प्रोफ़ेसर अनिल कुमार राय उर्फ़ अंकित |
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय को पांच वर्ष पूर्व अपनी जाति के एक
प्रोफेसर डॉ. अनिल कुमार राय ‘अंकित’
को मास मीडिया विभाग में नियुक्ति करते समय ये
शिकायत मिल चुकी थी कि उन्होंने एक दर्ज़न से ज़्यादा ऐसी किताबें अपने नाम से
छपवाई हैं जिनकी सामग्री देश और विदेश के लेखकों की किताबों से उड़ाई (कट-पेस्ट) गई हैं। लेकिन उन्होंने
नियुक्ति के समय से ही उन शिकायतों की अनदेखी की और यही नहीं,
उसके बाद वो लगातार डॉ अनिल कुमार राय ‘अंकित’ को प्रोन्नति देते
गए।
डॉ. अंकित ने हिंदी की कविताओं पर पीएचडी
की है और उन्हें मास मीडिया विभाग को प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त किया गया।
नियुकति के तत्काल बाद विभागाध्यक्ष भी बन गए। डॉ. अंकित द्वारा विभिन्न संस्थानों
में नौकरी के लिए जो आवेदन दिए गए हैं उन्हें एक जगह रखकर भी देखा जाए तो उनकी
अकादमिक उपलब्धियों की लंबी-चौड़ी फ़ेहरिस्त पर किसी को भी संदेह हो सकता है।
डॉ. अंकित द्वारा चोरी की सामग्री से
किताबों को लेकर जब मीडिया में लगातार शिकायतें आने लगीं, तब उन्होंने 11 फरवरी 2010 को एक आदेश देकर एक जांच समिति नियुक्ति करने
की घोषणा की। उस समिति की ज़िम्मेदारी रांची विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी काशी
विद्यापीठ के पूर्व कुलपति सुरेन्द्र सिंह कुशवाहा को दी गई। सुरेन्द्र सिंह
कुशवाहा को यह जांच देने का मक़सद उनसे डॉ. अंकित को बेदाग़ घोषित करवाने का रहा
होगा। लेकिन जब सुरेन्द्र सिंह कुशवाहा के भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि सार्वजनिक तौर
पर जाहिर होने लगी तब जांच समिति ठप्प पड़ गई।
विश्वविद्यालय प्रशासन को मानव संसाधन
विकास मंत्रालय, यू.जी.सी में दर्ज
शिकायतों के ज़रिए लगातार ये कहा गया कि वह डॉ. अंकित की किताबों के बारे में जांच
कराएं। लेकिन, संभवत
विश्वविद्यालय को कोई ऐसा ईमानदार व्यक्ति नहीं मिल रहा था जो कि डॉ. अंकित को
बेदाग़ घोषित करने का भरोसा दे सके। लिहाजा जांच की प्रक्रिया फिर शुरू नहीं की
गई। जबकि इस बीच दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया में डा. दीपक केम को इस
आरोप में बर्ख़ास्त करने की कार्रवाई पूरी की गई। फ़ोटो जर्नलिज़्म पर डॉ. दीपक
केम ने एक पुस्तक डॉ. अंकित के साथ मिलकर लिखी है। डा. केम के ख़िलाफ़ जांच की
शुरुआत 4 मार्च 2010 को हुई और 1 अप्रैल 2011 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया के
कार्यकारी परिषद के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी। 31 मई 2011 को उन्हें जामिया
मिल्लिया इस्लामिया से हटा दिया गया। डॉ. केम को हटाने में भी इतना वक़्त संभवत
इसीलिए लगा क्योंकि उनके पिता यूजीसी में प्रभावशाली अधिकारी रहे हैं।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय पर जामिया मिल्लिया इस्लामिया के इस फैसले का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
संभवत: कुलपति विभूति नारायण राय ने यह समझा कि वे जब तक इस पद पर बने हुए हैं तब
तक डॉ. अंकित को बचाने में उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए। अक्टूबर 2013 में कुलपति विभूति नारायण
राय अपने पद से मुक्त होने वाले हैं। वे फ़िलहाल इस पद पर इस स्थिति में हैं कि वे
कोई नीतिगत निर्णय नहीं ले सकते। लेकिन 7 अगस्त 2013 को समाचार पत्रों के पाठकों
ने एक नोटिस देखा जिसमें ये बताया गया है कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय में डॉ. अनिल कुमार राय द्वारा किताबों के लिए सामग्री की चोरी की
शिकायत की जांच के लिए एक समिति बनाई गई है। उस समिति के सर्वेसर्वा पूर्व
न्यायाधीश पी जी पल्सीकर बनाए गए हैं।
एक तो यह जानना बेहद दिलस्चप होगा कि अपने
कार्यकाल के मुहाने पर पहुंचने के बाद कुलपति राय को ये क्यों लगा कि एक पूर्व
न्यायाधीश से अनिल कुमार राय ‘अंकित’
के ख़िलाफ़ शिकायतों की जांच करा लेनी चाहिए?
इतनी जल्दीबाजी में जांच पूरी कराने का उद्देश्य
भी हैरानी में डालता है। जांच समिति की नियुक्ति की समाचार पत्रों में सूचना के
अनुसार 27 अगस्त तक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलसचिव
तक चोरी की सामग्री से जुड़े तथ्यों को भेज देना है।
CNEB के कार्यक्रम 'चोर गुरु' में रिपोर्टर से बात करते कुलपति विभूति नारायण राय (पूरा कार्यक्रम देखने के लिए यहां क्लिक करें) |
इस संदर्भ में ये भी
उल्लेखनीय है कि 2009 में जब मीडिया में डॉ. अंकित समेत कई “चोर गुरुओं” के बारे में ख़बरें
आ रही थी तब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय को न्यूज़ चैनल CNEB
ने कई कड़ियों में बनाए गए अपने कार्यक्रम ‘चोर गुरु’ की सीडी भेजी थी।
उस कार्यक्रम में कुलपति राय का भी बयान शामिल था जिसमें उन्होंने ये दावा किया था
कि यदि एक पैरा भी चोरी करने की शिकायत प्रमाण के साथ उन्हें मिली तो वे तत्काल डॉ
अंकित को हटाने का फैसला कर सकते हैं। कार्यक्रम में डॉ. अंकित द्वारा चोरी के कई
प्रमाण दिए गए थे और कुलपति राय के बयान में दावे के मद्देनज़र ही चैनल CNEB
ने सीडी भेजी थी। लेकिन सीडी के पहुंचने के बाद
विश्वविद्यालय द्वारा ये जानकारी दी गई कि उक्त भेजी गई सीडी में आवाज़ नहीं सुनाई
दे रही हैं!
इस पृष्ठभूमि में कुलपति राय द्वारा जल्दी
से जल्दी जांच पूरी कराने के इरादे को बखूबी समझा जा सकता है। दरअसल देश के कुछेक
विश्वविद्यालयों में एक ख़ास तरह की जांच प्रक्रिया और उसके परिणाम देखने को मिले
हैं और यह पूरी क़वायद उसी की नकल लगती है। देश के कुछ विश्वविद्यालयों में
कुलपतियों ने जांच के नाम पर अपने यहां दस्तावेज़ मंगवाए और जिनके ख़िलाफ़ जांच हो
रही थी उन्हें बेदाग़ घोषित करने का प्रमाण पत्र जारी कर दिया गया।
पहली बात कि विश्वविद्यालय प्रशासन अपने
यहां सबूतों को भेजने का निर्देश क्यों दे रहा हैं? खासतौर से तब, जबकि
विश्वविद्यालय प्रशासन का रवैया अब तक डॉ. अंकित को बचाने का रहा है। दूसरी बात कि
जांच की यह प्रक्रिया क्यों अपनायी गई कि दस्तावेज़ जांच समिति को भेजने के बजाय
विश्वविद्यालय प्रशासन को भेजे जाए? यह
भी बता देना ज़रूरी है कि जिस कुलसचिव के पते पर इन प्रमाणों को भेजा जाना है उनकी
अस्थायी नियुक्ति की गई थी और कुलपति की मेहरबानी पर वे अब तक बचे हुए हैं। साथ ही
डॉ. अंकित डीन के पद पर प्रोनन्ति पाकर विश्वविद्यालय में बेहद प्रभावशाली स्थिति
में पहुंच गए हैं।
अनिल अंकित के सह-लेखक दीपक केम, जिन्हें जामिया मिल्लिया से प्लैगमेरिज़्म के आरोप में बर्ख़ास्त किया गया |
उपरोक्त तथ्यों के अलावा एक महत्वपूर्ण
सवाल ये हैं कि पूर्व न्यायाधीश पी जी पल्सीकर को जांच समिति की ज़िम्मेदारी क्यों
सौंपी गई? क्या विश्वविद्यालय
उनकी पृष्ठभूमि से अवगत रहा है? आखिर
कोई भी संस्था किसी भी न्यायाधीश की नियुक्ति करता है तो उनके चुनने का क्या
पैमाना होता है? मुंबई हाईकोर्ट के
323 ऐसे पूर्व न्यायाधीश है जिनकी सूची हाईकोर्ट की वेबसाइट पर दी हुई है। उनमें
पी जी पल्सीकर का भी नाम है जो इस समय नागपुर में रहते हैं। लेकिन बेवसाइट पर वे
ऐसे कुछेक पूर्व न्यायाधीशों में हैं जिनके हाईकोर्ट में जज बनने और सेवा निवृत
होने की तारीख़ नहीं मिलती! इसका रहस्य क्या है और उन्हें जांच समिति का प्रमुख
चुने जाने से उसका क्या कोई रिश्ता है इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
न्यायाधीश पी जी पल्सीकर की नियुक्ति का
फ़ैसला तब लिया गया था जब दिल्ली में आरएसएस (RSS) के सहयोग से मोराईजी भाई देसाई की सरकार बनी थी। ये तथ्य उल्लेखनीय है कि
आरएसएस की चुनावी पार्टी जनसंघ का विलय जनता पार्टी में कर दिया गया था और मोरारजी
देसाई उसी जनता पार्टी के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री बने थे। लेकिन उस वक़्त
न्यायाधीश पी जी पल्सीकर की नियुक्ति की पुष्टि नहीं की जा सकी। कुछ ऐसा घटनाक्रम
रहा कि दिल्ली में मोरारजी देसाई की सरकार ही गिर गई थी। सो,
पल्सीकर ‘पुष्ट’ नहीं हो पाए। इसके
बाद से पी जी पल्सीकर को नागपुर में विश्व हिन्दू परिषद की गतिविधियों में बेहद
सक्रिय देखा गया।
6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद को ढाहे जाने की घटना के बाद
नागपुर में विश्व हिन्दू परिषद के समर्थन में एक प्रदर्शन निकाला गया था जिसमें पी
जी पल्षीकर प्रमुख रूप से उपस्थित थे और उनका नाम उस प्रदर्शन की अगुवाई करने
वालों में लिया जाता है। नागपुर में आमतौर पर उन्हें एक आदर्शवादी विश्व हिन्दू
परिषद के नेता के रूप में जाता है। दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष ये भी है कि उम्र के इस
पड़ाव पर वे शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं, इससे
उनके जानने वाले शक जता रहे हैं। यानी उनकी क्रियाशीलता पर भी सवालिया निशान है।
इस तरह की जांच समिति के बनने और उसके संभावित फैसलों से न्यायिक प्रक्रिया और
न्याय के सिद्धांत से लोगों का भरोसा उठता है।
विश्वविद्यालय से यह अनुरोध किया जाना
चाहिए कि विश्वविद्यालय जांच के लिए एक भरोसेमंद समिति का गठन करें और उसकी खुली
जांच होनी चाहिए। विश्वविद्यालय प्रशासन के नेतृत्व के प्रति अविश्सनीयता और संदेह
की गुंजाइश में किसी जांच समिति के गठन और उसके प्रमाण पत्र की उपयोगिता नहीं होनी
चाहिए।
2004 me BJMC and 2005-06 me MJ fir 2008-09 me raipur chhattishgarh K KUSHABHAU THAKTRE PATRAKARITA AVAM JANSANCHAR UNIVERSITY ME READER K POST ME KAISE APPOINT HUA,prIVATE ME BJMC & MJ K BAD 8 SAL KA EXPERIENCE UGC NORMS K BAD BHI HOD BANE,HINDI ME NET,PhD FIR JOURNALISM K HOD KESE,KUCH LOGO K PAS DOCCUMENT BHI HAI INTERVIEW ME NOT QUALIFIED LIKHNE K BAD BHI KTUJM RAIPUR ME POSTING KR DI GYEE,RTI ME ISKA KHULASA HUA THA,
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