फेसबुक के जनक मार्क ज़करबर्ग का जीवन (तीसरा भाग)
दिलीप खान
दिलीप खान
पहले पढ़ें- पहला और दूसरा भाग।
मार्क को अब लगने लगा कि फेसबुक के वास्ते हॉर्वर्ड का वह कमरा छोटा पड़ रहा है। फेसबुक में उन्होंने एक सुनहरा भविष्य देख लिया था। अपने नजदीकी दोस्तों से वो बार-बार कहते कि फेसबुक का काम अब पार्ट टाइम से नहीं चलेगा। एक दिन सुबह जब वो जगे तो नए फैसले के साथ जगे। उन्होंने तय कर लिया कि अब हॉर्वर्ड को अलविदा कहने का समय आ गया है। सो, बीच में उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। वाशिंगटन के इस विख्यात विश्वविद्यालय से निकलकर उन्होंने सिलिकन वैली का रुख किया। इस समय तक मार्क के पास फेसबुक का विराट स्वप्न था, महीनों की मेहनत थी, लगन था, सिर्फ एक चीज़ नहीं थी और वो था- धन। जून 2004 में फेसबुक का बोरिया-बिस्तर समेटकर ज़करबर्ग पालो ऑल्टो, कैलिफॉर्निया चले गए। अब मार्क, मोस्कोविच, सैवेरिन और ह्यूग ने एकसूत्रीय एजेंडे पर काम करना शुरू किया। सवेरे-सवेरे ये लोग सिलिकन वैली में एक अदद निवेशक की तलाश में धूल फांकने निकल पड़ते। मार्क की जिद थी कि कोई विश्वसनीय और बाज़ार को समझने वाला निवेशक चाहिए। जून में ही पे-पल के सह-संस्थापक पीटर थील की तरफ से मार्क को पहला निवेशक मिला। लेकिन मार्क ने दूसरे निवेशक की तलाश जारी रखी। जल्द ही रॉन कॉनवे से मार्क की मुलाकात हुई। शुरुआत में कॉनवे ने मार्क को बावला लड़का समझा, जो पढ़ाई छोड़कर खामख्वाह व्यवसाय में हाथ आजमाने की कोशिश में सिलिकॉन वैली आ गया था, लेकिन मार्क की कुछ बातें उन्हें बेहद पसंद आई, ख़ासकर उनका आत्मविश्वास। रॉन कॉनवे को मार्क ने सपाट लहजे में कहा, “आप निवेश कीजिए, मैं वादा करता हूं भविष्य में इसके 300 मिलियन यूजर्स होंगे। मैं दूंगा यूजर्स, आप दीजिए डॉलर्स।” पांच लाख डॉलर के निवेश के साथ ज़करबर्ग ने एक चाइनीज रेस्त्रां के ऊपर अपना दफ़्तर खोल लिया। कुछ ही महीनों के भीतर फेसबुक ने एक मिलियन (यानी 10 लाख) यूजर्स हासिल कर लिया। फेसबुक शुरू होने के एक साल बाद यानी 2005 में फेसबुक यूजर्स की संख्या 50 लाख तक पहुंच गई। कॉनवे ने उस समय लगभग चीखते हुए कहा, “यह है असली कंपनी। हज़ार फ़ीसदी की रफ़्तार से तरक्की करती हुई कंपनी।”
मार्क को अब लगने लगा कि फेसबुक के वास्ते हॉर्वर्ड का वह कमरा छोटा पड़ रहा है। फेसबुक में उन्होंने एक सुनहरा भविष्य देख लिया था। अपने नजदीकी दोस्तों से वो बार-बार कहते कि फेसबुक का काम अब पार्ट टाइम से नहीं चलेगा। एक दिन सुबह जब वो जगे तो नए फैसले के साथ जगे। उन्होंने तय कर लिया कि अब हॉर्वर्ड को अलविदा कहने का समय आ गया है। सो, बीच में उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। वाशिंगटन के इस विख्यात विश्वविद्यालय से निकलकर उन्होंने सिलिकन वैली का रुख किया। इस समय तक मार्क के पास फेसबुक का विराट स्वप्न था, महीनों की मेहनत थी, लगन था, सिर्फ एक चीज़ नहीं थी और वो था- धन। जून 2004 में फेसबुक का बोरिया-बिस्तर समेटकर ज़करबर्ग पालो ऑल्टो, कैलिफॉर्निया चले गए। अब मार्क, मोस्कोविच, सैवेरिन और ह्यूग ने एकसूत्रीय एजेंडे पर काम करना शुरू किया। सवेरे-सवेरे ये लोग सिलिकन वैली में एक अदद निवेशक की तलाश में धूल फांकने निकल पड़ते। मार्क की जिद थी कि कोई विश्वसनीय और बाज़ार को समझने वाला निवेशक चाहिए। जून में ही पे-पल के सह-संस्थापक पीटर थील की तरफ से मार्क को पहला निवेशक मिला। लेकिन मार्क ने दूसरे निवेशक की तलाश जारी रखी। जल्द ही रॉन कॉनवे से मार्क की मुलाकात हुई। शुरुआत में कॉनवे ने मार्क को बावला लड़का समझा, जो पढ़ाई छोड़कर खामख्वाह व्यवसाय में हाथ आजमाने की कोशिश में सिलिकॉन वैली आ गया था, लेकिन मार्क की कुछ बातें उन्हें बेहद पसंद आई, ख़ासकर उनका आत्मविश्वास। रॉन कॉनवे को मार्क ने सपाट लहजे में कहा, “आप निवेश कीजिए, मैं वादा करता हूं भविष्य में इसके 300 मिलियन यूजर्स होंगे। मैं दूंगा यूजर्स, आप दीजिए डॉलर्स।” पांच लाख डॉलर के निवेश के साथ ज़करबर्ग ने एक चाइनीज रेस्त्रां के ऊपर अपना दफ़्तर खोल लिया। कुछ ही महीनों के भीतर फेसबुक ने एक मिलियन (यानी 10 लाख) यूजर्स हासिल कर लिया। फेसबुक शुरू होने के एक साल बाद यानी 2005 में फेसबुक यूजर्स की संख्या 50 लाख तक पहुंच गई। कॉनवे ने उस समय लगभग चीखते हुए कहा, “यह है असली कंपनी। हज़ार फ़ीसदी की रफ़्तार से तरक्की करती हुई कंपनी।”
चार चौरंगे |
2004 के मध्य में जब फेसबुक नाम की कंपनी ने अपना कारोबार शुरू किया उसी
समय से उद्यमी सीन पार्कर ने अपने व्यावसायिक तजुर्बे का इस्तेमाल करते हुए फेसबुक
की काफ़ी मदद की।सिलिकॉन वैली में भी सीन पार्कर ने निवेशकों से लेकर व्यवसाय से
संबंधित ज़्यातार मामलों में फेसबुक की अगुवाई की। सीन पर मार्क का पूरा भरोसा था।
फेसबुक ने कारोबारी जगत में तेज बढ़त बनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे बड़ी कंपनियों
की आंखों में फेसबुक टंग गया। उन्होंने फेसबुक की ओर तवज्जो देना चालू किया। ये
कंपनियां न सिर्फ फेसबुक में निवेश करना चाहती थीं, बल्कि पूरी कंपनी को ही
ख़रीदना चाहती थीं। 2006 में याहू ने मार्क को 1 बिलियन डॉलर (5000 करोड़ रुपए) का
ऑफर दिया, जिसे मार्क ने अस्वीकार कर दिया। मार्क के भीतर फेसबुक को लेकर जो ख्वाब
पल रहा था वो अरब आंकड़े वाले डॉलर का नहीं था, वह अरब यूजर्स का था। याहू का
प्रस्ताव ठुकराने के बाद एक चर्चित अमेरिकी आईटी पत्रिका ने अपनी कवर स्टोरी की –
एक बच्चा जिसने 1 अरब डॉलर की डील ठुकरा दी! उस समय याहू के सीईओ टेरी सेमेल ने कहा- किसी 23 साल के नवयुवक से अपनी
ज़िंदगी में मेरी मुलाकात नहीं हुई जो एक अरब डॉलर को यूं चुटकी में ठुकरा दें।
अब तक फेसबुक सिर्फ अमेरिकी
विश्वविद्यालयों तक महदूद था। मार्क ने फेसबुक को विश्वविद्यालय की चौहद्दी से
बाहर ला खड़ा किया। इस नए चरण में एप्पल और माइक्रोसॉफ्ट सहित कई कंपनियों के
कर्मचारियों के वास्ते फेसबुक का दरवाज़ा खोला गया और अंतत: 26
सितंबर 2006 यह फैसला लिया गया कि एक अदद ई-मेल आईडी रखने वाला 13 साल या उससे
ज़्यादा उम्र का कोई भी व्यक्ति फेसबुक पर अपना खाता खोल सकता है। मार्क अपने इस
फैसले को तार्किक कदम कहना ज़्यादा पसंद करते हैं। फेसबुक की इस घोषणा के बाद से
हर रोज़ 50 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने जुड़ना शुरू कर दिया। मार्क को फेसबुक की
लोकप्रियता का अंदाज़ा तो था, लेकिन इतने जुनूनी तरीके से लोग इसे हाथों-हाथ लेंगे
इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। जल्द ही फेसबुक यूजर्स की संख्या करोड़ तक पहुंच गई।
माइक्रोसॉफ्ट ने अब फेसबुक को 15 बिलियन डॉलर (75000 करोड़ रुपए) का ऑफर दिया।
मार्क की उम्र उस समय महज 23 साल की थी। बिल गेट्स की माइक्रोसॉफ्ट को उम्मीद थी
कि ज़करबर्ग इतने में पिघल जाएंगे, लेकिन जिस तरह झटके में मार्क ने याहू के
प्रस्ताव को ठुकराया था, उसी तरह माइक्रोसॉफ्ट को भी बैरंग वापस भेज दिया। यह
अमेरिकी व्यावसायिक हलकों के बीच एक सनसनीखेज घटना थी।
फेसबुक
के एटीएम से की-बोर्ड निकलता है
फेसबुक की बढ़ती क़ीमत को लेकर लोगों
के बीच एक उफ की भावना घर करने लगी। एक साल पहले जिस कंपनी को एक अरब डॉलर का
प्रस्ताव मिला, उसके ठीक अगले साल उसी कंपनी को 15 गुना ज़्यादा क़ीमत मिल रही थी,
लेकिन कंपनी का जिद्दी संस्थापक उसे बेचने को रत्ती भर भी तैयार नहीं! कई
बाज़ार विश्लेषक ने मार्क के कदम को उस समय बेवकूफाना करार देते हुए ये तक कह डाला
कि मार्क बाज़ार का कच्चा खिलाड़ी है। यह अलग बात है कि उन विश्लेषकों से स्टॉक
एक्सचेंज की दुनिया के बाहर कोई नहीं जानता। मार्क कच्चा हो, पक्का हो, बाज़ार को
कम जानता हो, ज्यादा जानता हो ये ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है तो बस
वह अदद जिद्द कि अपनी कंपनी बनानी है। इस जिद्द की वजह से ही उन्होंने किसी भी
कॉरपोरेट घराने का कोई प्रस्ताव मंजूर नहीं किया। उन दिनों को याद करते हुए मार्क
कहते हैं कि, “सबसे आकर्षक ऑफर याहू का था क्योंकि उसी ने
पहली बार अरब का आंकड़ा नज़रों के सामने पेश किया था।”
तब से लेकर अब तक मार्क ने फेसबुक को
लगातार विस्तार दिया है। 1601, कैलिफॉर्निया एव में स्थित फेसबुक के मुख्यालय में
बाकी इंजीनियरों की तरह मार्क भी खुले हॉल में बैठते हैं, उनके लिए कोई अलग केबिन
नहीं है। सबकी सीटों के बीच एक मार्क की भी सीट है। जाहिर है वह खुद को विशिष्ट
नहीं बनने देना चाहते। हां, जिस टेबल पर मार्क बैठते हैं उस पर उन्होंने खुद का एक
छोटा सा कट-आउट ज़रूर लगा रखा है। यही कट-आउट मार्क की निशानी है। यह हरकत बिल्कुल
उस तरह की है जैसे कॉलेज के नौजवान पुस्तकालय या फिर कक्षा में अपनी सीट घेरने के
लिए उस पर कुछ संकेत चस्पां कर दें और फिर सीट को लेकर अपनी दावेदारी जताए। बराबरी
में यह ‘ख़ास’ का भाव मस्ती भरे अंदाज़ में मार्क हासिल कर
रहे हैं। मार्क अगर दफ़्तर में नहीं होते हैं तो किसी भी पूछताछ के लिए सारे
कर्मचारी फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। दफ़्तर की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यहां
पर फेसबुक बैन नहीं है! हालांकि इस ऑफिस को ऐसा करने का पूरा
हक़ है। मार्क की कोशिश रहती है कि इंजीनियर जितना भी समय ऑफिस में गुजारे उसमें
अनुत्पादक गतिविधियों में कुछ भी खर्च न हो। इसके लिए उन्होंने कई दिलचस्प
व्यवस्थाएं कर रखी है। एक मिसाल लीजिए- अगर काम करते-करते आपका की-बोर्ड टूट गया,
तो बाकी ऑफिस की तरह आपको आईटी डिपार्टमेंट का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। एक मशीन
में अपना कार्ड लगाइए, नया की-बोर्ड ठीक उसी तरह निकलेगा, जिस तरह एटीएम से नोट निकलता
है। साथ में मशीन पर लिखा आएगा--हैव ए नाइस डे! है न अद्भुत?
वक़्त की
ज़रूरत थी कि उसके डैने को मोड़ा जाए
फेसबुक की बेहतरी के लिए उनके पास एक
मेहनती टीम है जो आपस में बेहद अपनापन भरा माहौल बनाए रखती है। यही वजह है कि गूगल
जैसी कंपनियां सोशल नेटवर्किंग की दुनिया में फेसबुक से पछाड़ खाए बैठी है। मार्क
कहते हैं, “हमारे पास लगभग 6000 इंजीनियर हैं। माइक्रोसॉफ्ट और गूगल
के पास दसियो हज़ार इंजीनियर हैं। हमारे बीच एक बड़ा फर्क तो ज़रूर है, लेकिन हम
मेहनती हैं। हमारा समूह छोटा है, लेकिन यूजर्स बड़ा है। हम बड़ी कंपनियों से कोई
प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे हैं। ये तो सिर्फ हमारी शुरुआत है। कई ऐसे देश हैं जहां
अब भी हमारा नाम तक नहीं सुना गया है। हम पहले वहां जाना चाहते हैं।” असल में मार्क की यही शांत नहीं बैठने की आदत फेसबुक को लगातार फैला रही
है और नियमित अंतराल पर साइट में ज़रूरी बदलाव भी कर रही है।
फेसबुक के जवाब में गूगल ने गूगल
प्लस खोला। दुनिया में कई साइबर विशेषज्ञों ने यह भविष्यवाणी की कि गूगल जैसी
पुरानी, बड़ी और विश्वसनीय कंपनी के मैदान में उतरने के बाद फेसबुक की खटिया खड़ी
हो जाएगी, लेकिन आज महीनों बाद वे सारी भविष्यवाणियां झूठी लग रही है। फेसबुक है
और लगातार मज़बूती कायम रखते हुए है। मार्क ने कभी भी सीधे-सीधे प्रतिस्पर्धा की
बात नहीं कबूली। वह गूगल को एक बड़ी और विश्वसनीय कंपनी मानते हैं लेकिन उनका
मानना है कि यूजर्स अभी भी फेसबुक पर शेयर करना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। चूंकि
यूजर्स को उन्होंने पहले मंच दिया, इसलिए एक स्वाभाविक लगाव फेसबुक के साथ वो
महसूस करते हैं। मार्क का कहना है, “मुझे ऐसा लगता है कि हमारा
तरीका बेहतर है। अगर हम ज्यादा खुला मंच देते रहेंगे, हम भविष्य में और बेहतर कर
पाएंगे।” फेसबुक को वो अपनी उपलब्धि इस अर्थ में नहीं मान रहे कि
उन्होंने नेटीजेन समाज को सोशल नेटवर्किंग का एक नया टूल थमाया, बल्कि वो इसे
वक़्त की ज़रूरत मानते हैं। उनके मुताबिक, “अगर उस समय इसे मैंने शुरू नहीं किया होता तो शर्तिया
इसे किसी दूसरे ने हमारे सामने पेश किया होता। समाज के बीच यह आता ज़रूर, चाहे इसे
पेश करने वाले शख्स का नाम मार्क हो या फिर कुछ और।”
इतने
पैसे हैं, फिर भी कपड़े नहीं ख़रीदते!
इन बातों का ये मतलब नहीं है कि
मार्क सिर्फ दिन-रात फेसबुक के बारे में ही सोचते रहते हैं और प्रतिद्वंद्वी
कंपनियों के भीतर काम-काज पर उनकी नज़र नहीं है। नज़र तो वह चारों तरफ़ रखते हैं,
लेकिन सोच के केंद्र में फेसबुक ही रहता है। गूगल में ग्लोबल ऑनलाइन सेल्स एंड
ऑपरेशंस की उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहीं शेरली
सैंडबर्ग को फेसबुक से जोड़ने के लिए मार्क को काफी पापड़ बेलने पड़े। लंबी वार्ता
और काफी मशक्कत के बाद शेरली ने फेसबुक के लिए हां कहा। शेरली का आना मार्क और
फेसबुक कंपनी के लिए यह बेहद अहम उपलब्धि है। शेरली सैंडबर्ग को मार्क ने फेसबुक
का सीओओ यानी चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर बनाया। फेसबुक ज्वाइन करने के बाद जब शेरली ने
दफ़्तर आना शुरू किया तो शुरुआत में मार्क के पास जाने में वह अजीब-सी हिचकिचाहट
दिखातीं। रोज़-रोज़ मार्क का एक ही जैकेट और जींस पहनकर आना उन्हें बेहद अटपटा
लगता। वह सोचती काम के दबाव में शायद मार्क कपड़े तक नहीं बदलते। बदबू के डर से वह
पूरे दो दिन कोई न कोई बहाना करके उनसे दूर रही। उस घटना को याद करते हुए शेरली
कहती हैं, “मैं पहले गच्चा खा गई कि मार्क एक ही जैकेट रोज पहनते
हैं। मुझे लगा कैसा आदमी है, इतना पैसा है फिर भी कपड़े तक नहीं ठीक से खरीदता। तब
दफ्तर के लोगों ने मुझे कहा, अरे तुम पास जाने से घबराओ नहीं मार्क के पास ठीक इसी
तरह के कई जैकेट हैं।” मार्क की यही ख़ासियत है। वह हल्की
कत्थई और धूसर रंग की टीशर्ट खूब पहनते हैं। जिनको नहीं मालूम होगा वो आज भी यही
समझेंगे कि हफ्तों वह एक ही टीशर्ट पर गुजारा करते हैं!
फैशन को लेकर वह बहुत ज़्यादा सजग नहीं रहते। वक्त और जगह देखकर कपड़े
पहनने की उनकी आदत नहीं है। 19 अक्टूबर 2006 को उन्होंने अपने फेसबुक खाते पर एक
फोटो शेयर की (इसे अभी भी देखा जा सकता है)। फोटो के साथ उन्होंने विवरण लिखा, “यह मार्केटवॉच की
बांबी फ्रैंसिस्को को दिए गए साक्षात्कार की तस्वीर है। मुझे अच्छी तरह याद है कि
साक्षात्कार के समय बांबी यह देखकर नाराज हो गई थी कि मैं शॉर्ट्स पहने हुए टीवी
स्क्रीन पर नज़र आउंगा। एक साल बाद बांबी ने फिर से मेरा साक्षात्कार किया और
संयोग देखिए उस दिन भी मैंने यही शॉर्ट्स पहन रखे थे।”लेकिन
आप सिर्फ़ ये मत सोचिए कि मार्क की लापरवाही सिर्फ़ कपड़ों तक सीमित है। सच्चाई तो
ये है कि वो रंगों को लेकर भी
बहुत सचेत नहीं रहते।घर की दीवारों के रंग को लेकर कई दोस्तों ने प्रतिक्रिया
जाहिर की कि उन्होंने बेहद बेतरतीब तरीके से मकान को रंग रखा है। किचन का रंग चटक
पीला है, जो दोस्तों को सुहाता नहीं। असल में रंग के मामले में मार्क के साथ एक
दिक़्क़त जुड़ी हुई है। वह लाल और हरे रंग में अंतर नहीं कर पाते। बहुत दिनों बाद
उन्हें पता चला कि वो कलर ब्लाइंडनेस यानी वर्णांधता के शिकार हैं।
गूगल के
भीतर गूगल के मालिक से ज़्यादा लोकप्रिय
उनका फेसबुक खाता खुला दरबार है। आप
उसे सब्सक्राइब कर सकते हैं, इन्फो देख सकते हैं, फोटो एलबम देख सकते हैं और लाइक,
कमेंट व शेयर भी कर सकते हैं। फेसबुक के दूसरे सह-संस्थापक डस्टिन मोस्कोविच ने
इसके ठीक उलट अपने खाते को गोपनीय बना रखा है। फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजना तो दूर आप
उन्हें सब्सक्राइब भी नहीं कर सकते, हां क्रिस ह्यूग्स के खाते पर आपको उतनी ही
आज़ादी हासिल है जितनी मार्क के खाते पर। क्रिस के पास महज 2000 दोस्त हैं, लेकिन
सब्सक्राइवर लाखों हैं। वहीं आपको पता चलेगा कि क्रिस द न्यू रिपब्लिक के प्रधान
संपादक हैं और सीन एल्ड्रीज के साथ उनकी सगाई भी हो चुकी है। खास बात यह है कि सीन
एल्ड्रीज और क्रिस ह्यूग्स दोनों पुरुष हैं। फेसबुक पर मार्क काफी सक्रिय रहते
हैं, लेकिन कई यूजर्स की तरह वो इसके इस कदर एडिक्ट नहीं हैं कि दिन में 10 स्टेटस
न लिखें तो चैन न आए! संकुचित दायरे में रहकर चीज़ों को वो न तो
देखते हैं और न ही ऐसी आदतें उन्हें पसंद हैं। जिस समय गूगल ने गूगल+ की शुरुआत की और जिसके बाद विशेषज्ञों ने फेसबुक के लिए उसे बड़ी चुनौती
के तौर पर पेश किया तो प्रतिद्वंद्वी कंपनी समझकर ज़करबर्ग ने उससे कन्नी नहीं
काटी, बल्कि उन्होंने गूगल+ पर अपना खाता खोलकर उसका स्वागत
किया। और, लोकप्रियता की मिसाल देखिए जुलाई 2011 में मार्क गूगल+ की दुनिया के ऐसे व्यक्ति बन गए जिनको फॉलो करने वाले यूजर्स की तादाद इस
ग्रह पर सबसे ज़्यादा थी। गूगल के सह-संस्थापक लैरी पेज और सरजई ब्रिन से भी
ज़्यादा! गूगल+ पर उन्होंने अपने बारे
में सिर्फ एक छोटा-सा वाक्य लिखा है, “आई मेक थिंग्स।” ट्विटर पर भी ज़करबर्ग ने ‘ज़क’ नाम से अपना खाता खोल रखा है। 2009 ई. में उन्होंने एक नया पर्दाफाश किया
कि ‘फिंक्ड’ नाम से भी वो ट्विटर पर
सक्रिय हैं। तो, दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी मार्क उतने ही सक्रिय रहते
हैं जितने फेसबुक पर। असल में इसी सक्रियता की वजह से वो फेसबुक में कुछ नया कर
पाते हैं। वो हमेशा नएपन की खोज में रहते हैं। सोशल नेटवर्किंग की दुनिया ऐसी है
कि थोड़ा नयापन और थोड़ी खूबसूरती ही फर्क पैदा करने के लिए पर्याप्त साबित होती
है। मार्क का मानना है कि साइट्स को जितना सरल रखा जाएगा वह उतनी ही यूजर्स
फ्रेंडली होगी। इसके लिए वह बच्चों से भी सलाह लेने से नहीं कतराते। वह अपनी पत्नी
प्रिसिला चैन की छोटी बहन से पूछते रहते हैं कि हाई स्कूल में पढ़ने वाली वो और
उनकी सहेलियां इन साइट्स से क्या उम्मीदें रखती हैं। स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले
विद्यार्थियों की प्रतिक्रिया को वे सबसे ज़्यादा गंभीरता से लेते हैं। वे जानते
हैं कि यूजर्स के नए खेप की उम्मीदों पर अगर वो खरे नहीं उतरेंगे तो भविष्य उनका
नहीं होगा। आप कह सकते हैं कि चौकन्ने नज़र के साथ वो सामने वाले से बात करते हैं,
लेकिन इस बात का आभास दिए बग़ैर।
जोए की
ना का मतलब अरबों की भूल
वेब 2.0 सम्मेलन 2010 में ज़करबर्ग
ने फेसबुक में मौजूद मैसेजिंग की सुविधा को बयां करते हुए कहा, “मैसेजिंग
ई-मेल का स्थानापन्न तो नहीं है, लेकिन ई-मेल दैनंदिन की बातचीत के लिए अब ख़त्म
हो जाएगा। दुनिया कहीं ज़्यादा तेज हो गई है। एसएमएस या मैसेज में ई-मेल की तरह
कोई विषय नहीं लिखना पड़ता। इनमें हे मॉम या हे डैड लिखने की अतिरिक्त मेहनत नहीं
करनी पड़ती और आखिर में रिगार्ड्स भी लिखने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। इसके अलावा
पैराग्राफ बदलने के झंझट से भी मुक्ति मिल जाती है। यही छोटी-छोटी आज़ादी और
सुविधा है जो यूजर्स की पसंद तय करती हैं।”
फेसबुक की शुरुआत से लेकर अब तक
मार्क ने लगातार आर्थिक उन्नति को ही देखा है लेकिन इसके बावजूद वे ऐसी छोटी-छोटी
चीज़ों को लेकर खुशियां मनाते हैं जो एक अरबपति के लिए कोई मायने नहीं रखतीं।
हॉर्वर्ड से जब मार्क ने कैलिफॉर्निया आकर रहने लगे तो उनका वॉशिंगटन जाना-आना
पहले के मुकाबले कम होता। ऐसे ही एक मौके पर ज़करबर्ग की मुलाकात अपने पुराने
रुम-मेट जोए ग्रीन से हुई। उन्होंने जोए को मारे खुशी के दोहरे होते बताया कि
उन्होंने अपने पैसे से एक घर ख़रीद लिया है। जोए की अरसे बाद मार्क से मुलाकात हुई
थी। मार्क जब फेसबुक की शुरुआत करने को लेकर कंपनी बनाने की सोच रहे थे तो
उन्होंने जोए से भी संपर्क साधकर अपने साथ आने का अनुरोध किया था। उस वक़्त जोए ने
अपने पिताजी के दबाव में मार्क को ना कहा था। हॉर्वर्ड में फेसमैस का सबसे ज़्यादा
मज़ा लेने वाले लोगों में से एक जोए ग्रीन को उनके प्रोफेसर पिता ने मार्क के साथ
जाने से रोका था। असल में फेसमैस की शरारत में उस वक्त जोए ग्रीन को दो बार तलब
किया गया था। जोए के पिता ने उन्हें मार्क की बजाए ठीक संगत में रहने की सलाह दे
डाली। मार्क के भीतर उन दिनों हॉर्वर्ड के कई प्रोफेसरों को एक आवारागर्द बांका
युवा दिखता था जो कॉलेज की मस्ती की बदौलत परिसर में तो मशहूर हो जाते हैं लेकिन
भविष्य में इन मस्तियों को याद कर बहुत रोते हैं कि थोड़ा पढ़ लिए होते तो जीवन
कुछ अलग होता! बहरहाल जब जोए ग्रीन से मार्क की मुलाकात हुई तो मार्क ने
उनसे कहा, “तुमने मुझे ना कहकर अरबों की भूल कर दी।”
अलग-अलग
प्रोफेसर, अलग-अलग राय
ऐसा नहीं था कि हॉर्वर्ड के सारे प्रोफेसरों
के बीच मार्क की मान्यता एक-सी थी। वास्तव में जिन प्रोफेसरों के साथ कक्षा में
मार्क मुखातिब होते, मार्क के प्रति उन सारे प्रोफेसरों की राय बाकी शिक्षकों की
तुलना में अलग थी। ज़करबर्ग को हॉवर्ड में कंप्यूटर विज्ञान पढ़ाने वाले प्रो.
हैरी लेविस को तो शुरू में यह आभास तक नहीं था कि सालों पहले जिस बिल गेट्स को
उन्होंने कंप्यूटर विज्ञान पढ़ाया ठीक वैसा ही जुनून वाला कोई शख्स हॉर्वर्ड में
फिर आ धमकेगा और जो सचमुच गेट्स की तरह ही कंप्यूटर जगत की बुलंदियों को छुएगा।
कुछ ही हफ्तों में हैरी की नज़र मार्क पर टिक गई। असल में कक्षा में मार्क के पास
पूछने को सवालों के अंबार होते थे। आलम ये हो जाता कि कक्षा के बाहर भी वो हैरी
लेविस का पीछा करते रहते। हैरी को इस तरह के जिज्ञासु छात्र हमेशा से पसंद रहे
हैं। हॉर्वर्ड के दिनों को लेविस अब याद करते कहते हैं, “ज़करबर्ग
में सीखने की ज़बर्दस्त भूख थी। कुछ पूछने से वह बिल्कुल भी नहीं शर्माता था। आम
छात्रों में यह फैशन देखा जाता है कि आसान चीज़े पूछने में उन्हें लगता है कि उनकी
इज्ज़त दांव पर लग गई हो। मार्क में ऐसा नहीं था। वह आसान से आसान और दिमाग चकराने
वाले कठिन से कठिन सवाल पूछता रहता था। यही स्वभाव आपको विलक्षण बनाता है। सालों
पहले मैंने यही चमक बिल गेट्स के भीतर देखी थी।”
मार्क की मेहनत का नतीजा है कि 258
एकड़ में फैले एक नामचीन अमेरिकी विश्वविद्यालय के एक साधारण से कमरे से निकले
फेसबुक ने दुनिया भर में अपना साम्राज्य फैला लिया है और इस पूरे सफ़र को तय करने
में महज आठ साल लगे। आभासी धरती पर मार्क की कब्जेदारी लगातार फैलती जा रही है।
गति के लिहाज़ से देखे तो दुनिया के किसी भी देश ने इतने विशाल भौगोलिक दायरे में
इतने सीमित काल में कभी भी विस्तार हासिल नहीं किया। औपनिवेशिक युग की पराकाष्ठा
के दौर में भी नहीं। आज दुनिया में चीन और भारत के बाद तीसरा सबसे ज़्यादा आबादी
वाला मंच फ़ेसबुक है। अमेरिका और यूरोपीय संघ की सम्मिलित आबादी से ज़्यादा लोग
फेसबुक पर अब तक लॉग इन कर चुके हैं और एक खाते के साथ फेसबुक को इस स्थिति तक
पहुंचाने में मैंने भी मदद की है! क्या आपका खाता है फेसबुक पर?
इसके आगे पढ़ें चौथा और पांचवां भाग।
इसके आगे पढ़ें चौथा और पांचवां भाग।
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