अभिषेक रंजन सिंह
जरपा में “ नियमजात्रा” जैसा
कोई पर्व नहीं होने के बावजूद डोंगरिया कोंध आदिवासियों के लिए 19 अगस्त का दिन विशेष
अहमियत रखती थी। ओडिशा के रायगढ़ा जिला स्थित इसी गांव में आखिरी पल्ली सभा ( ग्राम
सभा) की बैठक संपन्न हुई। ब्रितानी कंपनी वेदांता को नियमगिरि की पहाड़ियों में बॉक्साइट
खनन की अनुमति नहीं मिले, इस बाबत गांव के योग्य मतदाताओं ने जिला एवं सत्र न्यायाधीश
एससी मिश्रा की मौजूदगी में मौखिक रूप और अंगूठे का निशान लगाकर अपनी इच्छा जाहिर कर
दी। इस तरह 18 जुलाई को रायगढ़ा और कालाहांडी जिले की सेरकापाड़ी, केसरपाड़ी, बातुड़ी,
लांबा, लाखपदर, खांबेसी, ताड़ीझोला, कुन्नाकारू, पालबेरी, फूलडूमेर और इजरूपा से शुरू
हुई पल्ली सभा 19 अगस्त को जरपा गांव में वेदांता की हार के साथ खत्म हो गई। इस जीत
से स्थानीय आदिवासियों का हौसला काफी बुलंद है और अब उन्हें यकीन हो गया है कि सूबे
की हुकूमत और उनके सरमायेदार अपना इरादा बदल लेंगी। वेदांता कंपनी के लिए नियमगिरि
की ऊंची श्रृंखलाएं और उस पर मीलों तक फैली हरियाली कोई खास मायने नहीं रखती, क्योंकि
उनकी आंखें सिर्फ बॉक्साइट के उस अपार भंडार को देख रही हैं, जो हजारों वर्षों से नियमगिरि
की कोख में दबी पड़ी है। वहीं दूसरी ओर सीधे-साधे, गरीब और प्रकृति प्रेमी डोंगरिया
कोंध आदिवासियों की नजरों में नियमगिरि की हरियाली और उसकी अप्रतिम सुंदरता सबसे बड़ी
दौलत है, जो उनके लिए शायद सोने और हीरे के भंडार से भी अधिक महंगी है।
गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने जब
18 अप्रैल को इन इलाकों में पल्ली सभाएं आयोजित करने का निर्देश ओडिशा सरकार को दिया
था, तब लोगों को यह शंका थी कि सरकार तमाम तरह के हथकंडे अपनाकर पल्ली सभाओं के प्रस्तावों
को प्रभावित कर सकती है। इस बात की तस्दीक हालांकि, उसी समय हो गई, जब कालाहांडी और
रायगढ़ा जिले में डोंगरिया कोंध आदिवासियों की कुल 112 गावों में से केवल 12 गांवों
का चयन पल्ली सभाओं की बैठकों के लिए किया। इतना ही नहीं, नियमगिरि की तराई में बसे
झरनिया कोंध और कुटिया कोंध आदिवासियों के 50 गांवों को भी पल्ली सभाओं से अलग रखा
गया। राज्य सरकार के इस फैसले से स्थानीय आदिवासी के बेहद नाखुश थे। नियमगिरि सुरक्षा
समिति के महामंत्री और समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय सचिव लिंगराज आजाद के मुताबिक,
पल्ली सभाओं के लिए सभी गांवों का चयन न करके राज्य सरकार ने शीर्ष अदालत के आदेश की
अवमानना की है। यह अलग बात है कि आदिवासियों ने तमाम साजिशों के बावजूद पल्ली सभाओं
में अपनी ताकत और एकजुटता दिखा दी।
वहीं इस संदर्भ में राज्य सरकार की
दलील है कि सभी 162 गांवों में पल्ली सभाओं की बैठकें कराना संभव नहीं था, क्योंकि
इसमें कई महीने लग सकते थे। इसके अलावा, यहां माओवादी भी काफी सक्रिय हैं, इसलिए
सुरक्षा के मद्देनजर भी चंद गांवों का चयन किया गया। हालांकि
लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि 150 गांवों को दरकिनार कर सरकार ने पल्ली सभा के
लिए अपने मनमाफिक गांवों को ही क्यों चुना ? नवीन पटनायक सरकार वेदांता कंपनी की राह आसान करने
में पहले भी काफी सुर्खियां बटोर चुके हैं। अलबत्ता, सरकार ने पल्ली सभाओं के लिए जिन
बारह गांवों को चिन्हित किया था, उनमें बारह-शून्य से शिकस्त खाने के बाद खुद ओडिशा
सरकार और वेदांता समूह के आला अधिकारियों के चेहरे के रंग फीके पड़ गए हैं। इसमें कोई
शक नहीं कि पल्ली सभाओं के प्रस्तावों के बाद ओडिशा खान निगम और वेदांता कंपनी के लिए
आने वाले दिन बेहद कठिन साबित होने वाले हैं, क्योंकि पल्ली सभाओं के प्रस्तावों को
शीघ्र ही राज्य सरकार की ओर से वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भेजा जाएगा। इसी के आलोक
में आगामी 19 अक्टूबर को उच्चतम न्यायालय अपना महत्वपूर्ण फैसला सुनाएगी।
नियमगिरि का मामला जब उच्चतम न्यायालय
पहुंचा, उसके बाद शीर्ष अदालत की सेंट्रल इंपावर्ड कमिटी ने यह पाया था कि वेदांता और उसकी सहायक कंपनी स्टरलाइट की बाक्सॉइट
परियोजना को मंजूरी देने में केंद्र सरकार ने जरूरत से ज्यादा जल्दबाजी दिखाई है। इस
कमिटी के अनुसार, खनन क्षेत्र की जमीन संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आती है। लिहाजा उच्चतम न्यायालय ने इस पर संज्ञान लेते हुए वर्ष 2007 में वेदांता कंपनी को नियमगिरि की पहाड़ियों में
खनन करने से रोक दिया। दो साल बाद यानी 2009 में ओडिशा सरकार ने केंद्र सरकार से वेदांता कंपनी
के लिए भूमि उपयोग में बदलाव करने अनुमति
समेत कई अन्य सहूलियतें मांगी थी। जयराम रमेश उन दिनों वन एवं पर्यावरण मंत्री थे। इस संबंध में
उन्होंने एनसी सक्सेना कमिटी का गठन किया। कमिटी ने यह महसूस किया कि वेदांता कंपनी
को लाभ पहुंचाने के लिए राज्य सरकार ने नियमों की जमकर धज्जियां उड़ाईं हैं। वेदांता
कंपनी ने अपने फायदे के लिए किस तरह वन संरक्षण अधिनियम, पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम और वन अधिकार कानून की अनदेखी की है, इसका भी जिक्र सक्सेना
कमिटी की रिपोर्ट में किया गया है।
इस रिपोर्ट के बाद वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2010 में वेदांता
कंपनी के खनन अधिकार का पट्टा निरस्त कर दिया गया। इससे तिलमिलाए ओडिशा खान निगम ने
उक्त फैसले के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में एक अर्जी दाखिल की। याचिका पर सुनवाई करते
हुए शीर्ष अदालत ने इसी साल 18 अप्रैल को निर्देश दिया कि बॉक्साइट के लिए नियमगिरि
की पहाड़ियों पर खनन होना चाहिए अथवा नहीं इसका फैसला स्थानीय आदिवासियों की पल्ली
सभाओं की बैठकों में पारित होने वाले प्रस्तावों के बाद होगा। याद रहे कि ओडिशा सरकार
ने साल 2004 में वेदांता की सहायक कंपनी स्टरलाइट
इंडस्ट्रीज इंडिया के साथ एक करार पर दस्तखत किया था। करार के मुताबिक, वेदांता
और ओडिशा खान निगम को नियमगिरि की पहाड़ियों पर बॉक्साइट खनन का संयुक्त अधिकार
मिला। इस समझौते में पर्यावरणीय और मानवाधिकार के मुद्दों की घोर उपेक्षा की गई। समझौते
के तहत वेदांता कंपनी को नियमगिरि की पहाड़ियों में पंद्रह लाख टन बॉक्साइट खनन की
अनुमति दी गई थी। वेदांता कंपनी नियमगिरि की खनन परियोजना के जरिए लांजीगढ़ में बने
अपने रिफाइनरी और झारसुगुडा की निर्माणाधीन एल्युमिनियम स्मेल्टर के लिए बॉक्साइट हासिल
करना चाहती है। कंपनी इन दोनों परियोजनाओं के लिए फिलहाल चालीस हजार करोड़ रुपये का
भारी-भरकम निवेश कर चुकी है।
नियमगिरि की पहाड़ियों और तराई में
बसे हजारों आदिवासियों की कीमत पर सरकार प्रदेश का भला चाहती है। जिस आर्थिक नीति को
सरकार विकास का आधार मानती है, दरअसल यह तथाकथित विकास डोंगरिया कोंध जैसे आदिवासियों
के वजूद और उनकी खुदमुख्तारी के लिए खतरा है। यह समुदाय प्रकृति की गोद में पैदा हुआ
है। पहाड़, नदियां और जंगलों से उनका गहरा और अनुशासित रिश्ता है और इसके बगैर वे एक
पल भी जिंदा नहीं रह पाएंगे।
बात अगर ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन
पटनायक की करें, तो उन्होंने अपने कार्यकाल में निजी-बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ
दर्जनों एमओयू पर दस्तखत किए हैं। हालांकि, उनमें अधिकांश परियोजनाओं का विरोध किसी
न किसी स्तर पर हो रहा है। सत्तारूढ़ बीजेडी सरकार की नीतियों से प्रदेश की जनता किस
कदर नाराज है, यह राजधानी भुवनेश्वर की सड़कों, विधानसभा और राजभवन के बाहर होने वाले
धरना-प्रदर्शनों को देखकर भली प्रकार समझा जा सकता है। नियमगिरि के मामले पर नवीन सरकार
ने वेदांता कंपनी के लिए जो दरियादिली दिखाई है, उसे लेकर भी उनकी चौतरफा आलोचनाएं
हो रही है। ऐसे में उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद उनकी भूमिका भी सवालों के
घेरे में आ गई है। बहरहाल, पल्ली सभाओं के प्रस्तावों के बाद अब सबकी निगाहें उच्चतम
न्यायालय के फैसले पर टिकी हैं। हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने नियमगिरि के मामले पर
जैसी भूमिका निभाई है, उसे देखकर यह जरूर कहा जा सकता है कि शीर्ष अदालत की ओर से आने
वाला निर्णय ऐतिहासिक होगा। साथ ही देश में जल, जंगल और जमीन को बचाने की खातिर चल
रहे तमाम जनांदोलनों के लिए भी यह काफी महत्वपूर्ण साबित होगा। वैसे नियमगिरि देश का
पहला जनांदोलन है, जहां कानूनी हस्तक्षेप सकारात्मक भूमिका निभा रही है।
लेखक संपर्क- arsinghiimc@gmail.com
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