दीवार पर बैठी है एक चिड़िया और उसकी आवाज में भर गई है खरास जैसी कोई ध्वनि. जाने किस देश से आती हैं ए चिड़ियाएं और क्या सोचती हैं देशों के बारे में. जबकि हम देशों के बारे सरहदों की लड़ाई से ज्यादा कुछ नहीं जानते, पड़ोसियों के बारे में हम दुश्मनी से ज्यादा कुछ नहीं जानते. किसी देश की सरहद पार करने के पहले शायद ये चिड़ियां करती होंगी एक देश के सुरक्षा का मुवायना और फिर धीरे से घुस जाती होंगी किसी प्रांत में कश्मीर की तरह ठंडे और जलते प्रांतों में. उस सुंदर और सुदूर प्रांत की झीलों में वहां की माओं के आंसू ठहरे हुए हैं और उन पर काई सी जम गयी है. कब्रिस्तानों से देर रात गये कोई उठता है और तलाश करना शुरु कर देता है अपना मुल्क. बगैर मुल्क के कोई जिंदा आदमी भी अपना घर नहीं ढूढ़ सकता. क्या वे चिड़ियां झांकना चाहती होंगी किसी महिला के बुर्के में छिपे पसीने वाले चेहरे को जो खौफ के बीच कजालों में दबा पड़ा है. कश्मीर की गुप्त मुर्दा कब्रों के बारे में उन्हें क्या वही बातें पता हैं जो अखबारों में एक सुबह छपी थी. विविधताएं, जो कम और कमजोर होती जा रही है और सब कुछ रंग सा जा रहा है एक रंग में उन्हें देख हैरत में पड़ती होगी एक चिड़ियां और ऋतुओं में कहीं और जाने की अपेक्षा कहीं और न जाना पसंद करती होगी. देश नहीं, दुनियां के सभी बाजारों का रंग एक हो चुका है और मिजाज की रंगत फीकी पड़ चुकी है. क्या ऐसे में बगैर सरहदों के देश वाली चिड़ियाओं को उस देश चले जाना चाहिए जहां हमारे देश के हर आदमी की पहली ख्वाहिश बसती है, जहां कब से जाने की जिद ठाने हुए है एक व्यापारी का बेटा. पर चिड़ियां न्यूयार्क से ज्यादा बस्तर में रहना पसंद करती हैं भले ही वे शिकार कर ली जाएं किसी आदिवासी तीर से. हर साल, हर समय हम वहीं जीना चाहते हैं जहां जीने की सबसे ज्यादा सम्भावनाएं मौजूद हों और अपने आस पास के लोग, भले ही वे ढंक दिए गए हों किसी कब्र के नीचे.
28 दिसंबर 2011
बगैर सरहदों के देश वाली चिड़ियाओं.
चन्द्रिका
अब तक यह तय नहीं हो सका कि यह किसकी लड़ाई थी और किसके लिए. देश के किसी मसौदे में प्रतिरोधों की कोई कहानी नहीं लिखी होती. गांधी के सिर्फ नाम जैसा चेहरा कहीं से उठता है और घिर जाती हैं सरकारें कि कौन जाने सरकारें ही घेर रही हैं लोगों को. भ्रष्टाचार की परिभाषाएं बनाता है हमारे देश का सबसे सशक्त प्रधानमंत्री और उसकी दाढ़ियों पर रेंगने लगता है जुगनुओं का एक झुंड पर वह जो दिखता है वह होता नहीं कि रोशनी अब उतनी ही बची है जितनी जलती बुझती किसी मोमबत्ती की आखिरी लव. देश के ढेरों हांथों में जल रही मशालों की आंच जुगनुओं की टिमटिमाती रोशनी में सिकुड़ जाती है. एक जिद्दी बुड्ढे की तरह वह राष्ट्र के सत्तासीनों को समझाइस देता है. क्या कोई अन्ना इस देश को बदलने के लिए काफी है. एक अदना सा आदमी जो न जाने कितनी जालों और सीखंचों के पीछे से बोल रहा है दूसरों की जुबान को अपने मुंह में घोल रहा है कि अपनी खुद की जुबान को बगैर किसी तराजू में रखे तोल रहा है. यह इस साल की सबसे अहम घटना में इसलिए जोड़ लेना चाहिए कि हम एक बार फिर कमजोर हुए और वह हमे मात दे गया. यह साल उसकी भूख हड़तालों की शोर में चीखता है महीनों और अखबारों से गायब हो जाती हैं वे खबरें जिन्हें पढ़ते हुए चाय की चुस्कियां लेते-लेते ठहर जाना चाहिए मध्यम वर्ग की समूची आबादी को. कोई नहीं जानता कि ठीक उसी वक्त बगैर भूख हड़ताल के निखालिस भूख के कारण मेलघाट छोड़कर दुनिया से कितनों ने विदा ली. भोपाल के एक हत्या में मारी गई उस महिला की कहानी लाल रंगों में दर्ज की जानी थी और चंद काले अक्षरों में स्याही को पोत कर अपना फर्ज अदा कर देता है टाइम्स आफ इंडिया. जब दूकाने बंद हुई थी शहरों की और गांधी की आस्था लौट रही थी भगवा चेहरों में उससे पहले कितने लोगों ने कितनी बार सोचा होगा कि बाजार बंद हो जाएं, हो जाए बाजार बंद हमेशा के लिए और हर जगह के लिए. यह बाजार सिर्फ एक दिन दूकानों के ताले लटकने से नहीं बंद होने वाला. कुछ और ही लटक जाता इन पर जैसे संविधान से उठकर लटक जाता समाजवाद जैसा कोई शब्द.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
I in the final analysis like the path you are posting!
जवाब देंहटाएंyou enjoy an provocative point of aim!
Best regards,
[url=http://www.cameredesupraveghere.eu/]Camere de supraveghere I CAN SEE[/url]
[url=http://www.cameredesupraveghere.net/]Camere de supraveghere I CAN SEE[/url]
[url=http://www.cameredesupravegherevideo.com/]Camere de supraveghere video[/url]
[url=http://www.supraveghere-video.net/]Supraveghere Video[/url]
[url=http://www.supravegherevideocamere.ro/]Supraveghere Video[/url]
[url=http://www.icansee.ro/]Camere de supraveghere I CAN SEE[/url]