डेनमार्क---यात्रा-वृत्तांत
- उर्मिलेश
उर्मिलेश |
(नौकरी से फ़ारिग होने के बाद उर्मिलेश ने हाल में लगातार अंतराल पर देश-विदेश की यात्राएं की हैं। स्कैन्डेनेवियाई देशों से लौटकर उन्होंने ये यात्रा वृत्तांत लिखा, जिसे हम दख़ल की दुनिया पर आपसे साझा कर रहे हैं। अगले हिस्से में हम आपको दक्षिण अफ्रिका के संस्मरण सुनाएंगे)
कोपनेहैगन से बाल्टिक की तरफ जाने वाली रोड पर शहर से कुछ दूर आगे बढ़ने पर क्रिस्टियन-हार्बर इलाके में एक साधारण सा गेट दिखाई देता है, उसके उपर बड़े कलात्मक ढंग से लिखा है---‘वेलकम इन क्रिस्टिनिया’। पास में ही चटक लाल रंग का झंडा लहरा रहा है, जिस पर पीले रंग के तीन निशान हैं। गेट खुला हुआ है। यहां कोई सुरक्षा प्रहरी नहीं, किसी तरह का कोई इलेक्टानिक सेक्युरिटी तामझाम नहीं। कोई भी अंदर जा सकता है। किसी की इजाजत की जरुरत नहीं। अंदर दाखिल होने पर लगता है, हम किसी अलग ‘रिपब्लिक’ (गणतंत्र) में आ गए हैं। अपने साथ चल रहे डीसीआई के परियोजना-सलाहकार येस्पर से पूछता हूं, ‘किधर जाना है’? ‘बस चलते जाइए, चारों तरफ क्रिस्टिनिया ही है। सारे रास्ते क्रिस्टिनिया जाते हैं।’, वह मुस्कराते हुए समझाते हैं।
कोपनेहैगन से बाल्टिक की तरफ जाने वाली रोड पर शहर से कुछ दूर आगे बढ़ने पर क्रिस्टियन-हार्बर इलाके में एक साधारण सा गेट दिखाई देता है, उसके उपर बड़े कलात्मक ढंग से लिखा है---‘वेलकम इन क्रिस्टिनिया’। पास में ही चटक लाल रंग का झंडा लहरा रहा है, जिस पर पीले रंग के तीन निशान हैं। गेट खुला हुआ है। यहां कोई सुरक्षा प्रहरी नहीं, किसी तरह का कोई इलेक्टानिक सेक्युरिटी तामझाम नहीं। कोई भी अंदर जा सकता है। किसी की इजाजत की जरुरत नहीं। अंदर दाखिल होने पर लगता है, हम किसी अलग ‘रिपब्लिक’ (गणतंत्र) में आ गए हैं। अपने साथ चल रहे डीसीआई के परियोजना-सलाहकार येस्पर से पूछता हूं, ‘किधर जाना है’? ‘बस चलते जाइए, चारों तरफ क्रिस्टिनिया ही है। सारे रास्ते क्रिस्टिनिया जाते हैं।’, वह मुस्कराते हुए समझाते हैं।
----और अब हम क्रिस्टिनिया में हैं---फ्री-टाउन,
क्रिस्टिनिया! क्रिस्टिनिया के लोग अपनी
बस्ती को ‘फ्री-टाउन’ कहना नहीं भूलते। बाहर वाले इसे ‘अराजकतावादियों (एनार्किस्ट) का द्वीप’ कहते हैं। यहां आस्तिक, नास्तिक, शालीन, सभ्य,
शरारती और फक्कड़ सभी तरह के लोग रहते हैं। इनमें कवि-लेखक, चित्रकार, कला की अन्य
विधाओं से जुड़े लोग, तकनीशियन और प्रोफेशनल्स भी शामिल हैं। पूरे यूरोप में शायद
ही ऐसी दूसरी कोई बस्ती होगी। यहां न तो आलीशान इमारतें हैं, न बड़े होटल-रेस्तरां,
न चमचमाती सड़कें, न मॉल-बाजार और ना ही एफडीआई वाले बड़े आलीशान रिटेल स्टोर। यूरोपीय
परिवेश के चलते इसकी तुलना किसी भारतीय कस्बे से तो नहीं की जा सकती लेकिन यहां मुझे
पूर्वी उत्तर प्रदेश के बड़ी आबादी वाले कस्बे-नुमा अपने गांव जैसी कुछ गलियां भी
दिख रही हैं, ऐसी मटमैली गलियां, जिन पर दूब जैसी कोई घास उगी है। कहीं-कहीं चलते
वक्त जूते पर धूल भी आ जा रही है। यूरोप के किसी शहर में ऐसी सड़कें-गलियां कहां मिलेंगी! अगल-बगल कुछ दुकानें भी हैं। अपने गांव के रामप्रसाद तेली के परचून की दुकान जैसा जनरल स्टोर,
जहां लेमनचूस से लेकर दारू तक सबकुछ मिल जाता था। बचपन का वह दृश्य आज भी याद है,
रामप्रसाद की दुकान के सामने संतरा (स्थानीय शराब की एक किस्म, जिसमें संतरे की
खुशबू के साथ महुए का इस्तेमाल किया जाता है) लेने वालों की भीड़ लगी रहती थी। एक
तरफ परचून का सामान बिकता था, जहां रामप्रसाद की पत्नी या घर के अन्य सदस्य बैठा
करते थे और संतरे की बोतलों से सजी आलमारी के पास बिछी एक चौकी पर स्वयं रामप्रसाद
बैठते थे। क्रिस्टिनिया के इस जनरल स्टोर के सामने खड़ा होते ही यूरोप में मुझे
किसी भारतीय कस्बे की ऐसी दुकानें याद आईं। लेकिन और सारी चीजें यहां बिल्कुल अलग
हैं। स्टोर करीने से सजे हैं, खाने-पीने की ढेर सारी चीजों से भरे हुए। इनमें किसी
तरह की मिलावट नहीं है। फलों-सब्जियों, सलाद की सामग्री, पनीर-चीज़, दूध-दही या
कोई भी खाद्य-पदार्थ खरीदते समय यहां किसी को उसकी शुद्धता के बारे में नहीं सोचना
पड़ता। दुकान पर आने वाले या यहां से सामान लेकर लौटने वाले नौजवान, अधेड़ और
बच्चे, सभी चहकते नजर आ रहे हैं। कोई तनाव में नहीं नजर आ रहा है।
यहां से हम कुछ और अंदर दाखिल होते हैं। अंदरुनी
परिवेश और मोहक है। बस्ती के बीच बहती साफ-सुंदर झील, एक सिनेमा हाल, हस्तकला के
सामानों से भरी आकर्षक दुकानें, साठ-सत्तर लोगों को एक साथ बैठने की जगह वाले खास
किस्म के ओपेन-एयर रेस्तरां, बिल्कुल चंडीगढ़-अमृतसर सड़क मार्ग के बड़े ढाबों की
तरह। लेकिन सर्दियों में ये अपने मेहमानों के बचाव के लिए अलग से बेहतरीन व्यवस्था
करते हैं। एक और अंतर है यहां, हर तरह के यूरोपीय खाने के अलावा पीने के लिए अच्छी
वाइन, बियर और सॉफ्ट डिंक भी इनमें उपलब्ध हैं। बगल की सड़क पर दुकानों के समानांतर
फुटपाथी दुकानें। सॉफ्ट डिंक के साथ गांजा, हशीश और न जाने किस-किस तरह के मादक
द्रव्यों की धंधेबाजी। यहां मुझे अपने बनारस की याद आ रही है। घाटों के पास के मुहल्लों
में कुछ ऐसा ही दृश्य होता है। बनारस और क्रिस्टिनिया में वाकई एक समानता है।
दोनों अलमस्त हिप्पियों के पसंदीदा अड्डे रहे हैं। दोनों जगह घाटों के आसपास अलग
अंदाज और मस्त मिजाज वाले अमीर और सर्वहारा एक जैसी हालत में मिल सकते हैं।
क्रिस्टिनिया की एक झलक |
सत्रहवीं सदी की शुरुआत में डेनमार्क के राजा
क्रिस्टियन-चतुर्थ ने हार्बर के तौर पर इस इलाके को विकसित किया था। स्वीडेन के
हमलों के दौरान यह इलाका डैनिश नौसेना की तैनाती का सबसे बड़ा अड्डा था। शहर के इस
बाहरी इलाके में रायल डैनिश नैवल म्युजियम, नार्थ एटलांटिक हाउस और डैनिश
आर्चिटेक्चर सेंटर जैसी महत्वपूर्ण संस्थाएं हैं। ऐतिहासिक महत्व के पुराने इलाके
में क्रिस्टिनिया एक नया बंदोबस्त है। यहां सब कुछ अचानक हुआ। ठीक वैसे ही जैसे
अपने देश के किसी महानगर में बाहर से आए गरीब लोग खाली जगह देखकर अपनी झुग्गियां
और फिर खपरैल डाल लेते हैं। थोड़ा-बहुत सियासी-समर्थन मिल जाए तो वहां पक्के मकान
भी खड़े हो जाते हैं और इस तरह नेहरू नगर, इंदिरा पार्क, संजय नगर, राजीव नगर या
सोनिया विहार जैसी नई बस्तियां बस जाती हैं। ये लोग रोजी-रोटी की तलाश में महानगर
में दाखिल होने वाले लाचार लोग होते हैं। वोट की लालच में चुनावी दलों के स्थानीय
नेता इनकी दुनिया बसा देते हैं। पर
क्रिस्टिनिया के साथ ऐसा नहीं है। यह काफी कुछ एक ‘कम्यून’ की तरह रहा है। यहां बदहाल-अपढ़ मजदूर नहीं
हैं, ज्यादातर पढ़े-लिखे कलाकार या समझदार प्रोफेशनल्स हैं। हाल के दिनों में इसका
रूप जरूर बदला है, पहले के मुकाबले थोड़ा व्यावसायिक और मतलबी भी हुआ है। पर यह एक
चमत्कार है- कम्यून-नुमा इस इलाके में कलाकार, बुद्धिजीवी, कवि, नशा और कई अलग-अलग
तरह के कारोबार में लगे खुराफाती किस्म के लोग, सभी एक साथ रहते हैं। सब एक-दूसरे
को जानते-पहचानते हैं और अपने ढंग से जीने के उनके हक का सम्मान करते हैं।
क्रिस्टिनिया में बसने वालों में साधारण लेकिन
रचनात्मक लोगों की संख्या अच्छी खासी रही है। यूरोप के इस इलाके में भारत जैसी
बदहाली नहीं है, न हमारे यहां जैसी गरीबी है पर किसी न किसी वजह से परेशान और हताश
लोग तो हर जगह हैं।---और डेनमार्क इसका अपवाद नहीं है। क्रिस्टिनिया पहले से था पर
यहां नए बसाव की कहानी सन 1971-72 के आसपास शुरू होती है। डेनमार्क की सेना द्वारा
खाली किए बैरकों और स्थानों पर कोपेनहैगन और अन्य जगहों से आए लोग बसने लगे। इनमें
ज्यादातर वे थे, जिनके पास रहने को कायदे के घर नहीं थे या जो अपने-अपने परिवेश से
तंग थे और खुली हवा में जीना चाहते थे या फिर जीवन के साथ कुछ नया प्रयोग कर रहे
थे। इनमें कुछ लेखक, पत्रकार, कवि, चित्रकार और संवेदनशील कलाकार भी थे। जैकब
लुडविग्सेन नामक एक लेखक-पत्रकार ने यहां डेरा जमाया और बाकायदा पत्रिका निकाली।
इसका नाम था—‘द मेन पेपर’। स्थानीय लोग बताते हैं कि जैकब ने बहुत
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ‘फ्री-सिटी
क्रिस्टिनिया’ की आधारशिला रखने वालों
में वह एक उल्लेखनीय नाम है। जैकब ने अपने एक संपादकीय लेख में क्रिस्टिनिया
को ‘सेना की खाली जगह पर आम लोगों की फतह का मुकाम’ बताया। उसने इसे एक कम्यून के तौर पर देखा और
उसी तरह इसे विकसित करने की कोशिश भी की। क्रिस्टिनिया वालों ने बार-बार दोहराया
कि यह एक ऐसा अद्वितीय स्वाशासित-स्वसंचालित समाज है, जहां रहने वाले एक-दूसरे की
जरुरतों का ध्यान रखते हैं।
हिप्पी-आंदोलन के दौरान फ्रांस, इंग्लैंड,
जर्मनी, स्वीडेन, नार्वे, लक्जमबर्ग, डेनमार्क, अमेरिका, कनाडा, स्वीट्जरलैंड और
दुनिया के अनेक मुल्कों के हिप्पी-कवियों-कलाकारों को क्रिस्टिनिया ने आकर्षित
किया। वे भी आकर बसने लगे। गांजा, हशीश, चरस और डग का चलन इन्हीं दिनों बढ़ा। इसी
तरह की गतिविधियों के चलते अवैध तौर पर बसे क्रिस्टिनिया पर शासन की नजर भी तनने
लगी। कई बार इलाके को खाली कराने की कोशिश हुई। लेकिन क्रिस्टिनियाई समाज ने इसका
जमकर विरोध किया। उन्हीं दिनों टॉम लुंडेन का लिखा डैनिश गीत—‘यू कैन नाट किल अस’, क्रिस्टिनिया का सामुदायिक-गीत बन गया। जब भी
यहां कुछ अच्छा या बुरा हो, किसी राष्टगान की तरह यह गीत गाया जाने लगा। क्रिस्टिनिया
ने सिर्फ अपना गीत ही नहीं, अपना झंडा भी बनाया। यह लाल रंग का है, जिसमें पीले
रंग के तीन निशान हैं। क्रिस्टिनिया के मुख्य़द्वार पर यह हमेशा लहराता रहता है।
कोपनहेगन में नदी किनारे बसे होटल |
क्रिस्टिनिया को खाली कराने की सबसे जोरदार
कोशिश सन 2007 में हुई, जब डैनिश पुलिस के समर्थन से कोपेनहैगेन के नगर-प्रशासन का
विशेष दस्ता यहां जमीन खाली कराने के लिए आ धमका। लेकिन क्रिस्टिनिया वालों ने फिर
मुकाबला किया और वे अंततः जीत गए। पुलिस और प्रशासन को पीछे हटना पड़ा। बस्ती के 50 लोगों को पुलिस गिरफ्तार करके ले गई। बाद में छोड़ा गया। इस घटना के बाद शासन
की तरफ से क्रिस्टिनिया को फिर ज्यादा नहीं छेड़ा गया। लेकिन क्रिस्टिनिया सिटी
फाउंडेशन इसके वजूद को वैधता दिलाने के लिए लगातार सक्रिय रही। हाल ही में इसे
बड़ी सफलता मिली है। मौजूदा डैनिश सरकार ने क्रिस्टिनिया के लिए खास नियम बनाकर
इसे वैध बंदोबस्त करार देने जा रही है। यहां के 900 लोग इससे बेहद खुश हैं। इन
दिनों बस्ती वाले एक नया साप्ताहिक अखबार निकाल रहे हैं--‘वीकली मिरर’। इसकी 1600 प्रतियां छपती हैं और मुफ्त बंटती हैं।
येस्पर और उनकी मित्र मे वार्नर के साथ हम
क्रिस्टिनिया की सड़क और गलियों से होते हुए एक निर्मल झील से मुखातिब होते हैं। वार्नर
एक विजुअल-आर्टिस्ट हैं। झील-किनारे घास के मैदान में पर्यटकों की भीड़ है। झील पर
एक पुल है। उसे पार कर हम एक अपेक्षाकृत नीरव इलाके में दाखिल होते हैं। पीले रंग
की एक पुरानी सी इमारत के सामने हम रुकते हैं। आवाज देने पर एक अधेड़ उम्र के
सज्जन आते हैं और बड़ी गर्मजोशी से हमसे मिलते हैं। यह डैनिश चित्रकार हेनरी शूट्ज
हैं। किसी आम कस्बाई-हिन्दुस्तानी की तरह वह हमें अपने घर के अंदर ले जाते हैं। यूरोप
में ऐसा आम नहीं है। आमतौर पर यूरोपीय लोग अपने घर पर अपरिचित लोगों से
मिलना-जुलना नहीं पसंद करते। इसके लिए किसी होटल, रेस्तरॉं, माल या क्लब जैसी जगह
तय की जाती है। पर हेनरी बेहद सरल और अनौपचारिक हैं। यह घर क्या, चित्र-दीर्घा या
कोई कला-संग्रहालय लग रहा है। नीचे एक बड़ा कमरा, जिसे डाइंगरूम कहा जा सकता है,
फिर बेड रूम और बगल में किचन, टायलेट और फिर एक बरामदा। बड़े कमरे से ही ऊपर जाने
का जीना। ऊपर सिर्फ एक बड़ा कमरा, जिसमें साठ-सत्तर पेंटिग, कुछ व्यवस्थित तो कुछ
बेतरतीब ढंग से रखी हुई हैं। मदुरै के मीनाक्षी मंदिर और चेन्नई की मजदूर औरतों पर
केंद्रित अपनी दो कलाकृतियों को दिखाते हुए वह कहते हैं, ’मेरे पास भारत-दौरे की गहरी स्मृतियां हैं। मेरी
इन पेंटिग्स में वो छन-छन कर उतरती रहती हैं।’ फिर हम नीचे उतरते हैं। डाइनिंग टेबुल नुमा एक बड़ी मेज पर एक प्लेट में खरबूज
के टुक़ड़े काटकर रखे हैं। बेहद मीठे हैं। तीस-चालीस साल पहले अपने गांव में खाए
खरबूजों की तरह।
हेनरी के घर के सामने घास का मैदान है और फिर
झील शुरू हो जाती है। आगे कहीं दूर जाकर यह बाल्टिक सागर में मिलती होगी। हेनरी
हमें आसपास का इलाका दिखाते हैं। ‘आप यहां कब से हैं? मुस्कराते हुए कहते हैं. ’सदियों से’। फिर हम दोंनों ठहाका
मारकर हंस पड़ते हैं। आसपास की पुरानी इमारतों, झील और घास का मैदान दिखाते हुए वह
कहते हैं,
‘मेरी कला को यहां से जमीन
मिली है। मेरे लिए यह सिर्फ एक पता भर नहीं है, मेरी जान है यह---क्रिस्टिनिया,
मेरी जान!’
क्रिस्टिनिया का एक विहंगम दृश्य |
हेनरी से विदा लेकर हम क्रिस्टिनिया के मुख्य
चौराहे की तरफ लौट रहे हैं। सामने के एक मकान की छत से नीचे फर्श तक एक बड़ा सा
पेंटिग-पोस्टर लटका है। मैंने पूछा-‘क्या यह किसी पेंटर का घर है?’ येस्पर की मित्र वार्नर यहां सबको जानती हैं। क्रिस्टिनिया
के दौरे में वह हम लोगों के साथ-साथ चल रही हैं। मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए वह
बताती हैं, ‘अपने घरों को सजाने का यह
एक तरीका है। कोई जरूरी नहीं कि इस घर में कोई पेंटर रहता हो और यह उसी की पेंटिगं
हो।‘
क्रिस्टिनिया के एक अन्य कलाकार ओले ल्यूके
पिछले 30 सालों से यहां हैं। वह बताते हैं कि कलाकारों और साधारण लोगों ने कैसे
क्रिस्टिनिय़ा को बचाया है! वह बड़े गर्व से
बताते हैं कि डेनमार्क के एक बड़े चित्रकार विलियम स्काटो ओलान भी क्रिस्टिनिया
में ही रहते थे। अब वह नहीं हैं, उनका निधन हो गया। ओले कहते हैं, ‘कोपेनहैगन प्रशासन की चली होती और यहां के लोगों
ने प्रतिरोध न किया होता तो क्रिस्टिनिया कब का खत्म हो चुका होता।‘ बस्ती की अंदरुनी प्रशासनिक व्यवस्था से ओले लंबे समय तक जुडे रहे हैं। वह बताते
हैं कि इस बस्ती का अंदरुनी प्रशासन क्रिस्टिनिया फाउंडेशन नामक एक संस्था देख रही
है। यही संस्था सरकार या शासन से जटिल मसलों पर वार्ता करती है। यहां के बाशिदों
से चंदा लेकर यही संस्था कोपेनहैगेन शासन को हर साल 6 मिलियन डैनिश मुद्रा का
टैक्स जमा कराती है।
हम क्रिस्टिनिया के हर कोने से गुजरना चाहते हैं
ताकि उसका कोई रंग हमारी नजर से छूटा न रहे। इस बीच, एक प्रस्ताव आता है—क्रिस्टिनिया
की वाइन जरूर पीना है। येस्पर हमें दुकान तक ले जाते हैं। सिनेमा हाल के सामने है
यह दुकान। वाइन यहां अपेक्षाकृत सस्ती है। हमने अपनी-अपनी बोतल बैग में डाल ली है। गाड़ी
में चलते हुए पिएंगे। फिलहाल, हम क्रिस्टिनिया की उस बदनाम गली(अपेक्षाकृत पतली
सड़क है) में दाखिल हो रहे हैं, जहां हर तरह के नशे की सामग्री आसानी से मिल जाती
है। येस्पर ने पहले ही बता दिया है कि इस सड़क पर किसी भी वक्त कोई फोटो नहीं लेना
है। इस गली के नशा-व्यापार में लगे गिरोह की तरफ से फोटो लेने पर प्रतिबंध है।
इसका उल्लंघन करने वालों या अनजाने में फोटो खींचने वालों पर कई बार हिंसक-हमले हो
चुके हैं। इस गली को लेकर हमें इस कदर डरा दिया गया है कि फोटो लेने की बात तो दूर
रही, हम यहां चहलकदमी करते वक्त इधर-उधर ज्यादा नजर भी नहीं मार रहे हैं। पर यहां की
एक खास चीज ने हमें जरूर आकर्षित किया---शाकाहारी रेस्तरां-सह स्टोर। यहां चारों
तरह फल-फूल, जूस, सब्जियां और शाकाहारी ब्रेड-चाकलेट्स आदि सजे हुए हैं। हमारे पास
वक्त कम है, वरना यहां रूककर कुछ खाने का मन था। बहरहाल, रुके बगैर हम आगे बढ़
जाते हैं।
अब हम क्रिस्टिनिया के मुख्य इलाके से बाहर की
तरफ निकल रहे हैं। इसके कैम्पस से बाहर निकलने के पहले हमारी मुलाकात क्यू-एस्मेडियन
नामक फैक्टरी चलाने वाली यहां की दो युवतियों से होती है। इनके नाम हैं-ड़ोटे
एलनबर्गर और गिट्टे क्रिस्टेंसन। दरअसल, तीन औरतें मिलकर इस फैक्टरी नुमा स्टोर को
चलाती हैं, जिनमें दो पार्टनर आज मौजूद हैं, एक पार्टनर कहीं गई हुई है। ये
पार्टनर सिर्फ बिजनेस-वुमेन नहीं हैं, अपनी फैक्टरी की इंजीनियर-मिस्त्री-मजदूर,
सब यही हैं। सहयोगी के तौर पर दो-तीन और लोग फैक्टरी में दिख रहे हैं। एक
प्यारा-शालीन सा कुत्ता भी फैक्टरी की फर्श पर लेटा हुआ है, जो किसी के यहां
आने-जाने पर भोंकता नहीं दिखा। यहां से विदा लेते समय अपनी दो मालकिनों के साथ
वह भी हमें छोड़ने फैक्टरी-सह-विक्रय
केंद्र के दरवाजे तक आता है। क्रिस्टिनिया को सलाम करते हुए हम इसिनोर स्थित रोनबर्ग
यानी ‘कैसेल आफ हैमलेट’ देखने बाल्टिक के आखिरी छोर की तरफ निकल पड़ते
हैं। यह डेनमार्क-स्वीडेन सरहद पर है। कैसेल से महज तीन-चार कि.मी. बाद उस पार स्वीडेन
शुरू हो जाता है। किंग फ्रेडरिक—द्वितीय ने इसे सन 1574-85 के दौरान बनवाया।
बाल्टिक से डेनमार्क होकर स्वीडेन या किसी भी और देश की तरफ जाने वाले जलपोतों के
लिए इस किले में टैक्स देना उन दिनों अनिवार्य था। कहते हैं कि विलियम शेक्सपियर
को भी इस कैसेल की जानकारी थी। सत्रहवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में जब वह महान
त्रासदी की रचना कर रहा था तो हैमलेट के लिए उसे यह कैसेल खूब जंचा। थिएटर की
दुनिया में हैमलेट के छा जाने के बाद पूरे यूरोप और फिऱ शेष दुनिया के लिए यह भव्य
किला ‘हैमलेट कैसेल’ के नाम से विख्यात हो गया। भव्य किले के बुर्ज
के ठीक नीचे विशाल समतल मैदान है। इसमें पुराने जमाने की दर्जन भर से ज्यादा तोपें
लगी हैं, सबके मुंह बाल्टिक की तरफ हैं। शायद, ये डेनमार्क और स्वीडेन के बीच
पुराने जमाने में लड़ी गईं कई-कई लड़ाइयों की निशानियां हैं। लेकिन अब इन देशों के
आपसी रिश्ते कितने सामान्य हैं, इसका संकेत इनके साझा वीजा-सिस्टम से भी मिलता है।
बाल्टिक के दूसरे छोर पर स्वीडेन की छोटी-बड़ी
नौकाएं, कुछ पोत और कस्वाई इलाके दिखाई दे रहे हैं। सूरज ढलने को है। हम यहां से
सिर्फ अंदाज ही लगा सकते हैं, क्रिस्टिनिया में इस वक्त बत्तियां जल चुकी होंगी, झील-किनारे घास
के मैदान में धूप सेकते लोग अब अपने घरों या बाजार की तरफ लौट रहे होंगे और फ्री-सिटी
के ओपेन-एयर रेस्तरां मेहमानों से भर गए होंगे। उम्दा स्थानीय वाइन और डैनिश संगीत
माहौल को नशीला बना रहे होंगे। क्रिस्टिनिया को याद करते हुए हमने भी बाल्टिक
किनारे अपने बैग से वहां की खास वाइन निकाली। सूरज दूर-बहुत-दूर बाल्टिक की लहरों
में कहीं खो चुका था। (साप्ताहिक ‘शुक्रवार’, नई दिल्ली, अक्तूबर, 2012 में प्रकाशित)
लेखक से आप urmilesh218@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।
सुंदर यात्रा वृतांत पढकर मजा आया
जवाब देंहटाएंविदेश की यात्रा से जुडे संस्मरण हिंदी में कम ही पढने को मिलते हैं .. बहुत अच्छा लिखा आपने .. ज्ञानवर्द्धक आर रोचक।
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