रेयाज-उल-हक़
वरवर के हंस के आयोजन में जाने से इन्कार करने को अब विरोधी पक्ष की बात सुनने से इन्कार के रूप में प्रचारित किया जाने लगा है. क्या सचमुच मामला विरोधी पक्ष की बात नहीं सुनने का है? या मामला फासीवादी और सत्तापरस्त आवाजों को राजनीतिक स्पेस और औचित्य मुहैया कराने का है, जिसके बारे में वरवर राव ने अपने पत्र में इशारा किया है? आखिर किन ताकतों के पक्ष में, इस पूरे मामले के मूल सवाल को छोड़ कर अमूर्त रूप से ‘संवाद’, ‘लोकतंत्र’ और जाने किन किन बातों का जिक्र उठाया जा रहा है? जो लोग अब तक सत्ता के मुकाबले किसी बात पर तन कर नहीं खड़े हो पाए और सत्ता और ताकत की गलियों में अपनी मौकापरस्त गरदन झुकाए आवाजाही करते दिखते हैं, वे आज सत्ता को उसके ‘मुंह पर जवाब’ देने के गंवा दिए गए मौके पर अफसोस जाहिर करने निकल पड़े हैं.
सबसे पहली बात तो यह है कि न तो गोविंदाचार्य ने और न ही अशोक वाजपेयी ने वरवर (या अरुंधति) को संवाद के लिए बुलाया था. उन्हें हंस ने बुलाया था और बाकी वक्ताओं के बारे में वरवर को बताया तक नहीं गया था. यह किस तरह का संवाद है? क्या इस तरह के संवाद को लोकतांत्रिक कहा जा सकता है? यह धोखा और बेईमानी है और इसे संवाद और लोकतंत्र का नाम देना इसको बर्दाश्त किए जाने लायक बनाना है.
दूसरी बात, क्या गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी सिर्फ विरोधी पक्ष हैं? वरवर उस राजनीतिक-सांस्कृतिक संघर्ष की विरासत से आते हैं, जो उन विचारों और नजरिए को अपना विरोधी ही नहीं, शत्रु भी मानता रहा, जिसका प्रतिनिधित्व गोविंदाचार्य और काफी हद तक अशोक वाजपेयी करते हैं. यह सही है. लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं है. वे सत्ता के प्रतिनिधि भी हैं. सत्ता से उनका जुड़ाव बहुत साफ है. संस्कृतिकर्मी, लेखक, विचारक के रूप में उनके द्वारा सत्ता के प्रतिक्रियावादी विचारों को जनता के बीच ले जाने, उसे जनता के बीच स्वीकार्य और व्यापक बनाने के इतिहास से भी हम अपरिचित नहीं हैं. साम्राज्यवाद और सामंतवाद-ब्राह्मणवाद जनता के खिलाफ जो फौजी-सांस्कृतिक-वैचारिक-सैद्धांतिक हमले करते आए हैं, उनमें गोविंदाचार्य तो बहुत सीधे ही भागीदार रहे हैं और अशोक वाजपेयी भी कमोबेश इस हमले के हिमायती रहे हैं (विश्वरंजन, सलवा जुडूम और दूसरे अनेक मामलों पर उनके विचार देखिए). यह महज एक निरीह, निर्दोष और मासूम सा ‘विरोधी पक्ष’ नहीं था, जिसकी बात ‘सुनने’ और उसका जवाब देने के लिए वरवर को बुलाया गया था. यह हमलावर, अपराधी, प्रतिक्रियावादी, जनसंहारक और दमनकारी सत्ता के दो अलग-अलग प्रतिनिधियों के साथ मिल कर सुनने वालों को संबोधित करना था, जिससे किसी भी जनवादी, संघर्षशील, क्रांतिकारी और जनता को प्यार करने वाले लेखक, संस्कृतिककर्मी को कबूल नहीं करना चाहिए. ‘विरोधी पक्ष के मुंह पर विरोध जताने’ और उसके साथ एक मंच पर बैठ कर जनता या श्रोताओं को संबोधित करने में बहुत फर्क है और लगातार इस फर्क को धुंधला किया जा रहा है. यह बताने की जरूरत नहीं है कि वरवर बात को पीठ पीछे कहने और चुप रह जाने वाले, भाग जाने वाले और ‘पस्त हिम्मत’ लोगों में नहीं हैं (जैसा कि मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा है). उनकी जेल यात्राएं और उन पर तथा उनके साथियों पर हुए जानलेवा हमले इसके गवाह हैं. वे ‘संवाद’ और ‘लोकतंत्र’ की किन्हीं निर्जीव और निराधार अवधारणाओं में यकीन नहीं करते. वे संवाद और लोकतंत्र को जनता के जुझारू संघर्षों की जमीन पर रख कर देखते हैं और इसीलिए वे इस हकीकत को समझते हैं कि उत्पीड़ित जनता और दमनकारी सत्ता के बीच संवाद नहीं होता (और जब यह संवाद होता भी है तो जनता इसमें अपनी शर्तों के साथ शामिल होती है. इसे कुश्ती के अखाड़े की तरह आयोजित नहीं किया जा सकता और न ही जनता या उसके लेखकों को भुलावा देकर, चारा दिखा कर धोखे से अखाड़े में बुला कर ‘मुकाबले’ के लिए मजबूर किया जा सकता है). जैसा कि कुछ लोग भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहे हैं, हंस का आयोजन दोतरफा बातचीत या गोलमेज सम्मेलन नहीं था, यह एक आम सभा थी, जिसमें वक्ताओं को अपनी बात रखनी थी. लेकिन इस संदर्भ में संवाद और लोकतंत्र का जिक्र इस तरह किया जा रहा है, मानो वरवर ने (या अरुंधति ने) बातचीत के किसी प्रस्ताव को नकार दिया हो (हालांकि हालात के मुताबिक ऐसे प्रस्ताव भी नकारे जाते हैं और उनका नकारा जाना जरूरी होता है).
माफ कीजिएगा दोस्तो, जो लोग 2010 में भी और इस बार भी ‘दंगल’ देखने के लिए उत्साहित थे, वे भूल गए थे कि वरवर और अरुंधति जैसे लेखक उन रीढ़विहीन लेखकों की जमात से नहीं आते, जिनको नचा नचा कर आप अपना रसरंजन करते रहें. आपका रसरंजन दूसरी बहुत सारी बातों से रोज ही होता रहता है और बेहतर है आप वही करते रहें.
तीसरी बात. मुद्दा था अभिव्यक्ति और प्रतिबंध का. उसमें दो ऐसे लेखकों को बुलाया गया (कम से कम निमंत्रण में उनका नाम था), जिनको लिखने के लिए और अपनी राजनीतिक सक्रियता के लिए जेल जाना पड़ा है. बाकी के दो ऐसे लोग थे, जिनमें से एक फासीवादी संगठन के प्रचारक, सिद्धांतकार और कार्यकर्ता हैं और दूसरे हाल ही में अपने प्रशंसक बने एक कहानीकार के भूतपूर्व शब्दों में ‘सत्ता के दलाल’ हैं. मोटे तौर पर वे शासक वर्ग के हिमायती और प्रतिनिधि थे. सवाल है कि क्या शासक वर्ग की अभिव्यक्ति को किसी तरह का संकट है? क्या शासक वर्ग की अभिव्यक्ति पर किसी तरह की पाबंदी लगी है? और अगर हो भी तो क्या हम शासक वर्ग और सत्ता की अभिव्यक्ति की फिक्र करेंगे, जिसका अभिव्यक्ति के तमाम साधनों पर लगभग एकाधिकार, नियंत्रण और निगरानी है? अगर नहीं तो उन्हें क्यों बुलाया गया? फिर क्या मकसद यह था कि वे शासक वर्ग की तरफ से इस बात की सफाई दें या इसका औचित्य बताएं कि जनता के पक्ष में उठने वाली अभिव्यक्तियों पर प्रतिबंध क्यों लगाया जा रहा है? अगर ऐसा था तो क्या यह पहले से ऐसी कोई घोषणा हुई थी या हंस की तरफ इस तरह की कोई बात इनमें से किसी भी वक्ता और श्रोताओं को बताई गई थी? क्या यह सचमुच न्यूज चैनल के किसी टॉक शो जैसा आयोजन था? अब तक हंस के आयोजनों के इतिहास के आधार पर ऐसा कोई दावा नहीं किया जा सकता और न ही हंस ने बताया था कि इस बार फॉर्मेट कुछ अलग होगा. हो भी नहीं सकता. आम सभाओं या व्याख्यानों में स्रोताओं के एक समूह को संबोधित किया जा रहा होता है, और कोई भी ईमानदार, प्रतिबद्ध और क्रांतिकारी लेखक या वक्ता इसे कबूल नहीं कर सकता कि वह फासीवादी और प्रतिक्रियावादी विचारों के प्रसार के लिए स्पेस देने वाले आयोजन का हिस्सा बने.
अगर यह मौका खो देना था, अगर यह बेईमानी और धूर्तता थी, अगर यह पलायन था, तो समस्या इन शब्दों के साथ नहीं है, आपके दिमाग में इन शब्दों के साथ जुड़ी धारणाओं के साथ है.
वरवर के हंस के आयोजन में जाने से इन्कार करने को अब विरोधी पक्ष की बात सुनने से इन्कार के रूप में प्रचारित किया जाने लगा है. क्या सचमुच मामला विरोधी पक्ष की बात नहीं सुनने का है? या मामला फासीवादी और सत्तापरस्त आवाजों को राजनीतिक स्पेस और औचित्य मुहैया कराने का है, जिसके बारे में वरवर राव ने अपने पत्र में इशारा किया है? आखिर किन ताकतों के पक्ष में, इस पूरे मामले के मूल सवाल को छोड़ कर अमूर्त रूप से ‘संवाद’, ‘लोकतंत्र’ और जाने किन किन बातों का जिक्र उठाया जा रहा है? जो लोग अब तक सत्ता के मुकाबले किसी बात पर तन कर नहीं खड़े हो पाए और सत्ता और ताकत की गलियों में अपनी मौकापरस्त गरदन झुकाए आवाजाही करते दिखते हैं, वे आज सत्ता को उसके ‘मुंह पर जवाब’ देने के गंवा दिए गए मौके पर अफसोस जाहिर करने निकल पड़े हैं.
सबसे पहली बात तो यह है कि न तो गोविंदाचार्य ने और न ही अशोक वाजपेयी ने वरवर (या अरुंधति) को संवाद के लिए बुलाया था. उन्हें हंस ने बुलाया था और बाकी वक्ताओं के बारे में वरवर को बताया तक नहीं गया था. यह किस तरह का संवाद है? क्या इस तरह के संवाद को लोकतांत्रिक कहा जा सकता है? यह धोखा और बेईमानी है और इसे संवाद और लोकतंत्र का नाम देना इसको बर्दाश्त किए जाने लायक बनाना है.
दूसरी बात, क्या गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी सिर्फ विरोधी पक्ष हैं? वरवर उस राजनीतिक-सांस्कृतिक संघर्ष की विरासत से आते हैं, जो उन विचारों और नजरिए को अपना विरोधी ही नहीं, शत्रु भी मानता रहा, जिसका प्रतिनिधित्व गोविंदाचार्य और काफी हद तक अशोक वाजपेयी करते हैं. यह सही है. लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं है. वे सत्ता के प्रतिनिधि भी हैं. सत्ता से उनका जुड़ाव बहुत साफ है. संस्कृतिकर्मी, लेखक, विचारक के रूप में उनके द्वारा सत्ता के प्रतिक्रियावादी विचारों को जनता के बीच ले जाने, उसे जनता के बीच स्वीकार्य और व्यापक बनाने के इतिहास से भी हम अपरिचित नहीं हैं. साम्राज्यवाद और सामंतवाद-ब्राह्मणवाद जनता के खिलाफ जो फौजी-सांस्कृतिक-वैचारिक-सैद्धांतिक हमले करते आए हैं, उनमें गोविंदाचार्य तो बहुत सीधे ही भागीदार रहे हैं और अशोक वाजपेयी भी कमोबेश इस हमले के हिमायती रहे हैं (विश्वरंजन, सलवा जुडूम और दूसरे अनेक मामलों पर उनके विचार देखिए). यह महज एक निरीह, निर्दोष और मासूम सा ‘विरोधी पक्ष’ नहीं था, जिसकी बात ‘सुनने’ और उसका जवाब देने के लिए वरवर को बुलाया गया था. यह हमलावर, अपराधी, प्रतिक्रियावादी, जनसंहारक और दमनकारी सत्ता के दो अलग-अलग प्रतिनिधियों के साथ मिल कर सुनने वालों को संबोधित करना था, जिससे किसी भी जनवादी, संघर्षशील, क्रांतिकारी और जनता को प्यार करने वाले लेखक, संस्कृतिककर्मी को कबूल नहीं करना चाहिए. ‘विरोधी पक्ष के मुंह पर विरोध जताने’ और उसके साथ एक मंच पर बैठ कर जनता या श्रोताओं को संबोधित करने में बहुत फर्क है और लगातार इस फर्क को धुंधला किया जा रहा है. यह बताने की जरूरत नहीं है कि वरवर बात को पीठ पीछे कहने और चुप रह जाने वाले, भाग जाने वाले और ‘पस्त हिम्मत’ लोगों में नहीं हैं (जैसा कि मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा है). उनकी जेल यात्राएं और उन पर तथा उनके साथियों पर हुए जानलेवा हमले इसके गवाह हैं. वे ‘संवाद’ और ‘लोकतंत्र’ की किन्हीं निर्जीव और निराधार अवधारणाओं में यकीन नहीं करते. वे संवाद और लोकतंत्र को जनता के जुझारू संघर्षों की जमीन पर रख कर देखते हैं और इसीलिए वे इस हकीकत को समझते हैं कि उत्पीड़ित जनता और दमनकारी सत्ता के बीच संवाद नहीं होता (और जब यह संवाद होता भी है तो जनता इसमें अपनी शर्तों के साथ शामिल होती है. इसे कुश्ती के अखाड़े की तरह आयोजित नहीं किया जा सकता और न ही जनता या उसके लेखकों को भुलावा देकर, चारा दिखा कर धोखे से अखाड़े में बुला कर ‘मुकाबले’ के लिए मजबूर किया जा सकता है). जैसा कि कुछ लोग भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहे हैं, हंस का आयोजन दोतरफा बातचीत या गोलमेज सम्मेलन नहीं था, यह एक आम सभा थी, जिसमें वक्ताओं को अपनी बात रखनी थी. लेकिन इस संदर्भ में संवाद और लोकतंत्र का जिक्र इस तरह किया जा रहा है, मानो वरवर ने (या अरुंधति ने) बातचीत के किसी प्रस्ताव को नकार दिया हो (हालांकि हालात के मुताबिक ऐसे प्रस्ताव भी नकारे जाते हैं और उनका नकारा जाना जरूरी होता है).
माफ कीजिएगा दोस्तो, जो लोग 2010 में भी और इस बार भी ‘दंगल’ देखने के लिए उत्साहित थे, वे भूल गए थे कि वरवर और अरुंधति जैसे लेखक उन रीढ़विहीन लेखकों की जमात से नहीं आते, जिनको नचा नचा कर आप अपना रसरंजन करते रहें. आपका रसरंजन दूसरी बहुत सारी बातों से रोज ही होता रहता है और बेहतर है आप वही करते रहें.
तीसरी बात. मुद्दा था अभिव्यक्ति और प्रतिबंध का. उसमें दो ऐसे लेखकों को बुलाया गया (कम से कम निमंत्रण में उनका नाम था), जिनको लिखने के लिए और अपनी राजनीतिक सक्रियता के लिए जेल जाना पड़ा है. बाकी के दो ऐसे लोग थे, जिनमें से एक फासीवादी संगठन के प्रचारक, सिद्धांतकार और कार्यकर्ता हैं और दूसरे हाल ही में अपने प्रशंसक बने एक कहानीकार के भूतपूर्व शब्दों में ‘सत्ता के दलाल’ हैं. मोटे तौर पर वे शासक वर्ग के हिमायती और प्रतिनिधि थे. सवाल है कि क्या शासक वर्ग की अभिव्यक्ति को किसी तरह का संकट है? क्या शासक वर्ग की अभिव्यक्ति पर किसी तरह की पाबंदी लगी है? और अगर हो भी तो क्या हम शासक वर्ग और सत्ता की अभिव्यक्ति की फिक्र करेंगे, जिसका अभिव्यक्ति के तमाम साधनों पर लगभग एकाधिकार, नियंत्रण और निगरानी है? अगर नहीं तो उन्हें क्यों बुलाया गया? फिर क्या मकसद यह था कि वे शासक वर्ग की तरफ से इस बात की सफाई दें या इसका औचित्य बताएं कि जनता के पक्ष में उठने वाली अभिव्यक्तियों पर प्रतिबंध क्यों लगाया जा रहा है? अगर ऐसा था तो क्या यह पहले से ऐसी कोई घोषणा हुई थी या हंस की तरफ इस तरह की कोई बात इनमें से किसी भी वक्ता और श्रोताओं को बताई गई थी? क्या यह सचमुच न्यूज चैनल के किसी टॉक शो जैसा आयोजन था? अब तक हंस के आयोजनों के इतिहास के आधार पर ऐसा कोई दावा नहीं किया जा सकता और न ही हंस ने बताया था कि इस बार फॉर्मेट कुछ अलग होगा. हो भी नहीं सकता. आम सभाओं या व्याख्यानों में स्रोताओं के एक समूह को संबोधित किया जा रहा होता है, और कोई भी ईमानदार, प्रतिबद्ध और क्रांतिकारी लेखक या वक्ता इसे कबूल नहीं कर सकता कि वह फासीवादी और प्रतिक्रियावादी विचारों के प्रसार के लिए स्पेस देने वाले आयोजन का हिस्सा बने.
अगर यह मौका खो देना था, अगर यह बेईमानी और धूर्तता थी, अगर यह पलायन था, तो समस्या इन शब्दों के साथ नहीं है, आपके दिमाग में इन शब्दों के साथ जुड़ी धारणाओं के साथ है.
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