04 अक्तूबर 2012

दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल का खोखला 'सच'.



महताब आलम,
दिल्ली पुलिस की प्रतिष्ठित स्पेशल सेल, इन दिनों एक बार फिर काफी चर्चा में है. पर आतंकवाद माओवाद, उग्रवाद और न जाने क्या-क्या से 'लड़ने' के लिए चर्चित दिल्ली पुलिस का ये विशेष बल, जिसकी स्थापना सन 1946 में, "दी दिल्ली स्पेशल पुलिस एसटैबलिस्मेंट एक्ट-1946" तहत हुयी थी. लेकिन  इस चर्चा से स्पेशल सेल कुछ ज़यादह खुश नहीं है, बल्कि  परेशान नज़र आ रही है. और आयदिन अखबारों में तरह-तरह के बयान दे रही है. इसका मुख्य कारण है, पिछले दिनों दिल्ली के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षको के एक मानवाधिकार संगठन, जामिया टीचर्स सोलिडरिटी असोसिऐशन (JTSA) द्वारा इस विशेष बल की करतूतों पर लायी गयी रिपोर्ट, जिसका नाम है, आरोपित, अभिशप्त और बरी: स्पेशल सेल का खोखला 'सच'.  इस रिपोर्ट को  2008 में सितम्बर की 19 तारीख को जामिया नगर के बटला हाउस में हुए तथाकथित मुडभेड की चौथी बरसी की पूर्व संध्या पर एक बड़े कार्यक्रम में दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर, चर्चित लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधती राय, वरिष्ठ अधिवक्ता एन डी पंचोली, फर्जी मामलो में दिल्ली पुलिस फ़साये गए और जेल से चौदह साल बाद रिहा मोहम्मद आमिर और मकबूल शाह ने रिलीज किया. इस मौके पर विद्यार्थितियों, शिक्षकों, पत्रकारों, एक्टिविस्ट्स और वकीलों की बड़ी तादाद के अलावा पुलिस के लगभग सौ नौजवान, उनके ऑफिसर्स का एक बड़ा अमला और सादी वर्दियों में पुलिस और गुप्तचर एजेंसियों के लोग भारी संख्या में  मौजूद थे.
200 पृष्ठों के इस रिपोर्ट में उन सोलह मुकदमो की पड़ताल की गयी है, जिसमे पहले -पहल पुलिस ने दावा किया था कि उनके द्वारा पकड़ा गया व्यक्ति 'खूंखार आतंकी' है और इनका ताल्लुक हरकतुल जिहाद इस्लामी (हुजी), लश्करे तोयबा, अल बद्र या इन जैसे अन्तराष्ट्रीय आतंकी संगठन से है. ये लोग एक नहीं बल्कि कई बड़ी आतंकी घटना' अंजाम देने वाले थे पर हमारे बहादुर पुलिस ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर इन्हें धर दबोचा. लेकिन हकीकत ये है कि इनलोगों के बारे में अदालतों से ये साबित हुआ कि इन व्यक्तियों   का ऐसी किसी गतिविधि से दूर-दूर तक का कोई लेना देना नहीं है. कोर्ट ने कई मामलो में आरोपियों को बरी करते हुए साफ़ तौर पर कहा : “पुलिस वालों ने इन्हें जान-बूझकर फर्जी मुकदमों फसाया”.  जिसकी वजह से उन्हें लम्बे समय तक, बिना किसी गुनाह के, जेलों में गुज़रने पड़े. इन सोलह में से दो आरोपी ऐसे हैं, जिन्हें अपने जवानी के चौदह साल भारत के विभिन्न जेलों में गुजारने पड़े. लेकिन छूटने के बाद आज भी उनकी ज़िन्दगी नरक बनी हुयी है-- कमाने के लिए रोज़गार नहीं, वक़्त बिताने के लिए दोस्त नहीं, कईयों के माँ-बाप ये उम्मीद लेकर ही इस दुनिया से चल बसे कि उनका बेटा एक दिन छूट कर आएगा, कोई इनके साथ शादी के लिए  जल्दी अपनी बेटी देने के लिए तैयार नहीं. कुल मिलाकर इनकी जिंदगियां बर्बाद कर दी गयी और जेल से छूटने के बाद भी 'आतंकी' कहलाते है. और ये सब इनके साथ इस लिए नहीं हो रहा कि इनमे से कोई भी ऐसी किसी घटना में लिप्त हो. बल्कि इनको इनकी बेगुनाही की सज़ा मिली है और आजतक मिल रही है. और इस सब का ज़िम्मेदार है: दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल. ये रिपोर्ट इन्ही कुकर्मो को उद्घाटित करता है और इसलिए दिल्ली पुलिस के रातों की नींद उडी हुयी है.
आईये, राज्य बनाम गुलाम मोहिउद्दीन डार के मामले पर एक नज़र डालते हैं, जिसे छह साल, बिना किसी गुनाह के जेल में गुज़रने पड़े. बात 2005 की है,  पुलिस के मुताबिक 27 जून को उन्हें, उनके बेनाम खबरी द्वारा पता चलता है कि दो कश्मीरी आतंकी, जाहिद और मसूद, नापाक इरादों के साथ दिल्ली में दाखिल हो रहे हैं. पुलिस अपने खबरी से कहा कि वो इस खबर की के बारे में और पता करें. और इसी बीच, 1 जुलाई को खबरी बताता है कि दो आतंकी अपने दो और साथियों के साथ, गोला- बारूद और हथियारों का एक बड़ा ज़खीरा लिए हुए जयपुर से HR26S0440 नंबर वाली  टाटा इंडिका गाड़ी में दिल्ली की तरफ आ रहे है.  इस पूरे मामले पर निगाह रखे हुए इस्पेक्टर रविंदर त्यागी ने तुरंत पुलिस वालों की एक टोली बना कर दिल्ली -जयपुर हाईवे पर मोर्चा डाला. पुलिस बल ने, 2 जुलाई के तडके उस गाड़ी को देखा, जो दिल्ली की तरफ आ रही थी. पहले रुकने के लिए हाथ दिया पर न रुकने पर पुलिस ने उनका पीछा किया और गोलीबारी के बाद उन्हें पकड़ने में कामयाब रही.  पर जब मामला कोर्ट में पहुंचा तो पुलिस के ये सारे दावे न सिर्फ धरासायी हो गए बल्कि फर्जी साबित हुए. बहस के दौरान इन्स्पेक्टर रविंदर त्यागी, जो इस मामले अगुवाई कर रहे थे, अपने किसी भी दावे के लिए कोई सबूत पेश करने में नाकामियाब रहे. और कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा कि किसी व्यक्ति  को भी सिर्फ संदेह की बुनियाद पर सज़ा नहीं दी जा सकती. यही नहीं, कोर्ट में पुलिस का ये दावा किया था कि उन्होंने आरोपी के पास से आर्मी की वर्दी और पालम एअरपोर्ट का नक्शा बरामद किया है  पूरी तरह फर्जी साबित हुआ. कोर्ट ने पाया  कि आर्मी की वर्दी आरोपी की नहीं थी और पुलिस ने ही रखा था. इस मामले जो गवाह पेश किया गया था वो फर्जी था जिसने दिल्ली केंट इलाके एक फूटपाथ पर अपना दुकान लगाने देने के एवज में, 'हफ्ते' के तौर पर ये गवाही दी थी. इसी प्रकार, पालम हवाई अड्डे के नक़्शे के बारे में कोर्ट ने कहा, अगर ये नक्शा आरोपी के पाकेट से बरामद हुआ है तो क्यूँ कर ये एक बार ही मुड़ा है? क्या इस नक़्शे से आरोपी की लिखावट मिलती है ? और अगर हवाई अड्डे पर इतना बड़ा हमला होने वाला था तो पुलिस से एअरपोर्ट ऑथोरिटी को क्यूँ खबर नहीं दी और न पुलिस के आला ऑफिसर्स को खबर की ? पुलिस के पास इन सब सवालो का कोई जवाब नहीं था क्यूंकि हकीक़त में ऐसी कोई कार्यवाही हुयी ही नहीं थी. इस मामले की सुनवाई कर रहे जज, वीरेन्द्र भट, अतिरिक्त सत्र न्यायधीश, द्वारका कोर्ट्स ने फैसला सुनानते हुए लिखा: “तमाम पहलुओं से इस केस का जायजा लेने बाद, ये साफ़ होता है कि ऐसी कोई कार्यवाही हुयी ही नहीं थी. ये सब धौला कुआँ पुलिस थाने में बैठ कर लिखी हुई कहानी है. और इसके ज़िम्मेदार हैं: सब इंस्पेक्टर रविंदर त्यागी, सब इंस्पेक्टर निराकार , सब इंस्पेक्टर चरण सिंह और महिंदर सिंह".  
उपर्युक्त मामले अपना फैसला सुनाते हुए जज ने सिर्फ इतना ही नहीं कहा बल्कि उनका कहना था: "ये चार पुलिस वाले पूरे पुलिस बल के लिए सबसे शर्मनाक साबित हुए हैं.
मेरी राय में, किसी पुलिस अधिकारी द्वारा किसी निर्दोष नागरिक को झूठे मुक़दमे से फ़साने से ज़यादह गंभीर और संगीन अपराध और कोई नहीं हो सकता है. पुलिस अधिकारीयों द्वारा की कई गयी इन हरकतों को हलके में नहीं लेना चाहिए और इनके खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही करनी चाहिए".  कोर्ट ने आदेश दिया कि इनके खिलाफ एफ आई आर होनी चाहिए और मुकदमा चलना चाहिए. पर आज तक ऐसा कुछ नही हुआ. डेढ़ साल से ज़यादह का वक़्त गुज़र चूका  है लेकिन पुलिस वाले कोई कारवाही करने के लिए तैयार नहीं है बल्कि उन्हें पदौन्नती दी जा रही है. जब सूचना के अधिकार के तहत इस बाबत पता किया गया तो पुलिस का जवाब था कि हमने इस फैसले हो उच्च न्यायलय में चुनौती दी है. यहाँ सबसे उल्लेखनीय बात ये है कि ये मुकदमा पुलिस, यानी पब्लिक के खर्चे से लड़ी जा रही है.  
खैर, आईये एक दुसरे मामले पर नज़र डालते हैं. ये मामला है, राज्य बनाम मुआरिफ कमर और मोहम्मद इरशाद अली का. बात 2006 की है. पुलिस के दावे के मुताबिक, फ़रवरी की 6 तारीख और शाम के चार बजे. सब इन्स्पेक्टर विनय त्यागी को ख़ुफ़िया जानकारी मिलती है कि दो आतंकी, जिनका नाम मुआरिफ कमर और मोहम्मद इरशाद अली और ताल्लुक अल-बद्र नामी आतंकी संगठन से है, जम्मू -कश्मीर स्टेट बस से , जिसका नंबर JK 02Y 0299 दिल्ली पहुँच रहे है. और ये लोग जी टी करनाल रोड के पास मकबरा चौक पर उतरने वाले हैं. ये सूचना पाकर पुलिस का एक बल वहां पहुंचा और काफी कोशिशो के बाद भारी मात्र में  गोले बारूद के साथ उनके गिरफ्तार कर लिया. इस मौके पुलिस ने स्थानीय लोगों का सहयोग भी लेना चाहा पर, उन्होंने कोई सहयोग नहीं दिया ! लेकिन इस मामले की हकीक़त ये है कि ये लोग वहां से गिरफ्तार किये ही नहीं गए. बल्कि इन्हें दिसंबर 2005 में ही दिल्ली पुलिस ने अगुवा कर लिया गया था . ये मैं नहीं कहतासी बी आई की रिपोर्ट कहती है जो उन्होंने अतिरिक्त सत्र न्याय्धीस, एस एस मुखी के समक्ष 11 नवम्बर 2008 को  दाखिल किया है. रिपोर्ट कहता है कि, "इन दोनों आरोपियों को दिसंबर 2005 में अगुवा किया गया था और 9 फ़रवरी 2006 तक गैर-कानूनी हिरासत में रखा गया”. इस मामले में सी बी आई ने कुछ अहम कॉल रिकार्ड्स भी प्रस्तुत किया जिस से साफ तौर पर साबित होता है कि जिस दिन गिरफ़्तारी दिखाई गयी है उस से बहुत पहले से ही दोनों आरोपी पुलिस की ही गिरफ्त में थे. सी बी आई की रिपोर्ट गोली-बारूद की बरामदगी से सिलसिले में कहती है : "ये सब फर्जी है, और ऐसा कुछ आरोपियों को फ़साने की मकसद से दिखाया गया है". रिपोर्ट आगे साफ़ तौर पर कहती है ये लोग मासूम है और इन्हें फसाया गया है. यही नहीं सी बी आई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है  कि इन पुलिस वालों के साथ सख्त से सख्त कार्यवाही होनी चाहिए. पर जैसा कि हम पहले वाले केस में देख चुके हैं, इस मामले भी, ये पुलिस वाले न कि सिर्फ खुले घूम रहे बल्कि उन्हें दुसरे ऐसे मुकदमों के जाँच की जिम्मेवारी भी दी जा रही है.
ये सिर्फ दो केसेस के बारे में संशिप्त जानकारी है. JTSA के इस रिपोर्ट में शामिल सोलह केसेस में एक के बाद बाद एक केस में इस तरीके को दुहराया गया है.  जो कुछ लोगों को  फ़िल्मी कहानी भी लग सकती हैं पर हकीक़त यही हैं कि ये बातें किसी हिंदी फिल्म की पटकथा नहीं बल्कि पुलिस की कार्य-प्रणाली बन चुकी है कि अगर  आतंकी नहीं मिलते हैं या नहीं पकड़ में आते हैं तो मासूम मुस्लिम नौजवानों को, फर्जी मामलो में फसा का आतंकी के तौर पर पेश करो.  अभी जब मैं ये लिख रहा हूँ, तो आज ही अख़बार ( देखिये दी हिन्दू, 25 सितम्बर, पृष्ठ संख्या 9) में एक खबर छपी है कि कल मुंबई उच्च न्यायालय ने मोहम्मद अतीक मोहम्मद इकबाल को बेल पर रिहा करने का आदेश दिया. 2008 में गिरफ्तार, इस व्यक्ति बारे में पुलिस का दावा है कि ये इंडियन मुजाहीदीन नामी आतंकी संगठन का सदस्य है. पर हकीकत ये है कि जिस मामले (अहमदाबाद और सूरत ब्लास्ट) में गिरफ्तार किया गया है उस मामले वो अभियुक्त नहीं भी है, ये कहना है सरकारी वकील प्रदीप हिन्गूरानी का. उसके खिलाफ अगर कोई ‘सबूत’ है तो वो है  इकबालिया बयान (‘confession’) जिसमे में उसने 'कबूल' किया है कि आतंकियों द्वारा आयोजित लेक्चर्स में उसने हिस्सा लिया था ! यहाँ जहाँ एक तरफ ध्यान रखने वाली बात है कि हम सब जानते है कि पुलिस किस प्रकार चीज़ें कबूल करवाती है वही दूसरी ओर ये भी याद रखने की ज़रुरत है कि कोर्ट में ऐसे इकबालिया बयानों की कोई अहमियत नहीं है क्यूंकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम इसे नहीं मानता.
अब ऐसे में ये सवाल एक बार फिर उठता है कि आखिर कब तक ये  सिलसिला चलता रहेगा?  सिलसिला मासूम लोगो को आरोपित, अभिशप्त और बरी करने का. कब तक 'आतंकवाद' से लड़ने के नाम पर मासूम मुस्लिम नौजवानों को फर्जी मुकदमो में फसाया जाता रहेगा? कब तक उन्हें अपनी ज़िन्दगी का बड़ा और महत्व्पूर्ण हिस्सा जेलों में गुज़रना होगा? कब तक उनके घर वालों को कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने होंगे? क्या, खाकी वर्दी वाले इन आतंकियों के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही भी होगी, जिनके अपराध साफ़ साबित हो चुके है? इन सवालो का जवाब सरकार को देना होगा. या सरकार ने ये तय कर लिया है कि भारत एक पुलिस स्टेट है और पुलिस द्वारा किया कुकर्म माफ़ है? चाहे वो कितना ही घिनोना ही क्यूँ न हो?
(लेखक मानवाधिकारकर्मी और स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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