11 अक्तूबर 2012

फेसबुक के जनक मार्क ज़करबर्ग की जीवनी (दूसरा भाग)

-दिलीप खान 

अंग्रेज़ी, फ्रेंच, हिब्रू, लैटिन, प्राचीन ग्रीस और कविता

इससे पहले पढ़ें पहला भाग।

क्या आप जानते हैं कि अपने स्कूली दिनों में उनका सबसे पसंदीदा विषय क्या था? किस विषय में उन्होंने सबसे अच्छा प्रदर्शन किया? आर्ड्सले हाई स्कूल में पढ़ते हुए मार्क ने विज्ञान के अलावा जिस विषय में शानदार अंक हासिल किया वो था, साहित्य। गणित, एस्ट्रोनॉमी और भौतिकी में तो वह अव्वल था ही लेकिन साहित्य में भी उसकी अच्छी-खासी दख़लंदाजी थी। इस तरह देखें तो मार्क की धमनियों में बहने वाले विज्ञान से परिचित कई लोग हैरत में पड़ जाते हैं जब उनको मालूम होता है कि साहित्य के प्रति भी वो अगाध रुचि रखते हैं। हाई स्कूल के दिनों में तो कई दोस्तों और शिक्षकों ने उन्हें ये तक सलाह दी कि करियर के लिहाज से साहित्य उसके लिए ज़्यादा मुफ़ीद होगा। कक्षा के भीतर साहित्य को समझने के उसके तरीके मात्र से शिक्षकों और दोस्तों को उसके भीतर एक कुशल साहित्यकार नज़र आने लगा था। कॉलेज में दाख़िला लेने के वक़्त ज़करबर्ग सहित सारे छात्र-छात्राओं को एक फॉर्म भरना पड़ता था, जिसमें अंग्रेज़ी से इतर ऐसी भाषाओं का उल्लेख करना ज़रूरी था जिसे वो लिख और पढ़ सकते हैं। ज़करबर्ग ने उस तालिका के सामने लिखा: फ्रेंच, हिब्रू, लैटिन और प्राचीन ग्रीस। ओह! तो एक सॉफ्टवेयर बनाने वाला व्यक्ति इतनी भाषाएं भी पढ़-लिख सकता है! इतनी मेहनत के वास्ते कहां से मिलता होगा समय? द इलियड की पंक्तियां गुनगुनाते हुए मार्क को कई बार स्कूल के बरामदे में, कैंटीन में और यहां तक कि खेल के मैदान में भी सुना गया। कहें कि रंगे हाथों पकड़ा गया मार्क। साहित्य प्रेम छुपाए नहीं छुपता, फिर मार्क हो या कोई और। एक साक्षात्कार में मार्क ने यह आपकबूली की कि वो कॉलेज के दिनों में कविताओं में भी हाथ आजमाते थे। तो लीजिए मार्क ज़करबर्ग का एक और परिचय आपके सामने है। कवि।
मार्क के मुताबिक ये वो पहली तस्वीर है जो मीडिया में छपी।
 (साल- 2004 में) 

आओ कोर्समैच करें यानी शुक्रिया ज़करबर्ग
सिनैप्स मीडिया प्लेयर बनाने के बाद माइक्रोसॉफ्ट सहित तीन-चार कंपनियों ने जब मार्क को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की तो किसी भी कंपनी को यह मालूम नहीं था कि दो साल बाद हॉर्वर्ड में मार्क जो करने वाला है वह दुनिया की सबसे बड़ी सनसनी में से एक होगा। सन 2002 में नौकरी का प्रस्ताव ठुकराते हुए मार्क ने हॉर्वर्ड का रुख किया। उस समय कई दोस्तों का मानना था कि मार्क ने एक बड़ा दुस्साहस किया है। लेकिन, हॉर्वर्ड में बेहद सीमित समय में लोग जानने लगे कि ये मार्क ज़करबर्ग आखिरकार है क्या बला! कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर को चाशनी की तरह लपेटने वाले कंप्यूटर जीवी के तौर पर मार्क को उनके सहपाठी पहचानने लगे। लेकिन उसकी गतिविधि किसी किताबी कीड़े की तरह एकांतप्रिय और निर्जन द्वीप पर विचरने वाले खयालात जैसी नहीं होती। वह एक साथ कंप्यूटर में भी घुसा रहता और कंप्यूटर से सर उठाते ही दोस्तों की महफ़िल में भी रम जाता। बेहद सहजता से, ठीक वैसे जैसे किसी इलेक्ट्रॉनिक स्विच से नियंत्रित होने वाला रोबोट हो। असल में कंप्यूटर के साथ मार्क जो भी नया उपक्रम करता, समूह हमेशा उसके केंद्र में होता। ज़कनेट से लेकर फेसबुक तक के सफ़र में ज़करबर्ग ने हमेशा अधिकाधिक लोगों को जोड़ने की दिशा में ही कदम बढ़ाया है। हॉर्वर्ड के शुरुआती दिनों में मार्क ने एक नया प्रोग्राम ईजाद किया: कोर्समैच। कोर्स के महत्व के मद्देनज़र विद्यार्थियों को कौन सी कक्षा का रुख करना चाहिए कोर्समैच इस संबंध में सलाह देता था। इसी प्रोग्रामिंग की मदद से कई छात्र-समूहों ने छोटे-छोटे स्टडी समूह की भी नींव रखी और इस तरह हर यारबाज लोगों को अपने मिजाज़ के अनुरूप किसी विषय पर सघन चर्चा करने के लिए समूह मिल गया। समान रुचि के लोग एक साथ आए और इसमें जो शुक्रिया के पात्र बने, वो थे मिस्टर मार्क ज़करबर्ग।    
दिमागी फितूर का कोई इलाज है क्या
असल में ज़करबर्ग की पूरी बनावट ही तकनीक को समाज के साथ नत्थी करने की थी। फेसबुक को कोई अनायास प्रयास का नतीजा ना मानें। हाई स्कूल के दिनों में मार्क का पसंदीदा विषय साहित्य, भाषा और विज्ञान था। विषयों का यह युग्म थोड़ा अटपटा लगता है लेकिन मार्क अटपटेपन में ही मजे लेता था और अपनी कोशिश से उसे सामान्य बनाकर लोगों के बीच इस तरह पेश करता कि उनके कारनामें सहज ही स्वीकार्य हो जाते। हॉर्वर्ड में भी मार्क के विषय का चुनाव देखिए- समाजशास्त्र और कंप्यूटर विज्ञान। भारत में यह चुनने की आज़ादी नहीं है और जहां है भी वहां लोग या तो खालिस विज्ञान पढ़ते हैं या फिर सिर्फ़ मानविकी। दोनों को एक साथ पढ़ने की परिपाटी बहुत सीमित है। विशेषज्ञता की दुहाई देकर एक ख़ास विषय के एक ख़ास हिस्से की पढ़ाई करने में लोग जुटे रहते हैं। विषय का चुनाव ही मार्क के इरादे को जाहिर करने में पर्याप्त है। वाकई, मार्क ने समाज के एक बड़े हिस्से को कंप्यूटर पर एक अपनापन भरा मंच दिया। कोर्समैच के समय से ही मार्क फेसबुक सरीखे किसी चीज़ को बनाने की कोशिश में लगे थे, लेकिन कोई रूप-रेखा स्पष्ट नहीं हो पाई थी। दोस्तों की तस्वीरों का एक वृहत अलबम उन्होंने संभाल रखा था और रोज़-रोज़ उन तस्वीरों को देखते हुए वह सोचता कि स्नातक होने के बाद वह इन तमाम दोस्तों से कैसे जुड़ा रह पाएगा। कोई साफ़ रास्ता उसे नहीं दिखता। तस्वीरों को देख-देखकर वह भावुक हो जाता और फिर कंप्यूटर पर अपनी सारी भावुकता को संचित कर उड़ेल देता। वह अलबम ही उस वक़्त मार्क का फेसबुक था। प्रेरणा का स्रोत था, ऊर्जा का संचित कोष था। कुछ न कुछ तो करना होगा! स्नातक द्वितीय वर्ष के इस छात्र के मन में यह खयाल हथौड़े की तरह बार-बार टकराता। लगभग एक ख़ास तरह की दिनचर्या बन गई थी। रूममेट जोए ग्रीन परेशान हो उठता। उसे कई बार लगता कि मार्क का यह दिमागी फितूर है।
मस्ती की पाठशाला
एक दिन मार्क ने एक नया प्रोग्राम तैयार किया, जिसमें दो दोस्तों की तस्वीरों को आजू-बाजू रखा जाता और यूजर्स वोट करते कि दोनों में कौन ज़्यादा आकर्षक है। प्रोग्राम का नाम रखा गया-फेसमैस। वोटिंग में यूजर्स के पास दो विकल्प थे- हॉट या नॉट। 28 अक्टूबर 2003 को पहली बार इस प्रोग्राम को हॉर्वर्ड के लिए खोला गया, लेकिन हफ्ते भर में ही फेसमैस की कीर्ति हॉर्वर्ड कैंपस में इस तरह फैल गई जैसे वह फुटबॉल विश्वकप की समय-सारणी हो। सप्ताहांत में हॉर्वर्ड का यह बेहद लोकप्रिय शगल बन गया। उस समय हॉर्वर्ड के पास ऐसी कोई डायरेक्ट्री नहीं थी जिसमें विद्यार्थियों की सामान्य सूचना को संकलित किया जा सके। फेसमैस इस ख़ालीपन को भरने का कारगर हथियार साबित हुआ और यही वजह है कि इसको पहले मिनट से हॉर्वर्ड के छात्र-छात्राओं ने हाथों-हाथ लिया। पहले चार घंटों में फेसमैस पर 450 विजिटर आए थे और इस दौरान फेसमैस पर लगभग 22 हज़ार तस्वीरें देखी गईं। मार्क के उस वक्त के रुममेट जोए ग्रीन फेसमैस से उपजी शरारत को याद कर अब भी आह्लादित रहते हैं। मार्क धीरे-धीरे नायक बनने लगा। हज़ार से ज़्यादा लोग फेसमैस से चंद दिनों में ही जुड़ गए। लोग चुन-चुन कर चेहरा लाते। अपने सहपाठियों का, अपने रुम-मेट का, अपनी प्रेमिका का या फिर अपने जिगरी यार का। फिर वोटिंग होती। इसमें कई बार ऐसा हुआ कि जिसके चेहरे पर वोटिंग चल रही थी, उसे मालूम ही नहीं था कि फेसमैस के सट्टे पर इस बार उनका चेहरा टंगा है। जाहिर है उनके बीच नाराजगी का भाव पसरा। ऐसे ही कुछ लोगों ने विश्वविद्यालय प्रशासन के पास जाकर फेसमैस की शिकायत कर दी। प्रशासन ने फेसमैस को उटपटांग हरकत क़रार देते हुए उसे बंद करने का आदेश सुनाया। ज़करबर्ग पर कॉपीराइट के उल्लंघन से लेकर सुरक्षा व्यवस्था में सेंधमारी करने और लोगों की निजता को ख़त्म करने के आरोप लगे। हालांकि बाद में इन आरोपों को तो वापस ले लिया गया लेकिन फेसमैस को बंद हो जाना पड़ा और इस तरह हज़ारों युवाओं की मस्ती का मैदान भी चटाई तले दब गया। फेसमैस का अंजाम जो भी हुआ हो, लेकिन मार्क को लेकर हॉर्वर्ड के भीतर जो फुसफुसाहट अब तक थी, वह अचानक तेज हो गई। वह अब ऐसे छात्र में बदल चुका था जो अपने आस-पास जमघट बना लेता। इसी बीच दिव्य नरेंद्र और जुड़वे भाई कैमरॉन और टेलर विंकलवॉस ने मार्क के सामने एक सोशल नेटवर्किंग साइट बनाने का प्रस्ताव रखा। योजना एक ऐसी साइट बनाने की थी जिसके जरिए हॉर्वर्ड के मौजूदा छात्र-छात्राओं और वहां से पढ़कर निकले पुराने विद्यार्थियों को आपस में गप्प-शप्प करने में सहूलियत हासिल हो सके। मिल-जुलकर अड्डेबाजी करने का विचार इसके केंद्र में था। इसका नाम रखा गया, हॉर्वर्ड कनेक्शन। ज़करबर्ग को यह आइडिया पसंद आया और उसने तीनों मित्रों के साथ हॉर्वर्ड कनेक्शन पर काम भी शुरू कर दिया, लेकिन एक दिन अचानक ज़करबर्ग ने तीनों सहयोगियों के साथ बैठक की और कहा कि वह इस परियोजना से हाथ खींचना चाहता है। ज़करबर्ग अलग हो गया, तो काम भी लगभग ठप्प पड़ गया।
बांबी फ्रांसिस्को को मार्क ने यह इंटरव्यू निकर पहने ही दे
दिया। मार्क के पहनावे से बांबी काफ़ी झल्ला गई थी।

19 साल होने को है, चलो कंपनी बनाए
असल में सोशल-नेटवर्किंग-साइट-जैसा-कुछ तो उसे पसंद आया लेकिन वह अलग कलेवर में चीज़ों को उतारना चाहता था, वह अपने करीबी दोस्तों के साथ नए तरह का काम शुरू करना चाहता था। उसने दोस्तों को राजी करने के लिए एक डेमो तैयार किया। असल में वह डेमो (नमूना) फेसबुक का आद्य रूप था। मौजूदा फेसबुक से काफ़ी हद तक मिलता-जुलता। नाम रखा गया- द फेसबुक। द फेसबुक ने लोगों को काफ़ी प्रभावित किया। फेसमैस पीछे छूट गया। सप्ताहांत की मस्ती से शुरू हुआ सफ़र अब थोड़ा ज़्यादा बड़ा, ज़्यादा फंक्शन समेटे और कलेवर में फेसमैस से ज़्यादा गंभीर हो गया। हॉर्वर्ड कनेक्शन के बाद मार्क के दिमाग में यह भर आया था कि सोशल नेटवर्किंग साइट की दुनिया में कुछ बड़ा काम करना है। सोशल नेटवर्किंग साइट की वह अपनी कंपनी बनाना चाहता था। एक दिन पिज़्ज़ा खाने के बहाने उसने अपने मौजूदा रुममेट डस्टिन मोस्कोविच और कुछ अन्य दोस्तों को एक रेस्त्रां में जमा किया और बतकही के दौरान उसने सोशल नेटवर्किंग वाली अपनी योजना साझा की। मार्क ने ज़ोर देकर कहा कि वह एक अदद कंपनी खोलना चाहते हैं। एक दिन, दो दिन, फिर लगभग रोज़ाना। लोगों को हिचकिचाहट थी। शक था। उसकी योग्यता पर शक करने की हालांकि ज्यादा गुंजाइश बनती नहीं थी, लेकिन योजना पर शक करने के वास्ते पूरा मैदान खुला था। शक इस बात को लेकर था कि 19 साल का ऐसा लड़का जिसके होठों के ऊपर मूंछ तक ठीक से नहीं पनपी है, कैसे इतनी बड़ी वेबसाइट को कंट्रोल करेगा और किस तरह चीज़ों को अपडेट कर पाएगा। मार्क उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, हम कॉलेज से जब मटरगश्ती करने बाहर निकलते थे, तो दोस्तों से बात करते थे कि क्यों न भविष्य में कोई ऐसी चीज़ बनाई जाए जिसके जरिए हम अपने मन की सारी चीज़ें आपस में बांट सके। लेकिन लोगों को यक़ीन नहीं होता कि कोई इतनी कम उम्र में कंपनी भी बना सकता है। लेकिन जिद थी, तो थी।
फेसबुक की दुनिया में आपका स्वागत है
इस तरह एक दिन मार्क की सलाहियत काम आई। डस्टिन मोस्कोविच, क्रिस ह्यूग्स और एडुअर्डो सैवेरिन तैयार हो गए। द फेसबुक को हॉर्वर्ड के लिए खोल दिया गया। यह 4 फ़रवरी 2004 का दिन था। जून 2004 तक एक कमरे से यह चलता रहा। हॉर्वर्ड के एक छोटे से कमरे से चलने वाली इस साइट ने कई शहरों में तहलका मचा दिया। सुधार और लगातार सुधार होते रहे। पहली मर्तबा ऐसा हुआ जिसमें एक यूजर्स दूसरे यूजर्स के साथ बतियाने और अपने मन की बात साझा करने के अलावा अपने प्रोफाइल पेज पर जाकर फोटो भी शेयर कर सकता था। द फेसबुक चल निकला। मार्क बड़े हो गए। हॉर्वर्ड का कोना-कोना इस दिन से मार्क ज़करबर्ग नामक प्राणी को जानने लगा। लेकिन, फेसबुक को हॉर्वर्ड की चहारदीवारी में सिमटे रहना मंजूर नहीं था। चर्चा चारों ओर तेजी से फैल रही थी। जल्द ही अमेरिका के ज़्यादातर विख्यात विश्वविद्यालयों और अकादमिक संस्थानों से मार्क ज़करबर्ग के पास अनुरोध आने लगे कि द फेसबुक का दरवाज़ा उन लोगों के लिए भी खोला जाय। एक दिन मार्क कक्षा से निकल कर जब उस अदद कमरे में दाखिल हुए जहां से द फेसबुक का पूरा कारोबार चलता था तो उन्होंने देखा कि समय के उस ख़ास बिंदु पर हॉर्वर्ड में पढ़ने वाले 10 फ़ीसदी से ज़्यादा लोग द फेसबुक पर ऑनलाइन थे। मार्क की खुशी का ठिकाना न रहा। यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। मार्क को समझ में आ गया कि क्यों बगल के विश्वविद्यालय के लोग मार्क से अनुरोध कर रहे हैं। जल्द ही मार्क ने स्टेनफोर्ड, एमआईटी, कोलंबिया, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी, ब्राउन, येल यूनिवर्सिटी के परिसर को फेसबुक की दुनिया में दाखिला दे दिया। 2005 में 2 लाख डॉलर में फेसबुक डॉट कॉम का डोमेन ख़रीदने के साथ ही द फेसबुक का पूरा कलेवर बदल गया। नाम बदल दिया गया। बदलाव के बाद जो बचा, दुनिया उसे आज फेसबुक के नाम से जानती है। द फेसबुक से कतर दिया गया। बच गया सिर्फ फेसबुक। छोटा, चुस्त और लोकप्रिय नाम। वेलकम टू द वर्ल्ड ऑफ फेसबुक!
लेकिन फेसबुक बनते ही हॉर्वर्ड कनेक्शन वाले विंकलवॉस भाईयों ने मार्क ज़करबर्ग पर यह इल्ज़ाम लगाया कि असल में मार्क ने उनके आइडिया की चोरी की है। चोरी और श्रेय का यह विवाद लंबे समय तक चला, तीखे रूप में। चार साल बाद फेसबुक ने 6 करोड़ 50 लाख डॉलर देकर कैमरॉन और टेलर विंकलवॉस से मामला रफा-दफा कर लिया लेकिन अभी भी दोनों भाई बीच-बीच में फेसबुक पर अपनी दावेदारी जताते रहते हैं।

आगे पढ़ें- तीसरा, चौथा और पांचवां भाग। 

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