27 अक्तूबर 2012

चक्रव्यूह: एक चालाक फ़िल्म

-दिलीप खान
प्रकाश झा एक चालाक फ़िल्मकार है और चालाक आदमी भी। चक्रव्यूह पर बात करने से पहले दी इंडियन एक्सप्रेस की साप्ताहिक पत्रिका आई (सप्लिमेंट) और द हिंदू को दिए गए दो अलग-अलग साक्षात्कारों की दो बातें मुझे याद आ रही है। आई में प्रकाश झा ने कहा कि जिस दौर में वो अपहरण बना रहे थे उस दौर में वो बिहार का सच था, नीतीश जी के आने के बाद बिहार की तस्वीर बदल गई है। (पूरा साक्षात्कार पढ़ेंगे तो आप समझ जाएंगे कि नीतीश जी का ज़िक्र प्रकाश झा ने बेहद चालाकी से किया है और मॉल वगैरह खोलने देने का बदला चुकता कर रहे हैं।) द हिंदू में प्रकाश झा ने कहा कि ओम पुरी का किरदार कोबाड गांधी से प्रेरित है। यानी उन्होंने इशारा दिया कि न सिर्फ़ प्लॉट बल्कि फ़िल्म के पात्र भी देश के वास्तविक लोगों को ध्यान में रखकर बुने गए हैं। फ़िल्मांकन में यह दिखता भी है...गमछे से चेहरा ढंककर जब राजन (मनोज वाजपेयी) आज तक को साक्षात्कार देते हैं तो साफ़ लगता है कि वो माओवादी नेता किशन जी की भूमिका में हैं। इसके अलावा महंता का नाम देखते ही आपको वेदांता याद आ जाएगी और नंदीघाट का नाम देखकर नंदीग्राम। दूसरे हाफ में जब कबीर (अभय देओल) के भीतर माओवादी बीज पनपता है तो उसका भी नाम बदलकर कॉमरेड आज़ाद कर दिया जाता है। तो आप कहिए कि प्रकाश झा ने पात्र, घटना और स्थान के मामले में थोड़ी-बहुत भी ख़बर से ताल्लुक रखने वालों को ये मौका दिया है कि वो फ़िल्म देखते ही उन नामों को देश की हालिया घटनाओं से जोड़ ले। लेकिन वास्तविकता की डोर थामेंगे तो आप गच्चा खा जाएंगे। मसलन नंदीघाट जगह देखकर अगर आप ये समझे कि फ़िल्म में बंगाल का प्लॉट है तो अगले ही पल महंता विश्वविद्यालय की बात कहकर फ़िल्म आपको उड़ीसा ले जाएगी। फिर जंगलों में फ़िल्म रह जाती है और यदि बोली की थोड़ी सी भी पकड़ आपको है तो पता चल जाएगा कि छत्तीसगढ़ी ज़मीन पर फ़िल्म आगे बढ़ती है। जाहिर है प्रकाश झा ने स्थान को बहुत तवज्जो नहीं दी है, अलबत्ता ये ज़रूर है कि काल के मामले में यह फ़िल्म खुद को बीते पांच साल की घटनाओं तक ही सीमित करती है। तो, एक तरह से घटनाओं का कोलाज है फ़िल्म में।  
दो दोस्तों की कहानी में पार्श्व में माओवाद
ये ज़रूर है कि फ़िल्म देखकर निकलने के बाद नक्सलियों (या फिर माओवादियों- टीवी और प्रिंट मीडिया की तरह फ़िल्म ने भी इनको समानार्थी के तौर पर इस्तेमाल किया है।) को शुद्ध आतंकवादी मानने वाले लोग एक बार सोचेंगे कि ये बंदे सिर्फ़ हथियारबंद गिरोह भर नहीं है, बल्कि इनका कुछ राजनीतिक मकसद भी है। (हालांकि इतना तो लोग जानते ही हैं।) सोचने को ये भी सोच सकते हैं कि या तो ब्रेन वॉश से या फिर राज्य से एकाध घटनाओं में पीड़ित होने के बाद लोग माओवादी बन जाते हैं जैसे कि जूही (अंजलि पाटिल) बनी। लाल सलाम को ऑल इज़ वेल की तरह जुमला भी बना सकते हैं।
बहरहाल, अभय देओल को आज़ाद ख़याल पात्र के तौर पर शुरू से फ़िल्म में दिखाया गया है। पुलिस में रहता है, लेकिन कायदा नहीं मानता। सही लग रहा है तो ठीक है वरना बग़ावत कर देगा। भविष्य की बिना कोई ठोस योजना रखने वाला इनसान है कबीर। इमोशनल क़िस्म का। इसी इमोशन की वजह से माओवादियों के बीच पुलिस की मुखबिरी करने पहुंचा कबीर, थोड़े-बहुत कनफ़्यूजन के साथ माओवादी बन जाता है। बहुत बाद तक वो तय नहीं कर पाता कि असल में है वो किस ओर! मामले को इस रूप में दिखाया गया है कि देश के ज़्यादातर लोग चूंकि माओवादियों से बावस्ता नहीं है तो टच में जाने के बाद ही वो उनसे प्रभावित हो सकते हैं। यानी राजनीति को ऐसी सब्जेक्टिविटी का मामला बनाया गया है कि जहां समय गुजारो वहीं का होकर रह जाओ! कबीर की पूरी बनावट ही फ़िल्म में इसी तरह की है। रोमेंटिसिज़्म वाली।
फ़िल्म में जबरन महंगाई वाले गाने को डाला गया लगता है
अभय देओल ने अभिनय अच्छा किया है लेकिन अंजलि पाटिल ने कमाल का काम किया है। मनोज बाजपेयी भी जमे हैं और ओम पुरी भी। अर्जुन रामपाल (एसपी आदिल ख़ान) अभिनय नहीं सीख पाएंगे इस स्थापना को उन्होंने चक्रव्यूह में पुख़्ता किया है। रिया मेनन (ऐशा गुप्ता) नामक पात्र की ज़रूरत नहीं थी, ग्लैमर के लिए प्रकाश झा ने उसे रच लिया, ठीक उसी तरह जैसे कुंडा खोल आइटम सॉन्ग रचा। स्क्रिप्ट में कई जगह ऐसी व्यावसायिक मजबूरी झलकती है गोया बाद में बीच-बीच में कुछ जोड़ा-घटाया गया हो। गानों के मामले में ख़ास तौर से ये बात कही जा सकती है। अभय देओल पर महंगाई वाला गाना फ़िल्माना था तो उससे ठीक पहले वाले दृश्य में तिरपाल के नीचे रात में उसे राग भैरवी गाते दिखा दिया। कैलाश खेर की जगह किसी नई आवाज़ को जगह देते तो गाने में रंग आता। कैलाश खेर की आवाज़ में कहीं से उस मिट्टी की खुशबू नहीं आ रही है जहां पर इसे फ़िल्माया गया है। टाटा-बिड़ला, अंबानी-बाटा वाला यह गाना प्रचार के लिए बेहद ज़रूरी था, सो एक तरह से इसे फिट कर दिया गया। शहरी कबीर अचानक माओवादियों के बीच पहुंचने के अगले ही दिन लोकगीत की शैली में गाने लगता है। फ़िल्म यह बताती है कि कबीर के रखने से कम से कम गाने-बजाने वाला कोई मिल जाएगा। यानी कबीर मुख्य गायक की ज़िम्मेदारी निभाता है। उसके गले से ऑटोमैटिक फूटता लोकगीत गले नहीं उतरता।  
एक लाइन में कहें तो फ़िल्म सैंडविच थ्येरी का विस्तार है। माओवादियों और राज्य के बीच पिसती जनता पर मध्यांतर से पहले सबसे ज़्यादा ज़ोर है। लेकिन, कुछ तथ्यों को फ़िल्म में इस तरह इस्तेमाल किया गया है कि लोग गफ़लत में पड़ सकते हैं। मिसाल के लिए नाम की साम्यता बैठाने के लिए अभय देओल को कॉमरेड आज़ाद बना दिया गया है। यानी कबीर ने पुलिस की मुखबिरी से कॉमरेड आज़ाद तक का सफ़र तय किया। वास्तविक दुनिया में जिन लोगों ने आज़ाद का नाम सुन रखा है उनके मन में यह धारणा पुख़्ता होगी। शुरुआती दृश्य में ओम पुरी के वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर जिस व्यक्ति को दिखाया जाता है बाद में उसी से कॉमरेड राजन (मनोज वाजपेयी) को सलाह लेते दिखाया जाता है। यानी मानवाधिकार कार्यकर्ता और माओवाद जैसे मामले का केस लड़ने वाले लोग असल में फेस सेविंग प्रोफ़ेशन के तौर पर ऐसा काम करते हैं लेकिन होते हैं पार्टी कैडर ही!
कमज़ोरी और चालाकी के कई और उदाहरण हैं। मसलन, एसपी स्तर का पुलिस अधिकारी ईमानदार और सच्चाई व वर्दी की मांग को पूरा करने वाले होते हैं।(छत्तीसगढ़ के कल्लूरी और राष्ट्रपति पदक विजेता अंकित गर्ग को याद कीजिए)। माओवादी नेता के बदले व्यवसायी बच्चे की अदला-बदली महज पुल के इस पार-उस पार वाला मामला है! फ़िल्म में माओवाद पर कुछ बेसिक रिसर्च छूटता दिखता है। फ़िल्म बताती है कि स्थानीय पुलिस बंद दरवाज़ों के भीतर रहने वाली जीव है और माओवादियों के नाम पर मुठभेड़ में कभी-कभार निर्दोष लोग सिर्फ़ मारे जाते हैं वरना फ़र्जी गिरफ़्तारियां तो होती ही नहीं। सल्वा जुडूम कॉरपोरेट समर्थित संगठन है और राज्य का इससे कोई वास्ता नहीं है! फ़िल्म तो आपको यही बताती है कि सल्वा जुडूम को महंता ने पैदा किया और मुख्यमंत्री महोदय की इसमें कोई भूमिका नहीं है। (..लगे हाथों सल्वा जुडूम पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला याद कीजिए)। फ़िल्म के आख़िर में ओम पुरी (प्रकाश झा के मुताबिक़ कोबाड गांधी से प्रभावित पात्र) माओवादियों का सबसे बड़ा (मेंटर) नेता बन जाता है। आजतक और दैनिक भास्कर फ़िल्म में बार-बार आते हैं और शायद इसलिए फ़िल्म में कहीं भी उन इलाकों में मीडिया के कॉरपोरेट हितों को नहीं दिखाया गया है। मीडिया पार्टनर बनकर भास्कर ने अच्छा किया...पूरा मामला महंता तक ही सीमित रह गया और फ़िल्म में डीबी कॉर्प जैसे पावर प्लांट लगाने वाली कंपनियों का नामोनिशान तक नहीं दिखा। अंत तो बेहद नाटकीय है। रिया मेनन कबीर को गोली मारती है...आदिल ख़ान रोता है, फ़िल्म ख़त्म हो जाती है। फिर दो लाइन का वॉयस ओवर उभरता है कि देश में कितने लोग ग़रीब है और कितने लोग अमीर!
....लेकिन इन सबके बावजूद अगर पांच-दस ऐसी फ़िल्में बनती हैं, तो माओवाद को लेकर मध्यवर्ग की जमी-जमाई धारणा डिगेगी। सिनेमा हॉल में फ़िल्म ख़त्म होते ही कुछ लोग अपने विश्वास की डोर को मांझा देने के लिए आपस में गुफ़्तगू करने लगे, यू नो, कुछ भी हो बट कम्युनिज़्म इज़ ए फ़्लॉप शो। तो ये ज़रूर है कि दिल्ली वालों को छत्तीसगढ़ की एक (अधूरी, तोड़ी-मरोड़ी ही सही) झलक मिली, सिर्फ़ इस लिहाज़ से फ़िल्म को देखने की सलाह दूंगा। प्रकाश झा की यही चालाकी है। आप आलोचनात्मक भले ही हो जाइए लेकिन देखने की सलाह भी लगे हाथों ठोक जाइए। 

4 टिप्‍पणियां:

  1. हद से ज्यादा व्यावसायिक और पैसा कमाने वाली इन्डस्त्री से आप ज्यादा मौलिक चीजो की आशाये नहीं कर सकते।।।।
    प्रकाश ने जितना भी दिखाया है वो जाया नहीं जाएगा,,,आज भी जिन लोगो ने फिल्म है वो आँख मूँद कर नक्सलियों को आतंकी कहने से पहले थोडा सोचेंगे जरूर .
    मैंने भी इस फिल्म के बारे में कुछ लिखा है ,,,आप भी देखिये ..





    http://vishvnathdobhal.blogspot.in/2012/12/blog-post_3186.html

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  2. यार कुच्छ त शर्म करो, क्यो पैसे लेकर फ़िल्मो के बारे मे अपनी राय लिखते हो. अच्छा एक बात ब्ताना के कों से डाइरेक्टर ने तुम्हे पैसे दिए थे के इस फिल्म के बारे मे अपनी राय लिखो क फिल्म बेका है. सब बिके हुए है.

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