05 अगस्त 2013

तुम्हारे देश में इतना कीचड़ कहाँ से आया हिन्दी.

1700 शब्दों में यह आलेख 5 दिन पहले लिखा गया था. 600 शब्द डिलीट भी करने पड़े. इतना व्यस्त भी नहीं था कि इसे पोस्ट न कर पाऊं, वजहें कुछ और थी... प्रकाशित होना कहीं और था. संपादक को जिन दो बातों पर आपत्ति थी वह अशोक वाजपेयी को कार्पोरेट से मदद लेने और विश्वरंजन के शातिराने में शामिल होने से थी. उन्होंने साक्ष्य मांगा मैने दे दिया, जो दिया था सो आपको भी संदर्भ के साथ दे रहा हूं.    चन्द्रिका

  

यह दो मनाहियों की अलग-अलग कहानियां हैं, जो एक वक्त में घट रही हैं. जो दूरी के लंबे फासलों के साथ घट रही हैं. उड़ीसा में राज्य और कार्पोरेट सभाएं कर नियमगिरी को खरीदना चाहता है और आदिवासी अपने गांवों को बेचने से मना कर रहे हैं. वे नियमगिरी को देवता मानते हैं. राज्य उनके नेताओं को माओवादी कह रहा है और कुछ को इन आरोपों के तहत जेल जाना पड़ा है. वहाँ कुल बारह सभाएं होनी हैं जिनमे से नौ सम्पन्न हो चुकी हैं, सब की सब मनाही के साथ. दूसरी एक सभा वहाँ से बहुत दूर की है. यह सभा है दिल्ली में हंस पत्रिका द्वारा आयोजित प्रेमचंद जयंती की सभा. जिसमें गोविंदाचार्य के साथ वरवरा राव और अरुंधती राय ने मंच साझा करने से मना कर दिया है. यह ठीक-ठीक आमंत्रण में वक्ताओं के बारे में न बताए जाने और बगैर अनुमति के नाम छाप दिए जाने की बात है. यदि तथ्य इससे इतर भी हों तो इस बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह मंच साझा करने की ही एक मनाही है. अरुंधती और वरवरा राव हिन्दी से इतर लेखक हैं जिनके अनुवाद के जरिए लगभग अन्य भारतीय भाषाओं में भी उतनी ही स्वीकार्यताएं हैं. हिन्दी के एक प्रतिष्ठित आयोजन में उनकी अस्वीकार्यता के आखिर क्या मायने हैं? ठीक उन्हीं समयों में जबकि हंस के सभा का कार्यक्रम होने वाला था, अरुंधती मंच पर जाने के बजाए उड़ीसा भवन की सड़क पर बोल रही थी. मंचों और सड़कों के चुनाव के मायने हैं. इनके मायने राजनैतिक है, व्यक्तिगत है और वर्गीय भी. इन सबके बीच कई साम्यताएं हैं. यह अछूत होने का सवाल नहीं है बल्कि सवाल पक्षधरता और विरोध का है. जब आप उद्देश्यों और परिणामों की संभावनाओं को आंक लेते हैं तो आप एक फैसला लेते ही हैं. एक ‘सभ्य-सुशील’ वर्ग आहत होता है कि साहित्य के लिए किए जाने वाले वार्षिक योगदान में उसे ठगा सा गया. वह वरवरा राव और अरुंधती राय के बारे में बहस करना शुरु करता है. वह आयोजकों द्वारा वक्ताओं की स्वीकृति, वक्ताओं को मंच साझा करने की सही-सही जानकारी न दिए जाने से विमुख है. वह आहत है कि अहिन्दी समाज के दो लेखकों द्वारा हिन्दी के प्रतिष्ठित माने जाने वाले लेखक की प्रतिबद्धता पर सवाल कैसे खड़े हो गए. यह आहत होने की बात इसलिए भी मौजूं लगती है कि नियमगिरी के आदिवासियों की मनाही और संघर्ष उनके विमर्षों से फिलवक्त गायब हैं. उनके संघर्ष और उनके साहस के साथ खड़े होने के बजाय वे अपने ठगे और आहत होने से दुखी हैं. दमित जनता के जश्न और दुखों के वे सहभागी तब तक नहीं होते जब तक उनके वर्गीय हित नहीं जुड़ते. जब तक राज्य की एजंसियां उनके वर्गीय खतरे को देश का खतरा बनाकर प्रस्तुत नहीं करती. जब तक कि इन विषयाधारित और विभागीय संगोष्ठियों में बोलना उनकी मजबूरी नहीं हो जाती. यानि दमित, दलित और आदिवासियों के बारे में बोलना-लिखना उनके जीवन, उनकी संवेदनाओं से इतर उनके प्रोफेसन का हिस्सा हैं. वे अपने शौक को एक कार्यकर्ता की भूमिका से प्रस्तुत करते हैं. उनके लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और खतरे मुक्तिबोध की किसी कविता से उठकर उनके बैनरों में चिपक जाते हैं पर खतरे उठाने के लिए वे अपनी गलियों में भी नहीं उठते. वे ‘खतरों’ के साथ खड़े होते हैं ‘खतरनाकों’ के साथ खड़े होते हैं. क्योंकि वे जानते हैं कि जो जितना खतरनाक है उसके आसपास की जमीन उतनी सुरक्षित है. आर्थिक, बौद्धिक और प्रकाशकीय सुरक्षाएं उनकी प्रतिबद्धताओं को बदल देती हैं.    
उत्तर और उत्तर-पूर्व के हर जन संहारों से लेकर दक्षिण के श्रीलंका में हुए तमिलों तक के संहारों के खिलाफ खड़े होकर बोलने वाला कोई लेखक, हिन्दी समाज नहीं बना पाया. वरवरा राव हिन्दी और अहिंदी भाषियों में शायद अकेले लेखक हैं जो देश के एक छोर से दूसरी छोर तक उनकी लाशों को ढोते हुए उम्र भर चलते रहे. उनकी लाशें जो दलित, आदिवासी, गैर-आदिवासी, द्रविणियन, तमिलियन अपने हक़-हुकूक के लिए राज्य से लड़ रहे हैं. जिनकी लाशों के साथ खड़े होने से यह संभावना बढ़ जाती है कि अगली लाश वरवरा राव को भी बना दिया जाए. इसके कई प्रयास हुए और बिरसम साहित्य संगठन के लेखकों की हत्याएं भी हुई. क्या वरवरा राव की हिम्मत और हिम्मत पस्ती को लेकर वे लेखक/लेखिकाएं नैतिक आधार पर बोलने के हकदार हैं, जिन्होंने राज्य द्वारा प्रताड़ित और संहार किए गए आदिवासी, दलितों और अन्य समाजों तक अपनी पूरी उम्र बिताने के बाद भी नहीं गए. यहाँ लेखकीय प्रतिबद्धताएं क्या हैं. क्या वे यही नही हैं जो महज लेखक और लेखकीय सत्ता की स्थापनाएं निर्मित करती हैं. उन्हें मुक्तिबोध की पंक्तियां ‘उठाने होंगे खतरे’ किसी पुरानी पुस्तक की पुरानी जिल्द के साथ ही अच्छी लगती है. वैसे इसे लेखकीय अय्याशियां नही कही जानी चाहिए, इनकी भी भूमिकाएं हैं समाज में. उनकी भूमिकाएं क्या हैं. उन्होंने बहिस्कार किए हैं, उन्होंने आपसी हिन्दी मठों के टकराव में हस्ताक्षर अभियान में हिस्सा लिया है और कुछ ही महीनों में वे बहिस्कार से बहि शब्द को बहा देते हैं और हिस्कार को ध्वनित करते हुए स्वीकार में बदल लेते हैं. जैसे सिंधु को आर्यों ने हिन्दू में बदल दिया था. वर्धा वहिस्कार के आइने में वे झांक सकते हैं. वे लेखक होने का सम्मान प्रेमचंद की परंपरा से पाना चाहते हैं परन्तु खतरे और मुश्किलों से वे नहीं गुजरना चाहते.  
पुरानी घटनाएं भुला दी जाती हैं और नई घटनाओं पर बहस शुरू कर दी जाती है. 2009 में प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह के बाद विश्वरंजन ने शामिल हुए लेखकों को अपने साथ सहमत मानते हुए सलवा-जुडुम के पक्ष में एक लेख लिखा था. उनके इस एजेंडे में अशोक वाजपेयी शामिल थे. क्या जिन लेखकों ने शामिल होने से मना किया था वे छूआछूत बरत रहे थे. जिन्हें विश्वरंजन ने नए जातिवादी और अलोकतांत्रिक साबित करने का प्रयास किया था. सत्ता के एजेंडे बेहद बारीक होते हैं. क्या विरोधी विचारों के वक्ताओं को एक मंच पर बुलाना लोकतांत्रिक होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है. शातिरपने और लोकतांत्रिक होने में फर्क करना ही चाहिए. यदि उद्देश्य दो विरोधी विचारों में चर्चा का ही था तो अशोक वाजपेयी को राजेन्द्र यादव या हंस प्रकाशन ने किस पक्ष में रख कर बुलाया था. शायद इसी पक्ष को वरवरा राव ने अपने पत्र में और स्पष्ट विभाजन करके रख दिया है. ऐसे में हिन्दी के साहित्य समाज को अपने शातिराने मठों में झांक कर देखना चाहिए. क्या वाकई में ऐसे हिन्दी साहित्यिक समाज में स्वस्थ बहसों से प्रगतिगामी निर्मिति संभव हैं जिसका सबसे बड़ा आलोचक अपने चलने की अदा से अपनी जाति को प्रदर्शित करता हो. जिस भाषा के बड़ी पत्रिका का संपादक छिछोरेपन से छुटकारा न पाया हो और तिस पर ‘स्त्री विमर्श’, ‘दलित विमर्श’ उसके कलमदानों से निकल रहा हो. जिसका बड़ा कवि अपनी कुठाओं और पत्नी के उत्पीड़नों का भागी रहा हो और स्त्री की स्वतंत्रता पर सबसे अच्छी कविता लिखने की मान्यता भी पाता हो. मठाधीशों में एक वह भी जो गिरोह खड़े करने और पुस्तकों के प्रकाशनों व अप्रकाशनों में भूमिकाएं अदा करता हो. यदि इन्हीं के किन्हीं मठों में पल रहे नव लेखकों में कोई कच्चा चिट्ठा खोलने जैसी धमकियां दे रहा है तो गड़बड़ी एक भाषा के किसी कोने की नहीं है पूरा शहर घूम कर देखना चाहिए. तमाम अनैतिक और गलीजता भरे घावों ने ही इन्हें मठाधीश बनाया है. यह सब वैसा ही है जैसे एक हत्या करने के बाद किसी के ओहदे बढ़ जाते हैं और ज्यादा हत्याएं करके कोई राजनेता बन जाता है और सबसे बड़ा राजनेता व्यवस्था की संरचना से पूरे देश की हत्याओं में भूमिकाएं अदा करता है.
ये कुंठाएं और प्रवृत्तियां हिन्दी समाज में कहां से आई? अपने बंद दरवाजों के भीतर के जो तंग लेखन हैं वे जीवन की प्रवृत्तियों को कभी नहीं बदलते. वे जो मनोभावों और कर्मिक लेखन के रूप में संरचना जनित सत्ताओं के खिलाफ लिखने में प्रयासरत हैं उनके जीवन में वह मूल्य खुद इसलिए नहीं उतर पाता क्योंकि समाज के साथ जीवन संघर्षों की मुठभेड़ नहीं है. कईयों के भीतर दमितों के लिए लिखने की प्रबल उत्कंठाएं हैं पर उन समाजों में आवाजाही नहीं है, जहाँ राज्य सत्ताओं के खतरे बढ़ जाते हों. इसलिए उन्हें अपने मुह से यह बार-बार कहने की जरूरत महसूस होती है कि ‘उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे’. यह चिल्लाते हुए वे एक दिन मोमबत्तियों के साथ खड़े हो जाते हैं. जो पिघलते हुए उसी का हांथ जलाती हैं जिन हांथों में वे थामी गई होती हैं.
अपूर्वानंद का लेख प्रकाशित होने के बाद कुछ बातें उस संदर्भ से जरूरी हो जाती हैं. यह सच है कि गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी में बहुत भिन्नता है. दोनों को एक आधार पर कतई नही तौला जा सकता. इन भिन्नताओं को कर्मिक और लेखकीय दोनों आधारों पर देखा जा सकता है. प्रेमचंद से परम्परा के जुड़ाव भी इन्हीं आधारों पर ही तय किए जा सकते हैं. अशोक वाजपेयी को हिन्दी साहित्य के लेखन में योगदान के बजाय हिन्दी में संस्थान निर्माण और हिन्दी लेखकों के आश्रयदाता के तौर पर ज्यादा दिया जाना चाहिए. आश्रयदाताओं के योगदान को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. उनके अपने महत्व हैं. पर नियति यह है कि आश्रयदाताओं की प्रसस्ति से मुक्त होना संभव नहीं बन पाता. वैसे ही जैसे कार्पोरेट के सहयोग से आप बाजारीकरण के विरुद्ध खड़े होने का प्रयास करना चाहते हैं. बाजारवाद के विरुद्ध खड़े होने की घोषणा करने वाले लेखकों को कार्पोरेट की मदद से सम्मानित करना चाहते हैं. ऐसे में प्रेमचंद की परंपरा से वरवरा राव या अशोक वाजपेयी के संबंध किस तरह के हैं यह एक जरूरी सवाल है. अपने सम्पूर्ण लेखन, व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ अशोक वाजपेयी कहीं भी खड़े हों परन्तु कार्पोरेट से मदद लेकर यदि वे हिन्दी समाज के लेखकों को कृत-कृत्य करना चाहते हैं तो हिन्दी समाज के कुछ लेखकों के हित तो उनके साथ निश्चित ही बनेगे. ऐसे में हिन्दी के साहित्य समाज की निर्मिति एक एन.जी.ओ. जैसी निर्मिति होगी. इस आधार पर वे गोधरा व कुछ अन्य घटनाओं से उन्हें उचित ही ठहराएंगे. यह मामला पवित्रता-अपवित्रता का नहीं है बल्कि यह है कि प्रेमचंद की परंपरा को कौन किधर ले जा रहा है. कौन उस कार्पोरेट से मदद की दरकार रखता है जिसके तार विदर्भ के होरियों और धनियों की आत्महत्याओं से जुड़ते हैं. जिसकी लपटें घीसुओं और माधवों के घरों में आग लगा रही हैं. वरवरा राव की लोकतांत्रिकता का मूल्यांकन वे कर रहे हैं जिनकी देह को कार्पोरेट ने सवांरा है जबकि ‘उनके लोकतंत्र’ ने ही वरवरा राव के शरीर को घावों से भरा है.   

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