंगरिया कोंध के
एक सदस्य
से ऐसी
बात कहलवा
रहा है।
संघर्षों से
चेतना बढ़ेगी
तो कल
को माओवादी पोस्टरों के
मायने भी
समझमें आएंगे
और मोबाइल पर बजता
गीत-संगीत
भी। अभी
तो दोनों
ही आकर्षण का विषय
हैं और
इनसे निकल
रहा बदलाव
नियमगिरि की
फिज़ा में
साफ दिख
रहा है।
लड़के दहेज
ले रहे
हैं, औरतें सिंदूर लगा
रही हैं,
बच्चियां अपने
स्कूली शिक्षकों के कहने
पर तीन
नथ पहनना
छोड़ रही
हैं तो
सभ्य दिखने
के लिए
आदिवासी बच्चे
अपने लंबे
बाल कटवा
रहे हैं।इन छवियों के
बीच मुझे
अस्पताल में
पड़े साथी
और नियमगिरि के जंगलों में अपने
मार्गदर्शक अंगद
की कही
एक बात
फिर से
याद आ रही है,
‘‘हम लोग
सड़क और
स्कूली शिक्षा का विरोध
इसीलिए करते
हैं क्योंकि उससे आंदोलन कमज़ोर होता
है।’’ इससे दो कदम
आगे उनके
नेता आज़ाद
की बात
याद आती
है जो
उन्होंने अपने
साक्षात्कार में
कही थी,
‘‘विकास का
मतलब अगर
बाल कटवाना होता है
तो पहले
मनमोहन सिंह
की चुटिया काटो।’’ सख्त वाम राजनीति के चश्मे
से देखने
पर ग्रामसभाओं में वेदांता की हार
ऊपर-ऊपर
भले ही
ग़ालिब का
खयाली फाहा
जान पड़ती
हो, लेकिन नियमगिरि की
तासीर पर्याप्त गर्म है।
यही डोंगरियों के नियम
राजा का
असली मर्म
है।
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