शांति के बारे में सोचना किसी कबूतर को याद करने जैसा है. जबकि सेनाओं को कूच करने की जरूरत खत्म हो गयी है और एक राष्ट्र का राष्ट्राध्यक्ष बोलने से ज्यादा इशारे करता है. इशारे अब इतने मजबूत हैं कि वे लोगों के लिए नहीं बल्कि देशों के लिए किए जाते हैं और एक देश अपनी तबाही की तारीखें गिनने लगता है. देश का नाम इराक, फिलिस्तीन, अफगान हो यह जरूरी नहीं यह एक अनिर्मित राष्ट्र भी हो सकता है जिसमे बारूदों की महक में बच्चे पैदा होते हैं और शांति के युद्ध में माएं वर्षों तक चीखती हैं. शांति के नाम पर बस काली रातें है जहां हर आदमी सोने की तैयारी में है ताकि खामोशी कायम रहे, वे जो बोलते हैं उन्हे रात का कुत्ता करार दिया जाता है और धमाके महज मामूली सी आहटें हैं. इस बरस जहां से भी जो भी आहटें आयी वे शिकायतों से भरी थी जबकि उम्मीदें हर देश में खरी थी.
देश में जो जितना किसान है उसके चेहरे पर उतना निसान है. क्या उसे भट्ठा परसौल जैसे गांव की तरफ एक तैयारी के साथ चले जाना चाहिए या विदर्भ की तरफ लौट आना चाहिए. एक युवा नेता हर रोज अपनी शामें किसी गरीब के घर बिताकर कितनी हत्याओं आत्महत्याओं की खबरों को अखबारों से बाहर कर देने की ताकत रखता है, अगले साल के लंबे वक्तों में से थोड़ा वक्त इस पर निकाल लेना हमारी जरूरत है. धान के बोरे की तरह अब भी एक आदमी लेटा रहता है अपनी दलानों में और किसान मंत्री से बात करते हुए अपनी फसल की कीमत को आंक रहा होता है, जब अनाज के बोझ ढो रहे होते हैं उसके मजदूर. अब उसे जमीदार नही, नेता नही, मालिक नहीं किसी ऐसे शब्द की तलाश है जिसमे वह लोकतंत्र के साथ सहूलियत बना सके.
वह जो एक देश का राष्ट्रपति है और बोलता है तो उसे दुनियां के राष्ट्राध्यक्ष सुनते हैं जैसे उनका राष्ट्रपति बोल रहा है. वाल स्ट्रीट की सड़कों पर यह जो भीड़ उतरी वह एक घटना है उसे तहरीर चौक जैसा हो जाना चाहिए था पर तहरीर चौकें हर देश में अपने समय का इंतजार कर रही हैं. वाल स्ट्रीट की ऊंची इमारतों के नीचे लोगों का बोलना और चिल्लाना इस साल उनके लिए खतरे जैसा है जो सभ्यता के लिए खतरे जैसे हैं. वे चिल्ला रहे हैं और यूरोप का एक देश अब भी हिल रहा है जबकि रात ढल चुकी है.
इस बरस वे पूरी धरती के साथ कांप गए. सारी तकनीकों के बावजूद एक देश हिल सकता है, एक देश ढह सकता है और एक समुद्र गरम हो सकता है. किसी देश के बिलखने का समय जापान की तबाहियों की तरह है. अपनी आधुनिकतम तकनीक के साथ मौत की सबसे प्राचीनतम प्रवृत्ति को रोक पाना कितना कठिन होता है. मौत में जाना हमने इसी सभ्यता में सीखा. विध्वंसों पर कभी नाज नहीं किया जा सकता पर दुनिया तब तक करती है जब तक वे हो नहीं जाते और होने के बाद लोगों के पास बचा रह जाता है अफसोस और अफसोस से कोई जिंदगी नहीं लौट सकती. 15,799 लोगों की मौत को महज त्रासदी जैसे शब्द में रखकर सहज हो जाते हैं लोग. लोग उबर जाते हैं किसी भी भार से, मौत के भार से भी. इस बीते बरस के साथ हम उन्हें ऐसे याद करें जैसे श्रद्धांजलि नहीं दी जाती जैसे कोई रस्म अदायगी नहीं की जाती और 4041 जो खो गए थे उन्हें ढूंढ़ लिया जाना चाहिए किसी कब्र में जो बगैर किसी की मौजूदगी में बनी.
तेलंगाना में लाखों लोगों का ये जो हुजूम उठ रहा है क्या वे सिर्फ एक राज्य चाहते हैं. उन्होंने जवान होने की कीमतें अदा की, वे गाते रहे अपने स्वप्न में आने वाले सुखद दिनों का गीत और जल गए किसी चौराहे पर अपने आक्रोश के साथ. हर कोई कुछ बदलाव चाहता है ऐसा बदलाव जो उसकी जिंदगी में उतरे. पर बदलाव का कोई भी विचार इन सालों में स्थगित कर दिया गया है. कुछ भी बदलने के लिए आंखों को थोड़े से खून की जरूरत होती है. रेलगाड़ियों और बसों में बैठे लोग गीत गाते हैं और जोर सी आवाज में कुछ चिल्लाते हैं, यह चिल्लाने की खूबी आदमी ने किस बरस सीखी होगी और वह कौन पहला आदमी रहा होगा जो चिल्लाया होगा पृथ्वी पर पहली बार, कोई नहीं जानता. शायद पहली बार से आखिरी बार तक आदमी का चिल्लाना किसी भूख का ही परिणाम होगा. पर हम सब जानते हैं कि कुछ भी पाने से पहले चिल्लाना पड़ेगा और पाने के बाद यह अफसोस बना रहेगा कि कुछ भी नहीं बदला. क्योंकि बदलाव का काम स्थगित हो चुका है. कहीं कुछ टूटता है और उसे जोड़ दिया जाता है, यह देश जिसे विविधता कहा गया वह टूटे हुए जोड़ों से बना है. रेलगाड़ियां खड़ी कर दी गयी और दुकाने बंद, विश्वविद्यालयों के छात्रों पर चली गोलियां भी पर इसके बावजूद जाने वे किस और घड़ी के इंतजार में हैं जाने उन्हें अभी क्या कुछ चाहिए.
उसकी उम्र विवादों से बनी जिस पर कोई रंग बुढ़ापे तक वह नहीं चढ़ा पाया. उसके नाम के साथ इस देश के नाम पर रंग जरूर चढ़ा रहा. एम.एफ. हुसैन एक तस्वीर थी जो पहले देश से गयी फिर उसने दुनिया को अलविदा कह दिया और इस बरस की पेंटिंग से एक अहम रंग कहीं खो गया. काश कि इस बरस की कोई आखिरी पेंटिंग वह बनाता और किसी भी लिखी गयी पोथी को बगैर पढ़े हम पढ़ लेते पूरा बरस. हममे से जाने कितनों ने गजलों को सुनना जगजीत सिंह से सीखा था और अब अगले बरस कोई नयी गज़ल कहीं नहीं सुनाई देगी उनकी आवाज़ में जाते-जाते यह बरस हमे कितना कुछ देकर गया और लेकर गया बहुत कुछ.
कोई भी जब अपने समय की इबारत लिखता है तो वह सब कुछ छूट जाता है जिसे लिखा जाना बेहद जरूरी था पर किसी भी विधा के परे हर इंसान के ज़ेहन में रचित होता रहता है एक उसकी जिंदगियों का हर पल. उसे कभी नहीं लिखा जा सकता जिससे हर रोज बन बिगड़ रहे होते हैं हम. इस बरस या पिछले बरस के बारे में कुछ भी लिखना बरसों पुराने किसी अलाप के दुहराव जैसा है. हम जो चल रहे हैं दिल्ली, जयपुर या मुंबई की सड़कों पर और भागे जा रहे हैं जाने किस चीज की तलाश में हमे थोड़ा ठहरना चाहिए, मुड़कर उन्हें देखना चाहिए जो छूट गये हैं पिछले स्टेशनों पर. रात गये ये कौन सेलोग हैं जो सोये हुए यात्रियों को निहारते हैं हर स्टेशन पर याचना की दृष्टि से और अचकचा कर ठिठुर जाते हैं हमारी तीखी निगाहों पर. क्या वे निहारते हैं हमे अपनी आंखों से या भूख से निहारती है उनकी क्षुधा आंख बनकर. सदियों पहले यदि यह पृथ्वी आग का गोला थी तो कहीं न कहीं जरूर बची होगी एक चिंगारी जिसमे से निकाल लेना थोड़ी आंच इस बरस और थोड़ा धुंआ फैला देना था चमचमाती रोशनी के इर्द-गिर्द.