पुरानी
कई तारीखें बीत चुकी हैं पंद्रह अगस्त की. वायदे फब्तियों की तरह लगने लगे हैं और सवाल
हैं कि उन्हें जुबां पर लाना बवाल सा हो गया है. व्यवस्थाएं बरसात का कीचड़ हो चुकी
हैं जहां चलते हुए कीचड़ हमारे ऊपर उछल कर हमारी देह को और गंदा करता जा रहा है. अपने
कत्ल और गुनाहों को वे आज़ादी की तारीखों में फेन लगाकर धोना चाहते हैं. अनिल पुष्करकवीन्द्र की सात कविताएं जिन्हें इन्हीं तारीखों में प्रकाशित किया जा रहा है. समय
के कुछ संदर्भों को टटोलती हुई.
कानूनी कड़ाहे उबल रहे
है
ये
असल किरदार हैं
न
भूत हैं, न पिशाच
नृसंश
हत्याओं में लिप्त
राजा,
मंत्री, सेनापति
संविधान-देश-कानून-नीति
विशेषज्ञों के
गड़ासे
पर रेत रहे हैं –
नई
सभ्यता का सूर्योदय
तुम
कहते हो- देश बेच रहे हैं.
ये
जननायक हैं
गौर
से देखो,
ठीक
से अपनी आँखें साफ़ करो
देखो,
जल्लादों की दुकानें सज रही है
लोकतंत्र
की शहनाई बज रही है
किरानों
के बनिए संसद की बैठकों में हैं
जनतांत्रिक-पसलियों
का स्वाद आँक रहे हैं
(एक
कटाक्ष के साथ)
मेहनतकशों
का श्रम, आपस में बाँट रहे हैं
तुम
कहते हो- राष्ट्रीयताओं की तस्करी चल रही है
इनकी
बेकरियों में कई गैलन
खून
की थैलियाँ हैं
तमाम
गुना बढ़ी कीमतों वाली मँहगी
रैलियाँ
हैं
जो
तुम्हारे विरोध की आग को तौल सकते हैं
इनकी
वंश-बेलें राजपथ की ओर रवाना
सलामी
का हुक्म सुनाती है
और
विद्रोह की जुबानें हर रात
कत्ल
की जाती हैं
क्या
वाहियात सपना है
तुम
कहते हो – हमारी वल्दियत पर
लुटेरों
का कारोबार खड़ा है
मैं
पूछता हूँ –
तुम्हारे
भीतर का भ्रूण अभी कितना बड़ा है ?
उसे
उदारीकरण के शोख बाज़ार में उतरने दो
ग्रीनलैंड
की घास चरने दो
तुम्हारे
क्रोध का ज्वार उतरते-उतरते,
उतर
जाएगा
क्रान्ति
का वहम कतई मत पालो.
तुम
कहते हो – सुअरबाड़े में धाँसा जा रहा है
बूचडखाने
के पाबगिल में साना जा रहा है
हँसो,
इस पथरीले ख्याल पर जिसे
रेत-रेतकर
जननायकों को सुडौल आकार में
ढाला
जा रहा है
तुम्हें
यकीन है!
तुम्हारी
चर्बी उतारी जा रही है !
स्वतंत्रता
पर बेडियाँ डाली जा रही हैं !
भूख
पर बुलडोजर चल रहे हैं !
और
खिलाफत पर कानूनी कडाहे उबल रहे हैं !
अपनी
ज़बानें खोलो!
आईने
के ठीक सामने अपना टेंटुआ देखो
देखो,
ख्याल रहे
हथेलियों
को खुला मत छोडना
हाँ,
ठीक है –
ये
किसके बाजू तुम्हारा कंठ दबा रहे हैं?
तुम
कहते हो
ये
राजतन्त्र का हमला है
इन
भोडी शक्लों को पहचानो
अपनी
पीठ पर सवार बुनियाद लादे
देखो,
देखो –
तुम्हारे
परिचितों के धड़ लटके हुए हैं
मैं
जानता हूँ
इन
वाहियात सपनों को
और
देख लिया है सच का असली चेहरा
लोकनायक
पीढ़ियों को गुलाम बना रहे हैं.
काटकर
फेंक सकते हो ? मैं पूछता हूँ
तुम
कुछ कहते क्यों नहीं.
इस
बार
रथ
का पहिया टूटा मगर
राजधानी
में कोई हलचल
कोई
अपशगुन हुआ!
क्यों,
बोलोगे नहीं ?
बताओ
मुझे.
आदाब,
दुआ, जयहिंद, सलाम.
तीनों बगावत पर राजी
कुछ
मासूमों पर गोलियाँ चलीं
जिम्मेदार
सरकार ने
माफी
माँगते हुए कहा – “यदि”
ये
वो बंदूकें हैं
जो
आदिवासियों पर तनी हैं
ये
वो बंदूकें हैं
जिनकी
रीढ़ सरकारी-सलामी में झुकी है
ये
वो बंदूकें हैं
जो
खदान-मालिकों ने कारखाने में उगाई है
ये
वो बंदूकें हैं जो जनता की रोटी छीन लाई है.
तो
यकीन मानो
इन
बंदूकों के पास हथियारबंध दस्ते हैं, आतंक है
इन
हथियारों के पास खेत हैं, अन्न है, बाग-बगीचे,
नहर-तालाब,
सड़कें, ठेके, यानी गाँव के गाँव हैं
किन्तु
जन जातियां पूछती हैं-
इनके
भीतर जो बारूद भरा है
वो
सरकारी है.
इन्हें
जंगल, नदी, पहाड़, पर
चलाने
का अधिकार सरकारी है
ये
बंदूकें हर आगामी हुकूमत के आदेश पर
पिछड़ी
जनता पर चलती है
सरकारी
आदेश पर अपना निशाना बदलती है
ये
बंदूकें निरपराधों की हत्या-व्यापार चलाती हैं
इनकी
नीयत भी अजब गजब ढाती है
जो
इनको ढाले, उससे बदला लेती हैं
जो
दागे उसकी रक्षा में दहाड़ती होती है
वे
रोटी बेटी और माटी
जबरन
हथियाए तने हुए हैं
कि
ये सब उनकी जायदाद है
जिसे
उनके पुरखे छोड़ गए थे
किन्तु
अब
तीनों
बगावत पर राज़ी हैं आमादा हैं
सारा
मसला मुक्ति और मालिकाने का है.
धू-ध्हू-धू-
सरकारी फरमान जल रहे
कैसी
बाधा है ?
राष्ट्रीय खबरें
पहले
राष्ट्रीय
खबरे आईं
देश
आया, राष्ट्र आया, युद्ध आये,
सम्मान
आये
फिर
राष्ट्रीय खबरों को चाँद पर लाये
देश
राष्ट्रहित की चिमनी पर सुलग रहा था
न
भूख आई
न
गरीबी
मसलन
समूचा राष्ट्र
महामारी
की आग में झुलस रहा था
फिर
राष्ट्रीय
खबरों में
परमाणु
आये, सुरक्षा हथियार आये
और
रोटी –
रईसों
की कोठी में पड़ी थी
पसीने
और पगार की कोठरियां
सूखी
पड़ी थीं.
फिर
राष्ट्रीय
खबरों में उदारीकरण के घोड़े आये
निजाम
की संपत्ति-इजाफे में होड़ लगाए
मेहनतकश
के हाथ कटे पड़े थे
पेट
पीठ से सटे पड़े थे
दरिद्रता
की मारी आबादी बेचारी
संविधान
की मार खाती रही
और
अपनी हड्डियां चबाती
आजाद-हिंद
का स्तुति-गान गाती रही
राष्ट्रीय
खबरों में कभी
आबादी
के जिन्दा दहक उठने की बात
सामने
नहीं आई.
दंगों
के पीछे – शोले भडकाने वालों का क्या हुआ ?
जबकि
विकास के खूंखार रास्ते पे चलने के वास्ते
जनजातियों
को दावानल चबा गए
देशसेवक
मुनाफे की सौदेबाजी में
मुद्दे
की बात दबा गए
क्या
तुम बता पाओगे –
ये
राष्ट्रगीत किसका है ?
इसमें
राष्ट्रहित किसका है ?
ये
राष्ट्रीय-खबरों में कौन है
जो
सब-कुछ जानकर भी गूंगा है
मौन
है
देखो!
आज
ध्वजारोहण
राष्ट्रीय खबरों में छाया है
आज़ादी
की कोख देखो
गर्भपात
का असह्य दर्द उभर आया है
किन्तु
! मैं पूछता हूँ
सुरक्षा
प्रहरियों के कैमरे में कौन है ?
महामहिम!
तिरंगे
पर लगे खून के पीछे
बूटों
और बंदूकों के साथ सलामी देने में व्यस्त हैं
जनता
त्रस्त है, अभ्यस्त है
यहीं
से
राष्ट्रीय
खबरों की पटरी मुख्यधारा से जुड़ गयी है
राष्ट्रहित
की शूली पर
सूत्रधारों
की साँस उखड गयी है
राष्ट्रीय
खबरों से
ये
मंजर अभी अछूता है
क्योंकि
माननीय अध्यक्ष के पाँव में
लोकतंत्र
का जूता है.
मशहूर नायक का आगमन
अगर
लंगोटी बाँधे एक बैल
सत्याग्रह
का वालिद हो सकता है
तो
अवश्य खूंटा लाठी का मालिक हो सकता है
यह
आन्दोलन
का प्रथम चरण है
चाहे
तो
इस
प्रवचन को ग्रहण करो
चाहे
आमरण अनशन करो
एक
जोडी खडाऊं
बारूदी
तोपों के सामने खड़ी है
यह
‘मेरे सपनों का भारत’ की महान घडी है
सामने
आज़ाद-हिंद का नक्शा बन रहा है
इसमें
हरिजन लोहार, चमार भंगी पासी
मुसलमान
आदिवासी गूदेदार रसीली मौसमी-आबादी है
यहाँ
विधाता का मतलब
लुहार
नहीं, लोहे का मालिक है
मुक्तिदाता
यहाँ कतई ईश्वर नहीं सरकार है
सुनो!
भिक्षुकों –
सूदखोरों
की जमात का सत्संग लूटमार है
तुम्हारी
परवरिश के पीछे गद्दारों की बस्ती है
जनता
ये सुनती है
जोर-जोर
से हँसती है
तबाही
अपनी परिधि में जरा-जरा खिसकती है
जरा-जरा
खिसकती है
और
एक
दानव का जबड़ा खुलता है
वो
महामानव की अंतड़ियों में समा गया
जब
नई नस्ल का अँखुआ फूटा
स्वराज
की उदर-पूर्ति खातिर
उदारीकरण
का बीजारोपण हुआ
इस
तरह
तुम्हें
विस्थापित बनाने वाले
तुम्हें
शरणार्थी शिविरों में बंधक बनाने वाले
खेतों
में बंदूकें, बारूद उपजाने वाले
मशहूर
नायक का आगमन हुआ.
और
राष्ट्रगान का आरम्भ हुआ.
इस सदी की सबसे मार्मिक
भाषा गढ़ने से पहले
हमारी
वर्णमाला
के तमाम ज़िंदा शब्द अपना-अपना लिबास ओढ़े
राजधानी
में बस चुके हैं
‘र’
कहता है – सारे लकडहारे मारे जायेंगे
और
‘अ’ कहता है – सारा लोहा उन लोगों का
‘प’
कहता नहीं कुछ भी, गाता है गुनगुनाता है
और
सबसे खतरनाक सपनों से होकर गुजर जाता है
हम
इस
सदी की सबसे मार्मिक भाषा गढ़ने के पहले
जिस
वर्णमाला की पगडंडी से गुजर रहे हैं
वहाँ
श्रम की हत्या के सिवाय और
शासकों
की बर्बरता के अलावा
कुछ
भी अब अगर सीखने को नहीं मिलता
तो
हमें
इस
वर्ण से निकलने वाले शब्दों की बैलगाडी के
दोनों
पहिये बदल देने चाहिए
ताकि
श्रमिक को उसका हक मिले
और
शासकों को उनके किए का दण्ड.
भूख की भाषा पढ़ने से
पहले
एक
आदमी
एक
सौ तीन डिग्री तापमान पर उबल रहा है
भूख
का ज्वार मापक-यंत्र से बाहर निकल चुका है
उसकी
आँखों में किरकिराती है निष्पक्ष न्यायिक जाँच
और
भिंची मुट्ठियों में दागने की कला चमकती है
धमनियों
में तेजधार हंसिया इरादों में एक मजबूत हथौड़ा है
जिसे
वो पेटभर अन्न पाते ही पूरी ताकत से चलाएगा
व्यवस्था
के पहियों पर जिसमें तीन रंगों वाला पर्दा टंगा है
और
एक चरखा बर्षों से एक ही तकली बुन रहा है
यह
लोकतांत्रिक-मंच का सबसे बेहतरीन दृश्य है
जहाँ
फुटपाथ पर भूखे भीख माँग रहे हैं
वहीं
संविधान के बारामदे में समानता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध
अधिकार
संसदीय-अश्वशाला की नांद में पड़े हैं
और
धर्म, संस्कृति, संवैधानिक उपचारों का मजमा लगा है
वह
आदमी ज्वर की जलन से बौखलाया है
और
उससे भी ज्यादा भूख की जहरीली चुभन से
मगर
भूख की भाषा पढ़ने से पहले ही मूल कर्तव्य आकर धमकाते हैं
कि
राज्य और राष्ट्र के खिलाफ़ हथियार उठाना अपराध है
भूख
पर विचार करना राष्ट्रीय दर्शन है
भूख
पर विचारों का धारदार औजार उठाना जुर्म है
राष्ट्र-ध्वज,
राष्ट्र-गान का अपमान राष्ट्रद्रोह है
सार्वजनिक
संपत्ति की रक्षा में राजकीय सुरक्षा के खिलाफ़ जाना विद्रोह है
भूख
का आवेदन करना, भूख का दयार भरना न्यायसंगत नहीं
राष्ट्रहित
में भूख का बलिदान करना शहादत और अभिमान है
जल,
जंगल, जमीन राष्ट्र की निजी और सार्वजनिक संपत्ति है
इन
संसाधनों पर निर्धनों आदिवासियों का कब्जा राष्ट्रीय अपमान है
भूखा
आदमी अधिकारों की रक्षा करते-करते
मूल
कर्तव्यों का पालन करते-करते
हर
रोज गली, चुराहे, नुक्कड़, फुटपाथ पर सरेआम मरता है
क्या
राष्ट्र उसकी मौत को सलाम करता है ?
भूख
और गरीबी की फ़िक्र करता है?
कोबरा बटालियन
वे
मारे जा चुके हैं
उन्हें
कुल्हाड़ी से काटा गया
वे
मारे जा रहे हैं
जो
रात खाने पर बैठे
वे
भी मारे गए जिन्हें
मध्यस्तता
के बहाने बुलाया गया
वे
मारे जा रहे हैं
जो
जंगलों में बसे हैं
वे
भी मारे गए जिनकी गर्दन पर
खूनी
बारूद का कहर बरपा
वे
भी मरे
जिन्हें
जिन्दा आग में झोंका गया
वे
भी मारी गयीं
जिन्हें
असहनीय वर्जनाएं सहनी पड़ीं
साथ
ही वे भी मरे
जो
उन्हें बचाने गए
वे
भी मारे गए
जो
पूजास्थली में आराध्यों को पूजने गए
किस-किस
तरह,
इस-इस
तरह, उस-उस तरह
जैसे
भी संभव है
ईश्वर,
न्यायपालिका, सुरक्षा-परिषद और सरकारें
इन्साफ
की फरियाद पर हिंसक कार्रवाई में शरीक
न्याय
के फैसले पर हत्याएँ कर रही हैं.
लोकतांत्रिक
अधिकारों की मांग पर
असाध्य
अपराधों का लावा भर रही हैं.
क्या
उचित है ?
इन्साफ
की फरियाद पर जघन्य हत्याएं करना
न्याय
की खातिर कोबरा का जहर उगलना.
कितना
दुखद है यहाँ
मरने
वालों की लाश पर नाम नहीं होते
गिनतियों
में गणनाएं थीं.
और
पोस्टमार्टम में हर बार पाया गया
राष्ट्रद्रोह.
कहाँ
हैं जन-अदालतें?
कहाँ
हैं जननायक ?
कहाँ
हैं जन-सेनाएं ?
अब
तक कोई फैसला
जन-गण-मन
अधिनायक के मुखिया,
मुखबिर
और हत्यारों के खिलाफ़ नहीं आया.
(२००६
में दंतेवाड़ा के पोंजेर में छह आदिवासियों को पुलिस ने कुल्हाड़ी से काट दिया था
. आज तक कोई फ़ैसला नहीं आया . कोई कार्यवाही नहीं की गयी . २००७ दंतेवाड़ा के बालूद
में खाना खाते हुए तीन आदिवासी मजदूरों को घेर कर भून दिया गया कोई कार्यवाही नहीं
कोई फ़ैसला नहीं २००८ दंतेवाड़ा के चेरपाल में ढाई साल के बच्चे और २० साल की लड़की
को मीटिंग के लिये बुला कर सी आर पी एफ ने गोली से उड़ा दिया कोई फ़ैसला नहीं. २००९
दंतेवाड़ा के सिंगारम में कोबरा बटालियन ने १९ आदिवासियों को मार डाला है कोर्ट में
मामला चल रहा है कोई फ़ैसला नहीं २००९ दंतेवाड़ा के गोम्पाड गाँव में १६ आदिवासियों
को कोबरा बटालियन ने तलवारों से काट डाला मामला तीन साल से सुप्रीम कोर्ट में है कोई
फ़ैसला नहीं . २०११ में पुलिस ने दंतेवाड़ा में तीन गाँव को जला दिया पांच महिलाओं
से बलात्कार तीन गाँव वालों की हत्या की गयी . कोई फ़ैसला नहीं , कोई कार्यवाही नहीं
२०१२
बीजापुर के सारकेगुडा में पूजा करते १७ आदिवासियों को सी आर पी एफ ने मार डाला पांच
महीने बीत गये . कोई न्याय नहीं कोई कार्यवाही नहीं )
अनिल
पुष्कर कवीन्द्र 'अरगला' पत्रिका के संपादक हैं. उनसे kaveendra@argalaa.org पर संपर्क
किया जा सकता है.
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