10 अक्तूबर 2012

फेसबुक के जनक मार्क ज़करबर्ग का जीवन (पहला भाग)



-दिलीप ख़ान
धूसर रंग की टीशर्ट और नीले रंग की जींस पैंट में उन्हें कई देशों में टहलते देखा जा सकता है। बेफ़िक्र तरीके से और सुरक्षा के ताम-झाम के बिना। विश्वविद्यालयी छात्र से अरबों डॉलर राजस्व वाली कंपनी के सीईओ और अध्यक्ष वाले परिचय तक वह उम्र के एक ही दशक में पहुंच गए। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और अगले साल वहां पर अतिथि अध्यापक के तौर पर क्लास लेने और वहां के विद्यार्थियों को नौकरी देने पहुंचे। उनकी बनाई वेबसाइट को इस समय दुनिया के 80 करोड़ से ज़्यादा लोग 70 अलग-अलग भाषाओं में इस्तेमाल करते हैं। वो अमेरिका के हैं लेकिन दिल्ली के जामिया-मिलिया इस्लामिया में उनके उत्पाद पर पीएच.डी. हो रही है। इलाहाबाद के एक इंजीनियर को उन्होंने भारत में अब तक के सबसे ज़्यादा वेतन पर नौकरी दी है। वे अड़ियल नहीं है। ग़लती करने पर माफ़ी मांगने में ऐसा नहीं दिखाते कि उनकी इज़्ज़त दांव पर लग गई हो। उनकी बनाई वेबसाइट में लोग उनके ही ख़िलाफ़ मोर्चा खोल सकते हैं और खोले भी हैं। अपनी प्रेमिका की दादी से बात करने के लिए वो मंडारिन भाषा तब सीखना शुरू करते हैं जब उनकी उम्र 26 साल की हो गई थी और जिस समय वह अपने जीवन के सर्वाधिक व्यस्त दिनचर्या में जी रहे थे। मांसाहार के शौकीन थे, लेकिन 2011 में उन्होंने घोषणा की कि वे शाकाहारी बन गए हैं। सामान्य लंबाई है। पांच फुट आठ इंच। हालांकि लोगों को वे ज़्यादा लंबे दिखते हैं। अगर बातचीत से वो ऊब रहे होते हैं तो आजू-बाजू देखकरहां-हां, बिल्कुल-बिल्कुल बोलने लगते हैं। कंप्यूटर के साथ-साथ मनोविज्ञान और साहित्य में भी उनकी दिलचस्पी हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उनके प्रशंसक हैं। वे एक ऐसे शख्स हैं जिनकी अब तक की जिंदगी उनके चेहरे की किताब के इर्द-गिर्द ही घूमती-चकराती रही है। चेहरे की किताब यानी फेसबुक!
आइए कहानी की शुरुआत करें। किस तारीख़ से शुरू करते हैं, यह ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। हर तारीख आंखों में नहीं टंगती। घटनाएं तारीख में अर्थ भरतीं हैं तो तारीख घटनाओं को स्थाई बनाती है। आप एकदम से नहीं बता सकते कि सन 1981 में क्या हुआ, या फिर 82 और 84 में। इन तारीखों का महत्व हर किसी के लिए अलग-अलग होगा। पूछने पर आप बताएंगे कि हुआ तो बहुत कुछ, लेकिन यह निर्भर इस बात पर करता है कि सामने वाला जानना क्या चाहता है। आप ये भी बता सकते हैं कि अरे हां, 1984 में तो मैंने पहली बार पूरे बाजू की कमीज पहनी थी, या फिर यह कि साईकिल से मैंने पूरे 12 किलोमीटर की सवारी की थी। लेकिन, इस लेख के लिए जो 1984 का अर्थ है, हो सकता है वो आप में से कइयों पर लागू होता हो। बहुत संभव है कि मार्क जकरबर्ग की तरह आप भी 1984 के ही पैदाइश हों और इस समय आपकी उम्र भी उनकी ही तरह मात्र 28 साल की हो। समानता तो कई और भी हो सकते हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि उनकी तरह आप भी शादी के ताजे अनुभव से गुजर रहे हों। दोनों नेटीजेन हों और आप दोनों को फेसबुक बेहद रास आता हो। लेकिन इन तमाम समानताओं के बावजूद एक फर्क है जो जकरबर्ग को जकरबर्ग बनाता है। बेहद सपाट लहजे में कहे तो इतना फर्क ही कम नहीं है कि आप जिस फेसबुक का इस्तेमाल करते हुए उनके साथ बराबरी की गुंजाइश तलाश रहे हैं, वो जकरबर्ग की उपज है। एक ऐसी उपज जिसपर खाता खोलने भर से आपके और जकरबर्ग के बीच समानता का एक और तार जुड़ जाता है। इस तरह फेसबुक जकरबर्ग को आपसे अलग भी करता है और आपके साथ भी ला पटकता है।
जन्म
यह 14 मई 1984 का दिन था। न्यूयॉर्क में मई का महीना भारत की तरह कोई चिपचिपा और उमस भरा नहीं होता। मई एक तरह से शानदार महीना होता है वहां। उस खुशगवार आदर्श मौसम में न्यूयॉर्क के डॉबी फेरी इलाके में दर्ज़नों बच्चों के बीच अस्पताल में करेन ज़करबर्ग की कोख से जिस बच्चे ने जन्म लिया, उसका नाम मार्क रखा गया, मार्क इलियट ज़करबर्ग। दूसरे-तीसरे साल से ही मार्क ने अपनी रुचि और रुझान को लेकर कुछ अलग संकेत देना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उसका अलहदापन पहले से ज़्यादा साफ़ और ठोस होता चला गया। जब अपने स्कूल के दिनों में लोग शुरुआती पाठ सीखते हैं, जकरबर्ग कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर में सर खपाता था। घर लौटने के बाद घंटों कंप्यूटर पर बैठकर कुछ न कुछ करते रहना उसकी रोजमर्रा की आदत बन गई। कंप्यूटर उसकी सर्वाधिक पसंदीदा चीज़ों में से एक था। मैदान में जाकर गेंद खेलने से ज्यादा वीडियो गेम खेलने और उससे भी ज़्यादा वीडियो गेम की बनावट समझने में उसकी दिलचस्पी थी। लेखक खोसे एंतोनियो वर्गास ने मार्क के बारे में सच ही कहा,कुछ बच्चे कंप्यूटर गेम खेलते हैं, मार्क ने उसे बनाया। लेकिन वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। मैदान में उतरता तो ऐसा लगता मानों उसके खून में एथलेटिक्स के प्लाजा बह रहे हों। इसी नैसर्गिकता के चलते बाद में वह अपने प्रेप स्कूल की बाधा दौड़ टीम का कप्तान बना। मैदानी धमाचौकड़ी में अव्वल प्रदर्शन के बावज़ूद कंप्यूटर में ही उसका मन रमता। जल्द ही पिता एडवर्ड जकरबर्ग ने मार्क की जहीन रुचि को समझा और वो मार्क को प्रोत्साहित करने लगे।
मार्क बनेगा रोल मॉडल
पिताजी को उसके भीतर एक चमक दिखती थी। इसलिए मार्क जब कंप्यूटर प्रोग्रामिंगबेसिक सीख रहा था तो एडवर्ड जकरबर्ग ने घर में एक शिक्षक बुला लिया ताकि मार्क को सॉफ्टवेयर समझने में ज़्यादा मदद मिल सके। मार्क को ट्यूशन देने पहुंचे डेविड न्यूमैन उस इलाके के चर्चित सॉफ्टवेयर डेवलपर्स थे। जिन बच्चों को वो पढ़ाते थे उस लिहाज से मार्क की उम्र काफ़ी कम थी, इसलिए उन्हें लगा कि मार्क को समझाने में उन्हें ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। जल्द ही वो समझ गए कि मेहनत की दरकार तो है, लेकिन इसके लिए मार्क की कम उम्र नहीं बल्कि उसका तेज दिमाग जिम्मेदार है। धीरे-धीरे सिलसिला शुरू हुआ। मार्क का सॉफ्टवेयर प्रेम भी बढ़ने लगा। उस स्कूली बच्चे की काबिलियत और सीखने की क्षमता से शिक्षक डेविड कई बार भौंचक्क रह जाते थे। उन्हें यकीन ही नहीं होता कि जिस चीज़ को सीखने में 12वीं के विद्यार्थी को महीनों लग जाते है, उसे बस्ता लटकाकर स्कूल जाने वाला छोटा-सा मार्क किस तरह हफ्तों में साध ले रहा है! डेविड न्यूमैन को कई बार जकरबर्ग इस तरह फंसा देता कि उनके लिए मुश्किल खड़ी हो जाती। बकौल डेविड, मार्क से एक कदम आगे रहना मेरे लिए काफी मेहनत भरा काम बन गया था। इस तरह डेविड मार्क को पढ़ाते भी और मार्क से सीखते भी। एक अर्थ में दोनों एक-दूसरे के शिक्षक बन गए थे। डेविड ज्यादा, मार्क कम। ट्यूशन के उस दौर में ही डेविड ने मार्क के पिता एडवर्ड जकरबर्ग से कहा था कि एक दिन मार्क दुनिया का सबसे बड़ा हीरो होगा। एक रोल मॉडल। मार्क को लेकर परिवार वालों के बीच एक ग़जब का आत्मविश्वास था। पिता से लेकर छोटी बहन तक सबको ऐसा लगता कि स्कूल में पढ़ने वाला नन्हा-सा मार्क कंप्यूटर का मास्टर है। एक दिन मार्क की बहन डोना कंप्यूटर पर नया-नया हाथ आजमा रही थी। ऊपर के कमरे में मार्क कुछ कर रहा था और नीचे वो कंप्यूटर से खेल रही थी, तभी स्क्रीन पर किसी ख़तरनाक वायरस का हमला हुआ। कंप्यूटर स्क्रीन पर यह चेतावनी आई कि 30 सेकेंड्स में वह वायरस कई कंप्यूटर प्रोग्रामों को उड़ा देगा। उल्टी गिनती जब शुरू हुई तो डोना को कुछ नहीं सूझा। उसने चीखते हुए ऊपर का रुख किया- मार्क, मार्क। तो, परिवार में ये छवि थी लिटिल ज़करबर्ग की।

मैं नास्तिक हूं
ज़करबर्ग को विज्ञान के अलावा मनोविज्ञान और समाजशास्त्र से शुरू से ही लगाव था। वह विज्ञान को समाज की तराजू पर तौलता और समाज को विज्ञान की। इसमें उसकी पूरी दुनिया शामिल होती- मां, पिता, बहन, पड़ोसी से लेकर ईश्वर तक। इस धरती पर जिस तरह कोई भी बच्चा नास्तिक पैदा नहीं होता, ठीक उसी तरह शुरुआत में ज़करबर्ग को यहूदी माना गया। उसका बचपन यहूदी संस्कार और रिवाजों को मानने के साथ कट रहा था, मगर सबकुछ वैसा ही रहता अगर उनके मन में सवाल कम आते! लेकिन, जकरबर्ग के भीतर शुरू से ही न सिर्फ विज्ञान और तकनीक को लेकर एक जुनूनी धुन पैबस्त थी, बल्कि वो विज्ञान की सामाजिक व्याख्या करने में ज़्यादा रुचि रखता। इसी धीमी, लेकिन सतत चिंतन से जकरबर्ग को लगने लगा कि नहीं, यह संभव नहीं है कि कोई ईश्वर इस धरती से बहुत दूर बैठकर पूरी दुनिया को नियंत्रित कर रहा है। स्कूली दिनों में ही जकरबर्ग को धर्म की ज़्यादातर व्याख्याएं अटपटी लगने लगी। धीरे-धीरे उसकी एक मान्यता बनी कि धर्म और ईश्वर सिर्फ तभी तक पूजनीय बने रहते हैं जब तक घटना की वैज्ञानिक व्याख्या हमारे बीच न पेश हो जाए। जकरबर्ग का विश्वास हिला और इस तरह वो खुद को नास्तिक कहने लगा। 13 साल की उम्र कम नहीं होती इस तरह की घोषणा के लिए! 13 साल कोई अबोध बच्चे की उम्र नहीं है! इस तरह जकरबर्ग इंजीनियरिंग के उन छात्रों से अलग हैं जो विज्ञान के अत्याधुनिक दुनिया में जीते भी हैं और खुद को वैचारिक तौर पर धर्म की पुरानी मान्यताओं से भी जकड़े रखते हैं। साफ़ कहें तो वैज्ञानिक तकनीक और धार्मिक अंधविश्वास की मिलीजुली हरकत के रूप में लैपटॉप पर कुंडली देखना ज़करबर्ग के बस की बात नहीं है।कहने की ज़रूरत नहीं है कि बचपन मेंजितना तीक्ष्ण तकनीक को लेकर था उतना ही सचेत समाज को लेकर था। डेविड न्यूमैन के साथ जब मार्क का कोर्स पूरा हो गया तो एक झिटपुट अंधेरे वाली शाम कोएडवर्ड ज़करबर्ग ने मार्क को दूसरे कंप्यूटर कोर्स के वास्ते इलाके के मशहूर मर्सी कॉलेज ले गए। प्रशासन ने दाख़िला ले लिया, लेकिन पहले क्लास के लिए मार्क को कक्षा तक छोड़ने के लिए जब एडवर्ड गए तो शिक्षक ने मार्क की तरफ़ इशारा करते हुए एडवर्ड को चेतावनी दी कि आप क्लास में अपने साथ बच्चे को नहीं ला सकते। इसकी इजाजत नहीं है। एडवर्ड ने बेहद भोलेपन से कहा, - श्रीमान! छात्र यही है, मैं तो इसका पिता हूं। कक्षा ठहाके से गूंज उठी और नतीजा यह हुआ कि शिक्षक पहले ही दिन मार्क से चिढ़ गए। हालांकि हफ़्ते भर बाद मार्क के प्रति उनके नज़रिए में बड़ा बदलाव आया।

ज़करबर्ग परिवार का ज़कनेट
ज़करबर्ग का दिमाग शुरू से अन्वेषी प्रकृति का था। सॉफ्टवेयर के साथ खेलना उसका प्रिय शगल था। स्कूल से लौटने के बाद वो या तो कंप्यूटर पर बैठ जाता या फिर अपने पिताजी के क्लीनिक की ओर निकल लेता। मार्क के पिता एडवर्ड जकरबर्ग दांतों के डॉक्टर थे और अपने मरीजों के बीच वो बेदर्दी डॉ. ज़ेड के नाम से जाने जाते थे। बच्चों की देखभाल के लिए मनोचिकित्सक की भूमिका तजकर मार्क की मां करेन ज़करबर्ग भी पेशे के मामले में ख़ाली बैठी थी तो उन्होंने भी सोचा कि इससे बेहतर है एडवर्ड का ही हाथ बंटाया जाए।एडवर्ड की क्लीनिक में वह ऑफिस मैनेजर बन गईं। यह कोई 1996 की एक दोपहर थी जब क्लीनिक पर बैठे हुए मार्क के दिमाग में यह खयाल आया कि क्या वो इस तरह का कोई सॉफ्टवेयर विकसित कर सकता है जिससे रिसेप्शन पर बैठे व्यक्ति को बार-बार आवाज़ लगाकर एडवर्ड को अगले मरीज के बारे में इत्तला न करना पड़े। इस समय तक मार्क कई सॉफ्टवेयर विकसित कर चुका था। कुछ कंप्यूटर गेम और म्यूज़िक प्लेयर बनाकर अपने गली-मोहल्ले और स्कूल में कम-से-कम एक धाक तो उसने जमा ही ली थी। तो, सॉफ्टवेयर बनाने के वास्ते एक आत्मविश्वास उसके भीतर था जो कुछ भी नया सोचने के लिए ज़रूरी दु:साहस किसी व्यक्ति के भीतर भर सकता है। क्लीनिक पर अपने मन में उभरे खयाल को किशोरावय मार्क ने दिल का सवाल बना लिया। उस दिन से वह लगातार उस काम में जुट गया। हालांकि कभी-कभार तीनों बहन रैंडी, डोना और एरिल इस बात को लेकर उसकी बहुत खिंचाई करती थीं कि वो समूह में खेलने के बजाए कंप्यूटर में खुद को झोंके रखता है। कई बार ऐसा हुआ कि मार्क जब कंप्यूटर पर बैठकर काम कर रहा होता, तो अचानक पता चलता कि बिजली गुल हो गई। 1990 के दशक में भी अमेरिका में बिजली कटना अनोखी बात थी। बार-बार के दोहराव से मार्क परेशान हो उठता, लेकिन बाद में भेद खुलता कि बिजली गई नहीं, काटी गई है। बिजली से लेकर इस तरह के हर उपद्रव के पीछे रैंडी, डोना और एरिल में से किसी-न-किसी का हाथ होता। हालांकि उस दिन को आने में बहुत वक्त नहीं लगा जब मार्क ने अपने पसंदीदा सॉफ्टवेयर का काम खत्म करने के बाद घोषणा की कि अब घर और पिताजी की क्लीनिक के सारे कंप्यूटरों को उस सॉफ्टवेयर की मदद से एक साथ जोड़ा जा सकता है और हर सिस्टम से एक-दूसरे को संदेश भेजा सकता है। ज़करबर्ग परिवार के लिए यह अब तक का सबसे बड़ा चमत्कार था। इसलिए जब सॉफ्टवेयर के नाम रखने की बारी आई तो नाम रखा गया ज़कनेट
एक अलहदा कलाकार
जैसा कहा जाता है कि हर आविष्कार के पीछे कोई कहानी या प्रेरणा होती है उसी तरह ज़करबर्ग के भी ज़्यादातर प्रयोग किसी दिलचस्प वाकये की परिणति है। विज्ञान में दिलचस्पी रखने वाले ज़करबर्ग की ज़िंदगी काफ़ी रंगीन है, सतरंगी। इसलिए न तो उनके जीवन की कहानी किसी गूढ़ वैज्ञानिक पहेली की तरह उबाऊ है और न ही उसमें ठहराव भरी एकरसता है। बचपन में मार्क के ऐसे दोस्तों की तादाद बहुत बड़ी थी, जो कला की दुनिया में न सिर्फ़ रमे रहते बल्कि अपनी एक अलग कलात्मक दुनिया भी बना लेते। वहां की रस्म वही होती, जिनपर दोस्तों के बीच आपसी मसवरे के बाद मुहर लगती। कभी गंभीर तो कभी बेहद मज़ाकिया। ये कलाकार दोस्त रोज़-रोज़ जो हरकत करते मार्क उसे अपने दिमाग के स्टोररूम में जमा करता चलता। एक दिन मार्क ने सोचा कि क्यों न दोस्तों के रोज़ की कल्पनाशीलता को वो डिजिटलाइज करना शुरू करे। बस फिर क्या था कंप्यूटर को उसने अपना कैनवास बना लिया। इधर दोस्त स्केचिंग करते, उधर वो स्केच मार्क के रास्ते कंप्यूटर गेम की शक्ल ले लेता। धीरे-धीरे फरमाइशी कार्यक्रम चलने लगा कि अब की बार ये वाला गेम बनाओ तो अब की बार वो वाला। मार्क भी कलाकार बन गया, लेकिन सबसे अलहदा।
आप मार्क को मूलत: मानते क्या हैं?
मार्क जब हाई स्कूल पहुंचा तो कुछ उपलब्धियां भी अपने साथ लेकर पहुंचा, लेकिन नवाचार की फितरत उसके भीतर इस कदर पैठी हुई थी कि उपलब्धियां कुछ उसी तरह अंक में तब्दील होती गईं जैसे कोई बच्चा पहाड़ा सीख रहा हो। संगीत को लेकर मार्क के मन में हमेशा एक कोमल भावना रही। गाना सुनने के लिए वह किसी खाली समय का इंतज़ार नहीं करता, बल्कि जब भी मन होता, संगीत के आगोश में चला जाता। यह ज़रूर है कि बहुत सुरीला या पेशेवर गायकों की तरह वह गा नहीं सकता, लेकिन संगीत प्रेम को जाहिर करने के वास्ते गाना गाने की ज़रूरत भी नहीं। सो, हाई स्कूल में मार्क ने इंटेलिजेंट मीडिया समूह के बैनर तले एक नए कारनामे को अंजाम दिया। उसने सिनैप्स मीडिया प्लेयर नाम का एक सॉफ्टवेयर बनाया जो उपयोगकर्ता के संगीत प्रेम को कृत्रिम तरीके से परखने में भी मदद करता था। इसके अलावा, हर म्यूज़िक प्लेयर की तरह गाने तो उसमें बजते ही थे। अमेरिका की चर्चित पीसी मैगजीन ने उसे 5 में से 3 अंक दिया। यह पहला मौका था जब मार्क की शख्सियत बड़े स्तर पर पसरने लगी। हाई स्कूल में पढ़ने वाले ज़करबर्ग की चर्चा पूरे अमेरिका में होने लगी। लेकिन, वह अब तक गली-गली लोकप्रिय नहीं हुआ था। अलबत्ता हर शहर में तकनीक से लगाव रखने वाले लोगों के कानों ने ज़रूर इस शब्द को एक परिचित ध्वनि की तरह जगह दे दी थी। बड़ी कंपनियों ने मार्क को नोटिस करना शुरू किया। कई कंपनियों को उसके भीतर खुद का विस्तार दिख रहा था। दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने उस समय मार्क से संपर्क साधा। वह या तो मार्क को अपनी सेवा में लेना चाहती थी या फिर उसके बनाए प्रोग्राम को ख़रीदना चाहती थी। लेकिन मार्क के लिए ऐसे प्रलोभनों का न तो उस समय कोई महत्व था और न ही बाद में उन्होंने इन्हें तवज्जो दी। तो आप मार्क ज़करबर्ग को मूलत: क्या मानते हैं? सॉफ्टवेयर डेवसलपर्स, वीडियो गेम का मुरीद, कला प्रेमी, उद्यमी या फिर संगीत का दीवाना? हालांकि, बहुत कुछ उनके बारे में जानना अभी बाकी है।

.... आगे पढ़ें। दूसरा, तीसरा, चौथा और पांचवा भाग 

1 टिप्पणी:

  1. मुझे अवेंजर सिनेमा का एक सीन याद आ रहा है, जब आयरन मैन से व्यंग्य के साथ पूछा जाता है की वह इस ड्रेस के बिना क्या है? उसका जवाब होता है - अ बिलिनेयर प्लेबॉय

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